हिंदी साहित्य में काशी के कथाकारों का योगदान
- जितेन्द्र कुमार एवं सर्वेश्वर प्रताप सिंह
प्रस्तुत शोध पत्र में सन् 1950 के बाद जन्मे काशी(वाराणसी) परिक्षेत्र के कथाकारों; यथा- त्रिलोकनाथ पाण्डेय, रामजी प्रमाद ‘भैरव’, रामकेवल शर्मा ‘मुनि जी’, सुनील बिक्रम सिंह, अवधेश प्रीत, देवेंद्र, वीरेन्द्र सारंग, ओम धीरज, रेणुका अस्थाना, श्याम बिहारी 'श्यामल’, धीरेन्द्र कुमार पटेल, अमित श्रीवास्तव, पद्मा मिश्रा, वर्तुल सिंह, कुन्दन यादव, संगीता बलवन्त, डॉ. सुरेश यादव, अवैद्य आलोक पाण्डेय, गजाधर शर्मा ‘गंगेश’, आनन्द कुशवाहा, रमाकान्त राय, विजयानंद तिवारी, सैयद जैगम इमाम, रामवदन राय, डॉ. अशोक द्विवेदी, अरुण कुमार ‘मित्र’ आदि की कृत्तियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
बीज शब्द: काशी, अविमुक्त, जातीयता, यथार्थ, परिक्षेत्र, आदर्शोन्मुख, नवोदित, समीक्षात्मक, साहित्यिक, आडम्बर।
मुख्य आलेख: हिंदी साहित्य को पुष्पित एवं पल्लवित करने में काशी (वाराणसी) परिक्षेत्र का बहुत योगदान रहा है। काशी की साहित्यिक यात्रा गहड़वाल युग की साहित्यिक रचनाओं से शुरू होकर रैदास, कबीर, तुलसी, बाबा दीनदयाल गिरि, राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, काशीनाथ सिंह, नामवर सिंह, शिव प्रसाद सिंह, सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल, अनामिका आदि से होते हुए से डॉ. मुक्ता (रामचन्द्र शुक्ल जी के परिवार से संबंधित), उमेश प्रसाद सिंह, रामजी प्रसाद ‘भैरव’, रामकेवल शर्मा, त्रिलोकनाथ पाण्डेय , डॉ. नीरजा माधव आदि तक आ पहुँची है, जो अनवरत रूप से जारी है। काशी, जो अब आधुनिक वाराणसी कहलाती है, को काशिका, बनारस आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने बनारस की प्राचीनता को स्वीकारते हुए लिखा है- “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परम्पराओं से भी पुराना है, किवदंतियों (लीजेंड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।” (1) यह ऐसी नगरी है जहाँ जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त करना दोनों ही कल्याणकारी माने जाते हैं।
दुर्लभं जन्म मानुष्यं दुर्लभा काशिका पुरी ।
उभयो: सङ्गमासाद्य मुक्ता एव न संशयः।।
इसके क्षेत्र विस्तार के बारे में बतलाते हुए बी. सी. लाहा का कथन है- “काशी जनपद के जिन ग्रामों इत्यादि का वर्णन आता है, उनमें से अधिकतर आधुनिक बनारस तहसील के अथवा जौनपुर के थे, जो प्राचीन काशी जनपद का ही अंग था। प्राचीन मृगदाव और इसिपत्तन जिसका वर्तमान नाम सारनाथ है, बनारस तहसील में है तथा मच्छिकाखंड (वर्तमान मछली शहर) और कीटगिरी(केराकत) जौनपुर में है।”(2)
किसी भी शहर की पहचान वहाँ की इमारतों और सड़कों से नहीं हुआ करती बल्कि उसकी श्रेष्ठता का मापदंड साहित्य, कला और संस्कृति होती है। काशी की संस्कृति और काशी का साहित्य दोनों ही साहित्य की अनमोल कृतियों के रूप में हमारे सामने दृष्टिगोचर होते हैं।
