शोध आलेख
वैचारिक पूर्वाग्रहों की शिक्षा : राजस्थान में स्कूली पाठ्यपुस्तकों का बदलता स्वरुप
विजय मीरचंदानी
एक बालक के समाजीकरण के विविध चरण होते हैं, जिनसे गुज़र कर वह समाज में प्रचलित मान्यताओं,
प्रक्रियाओं,
संस्थाओं के प्रति स्वयं को अभ्यस्त कर पाता है। इसी क्रम में शिक्षा,
बालक के समाजीकरण का एक प्रमुख माध्यम है और खासकर स्कूली शिक्षा और उससे जुड़े विविध घटक यथा : शिक्षक,
स्थानीय समुदाय,
शिक्षा नीतियां,
पाठ्यपुस्तकें और परीक्षा प्रणाली इत्यादि बालक
पर बहुत प्रभाव डालते हैं। समाजीकरण की इस प्रक्रिया में सरकारों या राज्यसत्ता के द्वारा स्कूली पाठ्यपुस्तकों की पहचान इस तरह की गयी है जो कि सत्ताधारी दल की वैचारिक मान्यताओं और विचारधारा को समाज में प्रसार के एक प्रमुख माध्यम की तरह देखती हैं। इस तरह पाठ्यपुस्तकें सरकारों का एक ऐसा साधन है, जिसका प्रयोग करके वह स्थायित्व चाहती है और इस प्रक्रिया में वह बच्चों और शिक्षकों के मध्य की अन्तर्क्रिया को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। इसके साथ ही पाठ्यपुस्तकों की छवि को ऐसे उपकरण के रूप में देखा जाता है जिससे अधिकारिक ज्ञान का एक ऐसा ताने-बाने का निर्माण किया जाता है जिससे कि सामाजिक यथास्थिति बनी रहे। राजस्थान के संदर्भ में उक्त सभी अभिकथन सत्य दिखाई पड़ते हैं जहाँ विगत बीस वर्षों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हर बार सरकार के बदलने के साथ ही स्कूली पाठ्यपुस्तकों में कभी आंशिक स्तर पर बदलाव होते हैं तो कभी नये सिरे से पाठ्यपुस्तकें लिखवाई जातीं हैं। इसी क्रम में इस लेख में राजस्थान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में विगत बीस वर्षों से हो रहे बदलावों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के साथ ही इन बदलावों की प्रकृति को भी जांचने की कोशिश की गयी है और इस बात का विश्लेषण किया गया है कि पाठ्यपुस्तकों में हो रहे बदलाव शिक्षाशास्त्रीय नज़रिए से कितने सही हैं?
स्कूलों में पाठ्यपुस्तकें विद्यार्थियों को शिक्षा देने का एक प्रमुख माध्यम है। हालाँकि महात्मा गाँधी और बुनियादी तालीम से जुड़े कई विचारक शिक्षण कर्म हेतु पाठ्यपुस्तकों पर ज्यादा निर्भर होने के हमेशा विरोधी रहे हैं। पर चूँकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली का पूरा ढांचा औपनिवेशिक काल की देन है इसलिए राज्यसत्ता का प्रभाव शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक घटक पर किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता ही है। विगत दो दशकों से राजस्थान की स्कूली किताबें सरकार में परिवर्तन के साथ कभी छोटे रूप में तो कभी आमूलचूल रूप से बदलती रही हैं। यह परिवर्तन मुख्य रूप से मानविकी और समाज विज्ञान विषयों में होते रहे हैं। परन्तु पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रम में लगातार हो रहे ये परिवर्तन न तो आज के समय में रोज़गार एवं जीवन की ज़रूरतों को पूरा करते हैं और न ही राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में वर्णित शिक्षाशास्त्रीय मानदंडों पर खरा उतरते हैं। इसके ठीक उलट पाठ्यपुस्तकों में हो रहे बदलावों और उसकी पाठ्यवस्तु पर संकीर्ण राजनीतिक सोच,
विचारधारा और सत्ता का चरित्र हावी रहती हैं।
राज्यसत्ता या सरकार ने हमेशा,
शिक्षा व्यवस्था का प्रयोग अपनी नीति और प्रभाव के क्षेत्र को आगे बढ़ाने तथा अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिये किया है। यह बात,
उपनिवेशी भारत में आज़ादी के पहले भी उतनी ही सही थी,
