कहानी: अन्ना की रैली में.../डॉ मनोज श्रीवास्तव

अगस्त-2013 अंक 
कहानी: अन्ना की रैली में.../डॉ मनोज श्रीवास्तव 

डा. मनोज श्रीवास्तव
भारतीय संसद की राज्य सभा में सहायक निदेशक है.अंग्रेज़ी साहित्य में काशी हिन्दू विश्वविद्यालयए वाराणसी से स्नातकोत्तर और पीएच.डी.
लिखी गईं पुस्तकें-पगडंडियां(काव्य संग्रह),अक्ल का फलसफा(व्यंग्य संग्रह),चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह),धर्मचक्र राजचक्र(कहानी संग्रह),पगली का इन्कलाब(कहानी संग्रह),परकटी कविताओं की उड़ान(काव्य संग्रह,अप्रकाशित)

आवासीय पता-.सी.66 ए नई पंचवटीए जी०टी० रोडए ;पवन सिनेमा के सामने,
जिला-गाज़ियाबाद, उ०प्र०,मोबाईल नं० 09910360249
,drmanojs5@gmail.com)
मिट्ठू अहीर सुबह सूरज उगने के पहले ही खटिया को राम-राम कहते हुए अपने धंधे को निपटाने में व्यस्त हो गया। कनचट्टी को कई बार गुहार लगाने के बावज़ूद वह उसे नींद के कैदखाने से मुक्त नहीं करा पा रहा था। आखिरकार, उसने चटपट दातुन चीरकर जीभ छीलते हुए कुल्ला किया और चुल्लू-चुल्लू भर पानी से मुँह पर कई बार छींटे मारे और कोठरी में दाखिल हुआ।

"ऐ सुअरी! कब तलक छिपकल्ली सरीखी खटिया पर पसरी रहेगी? चल उट्ठ!... देख, हमें तुरत गाँव-जवार में दूध बेंच के अन्ना हजारे के पलटन के साथ तहसील जाना है...।"

उसने चींकट कथरी को खींचते हुए अपनी लुगाई--कनचट्टी को खटिया से लगभग जमीन पर गिरा ही दिया होता। अगर कनचट्टी सम्हली नहीं होती तो बेशक! खरहरी जमीन पर गिरने से उसके घुटने छिल गए होते। उसने आँखों से कीचड़ निकालते हुए खड़े-खड़े एक अंगड़ाई ली और मिट्ठू के मुँह पर अपने मुँह का खट्टा बास मारते हुए भागकर खटाल में घुस गई। पहले, उसने नांदों में भूँसा डाला; फिर, मुट्ठी भर-भर उनमें घुनाए आटे का गन्हाता चोकर बारी-बारी से डाला। रात भर भूख से बिलबिलाती भैंसें सूखा चारा ही चबाने लगी। कनचट्टी डंडे से उनके मुंह पर वार करते हुए बड़ी मुश्किल से नांदों में पानी डाल पाई। तब तक मिट्ठू ने दुध-नपने को दबा-दबाकर इस तरह चपटा कर दिया कि वह दिखने में बुरा भी लगे और उसमें दूध तौल में कम नपे। इस बीच, वह बार-बार सामने रास्ते पर देखता जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसे किसी के आने का बेताबी से इंतज़ार है।

कनचट्टी खटाल से बाहर आते ही आश्चर्य में डूब गई क्योंकि मिट्ठू खुद ही हुक्का सुलगाते हुए सुड़की पर सुड़की लगाए जा रहा था। उसने रोज की तरह उससे यह भी नहीं कहा कि 'मुरझौंसी, हमार हुक्का कौन बनाएगा?' लेकिन, कनचट्टी को सामने देख, उसने जोर की घुड़की लगाई, "हरामी की पिल्ली! काहे टेम खराब कर रही है? ओसारे में से बाल्टी ले और नांद के पीछे ड्रम में पानी भर दे।"