काशी की साहित्यिक परंपरा को ही यदि हिंदी साहित्य का इतिहास कहें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिंदी साहित्य के इतिहास से यदि काशी को निकाल दिया जाए तो कुछ खास नहीं बचेगा। प्रसिद्ध विद्वान हेमंत शर्मा का कथन है- “साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है। वर्तमान को चित्रित करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। काशी के साहित्यकारों ने हर युग का नेतृत्व किया। भक्तिकाल, आधुनिक हिंदी, द्विवेदी युग, छायावाद, आधुनिक कहानी, आलोचना, पर्शियन थिएटर के हर युग का केंद्र यही शहर रहा। कविता में कबीर (भक्तिकाल) से लेकर धूमिल (जनवादी कविता) तक काशी का मजबूत गढ़ रहा है।”(3)
काशी परिक्षेत्र के समकालीन कथाकारों ने अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, संस्कारों, आडंबरों, रूढ़ियों एवं विचारों को पुरजोर तरीके से उठाया है। इन कृतियों में वर्णित पाठ्य सामग्री समाज का एक आईना ही है। इन समकालीन लेखकों की लेखनी से हिंदी साहित्य की कोई भी विधा अछूती नहीं रही है और ना ही उन विधाओं में वर्णित कोई समकालीन समस्या। अभी हाल ही में जब पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा था, उसको भी डॉ. नीरजा माधव और अरुण कुमार ‘मित्र’ जैसे साहित्यकारों ने क्रमशः ‘कोरोना’ (2020) और ‘अथ कोरोना कथा’ (2025) नामक उपन्यास लिखकर तत्कालीन समाज का जो चित्र खींचा वह अनुशीलन के योग्य है।
डॉ. नीरजा माधव जी द्वारा लिखित उपन्यास ‘कोरोना’ की मुख्य पात्र मधुविद्या है, जो एक टीवी एंकर है। इसके पति का नाम ज्योतिर्मय है, जो प्रोफेसर हैं। मधुविद्या के दो बच्चे हैं, जो अभी छोटे-छोटे हैं। चीन के बुहान शहर में जन्मा कोरोना वायरस जब धीरे-धीरे पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लेता है, तो इसके प्रभाव से भला हमारा देश कैसे अछूता रहता? इस जीवन संघर्ष में सुकून तलाशती हुई नायिका का आत्मकथन द्रष्टव्य है- “मेरा मन हो रहा है कि इस रात के सन्नाटे में जी भरकर उन ग़ज़लों को गुनगुनाऊं जो मुझे पसंद थीं। खोल दूँ सारी खिड़कियाँ, घर की भी, मन की भी। कोई कोना छूट न जाए सुरभित होने से। उलझनों को तह लगाकर पुराने कपड़े वाले बॉक्स में सबसे नीचे छिपाकर रख दूँ कि दिखाई न दें मेरे घर के भीतर।” लेखिका ने उस समय की सामाजिक स्थितियों का वर्णन करते हुए दिखाया है कि कैसे लोग उस समय संक्रमण के भय से अपने ही परिजनों की मृत्यु पर कंधे देने से हिचक रहे हैं। चार कंधे नहीं मिल पा रहे कि अंतिम संस्कार किया जा सके। लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं। कोई एक दूसरे के लिए मदद के हाथ नहीं बढ़ा पा रहा।
इसी प्रकार की घटना का वर्णन करते हुए अरुण कुमार ‘मित्र’ अपने उपन्यास ‘अथ कोरोना कथा’ में लिखते हैं- “पूरे देश में लॉकडाउन, चिलचिलाती धूप-धरती पर चलती-फिरती मानव की आकृतियां, पसीने से तर-बतर जनसैलाब, कहीं पुलिसिया डंडा तो कहीं भूख-प्यास से बेहाल घिसटती-सिसकती आम जनता, सड़कों पर अंतिम सांसें गिनती लाशें, तो कहीं पत्नी से छुपाकर अपने मरे हुए बेटे को कंधे पर चिपकाया मजबूर मजदूर, तो कहीं साईकिल की फ्रेम में अपनी पत्नी की लाश को घसीटता बेबस बेचारा वृद्ध, तो कहीं गंगा की रेत में लाशों को छुपाता बाबा का बुलडोजर, कितना भयावह दृश्य! आदमी तो आदमी, रेल-रोड-रास्ते का भी अपने गंतव्य की ओर जाने से इनकार।”