जितनी आज़ादी के बाद आज है। स्कूली शिक्षा में शिक्षण व्यवस्था के विभिन्न अवयव जैसे शिक्षण पद्धति,
शिक्षक प्रशिक्षण,
शिक्षा प्रशासन,
परीक्षा प्रणाली और यहाँ तक कि स्कूल में माहौल की कल्पना इत्यादि में सत्ता में रही राजनीतिक पार्टियों ने अपनी विशिष्ट राजनीतिक रुझानों के अनुसार प्रभावित करने का प्रयास किया है। इस क्रम में सरकारें स्कूली पाठ्यपुस्तकों को एक ऐसे स्पेस के रूप में देखती हैं जहाँ वह आसानी से अपने राजनीतिक एजेंडे और विचारधारा को सीधे आने वाली पीढ़ी में हस्तांतरित कर सकती हैं। राजस्थान सहित देश के कई राज्यों में सरकार बदलने के साथ पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन हो जाता है और इसक प्रकार पाठ्यपुस्तकें,
ज्ञान और सीखने के एक माध्यम के बजाय राजनीतिक पार्टी की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने लगती हैं।
इसी सन्दर्भ में अगर राजस्थान की चर्चा की जाये तो ऊपर लिखी बातें एकदम सटीक सिद्ध होती हैं। पिछले दो दशकों से अधिक समय से राजस्थान में सरकार बदलते ही प्रचलित स्कूली पाठ्यपुस्तकों की
समीक्षा का दौर शुरू हो जाता है। कभी पाठ्यपुस्तकों में पार्टी लाइन के आधार पर बदलाव किये जाते हैं और कभी पाठ्यक्रम को आधार बनाकर मनचाही पाठ्यवस्तुओं को पुस्तकों का हिस्सा बना दी जाती हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी,
दोनों ही पार्टियों ने सत्ता में आते ही पिछली सरकार में चल रही पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा कर या तो उनमें परिवर्तन किया या फिर पूरी पाठ्यपुस्तकें ही बदल दीं।
वर्ष 2003 में राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार बनी और प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर नये पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का निर्माण शुरू हो गया। यह किताबें अपने पूर्ण स्वरुप में 2006 तक सामने आ पायीं और इसके ठीक दो बर्ष बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार चुनाव हार गयी और दिसंबर 2008 में अशोक
गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी। इस सरकार ने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान की प्रचलित पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा के लिए एक तीन सदस्यीय समिति बनाई, जिसका उद्देश्य उक्त बातों को जांचना था - पहला,
क्या पुस्तकों में भारत के संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता,
समाजवादी एवं गणतंत्रात्मक स्वरुप के विपरीत सामग्री का समावेश किया गया है?
दूसरा,
क्या पुस्तकों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ऐसी कोई सामग्री शामिल की गयी है जो कि साम्प्रदायिकता/स्थानीय संकीर्णता/अलगाववाद/रुढिवादिता/ एवं अन्धविश्वास को प्रोत्साहित करती हो?
तीसरा,
क्या पुस्तकों में ऐसे उद्धरण,
संदर्भ सहित लेख शामिल किये गये हैं जो कि भारतीय गणतंत्र के बहुधर्मी,
बहुभाषी,
एवं बहुक्षेत्रीय स्वरुप के उल्लंघन करते हैं?
चौथा,
क्या पुस्तकों में ऐसे व्यक्तियों को स्थान दिया गया है जिहोंने कभी न कभी या कहीं भी देश की उदारवादी एवं सर्वस्वीकार्यता को आत्मसात करने, सहिष्णु संस्कृति को चुनौती दी हो?
पांचवां,
पुस्तकों में ऐसी सामग्री न हो जो लिंग भेद को बढ़ावा देती हो। छठा,
क्या महानायकों जैसे गाँधी,
नेहरु,
विवेकानंद,
आदि के बारे में लेखन के माध्यम से तथ्यों का तोड़ा-मरोड़ा गया है, या पाठ्यक्रम में शामिल विभिन्न विषयवस्तु के स्वरुप को विकृत किया है?
