साझेदारी का अनुभूति-पक्ष @अपनी माटी: जितेन्द्र कुमार एवं हेमंत कुमार

साझेदारी का अनुभूति-पक्ष @अपनी माटी
(‘अपनी माटी’ के लिए सम्पादन सहयोगी साथियों के अनुभव)


1. ‘अपनी माटी’ तक की सुखद यात्रा / जितेन्द्र कुमार, प्रूफ रीडर्स क्लब सदस्य, जौनपुर -

पीएचडी में दाखिला लेने के पूर्व से ही मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेख भेजा करता था। भेजने के इसी क्रम में ‘अपनी माटी’ पत्रिका को भी मैंने यूजीसी की वेबसाईट पर देखा। पत्रिका मुझे ‘यूजीसी केयर लिस्टेड’ मिली तो मन थोड़ा और उत्कण्ठित हुआ कि देखा जाए इस पत्रिका में किस प्रकार के लेख छपते हैं? उसके बाद से मैंने इस पत्रिका के प्रत्येक अंकों का गहन अध्ययन करना शुरू किया और मैंने यह पाया कि इसमें छपे हुए लेख बड़ी ही बारीकी और बहुत ही अच्छी विशेषता के साथ ही छापे जाते हैं। इस पत्रिका में प्रकाशित लगभग हर कॉलम बड़ा ही संजीदा होता है। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि इस पत्रिका में प्रूफ रीडर के लिए एक विज्ञापन निकला हुआ था। मैंने इस पत्रिका से जुड़ने के लिए संबंधित ईमेल पर अपनी आवश्यक एवं शैक्षिक योग्यताएं प्रेषित कर दी। इसके बाद पत्रिका के संपादक माणिक सर से मेरी पहली बार बात हुई। उनकी बात करने की शैली ने मुझे खूब प्रभावित किया। उन्होंने प्रूफ्र रीडिंग के लिए आवश्यक सभी निर्देशों को मुझे समझाया। उन्होंने आगे हँसते हुए मुझसे कहा कि “जितेन्द्र भाई! यह काम पूर्णतया अवैतनिक है। तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं?” मुझे तो बस इस पत्रिका से जुड़ना था और मैं आगे भी इस पत्रिका से जुड़ा रहना चाहता हूं क्योंकि वेतन मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। इसलिए मैंने तुरंत सहर्ष अपनी इच्छा व्यक्त कर दी। इस पत्रिका से जुड़ना मेरे लिए अत्यंत गौरव की बात थी। इसमें पैसे की तो कोई भूमिका ही नहीं थी। बस फिर क्या था?

सर ने मुझे अपने इस पत्रिका के लायक समझते हुए प्रूफ्र रीडिंग का काम सौंप दिया। तब से लेकर आज तक मैं अनवरत इस पत्रिका के साथ जुड़ा हुआ हूं। इस पत्रिका के संपादक का व्यवहार मेरे लिए एक श्रेष्ठ गुरु, एक अच्छे मित्र और एक आदर्श पथ प्रदर्शक के रूप में ही रहा है। इस पत्रिका में आने वाले प्रत्येक लेख सारगर्भित, उच्च एवं सुव्यवस्थित लेखकीय शैली से ओत-प्रोत होते हैं। उन साथियों को मेरा यह संदेश है कि यदि किन्हीं कारणों से आपका लेख या आपकी कोई अन्य लेखकीय सामग्री यदि इसमें प्रकाशित न हो सकी है अथवा न होने पाई है, तो आप तनिक भी विचलित ना होइए। आप पुनः प्रयास कीजिए। हो सकता है आपके प्रयास में थोड़ी सी कमी रह गई हो इसीलिए आपकी सामग्री प्रकाशित न हो सकी क्योंकि इसमें प्रकाशित होने वाली प्रत्येक सामग्री अपने उच्च मापदंडों एवं शुद्ध व्याकरणिक दृष्टिकोण से अपने आदर्श कलेवर में ही प्रकाशित होती है। अतः आपसे पुनः अपेक्षा की जाती है कि आप प्रकाशन न हो सकने की स्थिति में धैर्य बनाए रखें और पुनः एक नई आशा, ऊर्जा एवं विश्वास के साथ अपनी सामग्री प्रेषित करें। हमें भी आपके उस आदर्श सामग्री को लेने में उत्कंठा रहती है। इसलिए आप अपने विचार अपने लेख, कविताओं या निबंधों के माध्यम से हम तक जरूर प्रेषित करें। इस पत्रिका के साथ जुड़े रहने से मेरे साहित्यिक एवं शैक्षिक जीवन में उत्तरोत्तर वृद्धि ही हुई है। एक प्रूफ रीडर के रूप में मैंने यह देखा है की रिव्यू टीम द्वारा चुने गए लेख जब हम लोगों की समक्ष आते हैं तो उन लेखों में आदर्श लेखकीय शैली एवं उच्च साहित्यिक मापदंड दृष्टिगोचर होते हैं, जो साहित्य साधकों के लिए पूर्ण अधिगम का काम करते हैं। समय-समय पर जो दिशा-निर्देश एवं सुझाव मिलते हैं उससे हम काफी लाभान्वित होते हैं।

