कविताएँ / हेमराज वैष्णव

कविताएँ
- हेमराज वैष्णव (भीलवाड़ा)


खालीपन

कोई सड़क
शुरू होकर
शहर की गलियों में
खो जाती है,
ठीक उसी तरह
मन में उठा हुआ भाव
शुरू होता है;
अंत में अचानक खो जाता है
सामने फैले खालीपन में..।

कविता का जन्म!

हाँ, कविता का जन्म
कहाँ से होता है?
चलो, बता दूँ -
कविता का जन्म होता है,
मजदूर के पैरों में हुए छालों के
रिसते दर्द से...

कविता जन्म लेती है -
सड़कों पर
हाथ फैलाती तरुणाई से...।
धरती का अन्नदाता
जब लटकता है पेड़ की शाख पर
बेबस
तब कविता जन्म लेती है...।
धरती पर आकाश की
छत के नीचे
खड़े लोगों की बेबसी से भी
शरीर बन जाता है,
कविता का कभी-कभी...

कविता तब भी उपजती है,
जब मर जाता है,
मानव भूख से...।
किसी औरत के आँचल के
उड़ने पर
जम जाती हैं नजरें,
उन्हीं क्षणों में पैदा होती है,
कविताई पंक्तियाँ..।

कीचड़ में खेलते च्चों की
आँखों की रोशनी में भी होता है,
कविता का बीज..।

कविता,
फटे शर्ट के
एक धागे से भी बुन लेती है अपना रूप;
कविता तो कहीं भी
ले सकती है जन्म
पर
दरबारों में जन्मी कविता,
कविता के अलावा सब कुछ हो सकती है
बल्कि होती है,
वह हम सबका सामूहिक उपहास..।

जैसे अब को

है कोई एक जो
अरसे से
रुका हुआ मेरे अंदर
जो अब हिलना चाहता है..।

आंगन के पौधे पर
जमी हुई थी धूल
अब उस पर
कोई फूल खिलना चाहता है..।

कई दिनों से है
इंतजार...
जैसे अब कोई
मुझसे मिलना चाहता है..।

चाँद को देखा

सड़क पर चलते
आज मैंने
चाँद को देखा,
बड़ा सुकून मिला;

बहुत दिन हो गए इस तरह
चाँद को देखे हुए...
याद आ गए
बचपन के वो दिन..
छत पर सोते थे
तो उसकी बिछी
चाँदनी-चादर में लिपटे
लगातार निहारा करते..।

बाद के दिनों में
याद आए
जब अपनी
प्रेमिका के चेहरे को
चाँद में निरखा करते थे...

बहस किया करते थे
चाँद पर इंसान होने या न होने की;

साथ ही
दादा के चंद्रदेव,
माँ के चंदामामा,
सर का चंद्रमा एक उपग्रह,
मेरी प्रिया का चंद्र-मुख
सब घूम गए एक साथ...

एकाएक समझदार हो गया हूँ फिर भी
चाँद दिखते ही अब भी
मन होना चाहता है वापस
पोता, बेटा, शिष्य, छबीला...।

कई दिनों बाद

कई दिनों बाद
मैंने देखा अपने को
अपने में...।

अपने ही अलग-अलग
चेहरों से टकराने लगा
कतराने भी...।

अपने में देखा मैंन
मनुष्य को देवता होते हुए
तो कभी दानव..
फिर भी
यह तो तय था कि मैं न
देवता हो सकता था
न दानव...।

देवता होना
लंबे समय तक असंभव था;
दानव मेरी फितरत नहीं

तय यही हुआ
इन सबके बीच
कि फिलहाल पहले ठीक तरीके से
मनुष्य हुआ जाए...।

हे मेरे तुम!

कौन हो तुम!
क्या है मुझसे तुम्हारा ताल्लुक;
या कि क्या है मेरी तुमसे उम्मीद!

क्या खाया दिन की शुरुआत में
तो पहले तुम्हें बताया!

दुखी हुआ तो
आँखों के आँसू छलकने
के लिए आकुल हो उठे
पर तेरे आने के इंतजार में अंदर ही अंदर सूख गए!

कोई खुशी का पल आया,
तो उसकी खुशी की चिल्लम-चिल्ल
पहले तुझे सुनाई!

शुरुआत होती है तुमसे मेरी,
लगता ऐसा कि
तुम हो इसलिए
मेरा सूरज उगता है लालिमा लिए अपने वक्ष में,
वही लालिमा खून बनकर दौड़ती है मेरी नसों में

गर्मी का ताप !
तुमसे दूर होने का कठिन समय;
बारिश खिलने, मिलने की उम्मीद का रस!
सर्दियों की गरमाहट
तुमसे मिलने की
गरम जोशी की पुलक हैं!

तुम वो नहीं हो,
जिसे किसी रिश्ते में बाँध लिया जाए!
पता नहीं क्या हो!
पर वह तुम हो जरूर..
जिसे मैं कह सकूँ
कि हे मेरे तुम....!

शहर में शहर होना!

सबके चेहरे पर
शहर पुता हुआ है,
सब थके से,
हारे से
सब निढाल....

सबके सब चल रहे,
बैटरी वाले खिलौनों की तरह
दौड़ रहे..., पता नहीं
किसके पिछे?

शहर में अकेले होना,
अभिशाप से कम नहीं
सब ओर तैरती रहती है,
अजनबियत,
सब जगह देखता चलता हूँ,
ढूंढता हूँ एक अपनापन
सबकी आँखों में केवल एक
बेगानापन झांक रहा है,
ठीक किसी जेब से दिखते हुए रुमाल की तरह।

दुकानदार भी बैठे
अचानक से दरवाजे पर छाया देख
टी.वी. के चित्र की तरह चेहरे पर
नकली स्वागत भरी मुस्कुराहट!
पर ग्राहक को न जचे
तो फिर कड़वाहट!
त्योरियों में साँप के वलय की तरह बल!

शहर में अकेले
अपना कोई साथ न होने से
बचता नहीं कोई सहारा
सारे शहर की थकान और गर्द
थके मांदे के चेहरे पर
चिपक जाती हो मानो...।

अक्सर
भूल से गलत रास्ते
पर चले जाने पर भी,
लगने लगता है,
'चलो, गलत रास्ते से सही रास्ते पर आने का समय तो कटेगा'
यह शहर की मनहूसियत
पता नहीं कब परत की तरह सब तरफ छा गई...।

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  दीपक चंदवानी

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