इस पाठ्यपुस्तक समीक्षा समिति ने उपरोक्त आधारों पर पुस्तकों की समीक्षा की और राज्य सरकार को अगले शैक्षिक सत्र के लिए उच्च माध्यमिक स्तर पर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें लागू करने की अनुसंशा कर दी और राजस्थान में सत्र 2011-2012 से उच्च माध्यमिक स्तर पर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें लागू हो गयीं और उच्च प्राथमिक स्तर तक की नयी किताबों को लिखने का ज़िम्मा एसआईईआरटी उदयपुर को मिला जिसकी बनायीं पाठ्यपुस्तकें सत्र 2013-14 से लागू
हुईं।
इसी वर्ष दिसंबर 2013 में राजस्थान में फिर सरकार बदली और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी जिसने पिछली सरकार के फैसले को पलटकर प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर पर फिर से नई किताबें लिखवाने का निर्णय किया। इस सरकार के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी के इस फैसले की चौतरफा आलोचना हुई। आलोचना का मुख्य आधार यह था कि यह किताबें बहुत जल्दबाजी और हड़बड़ी में लिखी गयीं हैं और इसमें पाठ्यपुस्तक निर्माण के शिक्षाशास्त्रीय मानदंडों को हाशिये पर डाला गया। साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को पूरी तरह प्रोत्साहित किया गया है। 2016-17 और 2018 इन
तीन सत्रों के लिए यही पाठ्यपुस्तकें चलीं और दिसंबर 2018 में राजस्थान में हुए चुनावों में एक बार सत्ताधारी दल बदल गया और अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। इस सरकार के आने के बाद राजस्थान में फिर से प्रचलित पाठ्यपुस्तकों पर बहस शुरू हो गयी। इसी के साथ राज्य सरकार ने उच्च प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर दोनों पर अलग-अलग समिति बनाकर पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा करवाई जिसने सत्र 2019-2020 के लिए चल रही पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा कर इनमें अनेक अंशों को जोड़ा या कम कर दिया, जिनका आधार तथ्यात्मक या वैचारिक था। इसी क्रम में शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने यह घोषणा कर दी कि सत्र 2020-21 से राजस्थान में कक्षा 6-12 तक एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें लागू की जाएँ।
इस प्रकार हम समझ पाते हैं कि राजस्थान में पिछले 20 वर्षों में जहाँ हर पांच साल में सत्ताधारी दल बदल गया, वहीँ पाठ्यपुस्तकों में छोटे या बड़े रूप में पांच बार परिवर्तन हुआ, जिसमें से तीन बार क्रमश: 2011, 2016, 2020 में पूरी
पाठ्यपुस्तकें ही बदल दी गयीं। इन परिवर्तनों में दलगत विचारधारा हमेशा हावी रही है। पाठ्यपुस्तकों के बदलाव,
निर्माण या समीक्षा की समितियों में भी किसी शिक्षाविद या विशेषज्ञ के स्थान पर सरकार के चहेते ही स्थान पाते रहे हैं, जिसका नतीजा यह हुआ है कि पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु का तो पतन हुआ ही साथ ही पाठ्यपुस्तक निर्माण के शिक्षाशास्त्रीय सरोकार एवं शिक्षा के उद्देश्य हाशिये पर चले गये हैं। पाठ्यपुस्तकों में इस प्रकार हो रहे परिवर्तन हमेशा विवाद को जन्म देते रहे हैं। इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के संप्रदायीकरण और तथ्यों से छेड़छाड़ के विवाद इसी के उदाहरण हैं। यदि गौर से देखा जाये तो इस प्रकार के विवाद किसी भी सूरत में न विद्यार्थियों के हितों में हैं न ही शिक्षा प्रणाली को इससे किसी प्रकार का लाभ हो रहा है। केवल दलीय विचारधारा को पुष्ट करते यह विवाद हमेशा तथ्यों को एक खास वैचारिक चश्मे से देखने के परिणाम होते हैं जहाँ शिक्षा के वृहत्तर उद्देश्यों का हाशियाकरण हो जाता है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 ने शिक्षा के लक्ष्यों पर विस्तार से चर्चा की है। इसके साथ ही राष्ट्रीय फोकस समूहों ने आधार पत्रों के माध्यम से हर विषय में प्राथमिक,