वह लपककर भीतर गई और दूध दूहने वाली बाल्टी भैंसों के नांद के पास रखते हुए ड्रम में पानी भरने लगी। मिट्ठू ने फटाफट हुक्के में कुछ लंबी सुड़की लगाते हुए कंधे पर अंगोछा डाला और इसके पहले कि कुछ ग्राहक आते, वह झट ड्रम में से चार मग्गा पानी बाल्टी में डालते हुए भैंस के नीचे दूध दूहने बैठ गया। उसने सामने से गुजरते लोगों को देखा और फिर, भैंस के थन को सहलाने लगा। उसके अंगूठे में गज़ब का दम था जिससे भैंस के थन को दबा-दबा कर वह दूध का आखिरी कतरा तक निकाल ले रहा था।

पहली भैंस से दूध दूहने के बाद वह कुछ ज़्यादा ही उत्साहित दिखाई दे रहा था क्योंकि उसने उस भैंस से रोज की अपेक्षा कोई डॆढ़ लीटर अधिक दूध निकाला था। उसने बाल्टी के दूध को एक खाली ड्रम में उड़ेला और कुर्ते की पाकेट से उसमें एक मुट्ठी सोडा डालते हुए दूसरी भैंस के नीचे दूध दूहने बैठ गया। लेकिन, यह क्या? वह बार-बार चूची को रबर की तरह लंबा खींचकर भी उससे दूध की धार निकल पाने में असफल हो रहा था। वह जोर से चींख उठा, "ए कनचट्टी! कहाँ मू गई? तनिक सूई तो ले आ...।"

कनचट्टी बड़ी फुर्ती से हाथ में इंजेक्शन लेकर हाजिर हुई। वरना, मिट्ठू का गुस्सा तो वह जानती ही है। गाली-गुफ़्ता के साथ, मुँह पर लप्पड़ मारना तो उसके लिए मामूली बात है। उसके आगे के तीन दाँत ऐसे थोड़े ही टूटे हैं।

मिट्ठू भैंस के थन में इंजेक्शन लगाने के बाद कनचट्टी के आगे आँख मिचमिचाते हुए एक घूरे पर बैठ गया। वह अपने मनसेधू का आशय समझ पाने में बिल्कुल असमर्थ थी। बेशक! मिट्ठू का मन फ़लसफाना अंदाज़ में उससे कुछ बतकहियाने का हो रहा था। कनचट्टी को बड़ा गुमान हो रहा था कि उसका मनसेधू उसे आज इतना तवज़्ज़ो दे रहा है; वरना, उससे बात तो क्या, वह उसकी ओर सीधे मुँह ताकता तक नहीं।

"डमरू की माई! आजकल देस-दुनिया में अन्ना हजारे का ढिंढोरा बज रहा है।" मिट्ठू ने खखारकर अपना गला साफ किया।

"ऊ कइसे, डमरू के बाऊजी?" बुड़भक कनचट्टी कान से खूँट निकालते हुए बकरी की तरह बें-बें कर उठी।

"देख, डमरू की माई! समाज में जो भ्रस्टाचार फैला है, अन्ना उसको मिटाने खातिर भूख हड़ताल करने जा रहे हैं।" मिट्ठू घूरे पर से उठते हुए दीवार के सहारे खड़ा हो गया।

"गाँधी बाबा सरीखा क्या?" उसने आश्चर्य से मुँह बा दिया।

"हुँह! आज दिल्ली में एक ठो बड़ा रैली निकालने जा रहे हैं। देस-बिदेस और गाँव-जवार के चौधरी-चमार, अहिर-बिलार, बनिया-बक्काल, ठाकुर-बाँभन ' लाला-बिलाला सब रैली में सामिल होंगे...।" वह हकलाकर रह गया।

"लेकिन, इससे का' फ़ायदा होगा, डमरू के बाऊजी?" वह बड़ी जिज्ञासा से आँखें मिचमिचाने लगी।
"देख, बुड़भक कनचट्टी! जो मन्त्री-सन्त्री, एम्पी-एमेल्ले का रुपइया बिदेस के बैंक में जमा है, वापिस इंडिया में आएगा और उससे हम जैसे गरीब-गुनबा का उद्धार होगा।"

