tag:blogger.com,1999:blog-5853620981665233836.post936429494316287448..comments2024-03-25T11:26:27.348+05:30Comments on अपनी माटी: 'अपनी माटी' का 19वाँ अंक:दलित-आदिवासी विशेषांक/अतिथि सम्पादक-जितेन्द्र यादवGunwant http://www.blogger.com/profile/11902535333148574269noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-5853620981665233836.post-25071113002511010152022-04-14T19:19:00.865+05:302022-04-14T19:19:00.865+05:30अपनी माटी पत्रिका का दलित आदिवासी विशेषांक इन मायन...अपनी माटी पत्रिका का दलित आदिवासी विशेषांक इन मायनों में मुझे बेहद पसंद आया कि वह सच को बिना किसी लाग लपेट और डर के दलित और आदिवासी समाज की समस्याओं, जटिलताओं और उनके संघर्ष को प्रस्तुत करता है। यानी कि जो यथार्थ है सब ज्यों का त्यों पेश करना। संपादकीय पढ़कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि जिन विषयों पर बात करना आज के समय से सबसे ज़्यादा जरूरी है उन्हें धर्म की आड़ में (आसाराम जैसे बाबाओं या राधे मां जैसे माताओं के संदर्भ में) पीछे धकेला जा रहा ताकि अपने स्वार्थ की पूर्ति की जा सके। उनका एक मात्र लक्ष्य है आम जनता से लेकर शिक्षित व्यक्ति को अंधभक्त बनाकर ऐशोआराम की ज़िंदगी व्यतीत करना। इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति हेतु आज का प्रभुत्व या वर्चस्व वादी वर्ग एक तरफ आदिवासी समाज का शोषण कर रहा है वही दूसरी और दलित समाज को अछूत या शूद्र कहकर मुख्यधारा से अलग करता आया जबकि इनका स्वयं का कहना है वे मनुष्य की तरह समझे जाएं। आदिवासी अनेक समस्याओं और उनके संघर्ष को इस महत्वपूर्ण अंक में बयाँ किया गया। आदिवासी एवं दलित समाज के लेखकों के अलावा गैर आदिवासी और गैर दलित लोग भी इस सम्बंध में अपने विचार पेश कर रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था औऱ शासन की विकासवादी नीतियों से आदिवासी का जीवन नरक बन गया है तो ब्राह्मणवादी सत्ता या उच्च वर्ग ने दलित समाज को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सकारात्मक पहलू तो दूसरी तरफ ऐसे रचनाकार केवल अर्थोपार्जन, पदोन्नति या सम्मान प्राप्ति ले यह काम कर रहे हैं। संक्षेप में यह अंक कई मायनों में मुझे पठनीय लगा जिनमें आदिवासी व दलित समाज की समस्याओं को साहित्य के संदर्भ में समझने, उनकी वैचारिकी, आदिवासी के जल जंगल ज़मीन से जुड़ाव आदि संदर्भ महत्वपूर्ण हैं । आदिवासी और दलित विचारधारा को समझने के लिए साक्षात्कार भी इस अंक में संग्रहनीय है। संपादित अंक के लिए आप बधाई के पात्र है। साथ ही एक सुझाव यह कि यदि दोनों समाजों को अलग अलग अंको में सम्पादित किया जाता तो शायद इस अंक का महत्व अतुलनीय होता ऐसा मेरा मानना है।<br /><br /><br />सुशील कुमार, पीएचडी शोधार्थी<br />जम्मू सेसम्पादक, अपनी माटीhttps://www.blogger.com/profile/07960007382121871199noreply@blogger.com