2. 'अपनी माटी' अपनी नज़र में / हेमंत कुमार, सह-सम्पादक, सीकर (राजस्थान) -

भीतर का संकोच हटाए नहीं हटता। कोई इस्त्री की दुकान ऐसी न मिली जो व्यक्तित्व पर पड़ी संकोच की चादर की सिकुड़न निकाल दे। जब शोधार्थी था तब शोधालेखों के प्रकाशन की अनिवार्य संख्या तक पहुँचने के लिए साथियों द्वारा सुझाई बहुभाषिक एवं बहु-अनुशासनिक पत्रिकाओं की भुगतान शर्तों को पूरा करते हुए आलेख भेजे। भेजने को सरकारी संस्थान की पत्रिकाओं में एकाध लेख भिजवाया पर वह तब छपा जब उसकी जरूरत न रह गई थी। इधर कहावत है -' होळी पच्छै घाघरो मार खसम के मूँड'। अर्थात् होली के त्योहार गुजर जाने के बाद पति ने नया घाघरा लाकर दिया है तो यह उसी के सिर मार दो। अब इसकी जरूरत न रही। 'का बरसा जब कृषि सुखाने।' इसी सिलसिले में एक कलकतिया पत्रिका ने कहाँ पहले सदस्यता लीजिए, तब बात हो पाएगी। सदस्यता के बाद उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया। वे शायद व्यस्त थे, मैं अस्त-व्यस्त। कुछ दिनों बाद किसी परिचित ने बताया कि राजस्थान से ही कोई पत्रिका निकलती है 'बड़ी ई' वाली पत्रिका। उसमें बिना सिफारिश और बिना गुजारिश भी छपने लायक चीज छप जाती है। केयर लिस्टेड भी है। मन ही मन सोचा गप्प हाँक रहा है। पत्रिका में तो छोटी इ की मात्रा आती है। बड़ी ई वाली 'पत्रीका' हमने तो कोई देखी नहीं। आजकल की पत्रिकाएँ तो 'चेयर लिस्टेड' होती हैं। बिना किसी बड़ी चेयर की लिस्ट में जुड़े 'केयर लिस्टेड' कैसे हुई होगी। और अपना काम तो निकल गया है। जैसे कैकेई को दो वरदान चाहिए थे। वैसे ही हमें भी बस दो आलेख चाहिए थे जो 'दुई के चार माँग बरु लेई' की तर्ज पर चार हो गए थे। अपन न ऐसे लिखाड़ू , न जुगाड़ू । जाने दो कौन फोन करे। सामने कितना बड़ा आदमी हो, कितना व्यस्त हो! बाएँ हाथ का लिखा माँगे कि दाएँ हाथ का। छोड़ो चक्कर!

फिर हम मास्टर से महामास्टर हो गए। विद्यालय से महाविद्यालय पहुँच गए। महामास्टरों के एक वाट्सएप ग्रुप में एक सूचना देखी कि फला तारीख तक फला पत्रिका में शोधालेख भेजा जा सकता है। महामास्टरी करते दो-ढाई बरस अकारथ बीत गए -आए थे हरि भजन को ,ओटन लगे कपास।' हरि भजन तो उतना भर हुआ जितना वक्त कपास ओटने के बाद बच जाता था या हम प्रभारी अधिकारी को टरकाकर कपास कक्ष से कक्षा कक्ष में पहुँचने में भी सफल हो जाते थे। तब हमारे व्यक्तित्व को निचोड़ कर एक निष्कर्ष टपकाया गया कि ' ये अभी स्कूल मोड से बाहर नहीं निकल पाए हैं। महाविद्यालय में विद्यालय की तरह नियमित कक्षाएँ ….।'

