''रामकथा के नारी-पात्र वर्तमान में सर्वाधिक प्रासंगिक हैं''-डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी


मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का चरित्र भारतीय संस्कृति के समष्टि रूप का पर्याय बन चुका है । सारी सृष्टि में रमे राम युग-युग से सात्विक रसिकजनों की रस-साधना व अध्यात्म-प्रिय जनता की आस्था का केन्द्र बने हैं । श्रीराम का चरित्र इतना लोकप्रिय रहा है कि भारत की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में ही नहीं, विश्व वाड़्मय का भी अभिन्न अंग बना और राम-कथा को लेकर विशाल-साहित्य का निर्माण हुआ है । काल-प्रवाह के साथ कवियों की व्यक्तिगत रूचि और युगयुगीन सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरूप राम-कथा नूतन साँचों में ढ़लती रही । वे महापुरूष, महात्मा, धीरोदात्त-नायक से अवतारी बन गए । हिंदुओं ने यदि उन्हें विष्णु के दशावतारों में प्रतिष्ठित किया, जो जैनों ने त्रिषष्टि में आठवें बलदेव व बौद्धों ने बोधिसतव के रूप में पूजा की । श्री राम शनैः शनैः साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों के नायक बन गए । निर्गुण व सगुण दोनों पंथों के प्रवर्तकों ने उनकी महिमा के गीत गाए । ‘कबीर’ ने श्रीराम को निर्गुण ब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हुए उनके नाम को शक्तों के लिए सर्वस्व माना और कहा-

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना । राम नाम का मरम है आना ।।1

तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में उनके नाम के साथ, उनके रूप, लीला और धाम की भी आरती उतारी । उन्हें कल्पतरू और मुक्ति का धाम बताया । यथा-

नामु राम को कलपतरू, कलि कल्यान निवासु ।२

इसी प्रकार साकेतकार ने कहा-

राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है ।
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।।3

हरिऔध ने ‘वैदेही वनवास’ में उनकी प्रिया जानकी की करूण गाथा गायी, तो ‘साकेत संत’ के कवि ने उनके उदात्त चरित्र, तपस्वी व महाबलिदानी भाई भरत की गौरव गाथा प्रणीत की ।वर्तमान भारतीय जन-मानस में रामकथा उनकी जीवन-पद्धति का आश्रय है । उसकी प्रामाणिकता उनकी आस्था, चेतना व भक्ति में परिलक्षित होती है । वस्तुतः रामकथा भारतीय पृष्ठभूमि के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व लौकिक आदर्श का प्रतिबिम्ब बन चुकी है, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं ।

रामकथा भारत की आदि कथा है, जिसे भारतीय संस्कृति का रूपक कह दिया जाये तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । रामकथा के सभी पात्र भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को महिमा प्रदान करते दिखाई देते हैं । विशेष रूप से नारी पात्र अपनी विशिष्टता लिए हुए हैं । उनमें भारतीय मूल्यों के प्रति असीम आस्था है, त्याग की प्रतिमूर्तियाँ हैं, आदर्श पतिव्रता हैं, विवेकवान् समर्पणशीला हैं, कर्तव्यपरायण व युग-धर्म की रक्षिका भी हैं । समय आने पर अपनी श्रेष्ठता श्री सिद्ध करती हैं । सम्पूर्ण कथानक को आदर्श मंडित करने नारी-पात्रों की विशेष भूमिका रही है । रामकथा में वर्णित पात्र हैं- सीता, कौशल्या, कैकेयी, उर्मिला, मन्दोदरी, माण्डवी, श्रुतिकीर्ति, सुमित्रा, मंथरा, शूर्पणखा, शबरी आदि ।ये नारी पात्र इतने भव्य-रूप में चित्रित हुए हैं कि पुरूष भी उन्हीं के पथ का अनुसरण करते हैं । सीता के आदर्श से प्रभावित लक्ष्मण कहते हैं-

“नारी के जिस भव्य भाव का, स्वाभिमान भाषी हूँ मैं ।
उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं ।।4
(पंचवटी)