उच्च-प्राथमिक,
माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक स्तर पर पढने-पढ़ाने और सीखने के तरीकों सम्बन्धी बारीकियों को भी रेखांकित किया है। एनसीएफ-2005 के आधार
पत्र ने पाठ्यपुस्तक निर्माण के अकादमिक और शिक्षाशास्त्रीय पहलूओं की चर्चा की है। ये पहलू बाल केन्द्रित शिक्षा,
स्थानीय सन्दर्भ में ज्ञान,
और रटंत शिक्षा से मुक्ति और कक्षा के समाज से जुड़ाव इत्यादि पर केन्द्रित हैं। राजस्थान की पाठ्यपुस्तकों में इन सबका अभाव दिखता है। खासकर उच्च माध्यमिक स्तर की किताबों की विषयवस्तु वैचारिक पूर्वाग्रहों से भरी हुई दिखाई पड़ती है और शिक्षा के मूल दर्शन के विपरीत विद्यार्थियों को किताब रटने की ओर प्रेरित करती है। इन किताबों में कई तथ्यात्मक गलतियाँ भी हैं और पाठ्यवस्तु बच्चों के स्थानीय सन्दर्भ से पूरी तरह कटी हुई है। इन पुस्तकों में बच्चों के अनुभवों को सामने आने के लिए शिक्षक और विद्यार्थियों अंतर्क्रिया को सीमित करती है। इन किताबों में विषय से जुड़ी गत्यात्मकता का अभाव है और बच्चों को बाहरी जीवन से जोड़ने में नाकाफी सिद्ध होती हैं। इसके साथ-साथ राज्य स्तर पर लिखी हुई पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण करने से यह भी ज्ञात होता है कि बालकों के समझने से ज्यादा परीक्षा में नंबर लाने के लिए पाठ्यवस्तु का निर्माण किया गया है,
जहाँ तथ्यात्मकता,
रचनात्मकता पर हावी है।
इस प्रसंग में हम यह भी समझ पाते हैं कि पाठ्यपुस्तक लेखन के लिए, जिन लेखकों को चुना जाता है उनमें इस कार्य को करने के लिए पेशेवर कौशल अपर्याप्त है। लेखकों में पाठ्यपुस्तक निर्माण की मौलिक समझ,
लेखन कौशल और ज्ञान की कमी है। सामान्य परिघटना यह है कि पाठ्यपुस्तक लेखन समूह में केवल समान विचारधारा के लोगों को ही शामिल किया जाता है। इस पूरे घटनाक्रम में दुखद स्थिति यह है कि राजस्थान में उच्च माध्यमिक स्तर पर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान और उच्च प्राथमिक स्तर तक राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद जैसी महत्वपूर्ण स्वायत्त संस्थाएं अपने-अपने मौलिक उद्देश्यों को पूरा करने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुई हैं। सरकारी दबाव,
नौकरशाही नेतृत्व और नाममात्र की स्वतंत्रता के कारण ये संस्थाएं अपने उद्देश्यों जैसे कि अकादमिक नेतृत्व कर सकना और अनुसन्धान को प्रेरित कर पाने में नाकाफी सिद्ध हुई हैं। परिणामस्वरुप पाठ्यवस्तु में सुसंगतता और अखंडता स्थापित नहीं हो पाई और पाठ्यपुस्तकों में दलगत विचारधारा हावी होती चली गयी। इस सन्दर्भ में यह तर्क ठीक दिखाई देता है कि पाठ्यपुस्तकें समय-समय पर बच्चों की आवश्यकता पूरी करने के लिए सामायिक बनाया जाना चाहिए और बदलाव करना ज़रूरी है परन्तु पाठ्यपुस्तकों में हो रहे ये बदलाव आधुनिक समय की ज़रूरतों को कम और सरकार दलगत विचारधारा को ज्यादा महत्व देती हुई दिखाई पड़ती हैं। जहाँ तथ्यों को अपने वैचारिक चश्मे के आधार पर बच्चों के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता है और बालकों के ‘सीखने’ को केवल पाठ्यपुस्तक और कक्षा तक सीमित कर दिया जाता है।
आज अकादमिक और शैक्षिक जगत में यह बात स्थापित हो चुकी है कि पाठ्यपुस्तकें ज्ञान का कोई अंतिम स्रोत नहीं हैं बल्कि बच्चों तक सूचनाओं और जानकारी पहुँचाने का मात्र एक जरिया है और यह बच्चों की अपने आस-पास के वातावरण को समझने और आलोचनात्मक नज़रिए को विकसित करने का केवल एक माध्यम है। इस प्रकार यह कथ्य सीधे एनसीएफ 2005 में वर्णित शिक्षा के लक्ष्यों से जुड़ती हैं जो कि ‘सीखना’ और ‘मानने के बजाय जानना’