"मतलब जे कि हमार बबुआ की नुकरी चीनी मिल में पक्का हो जाएगा? डमरू के बाऊजी! जो रुपिया तुमको मिलेगा, तुम कुँवर जगेसर सेठ के देके बबुआ की नुकरी पक्का कर देना। दिहाड़ी खातिर गाँड़-घिसाई से उसका पिंड छूट जाएगा ' मजे से माहवार पगार पर अपना गुजारा होगा।" उसके पीले चेहरे पर खुशी की सूर्खी साफ चमकने लगी।

"हाँ, हम भी सोच-बिचार रहे हैं कि कइसे अन्ना हजारे के पास जाएं ' उनसे कहें कि बिदेसी पइसा में से एक लाख हमका भी दे दें। हम उनको उईं ठइएं दस हजार रुपिया उनके हाथ में धर देंगे ' नब्बे हजार इहाँ लेके आएंगे। सत्तर हजार कुँवर जगेसर को अपना बबुआ का नुकरी पक्का करने के लिए देंगे ' बाकी बीस हजार मीट-मछरी ' ठर्रा पर उड़ाएंगे..." वह खिलखिला उठा।

"तो, तहसील जाए की तइयारी कर लो ना, डमरू के बाऊजी!" कनचट्टी की आँखें ग़ज़ब चमक रही थीं।
कनचट्टी द्वारा तहसील जाने की याद दिलाए जाने पर मिट्ठू ऐसे हड़बड़ाकर अंदर भागा जैसेकि बिच्छू ने डंक मार दिया हो। फिर, कनचट्टी वहीं बैठे-बैठे बाल खुजलाते हुए अंगुलियों के नाखूनों में जुएँ फँसाने का यत्न करने लगी। कुछ देर बाद, मिट्ठू कुर्ता-पाजामा पहनकर बाहर आया और घूरे पर दोबारा बैठ गया। उसने खटाल में दूध-भरी बाल्टियों में मक्खियों को भनभनाते देख, उन पर एक अंगोछा डाला और कनचट्टी को आदेशात्मक स्वर में कुछ ज़रूरी हिदायतें देने लगा।

"ए बुजरी! काहे टेम खराब कर रही है? अब हम दूध चहुँपाने नहीं जाएंगे। कुछ देर में गाहकजने खुदे आवत होइएं। लालसाहेब दू लीटर ज़्यादा दूध मंगाए हैं। सो, टेम रहते तीनॊं बाल्टी में दू-दू मग्गा पानी और डाल के हिलोड़ दे। तनिक चुगलखोर गाहक से चौकसी रखना; नहीं तो लोग ज़्यादा दूध नपवा लेते हैं। हाँ, फालतू घेलुआ दूध मत देना..."

लेकिन, कनचट्टी का ध्यान उसकी बातों की और कहाँ था? उसे बड़ी बेचैनी हो रही थी कि मिट्ठू तैयार होकर भी अभी तक तहसील के लिए रवाना क्यों नहीं हुआ।

"डमरू के बाऊजी! अब काहे देरी कर रहे हो जी?" वह अपने फहराए चींकट बालों को गठियाकर जूड़ा बनाते हुए उठी और मग्गा उठाकर दूध-भरी बाल्टियों में पानी डालने लगी।

उसके फूहड़पन पर मिट्ठू एकदम से खड़ा होकर झौंझिया उठा, "हुड़ार-सरीखा काहे भाँय-भाँय चिचियाय रही है, बकचोदी? तनिक भठियार तेली ' छग्गन सुनार के तो आय जाने दे। पूरे टोली संग, हुड़दंग करते तहसील जाएंगे। सहर जाके लूट-मार करेंगे, चाट-मसाला खाएंगे ' मौका मिलने पर सेठ-सेठाड़ियों के बटुए पर भी हाथ साफ करेंगे। अन्ना के पलटन में जाए का तो बस्स एक ठो बहाना है। तुम क्या बूझती हो कि हम एकदम्मे बकलोल हैं? हमरे हाथ में बड़ा गुन ' कीरत है।"

मिट्ठू तन-तन कर अपनी शेखी बघार रहा था; लेकिन, कनचट्टी के दिमाग में तो कुछ और चल रहा था।
वह मिट्ठू की बात अनसुनी करते हुए भभक कर बोल उठी, "ए जी! हेतना काहे बतकही का बतंगड़ बना रहे हो? अब भठियार ' बब्बन नहीं आवेंगे। तुमही उनके घर चले जाओ ना!"