(4) इस औपन्यासिक कृति के माध्यम से कोरोनाकालीन विकट परिस्थितियों का साक्षात्कार कराना लेखक का मुख्य उद्देश्य रहा है। प्रस्तुत उपन्यास में ऐतिहासिकता की चासनी में बुद्धकालीन परिस्थितियों से वर्तमान परिस्थितियों का सामंजस्य करते हुए लेखक ने शासन-प्रशासन की बधिया उधेड़ते हुए मानवीय परिस्थितियों का जो चित्र खींचा है, वह पाठक को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट करता है। मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए लेखक कहता है- “लोगों को ठगने के लिए हमने कुछ देव पिंड बनाए और कुछ भूत पिंड। फिर क्या, सामने वाला डर के मारे थर-थर कांपता है। वह इस कदर डरा होता है कि दिन-रात काम करने के बाद भयंकर गर्मी में भी निर्जला व्रत रखता है। अपनी गोदी वाले छोटे से बच्चे को भूखा छोड़कर, उसी पिंड पर चढ़ावा चढ़ाने आ जाता है और हम लोगों से खुद ही कहता है कि चलिए देवता, भोग लगा लीजिए। यह सब हम सदियों से करते आ रहे हैं और हजारों साल करते रहेंगे। ये मूल निवासी सदियों से हमारे गुलाम हैं और आगे भी गुलाम रहेंगे।”(5)
काशी परिक्षेत्र के कथाकारों की साहित्यिक पृष्ठभूमि अत्यंत गौरवशाली रही है। समाज के प्रत्येक अंग का विभिन्न विधाओं के माध्यम से इस परिक्षेत्र के कथाकारों ने साहित्यिक धरातल पर अपनी लेखनी के माध्यम से चित्रण किया है। समाज में फैली जातिवाद की जड़ें, जो व्यक्ति एवं समाज को निरंतर खोखला करती जा रही हैं, को लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से उसकी विद्रूपता को दिखाते हुए समाज को सचेत करने का कार्य किया है। विभिन्न जातियों की एकता का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हुए डॉ. उमेश प्रसाद सिंह जी लिखते हैं- “ठकुरहन के साथ चमरौटी, कहरान, लोहरान, कोहरान, तेलियान, अहिरान सब-के-सब तीन दिन-तीन रात जमे रहे नहर पर चौकसी करते। कोई नहीं रुका गाँव में। रुकते भी कैसे?....... उनके जीवन की संघर्ष गाथा के उल्लास पर्व के पन्ने पानी के पेट में गल रहे थे। सबको अपनी ड्योढ़ी पर जल रहे दीपों को बचाने की बेचैनी एक जैसी थी। जातियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। मगर मुसीबत की, विपत्ति की जाति कहाँ होती है? पीड़ा में, दु:ख में छूत-अछूत का कोई भेद कहाँ होता है?”(6) समाज में फैली जाति की जहर केवल व्यक्ति को ही खोखला नहीं करती अपितु समाज को भी खोखला कर देती है, जहाँ से छुआ-छूत, वर्ण भेद जैसी विकृतियाँ देखने को मिलती हैं। काशी परिक्षेत्र ने इन विकृतियों की विद्रूपता को सामने लाने का सार्थक प्रयास किया है।
साहित्यिक रचनाएँ ही समाज की दिशा और दशा बदल सकती हैं, बशर्ते उनमें समाज का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता हो। लेखकों ने इस समस्या को उजागर करते हुए समाज के विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। इस जातिगत समस्या को उजागर करते हुए रामकेवल शर्मा लिखते हैं- “भारत जातियों का देश है। यहाँ किसी भी व्यक्ति को अपनी कोई न कोई जाति निश्चित करके ही रहना पड़ेगा।… हजारों साल की जड़िमाग्रस्त व्यवस्था कभी नहीं छूट सकती। सामाजिक सम्मान भी जातियों के आधार पर है।”(7)