 सीता- रामकाव्य परम्परा के अंतर्गत सीता भारतीय नारी-भावना का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है, जहाँ नाना पुराण निगमागमों में व्यक्त नारी आदर्श सप्राण एवं जीवन्त हो उठे हैं । नारी पात्रों में सीता ही सार्वाधिक, विनयशीला, लज्जाशीला, संयमशीला, सहिष्णु और पातिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी हैं । समूचा रामकाव्य उसके तप, त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठा है । लंका में सीता को पहचानकर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हनुमान जी ने कहा-

“दुष्करं कृतवान् रामो हीनो यदनया प्रभुः
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति ।
यदि नामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत्
अस्थाः कृते जगच्चापि युक्त मित्येव मे मतिः।।5 

अर्थात् ऐसी सीता के बिना जीवित रहकर राम ने सचमुच ही बड़ा दुष्कर कार्य किया है। इनके लिए यदि राम समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी को पलट दें तो भी मेरी समझ में उचित ही होगा, त्रैलौक्य का राज्य सीता की एक कला के बराबर भी नहीं है । पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे के पूरक हैं । आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगद्म्बा जानकी के चिरत्र में तब तक दृष्टि-गोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर अपना अंतिम निर्णय इन शब्दों में कह देती है-

प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं । मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं ।
जिय बिन देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरूष बिनु नारी ।।6

विषाद्ग्रस्त होकर भी पत्नी अथवा पति को अपने जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है । सीता को अशोकवाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ-विचलित करने का प्रयास किया, परन्तु सीता मे अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया, यथा-

तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही ।
सुनु दस मुख खद्योत प्रकासा, कबहुँ कि नलिनी करइ विकासा ।।7

वनगमन के अवसर पर सीता जब उर्मिला के प्रति संवेदना प्रकट करती है, उस समय माता सुमित्रा के मार्मिक उद्गारों में सीता के चरित्र की झाँकी मिलती है-

पति-परायणा, पतित भावना, भक्ति भावना, भक्ति भावना मृदु तुम हो,
स्नेहमयी, वात्सल्यमयी, श्रीकृराम-कामना मृदु तुम हो ।।8

सीता एक ओर भारतीय आदर्श पत्नी है, जिनमें पति-परायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य है, तो दूसरी ओर वे युग-जीवन की मर्यादा के अनुरूप श्रमसाध्य जीवन-यापन में गौरव का अनुभव करने वाली नारी हैं, यथा-
औरों के हाथों यहाँ नहीं चलती हूँ ।
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।।९

लोकापवाद के कारण सीता निर्वासित होती है, परन्तु वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है व अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है-

यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी ।
जीवनधर पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी ।
है लोकोत्तर त्याग अपना लोकाराधन है न्यारा ।
कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य्य मेरे द्वारा ।।10

इसी प्रकार समस्त ग्रंथों में सीता के चरित्र का उज्जवलतम पक्ष प्रस्तुत हुआ है । वह राम-कथा के केन्द्र में रहकर केन्द्रीय पात्र बनी हैं ।कौशल्या- कौशल्या सरल हृदया माता है । अपने पुत्र का वन-गमन उसके लिए हृदय-विदारक रहा है । यद्यपि वह अपने पुत्र के कर्तव्य-मार्ग में बाधक नहीं बनीं । राम के वनवास जाने की खबर सुनकर वह कहती है-

इदं तु दुःखं यदनर्थकानि में व्रतानि दानानि च संयमाश्च हि ।
तपश्च तप्तं यदपत्य काम्यया सुनिष्फलं बीज मिवोत मूषरे ।।11

कौशल्या कोमल मातृ हृदया थी । भरत के कारण राम को 14 वर्ष का वनवास मिला, फिर भी उसका स्नेह भाव रामवत् ही है । वह भरत में ही राम का स्वरूप पा लेती है और माँ का आदर्श चरित्र उपस्थित करती है, यथा-

खींचा उनको, ले गोद, हृदय लिपटाया,
बोली तुमको पा पुनः राम को पाया ।।12

माता कौशल्या ने अपने पुत्र को इस प्रकार संस्कारित किया कि विमाता कैकेयी के कुभावों से भी राम विचलित नहीं हुए और सहर्ष वनवासी हुए । कौशल्या श्रीराम को ऐसी ही शिक्षा देती हुई कहती है-

‘जौं केवल पितु आयेसु ताता । तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना । तौ कानन सत अबध समाना ।।13

राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं । अतः ऐसी स्थिति में सौतिया अहं पनपना स्वाभाविक है पर कौशल्या सौत को सौत न समझकर बहिन सदृश मानती है । कैकेयी के बारे में वह सुमित्रा से कहती है-

सिथिल सनेहुँ कहै कोसिला सुमित्रा जू सौं,
मैं न लखि सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई हैं ।14

इस प्रकार कौशल्या मातृत्व की जीवन्त प्रतिमा है । दया, माया, ममता की मन्दाकिनी है। तप, त्याग, एवं बलिदान की अकथ कथा है ।15 वह राम तथा भरत में भेद नहीं समझती । पति व राम से स्नेह रखती है, पर राम के वन-गमन पर मौन रहकर अपने कर्तव्य का निर्वहन भी करती है । पति की मृत्यु के उपरान्त वह सती होने का प्रस्ताव भी रखती है । उसमें शील है, उदात्तता है, मातृत्व की व्यंजना है तो नारी सुलभ संवेदना भी है ।
कैकेयी- डॉ. रामविनोदसिंह के शब्दों में, “वाल्मीकि की कैकेयी व्याध का क्रूर बाण है, ‘मानस’ की कैकेयी सरस्वती का शापमय वाहन है, लेकिन ‘साकेत’ की कैकेयी ममतामयी माता है, जिसमें मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा राग है ।”16 स्पष्टतः रामकाव्य परम्परा में कैकेयी का चरित्र विविधता लिए हुए है । वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि कैकेयी का दशरथ के साथ विवाह इसी शर्त पर हुआ था कि राज्य कैकेयी के पुत्र को दिया जायेगा । यह बात स्वयं राम द्वारा भरत से कही गई है । यथा-

पुरा भ्रातः पिता नः स मातरं ते समुद्वहन् ।
मातामहे समाश्रौषीद्राज्यशुल्कमनुत्तमम् ।।17

कैकेयी के हृदय में अपने पुत्र के प्रति असीम वात्सल्य भाव है । इसलिए वह अनिष्ट सहकर भी भरत के लिए राज्य प्राप्त करती है, किन्तु भरत द्वारा राज्य का निरस्कार किये जाने पर उसे अपनी भूल ज्ञान होती है ।  वह कहती है-

‘तेरे हित मैंने हृदय कठोर बनाया,
तेरे हित मैंने राम विपिन भिजवाया ।
तेरे हित मैं बनी कलंकिनी नारी,
तेरे हित समझी गई महा हत्यारी ।।18

भरत का राज्य सिंहासन के प्रति उपेक्षा का भाव देखकर कैकेयी का हृदय निराशा, ग्लानि, परिताप और पश्चाताप से वदग्ध हो जाता है । कैकेयी अपना सर्वस्व लुटाकर और संसार की अवमानना सहकर भी मातृत्व की अभिलाषिनी है । तभी तो वह चित्रकूट की सभा में कहती है कि-

थूंके मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों, चूके?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझ से ।19

कैकेयी के इस कथन में कितना विषाद है, कितनी अथाह आत्मव्यथा है? वह अपने आप को धिक्कारती हुई कहती है कि- 

युग-युग तक चलती रहे यह कठोर रानी ।
रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी ।
निज जन्म-जन्म में जीव सुने यह मेरा,
धिक्कार! उसे था महास्वार्थ ने घेरा ।20

वस्तुतः कैकेयी ने जो अपराध किया था, वह मातृत्व के वशीभूत होकर किया था, परन्तु पश्चाताप की अग्नि में तपकर और आत्मग्लानि के अश्रु-प्रवाह से प्रक्षालित होकर कैकेयी का हृदय निष्कलुष और पवित्र भी हो गया था । ‘सांकेत’ में तो उसके कलंकित चरित्र को भी उज्जवल और भव्य बनाकर प्रस्तुत किया गया है । डॉ. उमाकांत गोयल के मतानुसार ‘साकेत’ के अध्ययन के पश्चात कैकेयी के प्रति युगान्तर का घनीभूत मालिन्य निःशेष रह जाता है ।21