उसके सुझाव पर मिट्ठू ने अपना माथा पीटा और कनचट्टी के पास आकर उसका चेहरा निहारने लगा।

"ए बिलरी! तूं तो बड़ा समझदारी का बात करने लगी हो। इहाँ हम उन कनखजूरों का झूठमूठ में इंतजार कर रहे हैं। बात हमारे भेजे में काहे नहीं आई कि हमही उनको लेके तहसील चले जाएं?"
वह कंधे पए लाठी सम्हालते हुए और लगभग भागते हुए वहाँ से रुख्सत हुआ।

ग्गन सोनार के घर के आगे जमा भीड़ को देख मिट्ठू ठिठक गया। वह मन-ही-मन भुनभुनाने लगा, "निकले थे हरि-भजन को ओटन लगे कपास। अब इस तिगड़मबाज छग्गन के लफड़े में फंस गए तो तहसील कभी नहीं जा सकेंगे। अब करें तो क्या करें?"

वहाँ कोई दर्जन-भर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था और छग्गन गला फाड़-फाड़ कर चींख रहा था, "अरे सा' जी, हम तो पक्का माल दिए थे। निखालिस सोने की जंजीर थी--पूरे चौबीस कैरेट का। लेकिन, आप जने कह रहे हो कि पितरी की जंजीर पर सोने का पानी चढ़ाके सुच्चा सोना के दाम में आपको बेचे थे। भला कैसे हो सकता है? हम साच्छात लछमी मइया का  कसम खाते हैं कि हम अपने धंधे में तनिक भी बेईमानी नहीं करते हैं। एम्मा जरूर कौनो साजिस है--हमका झूठ-मूठ में फंसाने का..."

तभी अपने लंगोटिया यार मिट्ठू अहीर को सामने खड़ा देख, छग्गन का सीना एकदम से चौड़ा हो गया। अभी तक तो वह अकेले ही गला फाड़-फाड़ कर अपने ईमान और धर्म की दुहाई दे रहा था। एक से भले दो--अब तो मिट्ठू भी उसके सुर में सुर मिलाने के लिए आगे चुका था और उसके उस ग्राहक को पटखनी देने के लिए कमर कस रहा था जो बात-बात में छग्गन को पुलिस के हवाले करने की धमकी दे रहा था।

स्वभाव से गुस्सैल मिट्ठू ने आव देखा ताव। बस, कंधे पर लाठी को ताने हुए भीड़ के बीचो-बीच जा पहुँचा। उसके आक्रामक रुख को देख, भीड़ भी तितर-बितर हो गई।

"हमरा दोस्त अपने ईमान ' उसूल का बड़ा पक्का है। जैसे हम सुच्चे दूध का धंधा करते हैं, वैसे छग्गन भाई भी सुच्चे सोने का माल बनाते हैं। अब इसका क्या सुबूत है कि सोने की जंजीर जो तुम कहीं से उठा-पठाके लाए हो, छग्गन के दुकान का ही है?" वह ग्राहक के हाथ से सोने की जंजीर लगभग छीनते हुए बड़े गौर से उसका मुआयना करने लगा।

मिट्ठू की जुबान से अपनी पैरवी करते सुनकर तो छग्गन की बांछें ही खिल गई--जैसेकि मदारी ने मरे हुए साँप पर मंतर मार कर उसमें जान फूंक दी हो।

मिट्ठू ने खखारकर अपना गला साफ किया और फिर दुगुनी तेज आवाज़ में छग्गन से बोल उठा, "छग्गन भाई! इतना बकवास जंजीर तो तुम्हारे कारीगर कतई नहीं बनाए होंगे। अरे, हम भी तुम्हारे इहाँ अपनी लुगाई के लिए कितने गहने-गीठो बनवाए हैं। देखो! इस पर कितना फूफ़ड़ डिज़ाइन बना हुआ है। भला, छग्गन सुनार अपने धंधे का गुड़-गोबर क्यों करना चाहेगा? अरे पूरे गाँव-जवार में इनकी कारीगरी का बड़ा नाम और इज़्ज़त है..."

