अप्रैल 2013 अंक
शिगमोत्सव: गोवा में रंगो का मेल

बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन और उसके पुत्र प्रहलाद के जीवित बचे रहने की दैविक अद्भुतता के आख्यान, कामदेव के शिव को शाप वाले प्रसंग तथा राधा-कृष्ण के अप्रतिम प्रेम जैसे ऐसे अनेक संदर्भों यह रंगो का फाल्गुनी त्योहार है। होली का समय खेतों में धान पकने का होता है, अच्छी फसल की कामना में किसानों की होली उमंगी उभर क रनज़र आती है। कुलु में बर्फ में गुलाल को मिला कर होली के रस्मो-रिवाज, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल शांतिनिकेतन में वसन्तोत्सव, डोलपूर्णिमा व चैतन्य महाप्रभु के जन्म दिवस के रूप में भी यह त्योहार मनाया जाता है, हरियाणा में धुलण्डी के रूप में देवर-भाभी के कुतुहल, गुजरात में ‘गोविन्दा आला रे जरा मटकी संभाल’ बोलों के साथ सामूहिक दधी-माखन की मटका फोड़ होली, महाराष्ट्र में रंगपंचमी और शिमगो के रूप में होली पर्व पर अनेक आयोजन होते हैं।

परन्तु समूचे गोवा में होली उत्सव शेष भारत के होली उत्सव से भिन्न तरीके बड़े उल्लासपूर्ण तरीके से मनाया जाता है। किन्तु होली दहन के पीछे जो भाव और मूल तत्व सर्वत्र दिखलाई पड़ता है और संस्कृति को समूचे देश को जोड़ता है वह तत्व सर्वत्र एक समान है। गोवा में चाहे अलग तरह से होली मनाई जाती है परन्तु वहां भी वही सांस्कृतिक तत्व मौजूद है। गोवा में शिगमो उत्सव होली का पर्याय है। हम यहां गोवा-गोमान्तक होली की चर्चा करते हैं:

गोवा की कोकणी भाषा में शिगमो प्राकृत शब्द सुगीमाहो तथा संस्कृत के सुगरिशमका शब्द से आया है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि शिगमो उत्सव गोवा में होली की पहचान है। साल के अन्तिम मास के पूर्ण चन्द्र याने पूर्णिमा से यह उत्सव दो सप्ताह तक और कहीं-कहीं और आगे तक चलता है। रबी की फसल पक जाने और सारे खेतों में सुनहरी व हरी चादर बिछी दिखलाई पड़ने तथा दशहरी आमों पर फैली आम्रपाली तथा काजू की जटाजूट वृक्षावली से उल्लासित सम्पूर्ण गोवा के स्त्री-पुरूष तथा बाल-आबल इस त्योहार में गीत-भजनों की स्वरलहरियां, नृत्यों की धूम और आध्यात्मिक जात्राओं के साथ आम लोग प्रेम, आनन्द तथा उल्लास से सराबोर दिखलाई पड़ते हैं।


होली दहन के समय अजब-गजब आवाजें और फूहड़ शब्दोच्चारण कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप देखने को मिलते हैं, अन्यथा सारे गोवा में शिष्टता के साथ होली मनाई जाती है। कुछ जगह ताड़ वृक्ष के सूखे रस्सा-कस्सी की तरह खींचते हैं और टग-आफ-वार का दृश्य उपस्थित करते हैं। ग्रामीणांचल में कब्बडी और खो-खो प्रतियोगिताएं प्रचलित थी अब कहीं-कहीं देखने को मिलती है। लोग ‘धूलवाड़’ याने परस्पर चेहरे और सिर पर गुलाल और नील का बहुतायत से प्रयोग करते हैं। धूलवाड़ में युवतियां को दूर रखा जाता है। किन्तु कस्बों में यह परंपरा टूट रही है। परस्पर दुराव, टकराव और मतभेद को मिटाने वाले इस शिशिरोत्सव में घरों में मनपसन्द मिठाईयां बनाई जाती और परोसी जाती है। मीडिया और फिल्मों के प्रभाव से अब गांवों और कस्बों में पानी रंग का प्रयोग होने लगा है।