सुमित्रा- कौशल्या की अपेक्षा सुमित्रा प्रखर, प्रभावी एवं संघर्षमयी रमणी है । कैकेयी के वचनों की पालना एवं श्रीराम प्रभु के साथ जब लक्ष्मण अपनी माता से वन जाने की आज्ञा चाहते हैं तो वह कहती है कि जहाँ श्रीराम जी का निवास हो वहीं अयोध्या है । जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है । यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है । ‘मानस’ की उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

अवध तहाँ जहँ राम निवासू । तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ।
जौं पै सीय राम बन जाहीं । अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं ।।22

सुमित्रा ने सदैव अपने पुत्र को विवेकपूर्ण कार्य करने को प्रेरित किया । राग, द्वेष, ईर्ष्या, मद से दूर रहने का आचरण सिखाया और मन-वचन-कर्म से अपने भाई की सेवा में लीन रहने का उपदेश दिया, यथा-

रागु रोषु इरिषा मदु मोहू । जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ।।
सकल प्रकार विकार बिहाई । मन क्रम वचन करेहु सेवकाई ।।23

इस प्रकार सुमित्रा इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि नवीन चेतना से सुसम्पन्न नारी है। वह एक आदर्श माँ के रूप में राम-लक्ष्मण को करणीय के लिए प्रेरित करती है । मन्दोदरी- मन्दोदरी एक ऐसी रानी है, जिसने यथा समय नीति के अनुसार रावण को समझाने की चेष्टा की । वह राम की शूरवीरता से परिचित थीं अतः उसने कहा-

अति बल मधु कैटभ जेहि मारे । महाबीर दितिसुत संघारे ।।
जेंहि बलि बाँधि सहसभुजमारा । सोई अवतरेउ हरन महि मारा ।।24

उसने रावण को अनेक तरह से समझाया, पर रावण अपनी हठ पर अड़ा रहा । ऐसी स्थिति में उसने भी यह मान लिया था कि उसका प्रति काल के वश में है अतः उसे अभिमान हो गया है, यथा-

नाना विधि तेहि कहेसि बुझाई । सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ।।
मन्दोदरी हृदय अस जाना । काल बस्य उपजा अभिमाना ।।25

वैसे मन्दोदरी राजनीति की विशारद् और राज-काज की सहायिका भी थी । उसने नगरवासियों के विचारों को जानने के लिए दूतियों तक को नियुक्त कर रखा था । समय की प्रतिकूलता को जानकर ही  उसने रावण को समझाने का प्रयास किया था, पर रावण की हठ के कारण वह असफल रही ।माण्डवी- माण्डवी भरत की पत्नी है । रामकाव्य में उसका चरित्र यद्यपि संक्षेप में ही है, पर वह पति-पारायणा एवं साध्वी नारी के रूप में चित्रित की गई है । उसके चरित्र के अनुराग-विराग, एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व है । वह संयोगिनी होकर भी वियोगिनी सा जीवन व्यतीत करती है ।

‘साकेत-संत’ की वह नायिका है । वह कुल की मार्यादानुरूप आचरण करती है। वह भरत से एकनिष्ठ एवं समर्पण भाव से प्रेम करती है । वह कहती है-

और मैं तुम्हें हृदय में थाप, बनूँगी अर्ध्य आरती आप ।
विश्व की सारी कांति समेट, करूँगी एक तुम्हारी भेंट ।।26

माण्डवी भरत के सुख-दुःख की सहभागिनी है । उसका चरित्र पतिपरायणता, सेवाभावना और त्याग से ओत-प्रोत है । पति की व्यथित दशा देखकर वह कह उठती है कि- 

नम्र स्वर में वह बोली ‘नाथ’! बटाऊँ कैसे दुःख में हाथ,
बता दो यदि हो कहीं उपाय, टपाटप गिरे अश्रु असहाय ।।27

डॉ. श्यामसुन्दर दास के शब्दों में माण्डवी तापसी जीवन के कारण एक विशिष्ट व्यक्तित्व को ग्रहण किये हुए है और इसलिए हिन्दी महाकाव्यों के नारी पात्रों के मध्य में उसे अलग ही खोजा जा सकता है ।28

उर्मिला- राम काव्य परम्परा में उर्मिला के चरित्र का सफल रेखांकन ‘साकेत’ और ‘उर्मिला’ में मिलता है, जिसमें उसके उपेक्षित व्यक्तित्व को उभारा गया है । ‘साकेत’ का नवम् सर्ग उर्मिला के विरह-विषाद की चरम निदर्शना है । वह अपने मन-मन्दिर में प्रिय की प्रतिभा स्थापित कर सम्पूर्ण भोगों को त्याग कर अपना जीवन योगमय बना लेती है, यथा-