पर जोर देती है और बच्चों के स्वयं के अनुभवों को हमेशा प्राथमिकता देती है। परन्तु शिक्षा के इस महत्वपूर्ण तत्व पर आत्मकेंद्रित संकीर्ण राजनीति हावी रहती है और बाल केन्द्रित शिक्षा के लक्ष्य पीछे छूट जाते हैं। यहाँ इस तथ्य पर ध्यान जाता ही है। सरकारों के पास किसी प्रमाणिक शोध के आधार पर इस बात का कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है कि पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु और उसकी संरचना में होने वाले परिवर्तनों का कोई भी प्रभाव विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है या नहीं। तब ऐसी हालत में पाठ्यपुस्तकों से किसी भी सरकार द्वारा छेड़छाड़ करना केवल सत्ता के निरंकुश चरित्र को ही दर्शाता है।
राजस्थान की राज्य-राजनीति में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का ही प्रभुत्व है। जहाँ एक ओर कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में लिखी गयीं पाठ्यपुस्तकों पर यह यह आरोप लगाती है कि पुस्तकें आरएसएस-भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ाने वाली हैं और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस के शासनकाल में लिखी पुस्तकों पर यह आरोप लगाती है कि इन पुस्तकों में देश के स्वर्णिम इतिहास को बिलकुल तरजीह न देकर आधुकनिकता और विकास के पश्चिमी प्रतिमान को विषयवस्तु का आधार मानती है। इस प्रकार दोनों पार्टियां और इनसे जुड़े अनुषंगी संगठन विचारधारा के आधार पर एक दूसरे का विरोध करते हुए नज़र आते हैं परन्तु पाठ्यपुस्तक निर्माण के शिक्षाशास्त्रीय और तकनीकी मुद्दे दोनों ही दलों की प्राथमिकता में नहीं हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि राजस्थान की राज्य-राजनीति का स्कूली पाठ्यपुस्तकों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और विचारधारा ही पाठ्यपुस्तक परिवर्तन की चालक शक्ति रही है। साथ ही स्वायत्त संस्थाएं भी विभिन्न कारणों से अपनी भूमिका को नहीं पूरा कर पायी हैं। परन्तु सारे प्रश्न केवल शिक्षाशास्त्रीय एवं पाठ्यपुस्तक निर्माण के तकनीकी मसलों पर ही जाकर सिमट नहीं जाते हैं। प्रश्न यह भी उठता है कि पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं और इस समाज के आदर्श, संविधान के मानवीय मूल्यों से तय होंगे या फिर किसी पार्टी के दफ्तर या उसकी विचारधारा से? अगर किसी पाठ्यपुस्तक की विषयवस्तु समाज की विविधता को समाप्त करने में योगदान दे, समाज में समानता और न्याय को पोषित करने के बजाय लोगों में परस्पर वैमन्यस्यता को बढ़ाये तो यह देश के सर्वोच्च कानून की मुखालफत ही करेगी। आज इस समय की ज़रूरत यह है कि बच्चे किसी पार्टी विशेष की विचारधारा के समर्थक बनने के बजाय समग्रता के साथ तथ्यों को समझ पायें, स्वयं को अभिव्यक्त कर सकें, स्वयं में आलोचनात्मक रवैये को विकसित कर पायें और एक बेहतर नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी समझ कर आगे बढ़ पायें।
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विजय मीरचंदानी
(कुछ समय अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन,
जिला संस्थान बाँसवाड़ा में कार्य करने के पश्चात उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो के रूप मे शोधरत।)
9462519833, vijaymirchandani303@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)
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