जातीयता ही समाज का एक अनिवार्य तत्व बनती दिख रही है लेकिन यह समाज के लिए एक कोढ़ सदृश है। लेखकों ने इसे समाज के लिए घातक ही बताया है। फलस्वरूप इन्होंने अपनी कृतियों में इससे संबंधित सामग्री प्रस्तुत करके सामाजिक चेतना को जगाने का कार्य किया है। जातिगत भावना ही बाद में धर्म से जुड़कर धार्मिकता की चादर ओढ़ लेती है। आनंद कुशवाहा जी इस संबंध में लिखते हैं- “आपका धर्म भेदभाव, जाति-पाति एवं छुआ-छूत का जनक है। आपका धर्म समाज में असमानता, अराजकता, विषमता और नफरत पैदा करता है। इस धर्म ने समाज को हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई मतों में बाँट दिया है। इसे धर्म नहीं, संप्रदाय कहते हैं।”(8)
समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार के विमर्शों ने भी लेखकों को उस क्षेत्र में उनकी लेखनी चलाने को मजबूर किया है। आज भी महिलाएँ उतनी स्वतंत्र नहीं है, इस बेबसी को उजागर करते हुए रामजी प्रसाद ‘भैरव’ लिखते हैं- “लड़की का जीवन तो माता-पिता के अधीन होता है, उसकी समस्त कामनाएँ, इच्छाएँ नींव की ईंट हो जाती हैं, जिस पर दांपत्य का महल खड़ा होता है।”(9)
आगे वे पुनः अपनी कविता ‘बुरी प्रथाएँ’ में लिखते हैं-
“कुछ बुरी प्रथाएँ थीं
जिनका उपचार समय ने कर दिया
कुछ बुरी प्रथाएँ हैं
जिनका उपचार समय कर रहा है
कुछ बुरी प्रथाएँ भविष्य के गर्भ में हैं
समय उनका भी उपचार कर देगा
आओ मातम मानना बंद करें
उन्नति के पथ पर आगे बढ़ें।”(10)
समकालीन विधाओं में लघुकथा संग्रह ने एक नवीन विधा के रूप में साहित्यिक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, जिनमें आनंद कुशवाहा जी का स्थान काशी परिक्षेत्र के लेखकों में सर्वोपरि है। आपकी रचनाएँ आज के समय की प्रासंगिक रचनाएँ हैं। वे लिखते हैं- “आज परिवर्तन का युग है। प्रकृति में बदलाव नजर आ रहा है। समाज की संस्कृति और मान्यताएँ बदल रही हैं। देश की राजनीति में उलट-फेर हो रहा है, तब वक़्त के मुताबिक आपको भी बदलना पड़ेगा क्योंकि जो समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार अपने को नहीं बदलते, वे विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। पिछल्लू बनकर रह जाते हैं और जो सही वक़्त पर उचित निर्णय लेते हैं, वो ही सफलता के शीर्ष को स्पर्श करते हैं।”(11) ‘अंगूर खट्टे हैं’, ‘बेटियाँ बड़ी हो रही हैं’, ‘पाँच बेटों वाली माँ’, ‘पत्थर के भगवान’, ‘फौजी काका’, ‘कर्म ही पूजा है’ आदि इनके महत्त्वपूर्ण कथा संग्रह हैं।