महाविद्यालय वाले कई अर्थों में 'महा' होते हैं। विश्वविद्यालय वाले विश्वविद्यालय का 'विषविद्यालय' उच्चारण यों ही तो नहीं करते होंगे। आखिर उन्हें तो अज्ञेय के प्रश्न का उत्तर पता ही होगा -' विष कहाँ पाया?' महामास्टर समूह के दो मित्र उस पत्रिका के सम्पादक मंडल में थे। मैंने हिम्मत कर एक से बात की। पता चला पत्रिका सचमुच बड़ी ई की मात्रा वाली है - 'अपनीमाटी ई-पत्रिका'। ई-पत्रिका माने ऑनलाइन पत्रिका जिसके नए-पुराने अंक, आलेख, कविता, कहानी, संपादकीय गूलल पर सर्च कर पढ़े, सहेजे और संदर्भित किए जा सकते हैं। एक सुविधा यह थी कि सामग्री मंगल फोंट में माँगी गई थी, बिना लेपटॉप, कम्प्यूटर के मोहताज़ हुए मोबाइल पर भी लिखी जा सकती थी। आलेख भेजा। जवाब मिला नियत तारीख के बाद ही स्वीकृति-अस्वीकृति की सूचना दे पाएँगे। स्वीकृति भी आई और पत्रिका में आलेख भी। फिर पाठक समूह में नाम जुड़ा। कभी-कभार एक-आध वाक्य में कोई प्रतिक्रिया के सिवा वहाँ भी हम तो 'मोनू भैया' ही बने रहे।

एक दिन पत्रिका के संपादक माणिक का संदेश मिला वाट्सएप पर 'अपनीमाटी' कुछ रचनात्मक सहयोग चाहती है। आत्मकथ्यपरक कुछ लिखने की कोशिश कीजिए… विधा के चक्कर में मत पड़ो, जो महसूस करो वह लिखकर भेज दो। इस बात को कुछ बरस हो गए हैं। तब से 'अपनीमाटी' के अंक प्रकाशन का वक्त आता है तो 'निज मति अनुरूपा' कुछ न कुछ लिखने की रस्म निभा देता हूँ और उधर से 'सहर्ष स्वीकारा है' का मौन संकेत महसूसता हूँ।

साहित्यिक पत्रिकाओं में साहित्यिक दर्जा पा चुके लोग छपते हैं और शोध पत्रिका कही जाने वाली पत्रिकाओं में क्या छपता है और किस विधि छपता है, यह कहने की दरकार नहीं। ऐसे में जब 'अपनी माटी' अपने पाठकों में लेखक तलाशती है। स्कूल के बच्चों से कॉलम लिखवाती है। चिट्ठी-पत्री जैसी विलुप्त प्राय विधा के दिल को पंप कर उसकी उखड़ी साँसें लौटा देना चाहती है। यह सब इस पत्रिका को अलग धज देता है।

पत्रिका ख्वाब बहुत देखती है। ख्वाहिशें बहुत पालती है। बहुत से विशेषांक वाकई 'विशेष अंक' बन पड़े हैं। कुछ जरा कच्चे रहे हैं। कच्ची नींद खुल जाने से जैसे कुछ ख्वाब अधपके आमों की तरह पूरा पके बिन टूट जाते हैं। अध्यापक-धर्म व अध्यापकी को जितना महत्त्व अपनी माटी देती है, उतना शायद ही कोई और पत्रिका देती होगी। इस दावे के लिए डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर का कॉलम बतौर सबूत स्वीकार किया जाना चाहिए। भाई अभिनव सरोवा की 'हिंदी प्रयोगशाला' , विष्णु भाई की कॉलेज और माणिक की बसेड़ा स्कूल को घटनास्थल मानकर मौका मुआयना किया जाना चाहिए।

दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू, आर.यू. , हैदराबाद, इलाहाबाद, स्कूल -कॉलेज जैसी जगहों से टीम अपनी माटी में साथियों को जोड़ना भी उम्मीद जगाता है। बस गुजारिश-सिफारिश के दौर में संपादकीय दृढ़ता वही बनी रहे जिसके कायल ' रेतपथ' के संपादक ने कॉलेज शिक्षकों के सम्मुख दिए अपने एक व्याख्यान में पत्रिकाओं के गिरते स्तर पर पूछे गए सवाल के जवाब में तपाक से कहा कि पैसे देकर कोई आलेख 'अपनी माटी' में छपा कर दिखा दे! 'अपनी माटी' के अपने गुण-धर्म हैं, अपनी गंध है, अपनी उर्वरा शक्ति। ये गुण-धर्म, यह गंध, यह उपजपना, यह अपनापा बना रहे।

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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