आगामी विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अतिथि सम्पादक
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष, चित्रकला विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
सम्पर्क : 9413346213
संदीप कुमार मेघवाल
सहायक आचार्य, दृश्यकला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
सम्पर्क : 9024443502, sandeepart01@gmail.com
आलेख भेजने की अंतिम तिथि 15/09/2024, अंक प्रकाशन की तिथि 30/11/2024
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प्रस्तावना :
दृश्यकला
का सम्बन्ध मानव
उत्पति के इतिहास से जुड़ा हुआ है। प्रागैतिहासिक मानव ने सर्वप्रथम
अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए शिलाचित्रोँ पर रचना की थी। यह शिलाचित्र मानव
उत्पति इतिहास के प्रथम श्रोत हैं। मानव की अन्य सहज प्रवृतियों के साथ-साथ चित्रण
भी आरंभ हो गया। इसमें उनकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के साक्ष्य सर्वविदित है। इनके चित्र
अभिव्यक्ति में सामाजिक, सांस्कृतिक एवँ वैचारिक
जन-जीवन की झांकी हैं। आखेट, जादू-टोना, विश्वास, भय, लक्ष्य, विजय,
उत्सव, उद्देश्य एवं जीव-जन्तुओं के चित्र वाकई
सांस्कृतिक जीवन के जीते-जागते उदाहरण हैं। प्रागैतिहासिक काल मे शिलाचित्रोँ के
आलावा लिखित या शिलालेख जैसे प्रमाण नहीं मिलते हैं। यहाँ से प्राप्त शिला चित्र
ही इनकी चित्रात्मक भाषा के प्रमाण हैं।
आज दृश्यकला का दायरा
प्रागैतिहासिक से आधुनिक काल तक अनवरत विस्तृत होता गया है। दृश्यकला कई मुख्य एवं
गौण विषयों के रूप मे पढ़ाया जाता है। कालान्तर में दृश्यकला के कई विषय एवं उप
विषय प्रचलित हुए हैं। लेखन की दृष्टि से जिस प्रकार प्रागैतिहासिक मानव ने
भाव-अभिव्यक्त के लिए चित्र बनाए, उसी प्रकार आधुनिक दौर मे भी यह परम्परा बरकरार
रही है। भारत में जैसे भीमबेटका, पंचमढ़ी, होशंगाबाद इत्यादि अनेक उदाहरण हैं। चित्र अभिव्यक्ति को शब्द नहीं मिले यानी
व्याख्या, समीक्षा, आलोचना का विषय अछुता रहा है। आधुनिक दृश्यकला भी आनंदानुभूति तक
सिमित रही है। सृजन का मूल विचार-भाव दर्शक स्वयं समझते हैं। कला का व्यावसायीकरण
ज़रूर हुआ है। अगर चित्र पर कला समीक्षक ने समीक्षा लिख दी, तो
कलाकार भी सहजता से उस समीक्षा को स्वीकार कर लेता है। सामान्यतः कलाकारों में लेखन
परम्परा का अभाव होता है। आम दर्शक का अक्सर प्रश्न होता है, कि यह चित्र क्या
संदेश दे रहा है?
यह अभिव्यक्ति की आदिकालीन परम्परा रही है, चित्र स्वयं बोलता
है। चित्रकार को बोलने या लिखने की आवश्यकता नही रहती। कलाकार के विचारों से कई
बार दर्शक संतुष्ट नहीं हो पाता है, मनगड़ंत कहानियां चलती हैं। इस अछूते विषय पर
भरपूर शोध संभावनाएं हैं।
आज कला की अनन्य शाखा
के रूप में कला इतिहास एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। हरेक विषय का अपना
इतिहास होता है। विषय का ऐतिहासिक कालक्रम होता है। किसी भी विषय का ऐतिहासिक
ब्यौरा होना आवश्यक है। इतिहास के सहारे ही हम उस विषय की गंभीरता, शोध सम्भावना, विश्लेषण, समीक्षा
एवं समाजोपयोगी महत्व को समझ सकते हैं। दृश्यकला के विषय में प्राय: अन्य विषय की
तुलना में लेखन कार्य कम देखने को मिलता है। दृश्यकला अपने आप में एक दृश्यभाषा है,
इस दृष्टि से लेखन परम्परा का विकास नहीं हुआ है। कलाकार की कला-कर्म
में व्यस्तता से यह शोध लेखन जैसे विषय अछूते रह गए हालांकि पिछले कुछ वर्षों में
लेखन कार्य होने लगा है। कला-इतिहास को अलग विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है।
लेकिन अभी भी बहुत कम शोध कार्य हुआ है। बंगाल स्कूल के आंदोलन एवं कला गुरु अवनींद्रनाथ
टेगौर, नन्दलाल बोस की अगुवाई में ‘स्वदेशी आंदोलन’ के तहत
देशज कला से प्रेम करना सिखाया। इसके परिणामस्वरूप देशज कला पर सर्जन के साथ लेखन
कार्य भी हुआ। आज कई कलाकारों को स्वयं की कलाकृति पर लिखने या बोलने को कहें तो आनाकानी