सन् 1950 के बाद काशी परिक्षेत्र में सामाजिक यथार्थ को प्रेमचंद के बाद यदि कोई आगे बढ़ाने हेतु अग्रसर हुआ है तो वे हैं- रामकेवल शर्मा ‘मुनि जी’। इन्होंने कई यथार्थपरक रचनाएँ लिखी हैं, जो समाज के वास्तविक रूप को प्रतिबिंबित करती हैं। उनकी रचनाओं में ‘कापर करूं श्रृंगार’, ‘चितवन की छाँव’, ‘लोहे की स्त्री’ आदि महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं। ये रचनाएँ समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं परंपराओं की वाहक हैं। समाज को एक सीख देते हुए वे ‘निरबंसिया’ नामक कहानी में एक जगह लिखते हैं- “मानव की कोई जाति नहीं, वह केवल मानव है। अपनी जिद और अज्ञानता के कारण मनुष्य अपने ऊपर कुछ अनुबंधित व्यवहार थोपकर, एक विशेष जाति या धर्म की घोषणा करता है। यह सरासर वैचारिक उद्वेग है, जो उसे वैश्विक संबंधों से अलग करके, एक खास पक्ष में सीमित रहकर जीने-मरने के लिए विवश कर देता है।”(12)
काशी (वाराणसी) परिक्षेत्र आज एक मंडल के रूप में स्थापित हो चुका है, जिसके अंतर्गत वाराणसी, चंदौली, गाजीपुर, जौनपुर आदि प्रमुख जिले आते हैं। अतः हम इन्हीं जनपदों के अंतर्गत सन् 1950 या इसके बाद जन्में कथाकारों एवं उनकी कृतियों का हिंदी साहित्य में योगदान पर प्रकाश डालें तो हम पाते हैं कि इस क्षेत्र के लेखकों ने अपने पूर्ववर्ती कथाकारों की परंपरा को बड़ी ही सार्थकता से आगे बढ़ाने का काम किया है। इनकी लेखनी ने अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से प्रेरणा लेते हुए समाज की प्रवृत्तियों के साथ विसंगतियों को भी बड़ी प्रमुखता से उकेरा है। अपने एक ही उपन्यास ‘बौराहा’ में गाँव में व्याप्त अशिक्षा, अक्खड़ता, रूढ़ियां, मैत्री, परित्यक्ता की व्यथा, प्रेम, अज्ञानता, अंतरजातीय विवाह की पीड़ा आदि अनेक सामाजिक स्थितियों का चित्रण करते हुए अवेद्य आलोक जी एक जगह लिखते हैं- “समाज और उसकी मर्यादा तभी तक है, जब तक वह समाज किसी देह और उसके सपनों की रक्षा कर पाता है। उस समाज और मर्यादा का क्या जो मनुष्य को आत्महंता होने पर विवश कर दे।”(13) समाज की सच्चाई से ओत-प्रोत एवं ग्रामीण समाज की वास्तविकता को उजागर करने वाला यह अत्यंत उत्कृष्ट उपन्यास है, जो पाठक को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट करता है।
इसी प्रकार ‘क्षितिज के पार’, ‘यह उपन्यास नहीं है’, ‘हस्तिनापुर एक्सटेंशन’ आदि प्रमुख उपन्यासों की रचना करने वाले डॉ. उमेश प्रसाद सिंह हिंदी साहित्य के प्रखर साहित्यकार हैं, जिनकी लेखनी से हिंदी मानो निखरकर पूर्णता को प्राप्त हो रही है। वे कहते हैं- “साहित्यिक वह है जो साहित्य रचना में संलग्न नहीं है। मगर वह संवेदना की गहराई में उतरने में सिद्ध है। भाषा की व्यंजना को हृदयंगम करने की उसमें सहज सामर्थ्य है। रस से परिलुप्त होकर मुदित होना जिसका स्वभाव है, साहित्य से जिसका नाता केवल आनंद का नाता है, वह साहित्यिक है। साहित्य जिसके लिए आजीविका का साधन नहीं है। प्रतिष्ठा प्राप्त करने का माध्यम नहीं है। धन और सम्मान उपार्जित करने का उद्योग नहीं है। सचमुच साहित्य की सत्ता का आधार साहित्यिकों पर ही निर्भर करता है।”(14)