चन्दोर के गोवावासी हिन्दू संस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए चोल साम्राज्य पर विजय की स्मृति में मूसल खेल का आयोजन करते हैं। इस नृत्य में 7-8 फीट के बांस के निचले सिरे पर घुंघरू बंधे होते हैं जिसे हाथ में ले कर और जोले दे दे कर न्ृत्य में ग्रामीण जनजीवन की अभिव्यक्ति करते हैं। गांवड़ा जाति के लोग गले में घूमट और ढ़ोलक लेकर नृत्यों की श्रृंखला बनाते हैं। इसमें एक स्त्री वहां-वहां झाड़ू लगाती है जहां-जहां मूसल गिरता है। वह पानी डालती है नृत्य में भाग नहीं लेती। घरों में किया जाने वाला यह नृत्य विशेष अर्चना के साथ पूर्ण होता है। शिगमोत्सव में यू ंतो गोफ नृत्य कई जगह होता है परन्तु कानकोना के गोफ नृत्य की बात ही कुछ ओर है। नृत्य में ऊंचे स्थान पर अनेक रंग-बिरंगी रस्सियां लटकी रहती है। इसमें रस्सी का एक-एक सिरा युवक पकड़ लेता है, तथा रस्सियों के सहारे युवक ऐसे नृत्य करते हैं कि रस्सियां फूलों की बेल की तरह गुथ जाती है। पारंपरिक वाद्य घुमट, झांझ, सेमल व शहनाई की धुन पर रस्सियों के सहारे गुंथते और विपरीत दिशा में नृत्य करते हुए सुलझते नर्तम मनमोहक हैं। कृष्ण भक्ति पर आधारित गोफ नृत्य में नृत्यकार स्वयं कृष्ण सी वेशभूषा में होते हैं। सैलानियों और पर्यटकों के लिए अन्य नृत्यों और गीतों की तरह यह भी अविस्मरणीय अनुभव रहता है।

मछुहारे, खेतिहर और ग्रामीण लोग रंगपंचमी होली के पांचवे दिन मन्दिरों के चौक और ग्राम के मध्य हाथों में लंबे-लंबे ध्वज-तरंगमेल जिसे दांडी भी कहते हैं लिए ढ़ोल, ताशा, शहनाई और सूर्त वाद्य वादन करते शोभायात्रा में बड़ी संख्या में ग्रामीण और अन्य नाचते और गाते हैं। कुछ के सिरों पर फूल-पत्तों और झाड़ के मध्य रखी मूर्ति को अपने सिर पर लेकर शोभा यात्रा के प्रमुख हिस्सा बनते हैं। वाद्ययंत्रों की धुनों पर ग्रामीण तरंगों को सिर पर लेकर आगे-पीछे नृत्य करते हैं तथा पांच-पांच ताल के बाद आओ-आओ शब्दों का उच्चारण करते हैं। इस तरह तरंग मेल किसानों के ध्वजों का मेला है। इन अवसरों पर पर्यटकों की रेलमपल भी रहती है। विदेशी सैलानी भी स्थानीय लोगों के साथ गुलाल और अबीर लगाने में समान रूप से हिस्सा लेते हैं और वहां केमरे की क्लिक-क्लिक की आवजें सुनाई पड़ती रहती है। इस दिन विशेष भोजन बनया जाता है जिसे ‘‘सागोटी’’ कहते हैं जिसमें सामिष भोजन होता है।
भाषा, गांव-शहर, ऊंच-नीच की सीमाओं को तोड़ता और सबको सबमें जोड़ता गुलाल का हरा रंग संतोष सभ्यता का, पीला रंग आशाओं और खुशी का, लाल अग्नि और ऊर्जा का, नीला विश्वास और परस्पर निर्भरता तथा गुलाबी प्रेम और स्वीकार्यता का प्रतीक गुलाल का यह रंगबिरंगी रंग आम लोगों के चेहरे पर गोवा के हर कस्बे फोंडा, वास्को-डि-गामा, वालपोई, डिचोली, मार्गो, केंपे सहित पणजी शहरों में भी देखा जा सकता है। इस अवसर पर पखावज, कासाले और मंजीरों की थाप पर, सिर पर लाल पट्टा बांधे मोरपंख लगाये कलाकार मोरले जो तोणियामेल की तरह का नृत्य होता है, तीव्र ध्वनि में गायन और वादन किया जाता है। कलाकारों के गले और हाथों में पुष्पमालाएं लगी होती है। महिलाओं द्वारा किया जाने वाला फूगडी नृत्य इस त्योहार का बड़ा मनोरंजक नृत्य है जिसे महिलाएं ताली के साथ गोल-गोल घेरे में और अलग-अलग पंक्तियां और चक्र बना कर पौराणिक लोकगीतों के साथ करती हैं। इसी प्रकार शिगमो उत्सव पर कांजा नृत्य किया जाता है। कलाकार मंच पर पंक्ति में प्रवेश करते हैं तथा नृत्य के दौरान अपनी जोड़ी बना कर ढोल और ताशे के साथ गोल-गोल घूमते हुए कई तरह की अभिव्यंजना करते हैं। यह नृत्य प्रायः होली के 9वें दिन मन्दिरों और केन्द्रीय स्थलों पर किया जाता है।

गोवा में देशी और विदेशी सैलानियों का हर मौसम मे विशेषकर शिगमोत्व में जमावड़ा रहता है। गोवा के प्रसिद्ध समुद्री तट ‘बीच’ कोलवा, कलंगघूट, बागा, मोरजिम तथा अंजना में सैलानियों पर होली का रंग चढ़ा होता है। वे वहां परस्पर रंगो की होली खेलते हैं और समुद्री तक के आनन्द में खोये रहते हैं।
(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं।
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