मिट्ठू की दमदार तरफ़दारी से छग्गन की आँखें बिजली की माफ़िक चमक उठीं। उसने भी पैंतरा बदला, "अरे, मिट्ठू भइया! तुम जो कह रहे हो, उसमें रंच-मात्र भी सक-सुबहा नहीं है। बात हमारे भेजे में काहे नहीं आई? अपने ख़िलाफ़ इतनी बड़ी साजिस हम काहे नहीं समझ पाए?"

वह भी मिट्ठू के हाथ से जंजीर लेकर उसे घुमा-घुमाकर देखने का नाटक करने लगा। ग्राहक तो ठगा-सा महसूस कर रहा था। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी क्योंकि सोने की जंजीर की खरीद-फ़रोख्त में उसे हजारों रुपए का चूना जो लगाया गया था। उसे यह देखकर हैरानी हो रही थी कि मोहल्ले की भीड़ की सहानुभूति छग्गन के प्रति बढ़ती जा रही है।

छग्गन ने मिट्ठू की बात पर नहले पर दहला मारा, "मिट्ठू भइया! जंजीर तो सचमुच पितरी की है। तो हमारे दुकान की हो ही नहीं सकती। हम इन साहब को जो जंजीर बेचे थे, तो कोई और दूसरा था। हम कह रहे थे ना कि सब हम जैसे सीधे-सादे सेठ-महाजनों को फंसाने के लिए कोई जाल बिछाया गया है।"
फिर, मिट्ठू भीड़ से मुखातिब होकर उस ग्राहक को भरपूर कोसने लगा, "अरे भाई, देखो! आज कितना बड़ा अन्याय हो रहा है? उधर अन्ना बाबा बेईमानी और भ्रस्टाचार के ख़िलाफ़ बग़ावत कर रहे हैं और इधर हम जैसे सोझभक लोगों को ठग साबित करने का प्रपंच खेला जा रहा है। इसमें जरूर कौनो राजनीतिक चाल है जिससे कि हमारे गांववाले अन्ना की रैली में सामिल हो सकें। हे भगवान! इस देस का अब क्या होगा? अच्छा-भला आदमी छग्गन भी तो अन्ना बाबा की रैली में जाने वाला है। बाप रे बाप, अब सुच्चे-सरीफ लोगों का जमाना ही नहीं रहा।"
जब वह गला फाड़-फाड़ कर अपने मोटे-मोटे आँसू बहा रहा था तो भीड़ उस शिकायतकर्ता ग्राहक को खूब खरी-खोटी सुनाने लगी। मौका देख, मिट्ठू ने छग्गन के कान में फुसफुसाकर कहा, "अरे, छग्गन, अब भीड़ खुद-ब-खुद बकलोल गाहक से निपट लेगी। मौका बढ़िया है--चल फूट ले..."
ठियार तेली अपने घर की ड्योढ़ी पर मिट्ठू और छग्गन को देख, ठिठक गया। यों तो वह झक्क सफेद कुर्ता-पाजामा पहन और चाँद पर तेल लगाकर बिल्कुल तैयारशुदा स्थिति में था; पर, उसके मन में असमंजस का बवंडर उमड़ रहा था।
मिट्ठू उसे देखते ही उसकी मनःस्थिति भांप गया--इ ससुरा भी अपने गोरखधंधे की जुगाड़बाजी में लगा हुआ है। उसने दरवाजे पर लाठी ठकठकाते हुए इशारे से कहा, "भठियार भइया! क्या सोच-बिचार रहे हो? कोई बड़ी बिपत्ती में फंस गए हो क्या? अइसे कइसे अन्ना के पलटन में हम सब जने सामिल हो पाएंगे?"