मुंशी प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की अगर अब भी बात की जाए तो रामकेवल शर्मा जी की कृतियाँ इसका प्रमुख उदाहरण हैं, जिनमें मुंशी प्रेमचंद की परछाई देखने को मिल जाती है। ‘गाँव की ओर’, ‘चंद्रेश्वर दास’, ‘कड़ाह की ताई’, ‘गजाला’, ‘त्रिकोण’, ‘डफाली’ आदि उपन्यास ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ के प्रतिबिंब से लगते हैं। श्मशान घाट पर फैली हुई कुप्रथा एवं रूढ़ियों पर कुठाराघात करते हुए वे लिखते हैं- “लोगों के विचारों में कमी है। अपनी आग से भी उसी प्रकार मुर्दा जलेगा, जिस प्रकार उनकी आग से। लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी और इस कुप्रथा का सामूहिक विरोध भी करना होगा। तभी हम मरघट की गुलामी से आजाद हो सकते हैं।”(15)
निष्कर्ष: काशी एक पौराणिक नाम है, जिसे बाद में बनारस तथा ‘24 मई, 1956 में डॉ. संपूर्णानंद के प्रयासों के कारण’(16) वाराणसी कहा जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि वरुणा और असि नामक दो नदियों के बीच का भाग ही वाराणसी है। हालांकि इसके अनेक अन्य नाम है यथा- अविमुक्त क्षेत्र, आनंद कानन, महाश्मशान, रूद्रवास, मदनपुरी आदि। यह नगर प्राचीन काल से ही धर्म और साहित्य की धूरी रही है। प्राचीन काल से चली आ रही साहित्य की ध्वजा पताका अद्यतन उसी उत्साह से फहरा रही है। अधुनातन कथाकारों ने पूर्वकाल से चली आ रही साहित्यिक पराकाष्ठा को सजाए-संवारे रखा है। काशी परिक्षेत्र के अंतर्गत जौनपुर जनपद में सन् 1958 में जन्मे डॉ. ओमप्रकाश सिंह ने ‘चिंतामणि’ (रामचंद्र शुक्ल) भाग-4 के प्रकाशन के अतिरिक्त ‘यमुना पर्यटनम्’ नामक उपन्यास का भी प्रणयन किया है। डॉ. अशोक कुमार सिंह का उपन्यास ‘फकीर का लकीर’ भी काफी चर्चित रहा है। इसके अलावा नवोदित साहित्यकारों में विपिन कुमार का उपन्यास ‘अंतिम विकल्प’ तथा कहानी संग्रह ‘कहत कबीर सुनहु रे तुलसी’ पाठक वर्ग को बांधने में सक्षम है। ‘दहशत’ और ‘हस्तक्षेप’ उपन्यास के प्रणेता डॉ. राघवेंद्र नारायण सिंह तथा रामदेव सिंह का ‘टिकट प्लीज’ उपन्यास चर्चा के प्रमुख केंद्र बने हुए हैं। रामदेव सिंह जी का कहानी संग्रह ‘काले कोट का सफेद दिन’ और अमिताभ शंकर राय जी का कहानी संग्रह ‘दर्जन भर’ कथा विधा की प्रमुख रचनाएँ हैं। इसी क्रम में श्री प्रकाश श्रीवास्तव के कई कहानी संग्रह जैसे- ‘परफेक्ट सर्जिकल स्ट्राइक’, ‘पढ़ा के क्यूं बिगाड़ा’, ‘छिप्पी तुम कहाँ हो’, ‘जमूरे मुट्ठी खोल’ तथा ‘चाँद पर रजिस्ट्री’ आदि काफी चर्चित हुई हैं। संजय गौतम का ‘आखिरी टुकड़ा’ और कृष्णदेव नारायण राय का ‘मेरी कहानियां’ कथासंग्रह इन दिनों काफी चर्चा में है। कृष्णदेव नारायण राय जी ने कई चर्चित उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें ‘बंटवारा’, ‘रघुवा’, ‘बलिराम भगत’ आदि प्रमुख हैं। अंबिका प्रसाद गौड़ के रावण के चरित्र पर आधारित उपन्यास ‘जयतु जय लंकेश’ और श्याम बिहारी ‘श्यामल’ द्वारा जयशंकर प्रसाद जी के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘कंथा’ अतीव चर्चित उपन्यास सिद्ध हुए हैं। श्यामल जी का 1992 के पलामू जिले में अकाल पर केंद्रित उपन्यास ‘धपेल’ एक प्रमुख कृति है जिसे डॉ. नामवर सिंह ने ‘हिंदी का महत्त्वपूर्ण उपन्यास’ कहा है। इन्होंने प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर आधारित ‘अग्निपुरुष’ नामक उपन्यास लिखा है। ‘हिन्देन्दु’ भी इनका एक प्रसिद्ध उपन्यास है। इसके अलावा काशी परिक्षेत्र के