मानस मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,
जलती थी उस विरह में, बनी आरती आप ।
आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,
हुआ योग से भी अधिक, उसका विषम वियोग ।।29

उर्मिला में क्षत्राणी का व्यक्तित्व भी दृष्टिगोचर होता है । लक्ष्मण को शक्ति लगने का समाचार पाकर वह शत्रुघ्न के समीप उपस्थित हो जाती है । वह कार्तिकेय के निकट भवानी लग रही थी । उसके आनन पर सौ अरूणों का तेज फूट रहा था । उसके माथे का सिन्दूर सजग अंगार सदृश था ।30 वह कहती है-

विंध्य-हिमाचल-भाल भला झुक आ न धीरो,
चन्द्र-सूर्य कुल-कीर्ति कला रूक जाय न वीरो ।
-  -  -  -
ठहरो, यह मैं चलूँ कीर्ति सी आगे-आगे,
भोगें अपने विषम कर्मफल अधम अभागे ।।31

उर्मिला ओर लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक-दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है । उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है । तभी तो संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि-

प्रेम के शुद्ध रूप कहो- सम्मिलन है प्रधान या गौण?
कौन ऊँचा है? भावोद्रेक? या कि नत आत्मनिवेदन मौन?३२

डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कहा, ‘काव्य की यह चिर उपेक्षिता, ‘साकेत’ ही नहीं, हिन्दी महाकाव्यों की चरित्रभूमि में प्रथम बार जिस वेष में प्रकट होती है, वह वेष अश्रु विगलित होकर भी ओजमय, आदर्शप्रधान होकर भी स्वाभाविकता के निकट एवं दैवी गुणों से मंडित होकर भी नारी सुलभ है ।33 

अन्य नारी पात्र- राम काव्य में अन्य नारी पात्रों में मंथरा, शबरी, शूर्पणखा का नाम आता है । मंथरा जहाँ नीच दासी है, वहीं स्वामिभक्त एवं कर्तव्य परायण भी है । ‘साकेत’ में भी ‘मानस’ की पुनारावृत्ति है । वह कैकेयी के मानस में मातृप्रेम को उभारकर रघुकुल में संशय का विष उत्पन्न कर देती है । शूर्पणखा में नारी सुलभ भाव जहाँ ‘पंचवटी’ में दिखाई देते हैं, वहीं उसकी काम-भावना भी प्रदर्शित होती है, यथा-

अपना ही कुल-शील प्रेम में, पड़कर नहीं देखती हम ।
प्रेमपात्र का क्या देखेंगी, प्रिय है जिसे लेखती हम?
रात बीतने पर ह ैअब तो, मीठे बोल-बोल दो तुम,
प्रेमातिथि है खड़ा द्वार पर, हृदय कपाट खोल दो तुम ।।34

‘शबरी’ की भक्ति का दिग्दर्शन मानस में उल्लेखनीय है, जहाँ वह श्रीराम पर अपनी भावना को भक्तिमय बना देती है और उनका आतिथ्य सत्कार करती है । वहाँ प्रभु श्रीराम ने भी प्रेम सहित उसका आतिथ्य स्वीकारा, यथा-

कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुँ आन ।
प्रेम सहित प्रभु खाए, बारम्बार बखानी ।।35

अत्रिमुनि की धर्मसंगिनी ‘अनुसूया’ का चरित्र वर्णन भी ‘मानस’ में आया है । जब वह सीता को पातिव्रत धर्म की शिक्षा देती हुई कहती हैं-

उत्तम के अस वस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरूष जग माहीं ।
मध्यम परपति देखई कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ।।36