भठियार ने अपना मुंह उसके कान में डाल दिया, "यार, कल सुबेरे-सुबेरे सेठ मानिकचंद को एक कुंतल तेल सप्लाई करना है जबकि हमारे पास जो कच्चा माल है, खरा माल है। अब खरे माल का तेल निकालकर बेचेंगे तो हम तो तबाह हो जाएंगे। जो डुप्लीकेट कच्चा माल हमारे पास था, उसका तेल निकाल कर हम पहले ही बजार में सप्लाई कर चुके हैं। हम मानिकचंद को क्या जवाब देंगे? उनसे हम बयाना भी ले लिए हैं।"
उसकी समस्या पर कुछ पल सोचकर मिट्ठू मुस्कराने लगा। उसके इस तरह से मुस्कराने पर भठियार भड़क उठा, "इहां हम मुसीबत में फंसे हैं और तुम हो कि हमारी मज़बूरी पर मंद-मंद मुस्का रहे हो?"
"तुम भी ठहरे  एकदम बुड़भक तेली। अरे, कल सुबेरे तुम सेठ मानिक को कहला भेजना कि जिस कंडाल में तेल निकालकर रखे थे, उसके पेंदे में जाने कैसे छेद हो गया और सारा तेल बह गया और तेल की सप्लाई अगले हफ़्ते होगी। आख़िर, सेठ मानिक जाएगा तो कहां जाएगा?   गाँव में तुम्हारे सिवाय, और कोई दूसरा तेली तो है नहीं, जो उसे तेल निकालके देगा। कुछ ज़्यादा लफड़ा होगा तो हमें बुलवा लेना हम मामले को बढ़िया से सलटा देंगे। हम भी चतुर-सुजान किशन भगवान के बिरादरी के हैं। जब हमारा काइयां दिमाग रपटने लगता है तो कायथ-भुमिहार सब मुंह ताकते रह जाते हैं।"
मिट्ठू ने इतने आत्मविश्वास के साथ भठियार की पीठ थपथपाई कि वह खुशी के मारे खींस निपोरने लगा, "मिट्ठू भइया! तुम तो हमारे लिए वही हो जो अर्जुन के लिए किसन कन्हइया थे। अब जब तुम्हारा आसरा है तो डर काहे का?"
"लेकिन, तुम्हारा डुप्लीकेट माल कब तक आवेगा?" मिट्ठू के सवाल ने उसे पल भर के लिए गंभीर बना दिया।
"अरे, बल्ली सिंह थानेदार है ना। वही हमें डुप्लीकेट माल मुहैया कराता है ' बदले में कुल मुनाफ़े में से एक-तिहाई हिस्सा हजम कर जाता है।" भठियार के चेहरे पर निश्चिंतता का भाव साफ तैर रहा था जैसे कि बल्ली सिंह को इतना देकर भी उसे बड़ा सुकून है।

"अच्छा तो उससे और डुप्लीकेट माल मंगा लिए हो कि नहीं?" मिट्ठू ने उसके अभिभावक की तरह उसे हिदायत दिया।

भठियार मुस्कराने लगा, "अरे, मिट्ठू भइया! बल्ली सिंह भी हम जने के साथ अन्ना की रैली में सामिल होंगे। हम उन्हें रास्ते में ही माल चहुंपाने के लिए कह देंगे। तो हमारे धंधे में तुरत-फ़ुरत काम करते हैं, आख़िर भी तो हमारे गोरखधंधे के पाटनर हैं।"

कोई ग्यारह बजे तक मिट्ठू अपने दोस्त छग्गन और भठियार जैसे दर्ज़न-भर लोगों के साथ पुलिस चौकी पहुंच गया। बल्ली सिंह ने तहसील तक जाने के लिए पहले से ही एक ट्रकवाले को फ़र्ज़ी केस में हवालात में डालकर उसके ट्रक को ज़ब्त कर रखा था ताकि रैली में जाने वालों को कोई दिक्कत हो। गांव से तहसील की दूरी कोई पैंतीस मील थी। लगभग डेढ़ घंटे बाद यानी साढ़े बारह बजे तक गांव की पलटन ट्रक पर सवार होकर ठीक तहसील कोर्ट के सामने उतरी।