नवोदित कथाकारों में प्रसन्नवदन चतुर्वेदी, सूर्यनाथ सिंह, राजेंद्र आहुति, राजेश राजी, अशोक द्विवेदी, पवन कुमार वर्मा, डॉ. मुक्ता, श्रीमती भगवंती सिंह, उषा शर्मा, विद्या सिंह आदि प्रमुख कथाकार हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से काशी की इस समृद्ध साहित्यिक परंपरा को जीवंत बनाए रखा है। इन्दीवर जी काशी के परंपरा के बारे में लिखते हैं- “काशी के लोग जीवन को किस्तों में नहीं बल्कि एकमुश्त जीते हैं। उन्मुक्तता यानी खुलापन यहाँ के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है।”(17)
सन्दर्भ :
- मार्क ट्वेन, फॉलोइंग द इक्वेटर, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी इथाका न्यूयॉर्क,
- संस्करण-2005, पृष्ठ- 480
- बी.सी. लाहा, इंडिया एज डिस्क्राइब्ड इज अर्ली टेक्स्ट ऑफ़ बुद्धिज्म एंड जैनिज्म,
- भाग- 6, पृष्ठ- 42
- डॉ. हेमंत शर्मा (विशेषांक अतिथि संपादक), सोच विचार पत्रिका,
- अंक- जुलाई 2024, पृष्ठ- 6
- अरुण कुमार ‘मित्र’, अथ कोरोना कथा (उपन्यास), पंचशील प्रकाशन वाराणसी,
- संस्करण- 2025, पृष्ठ-8
- वही, पृष्ठ- 106
- उमेश प्रसाद सिंह, यह उपन्यास नहीं है (उपन्यास), अस्मिता प्रकाशन इलाहाबाद,
- प्रथम संस्करण, पृष्ठ- 20
- रामकेवल शर्मा, डफाली (उपन्यास), सरस्वती पेपर बैक्स वाराणसी,
- प्रथम संस्करण- 2023, पृष्ठ- 63
- आनंद कुशवाहा, पांच बेटों वाली मां (कहानी संग्रह), जय भारत प्रिंटिंग प्रेस वाराणसी,
- प्रथम संस्करण- 2022, पृष्ठ- 95
- रामजी प्रसाद ‘भैरव’, शबरी (उपन्यास), रश्मि प्रकाशन लखनऊ, संस्करण- 202, पृष्ठ-49
- रामजी प्रसाद ‘भैरव’, चुप हो जाओ कबीर (कविता संग्रह), राष्ट्रीय चेतना प्रकाशन चंदौली,
- प्रथम संस्करण- 2021, पृष्ठ- 61
- आनंद कुशवाहा, बेटियां बड़ी हो रही है (कहानी संग्रह), प्रवर्तक भारत प्रकाशन गाजीपुर,
- द्वितीय संस्करण-2022, पृष्ठ-71
- रामकेवल शर्मा, लोहे की स्त्री (कहानी संग्रह) सारस्वत पेपर बैक्स वाराणसी,
- प्रथम संस्करण-2023, पृष्ठ- 98
- अवेद्य आलोक, बौराहा (उपन्यास), विजया बुक्स दिल्ली, संस्करण- 2020, पृष्ठ- 128
- डॉ. उमेश प्रसाद सिंह (संपादक), हरियाली का हुलास, राष्ट्रीय चेतना प्रकाशन चंदौली, संस्करण-2022, पृष्ठ-5
- रामकेवल शर्मा, मरघट के गुलाम(संस्मरण), सारस्वत पेपर बैक्स वाराणसी,
- संस्करण- 2023, पृष्ठ-17
- सरित किशोरी श्रीवास्तव, वाराणसी के स्थान नामों का सांस्कृतिक अध्ययन, प्रथम संस्करण- 1995, विश्वविद्यालय प्रकाशन चौक वाराणसी, पृष्ठ-15
- इंदीवर, हिंदी साहित्य और काशी की विरासत, सोच विचार पत्रिका (अंक जुलाई-2024) संपादक- नरेंद्र नाथ मिश्र, पृष्ठ-15
जितेन्द्र कुमार
शोधार्थी हिंदी, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर, उ.प्र.
jksir1988@gmail.com, 9452508522
सर्वेश्वर प्रताप सिंह (शोध निर्देशक)
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर, उ.प्र.
sarveshvarpratap779@gmail.com, 7598176087
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
बहुत ही शानदार लेख।
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