इस प्रकार रामकाव्य परम्परा के लगभग सभी ग्रंथों में उपर्युक्त नारी-पात्रों का उल्लेख हुआ है । भिन्न-भिन्न भावभूमि के अनुसार उनके चरित्र की व्यंजना भी हुई है, परन्तु समग्र रूप से आदर्श की स्थापना ही अभिधेय रहा है ।वर्तमान समय में प्रासंगिकता- वस्तुतः रामकाव्य परम्परा में रचे गये साहित्य का उद्देश्य जीवन मूल्यों का निर्माण करना, भारतीय सांस्कृतिक आदर्शों की मूल्यवत्ता बनाये रखना, सकारात्मक चिंतन प्रदान करना व राष्ट्रीय-चरित्र का रेखांकन करना रहा है । ऐसी स्थिति में उसमें वर्णित नारी-पात्र भी भारतीयता के आदर्श से ओत-प्रोत हैं, जिनसे न केवल चारित्रिक शिक्षा मिलती है, वरन् हमारे जीवन को रसमय बनाने की क्षमता भी इन पात्रों में हैं ।

आधुनिक परिवेश निःसंदेह भौतिकवादी रंगत् से प्रभावित है, परिणामस्वरूप हमारी जीवन-दृष्टि भी पदार्थवादी बन गई है । त्याग, सहिष्णुता जैसे गुण हमारे जीवन में विलुप्त हो गए हैं । रामकाव्य के समस्त नारी पात्र हमारे जीवन के इस हेतु से परिचय करवाते प्रतीत होते हैं । समस्त नारी पात्र त्याग की प्रतिमूर्तियाँ हैं ।

प्रसिद्ध साहित्यकार रामानंद के अनुसार वैवाहिक सम्बन्ध से दो आत्माएं जब एक ग्रंथि में गुँथ जाती हैं, तब जीवन-रथ निरापद रूप से खींच ले जाने के लिए एक दिशा, एक लक्ष्य, एक उद्देश्य और एक विश्वास का होना दोनों के लिए वांछनीय ही नहीं आवश्यक भी बन जाता है ।37 सीता, उर्मिला, माण्डवी आदि का पातिव्रत धर्म अद्वितीय है । माता का पुत्र के प्रति स्नेह भाव तो होता ही है, पर विमाता में भी यह गुण हो तो परिवार स्वर्ग बन जाता है । कौशल्या के कोमल मातृ हृदय में भरत के प्रति भी राम के समान ही स्नेह भाव है, वह कहती है-

‘खींचा उनको, ले गोद, हृदय लिपटाया,
बोली, तुमको पा पुनः राम को पाया ।।३८

समय आने पर नारियाँ अपनी भूमिका का सही ढंग से निर्वहन करें तो राष्ट्र अनाचारों से मुक्त हो सकता है । राम द्वारा राक्षसराज रावण के संहार का श्रेय भी महारानी सीता को जाता है । राम के कथन से सीता ने राज्यकार्य की सिद्धि के हेतु स्वयं अग्नि तक में निवास किया था ।संयम, शालीनता, समर्पण, सहिष्णुता की सुरक्षा पंक्तियों में रहकर ही नारी गौरवशाली इतिहास का सृजन कर सकती है । आचार्य तुलसी कहते हैं, “मैं महिला को ममता, समता और क्षमता का त्रिवेणी होता है, समता से परिवार में संतुलन रहता है और क्षमता से समाज व राष्ट्र को संरक्षण मिलता है ।39 

स्त्री में सृजन की अद्भुत क्षमता है । उस क्षमता का उपयोग विश्वशांति की समस्याओं के समाधान की दिशा में किया जाये तो वह सही अर्थ में विश्व की निर्मात्री और संरक्षिका होने का सार्थक गौरव पा सकती है । पुरूष नारी के विकास में अवरोधक बना है, इसमें सत्यांश हो सकता है, पर आज नारी स्वयं नारी के विकास मंे बाधक बन रही है । ऐसी स्थिति में रामकाव्य के नारी पात्रों की ओ दृष्टिपात करें तो शत्रु की पत्नी (सीता) के साथ मन्दोदरी का व्यवहार कितना स्नेहवत् था? इस प्रेरणा को ग्रहण कर नारी भी नारी का सम्मान करना सीखे, तो वह भविष्य में पुरूषों का पथ-प्रदर्शन करेंगीं । इस हेतु नारियों को अपनी अस्मिता व कर्तव्य शक्ति का अहसास करना होगा ।इस प्रकार नारी-चेतना को जाग्रत करने में रामकाव्य की महती भूमिका है । उसके पात्र वर्तमान नारी-विमर्श को नयी दिशा देते प्रतीत होते हैं ।