जैसे ही मिट्ठू के पांव जमीन पर पड़े, उसके पंख उग आए और उसके दिमाग से अन्ना और अन्ना की रैली का बुखार उतर गया। वह छग्गन और भठियार को शराब के ठेके की और खींच ले गया। ठेके के मालिक को उसने अपना परिचय कुछ यूं दिया, "हमजने थानेदार बल्ली सिंह के आदमी हैं। हमें जी-भरके पिलाओ नहीं तो तुम जानते ही हो--बल्ली सिंह थानेदार तुम्हारा क्या करेगा?"

घंटे-भर छककर शराब पीने के बाद उसने छग्गन के कान में फुसफुसाकर कहा, "यार, सहर आए हैं तो तनिक और मौज-मस्ती भर कर लें।"

मिट्ठू इधर-उधर बल्ली सिंह को तलाशने लगा। छग्गन ने कहा, "मिट्ठू भइया, बल्ली का अड्डा हमका मालूम है।" तीनों नशे में धुत मशहूर कोठेवाली सफ़ीना बानो की गली में घुस गए। भठियार खिड़कियों पर बैठी सजी-संवरी रंडियों को देख, पाजामे के जेब में हाथ मसलते हुए बेकाबू हुआ जा रहा था। छग्गन ने उसका कंधा दबाते हुए कहा, "भठियार, तनिक सबर कर। जइसे फ़्री में पीए हैं, वइसे फ़्री में रात गरम गुजारेंगे। बस्स, तनिक बल्ली सिंह का थोबड़ा दिख जाय।"

तभी उसे अहसास हुआ कि मिट्ठू उसके साथ नहीं है। उसने घूमकर देखा तो मिट्ठू, बल्ली सिंह के पीछे-पीछे एक कुत्ते की माफ़िक दुम दबाकर सीढ़िंयां चढ़ रहा है। अगर वह उन दोनों को उँगली के इशारे से ऊपर आने का संकेत नहीं करता तो बेशक, छग्गन घिघियाकर चिल्ला उठता।

शाम, शहर में निहायत हैरतअंगेज़ चीज़ें दिखीं और अज़ीबोग़रीब वारदात से शहर ख़बरों का एक ज़खीरा बन गया। जो दिख रहा था, उसी के माथे पर 'मैं अन्ना हूँ' की पट्टी बंधी हुई थी और जो सबसे ज़्यादा उत्तेजित था, उसके सिर पर गांधी-टोपी थी। जिनके सिर पर टोपी थी, माथे पर पट्टी, वे बेतहाशा इधर-उधर भाग रहे थे। लिहाजा, भैंरो गुज्जर के गैंग के आदमियों ने खुलेआम हफ़्ता-वसूली की और नामधारी जाट के गुंडों ने रेस्तराओं में घुसकर मुफ़्त माल उड़ाया और मारपीट की। ठेलों पर चाटवाले विक्रेता गुंडे-बदमाशों की भीड़ देख, भाग खड़े हुए और पान की गुमटियों वालों ने भी अपनी जान नालों की ओट में छिपकर बचाई। सभी कोठे हाउस-फुल होने के कारण गांव से आए बड़े घर के मर्दों ने मेन चौराहे पर हंगामा और हुड़दंग किया। कुछों ने तो सेठों की कोठियों में घुसकर औरतों पर धावा बोला और जाने क्या-क्या अनापशनाप किया। शापिंग करने आईं लड़कियों ने अपने बचाव के लिए चुन्नी मुंह पर लपेटकर पुलिस की गुहार लगाई; लेकिन, उनकी चींख उन लोगों की नारेबाजी का हिस्सा बन गई जिनके माथे पर 'मैं अन्ना हूं' की पट्टियां बंधी हुई थीं और जिनकी हिफ़ाज़त में पुलिस लगी हुई थी।