करने लगते हैं। कई कारणों से दृश्यकला क्षेत्र में लेखन एवं शोधकार्य कम हो सका
है। आज जितना भी थोड़ा बहुत समीक्षा लेखन कार्य हो रहा है वह अन्य विषय के लेखक कर
रहे हैं जिससे कलाकार की मूल अभिव्यक्ति से साक्षात्कार नहीं हो पाता है। कलाकार
स्वयं कृति के बारे में लिखे तो वह लेखन सत्य के ज़्यादा करीब होता है। इसी भावना
के साथ आज के समय की मांग के अनुरुप वृहद् स्तर पर लेखन की आवश्यकता है। आज
दृश्यकला विषय का विस्तार कई शाखाओं के रूप में हुआ है, जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, व्यावहारिक कला, कला
इतिहास के अंतर्गत भी कई मुख्य विषयों का विस्तार हुआ है। इन सभी मुख्य एवं गौण
विषयों को लेकर गंभीर लेखन की आवश्यकता है। समकालीन कला में नई तकनिक, विधि-विधान
एवं प्रयोग लगातार हो रहे हैं। सोशल मीडिया से कला के प्रसार-प्रचार एवं
व्यावसायिक परिवर्तन हुआ है। इन तमाम विचारों को इस दृश्यकला विशेषांक में समेटना
हैं।
विशेषांक का उद्देश्य :
- · भारतीय कला परम्परा एवँ आधुनिक काल की वर्तमान स्थिति पर मंथन।
- ·
आमजन
में दृश्यकला के इतिहास, विभिन्न शैलियों,
तकनीकी पहलुओं और सामाजिक प्रभाव से परिचित कराना।
- · कला
पुरस्कार विजेता, कला समीक्षकों द्वारा दृश्य कला
और आमजन की भूमिका सहित ऐतिहासिक कला प्रदर्शनियों की जानकारी प्राप्त करना।
- ·
दृश्यकला
में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ जैसे कलाकारों, कला संयोंजको, समीक्षकों के साथ साक्षात्कार करना।
- ·
दृश्यकला
से सम्बंधित विभिन्न विषयों जैसे आधुनिक एवं समकालीन कला, लोक कला, आदिम कला और विभिन्न चुनोतियाँ, पर गहन लेख
और विश्लेषण प्रकाशित करना।
- ·
कला
दीर्घाओं, स्वतंत्र कलाकार और अकादमिक एवं नीलामी
घर के योगदान पर प्रकाश डालना।
- · कला में माध्यम एवं तकनीकी प्रयोग की अवधारणा पर प्रकाश डालना।
- · आमजन में दृश्यकला की समझ विकसित करना।
- · कला बाज़ार एवं संभावना की वस्तुस्थिति से परिचय कराना।
- · कला शिक्षा स्थिति एवं भविष्य पर चिंतन करना।
- · कला संस्थाओं की भूमिका से परिचय करना।
- · कला में सोशल मीडिया का प्रभाव एवं योगदान समझना।
विशेषांक के उप-विषय :
- · भारतीय
दृश्यकला की प्राचीन अवधारणाएँ
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चित्रकला, मूर्तिकला पर आधुनिक दृष्टि
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स्वतंत्रता
में दृश्यकला की भूमिका
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दृश्यकला
का समकालीन परिदृश्य
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वैश्विक
कला परिदृश्य में भारतीय दृश्यकला की अवस्थिति
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भारतीय
लोक चित्रण परम्पराएं एवं समकालीन स्थिति
- ·
दृश्यकला
में सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा एवं आधुनिक विचार
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प्रमुख
समकालीन दृश्य कलाकार
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दृश्यकला
में नए चलन एवं रंग-विधान
- ·
दृश्यकला
में बाज़ार की स्थिति
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कला
दीर्घाओं एवं नीलामी घर की भूमिका
- ·
कला
विद्यार्थियों की वस्तुस्थिति
- ·
कला एवं
शिक्षा व्यवस्था पर वैचारिकी
- ·
कला एवं
शोधकार्य भूमिका
- ·
कला
इतिहास लेखन एवं विकास
- ·
साक्षात्कार
- ·
संस्मरण
- ·
प्रमुख
व्यक्तित्व
- ·
कला
समीक्षा
- · क्षेत्रीय कला दीर्घा
- लेख में अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा के उदाहरण का उपयोग करते हुए उसका मूल फुटनोट में अवश्य दें,उदाहरण के स्थान पर उसके अनुवाद क उपयोग करें.
- संदर्भ के लिए एम.एल.ए. शैली का उपयोग कर्ण, उदाहरण के लिए अपनी माटी पत्रिका के संदर्भ शैली यहाँ देंखें – https://www.apnimaati.com/p/infoapnimaati.html