रामकाव्य परम्परा भारत के सांस्कृतिक आदर्शों की कहानी है । उसमें वर्णित पात्र आदर्श की स्थापना करने वाले, समयानुकूल समायोजन करने वाले, प्राचीन मूल्यों का संवहन करने वाले, वीरत्व, त्याग, सहिष्णुता, कर्मठता, पातिव्रत को धारण करने वाले हैं, साथ ही वर्तमान युग की विसंगतियों का समाधान करते हुए नारी की महिमा को पुनर्स्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं । समग्रतः रामकथा के नारी-पात्र वर्तमान में सर्वाधिक प्रासंगिक हैं, क्योंकि आधुनिकता का चकाचौंध में नारी की भव्य गरिमा को वे ही सुरक्षित रखवा सकते हैं, कहा है- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः ।” - इस भूमि पर नारी पूज्य रही हे, रहेगी, परन्तु उसे स्वयं भी अपनी ईश्वर-प्रदत्त वैभव को सुरक्षित रखना होगा । रामकथा के ये नारी-पात्र यही संदेश देते हैं । 

सन्दर्भ-
1. कबीरवाणी पीयूष, पृ. 117
2. रामचरित मानस, बालकांड 7-32
3. साकेत, पृ. सं. 156
4. वही, पृष्ठ 94
5. वाल्मीकि रामायण, सुन्दकांड 15, 55 और 16, 13
6. रामचरित मानस, आयेध्याकांड 65/ 6-7
7. वही, सुन्दरकांड 9/6-9
8. उर्मिला, डॉ.बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, तृतीय सर्ग, पृ 327
9. साकेत, सर्ग 8 पृ. 223
10. वैदेही वनवास, पंचम सर्ग, उद्ध्त उन्मेष, संपादक भटनागर, हाडा, गहलोत पृ.22
11. वाल्मीकि रामायण, उद्ध्त भारतीय संस्कृति, डॉ. देवराज, पृ. 31
12. साकेत- संत डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, तृतीय सर्ग, पृ 51
13. रामचरित मानस, अयोध्याकांड 56/1-2
14. कवितावली, तुलसीदास पृ. 2-3
15. कविवर मैथिलीशरण गुप्त और साकेत, डॉ. ब्रजमोहन शर्मा, पृ. 116
16. साकेत: एक नव्य परिबोध, पृ. 70
17. वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकांड 107/3
18. साकेत-संत, डॉ. मिश्र, तृतीय सर्ग, पृ.49
19. साकेत, मैथिलीशरण गुप्त, सर्ग 8, पृ. 249
20. वही, सर्ग 8, पृ.249
21. मैथिलीशरण गुप्त: कविऔर भारतीय संस्कृति के आख्याता, पृ. 173
22. रामचरितमानस, अयोध्याकांड पृ. 388 
23. वही पृ. 389
24. वही लंकाकांड, पृ. 761-62
25. वही पृ. 763
26. साकेत, संत डॉ. मिश्र, प्रथम सर्ग, पृ. 26
27. वही, चतुर्थ सर्ग, पृ. 55
28. हिन्दी महाकाव्यों में नारी चित्रण, पृ. 115
29. साकेत, सर्ग 9, पृ.269
30. उद्ध्त, हिन्दी के आधुनिक पौराणिक महाकाव्य, डॉ. देवीप्रसाद, पृ.135
31. साकेत, पृ. 474-75, उद्धृत वही, पृ. 135
32. उर्मिला, डॉ. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पृ 135
33. हिन्दी महाकाव्यों में नारी-चित्रण, पृ. 650
34. पंचवटी, मैथिलीशरण गुप्त, उद्ध्त गद्यांजलि, सं. इन्दौरिया, पारीक, टेलर पृ. 14
35. रामचरित मानस, अरण्यकांड, पृ. 650
36. वही, 4/12-16
37. मानस की महिलाएँ, पृ. 474-75
38. साकेत-संत, ग्यारवां सर्ग, पृ. 131


 योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-


डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं.वर्तमान में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की चित्तौड़ शाखा के जिलाध्यक्ष है.शैक्षिक अनुसंधानों में विशेष रूचि रही है.'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादक मंडल में बतौर सक्रीय सदस्य संपादन कर रहे हैं.)

ई-मेल:singhvi_1972@rediffmail.com
मो.नं.  9828608270

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