अगले दिन सुबह, मिट्ठू, छग्गन और भठियार गांव में अपने-अपने धंधे में व्यस्त दिखे। मिट्ठू काफी देर रात को वापस गांव लौटने और नींद पूरी होने के बावज़ूद बेहद खुश था। सबेरे काम निपटाने के बाद वह ओसारे में गया और बोरी में लाई रेज़गारी को गिनने लगा।

कनचट्टी की आंखें फटी की फटी रह गई, "ए डमरू के बाऊ! हेतना पइसा बिदेस से आवा है क्या?"
मिट्ठू मुस्करा उठा, "हां रे चिमरखी! सुटजर लैंड से आवा है--अन्ना बाबा के पास। हम जैसे दरिद्दरों को कल इहै पइसा बांट रहे थे। कह रहे थे कि अगले महीने और पइसा आएगा--इंग्लैंड से। हम अपने पलटन संग फिर जावेंगे। अबकी बार दिल्ली जावेंगे।"

कनचट्टी खटिया पर पसरकर अपनी गरदन खुजलाने लगी, "लेकिन, सुटजर लैंड से चिल्लर ही आवा है? अरे, अन्ना बाबा चिल्लर ही काहे बांटे हैं? रुपिया काहे नहीं? देखो, चिल्लर गनने में केतना परसानी होए रहा है?"

तभी बाहर थानेदार बल्ली सिंह की बाइक धड़ाम से आकर रुकी। मिट्ठू तो एकदम से हड़बड़ा उठा और एक मुजरिम की तरह सिर झुकाए उसके पास गया। बल्ली अपना डंडा घुमा-घुमाकर मिट्ठू से जिस तरह बतिया रहा था, उससे कनचट्टी बिल्कुल घबड़ा-सी गई। कुछ मिनट बाद, दोनों ओसारे की ओट में गए। मिट्ठू ने कनचट्टी की ओर आंख तरेरा तो वह पूंछ दबाकर कोठरी में दुबक गई। उसके बाद, बल्ली सिंह ने अपना डंडा मिट्ठू के कंधे पर रख दिया, "देख, मिट्ठुआ! तूं कल तहसील में हमारे नाम पर फ्री में माल खाया, शराब पी, रंडीबाजी की और सरेबाजार लूटमार की। चल, जो तूं खा-पी गया और रंडीबाजी का मजा लिया--उसका पैसे तो हम मांगेंगे नहीं। लेकिन, लूटपाट से जो पैसा तूने वसूला है, उसका पछत्तर परसेंट हमें दे दे, वरना अन्ना हजारे की कसम! तुझे फर्जी केस में हवालात में डालकर कुत्ते की मौत मार डालूंगा। मैं बेईमान लोगों को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता हूं।"

मिट्ठू ने बल्ली सिंह के आगे साष्टांग समर्पण कर दिया, "सरकार! आप तो हमारे माई-बाप हैं। हमें तो इस बात की खुसी है कि कल आपके बदौलत हमजने तहसील में कितना मौज उड़ाए रहे? बस, आपसे एक ठो गुजारिस है कि जब अन्ना बाबा की रैली फिर निकले तो हमें मत भुलाना। हम आपकी सेवा करने दिल्ली तक चलेंगे।"
फिर, मिट्ठू ने रेजगारी की गठरी को थानेदार बल्ली सिंह की ओर सरका दिया और बाहर निकलकर 'अन्ना हजारे की जय' का इतना जोरदार नारा लगाया कि बरगद के पेड़ों में सुस्ता रहे परिंदे फड़फड़ाकर बाहर उड़ने लगे और लोगबाग इस तरह हदस कर बाहर निकल आए जैसेकि गब्बर सिंह फिर से जेल से भागकर गांव में गया हो और फायरिंग़ करते हुए हथकट्टे ठाकुर को सौंपने के लिए लोगों को डरा-धमका रहा हो!

(समाप्त) 

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