साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) फरवरी-2014
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चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर |
नवाब वाजिद अली शाह को अवध से निर्वासित कर मटियाबुर्ज भेज दिया गया। मटियाबुर्ज एक उपनगरीय क्षेत्र है जो कलकत्ता के निकट स्थित है।नवाब वाजिद अली शाह एक शासक के रूप में सफल हो सकते थे क्योंकि एक अच्छे शासक होने के साथ-साथ एक अच्छे इंसान के भी तमाम गुण उनमें अंतर्निहित थे। वे उदार, दयालु और अपने कार्य के प्रति समर्पित थे। इन गुणों के समानांतर, वे एक कवि, नाटककार, नृत्यकार और कला के महान संरक्षक थे। नवाब वाजिद अली शाह ने जब तख़्त सम्हाला, उन्हें न्यायपूर्ण प्रशासन, सेना में सुधार एवं अन्य प्रशासनिक मसलों में अत्यंत रुचि थी, किन्तु धीरे-धीरे वे संगीत व नृत्य के आनंद में डूबते चले गए।
संगीतकारों और कम्पोज़रों की एक बड़ी संख्या नवाब के संरक्षण में, संगीत के उत्थान एवं प्रगति के लिए कार्य कर रही थी। स्वयं नवाब आला दर्ज़े के कम्पोज़र थे। यही कारण था कि अवध में संगीत, विशेषकर ठुमरी की समृद्धि के लिए बड़े पैमाने पर काम हुआ। उन्होंने स्वयं कई ठुमरियाँ कम्पोज़ कीं, जिनमें से बाबुल मोरा मैहर... मील का पत्थर साबित हुई।नवाब वाजिद अली शाह ने प्यार ख़ाँ, बासित ख़ाँ और ज़फ़र ख़ाँ जैसे महान उस्तादों से गायन का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वे क़ैसर उपनाम से शायरी करते थे। उन्होंने सांगीतिक रचनाएँ अख़्तरपिया नाम से लिखी हैं। उन्होंने गद्य और पद्य में कई रचनाएँ की, जिनमें कविताएँ और ठुमरियाँ शामिल हैं। दीवान-ए-अख़्तर, एवं हुस्न-ए-अख़्तर में उनकी ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उन्होंने कई नए राग भी कम्पोज़ किए जैसे शाहपसंद, जोगी, जूही आदि। ठुमरी के साथ साथ उन्होंने कथक को लोकप्रियता के शिखर तक ले जाने में महती भूमिका अदा की। ठाकुर प्रसाद उनके कथक गुरु थे और कालिका-बिंदादीन उनके दरबार की शोभा।
बचपन से जोगी का वेष धरते धरते नवाब के हृदय में स्वांग और नाटक के प्रति अभिरुचि जागृत हो गई थी। उनके कलाप्रिय हृदय और अनुकूल वातावरण ने इसे और पुष्पित-पल्लवित किया। क़ैसर बाग़ की रहस मंज़िल में नवाब द्वारा लिखे और तैयार किए रहस मंचित किए जाने लगे। रहस, रास का पर्शियन भाषा के अनुरूप ढाला गया नया शब्द है, जिसका तात्पर्य नाटक से है। ये रहस अर्थपूर्ण कविता, नवाब द्वारा लिखी और स्वर-तालबद्ध की गई बंदिशों व लास्यपूर्ण कथक का सुंदर संयोजन थे और मँहगी पोषाकों व नाट्य सामग्री से सुसज्जित होते थे। नवाब वाजिद अली शाह द्वारा रचित रहस- राधा कन्हैया का क़िस्सा अपने प्रकार का पहला नाटक था। इसका मंचन रहस मंज़िल में किया गया। राधा, कृष्ण, सखियाँ और विदूषक, जिसे रामचेरा नाम दिया गया, इस रहस के पात्र थे। उन्होंने और भी कई काव्यों का नाट्यरूपान्तरण किया। इनमें से प्रमुख हैं- दरिया-ए-तश्क़, अफ़साना-ए-इश्क़, तथा बहार-ए-उल्फ़त। ऐसा माना जाता है कि सैयद आगा हसन अमानत लखनवी की इंदर सभा नवाब वाजिद अली शाह के द्वारा लिखे और मंचित किए गए इन्ही नृत्य नाटकों से प्रेरित थी।

रहस में गीत, नृत्य व नाटक को बड़ी खूबसूरती के साथ पिरोया जाता था। रहस की तैयारी पर लाखों रुपये खर्च किए जाते थे। ये रहस अत्यंत लोकप्रिय थे और जैसा कि हाल ही में ज़िक्र किया गया, इनका मंचन रहस मंज़िल में किया जाता था।ज्ञातव्य है कि नृत्य, संगीत और रहस में डूबे अवध को 1856 में ब्रिटिश शासन ने अपने अधीन कर लिया था और नवाब को मटियाबुर्ज भेज दिया गया था। सन् 1887 में अपनी मृत्यु तक, नवाब वहीं रहे।
नवाब वाजिद अली शाह की उपस्थिति के कारण कलकत्ता कला एवं संगीत की संरक्षण स्थली बन गया जैसा कि पहले उल्लेख किया है कि देश भर के जाने माने संगीतकारों का वहाँ आना जाना लगा रहता था। बहुत से कलाकार वहीं बस गए थे और बहुत से वहाँ पहुँच कर महीनों डेरा डाले रहते थे। जिस वर्ष अवध का पतन हुआ, उसके अगले वर्ष सन् 1857 मे, सौ से र्भी अधिक वर्षों से पराधीनता की वेदना सहन कर रहे हिन्दुस्तान की, अब तक की सर्वाधिक गौरवशाली घटना का सूत्रपात हुआ- स्वतंत्रता का महासंग्राम। यह 14 अगस्त, सन् 1947 की मध्यरात्रि को अपनी मंज़िल पर पहुँचने वाली नब्वे बरस लम्बी यात्रा का आरंभ था, जिसे हम सन् 1857 की क्रांति के नाम से जानते हैं और अंग्रेज़ों ने जिसे गदर कहा।
सन् 1857 की क्रांति से बौखलाए हुए, किन्तु चतुर व सजग अंग्रेज़ हुक्मरानों को यह समझने में ज़्यादा वक़्त नही लगा कि सबल राज-घरानों और सल्तनतों के अलावा इस क्रांति में उन इलाकों के लोगों की भी विशिष्ट भूमिका है जो संस्कृति, कला और कलाकारों के संरक्षक हैं। स्वतंत्रता की तलाश में विद्रोह के पथ पर क़दम बढ़ा चुके हिन्दुस्तान को काबू में रखने के लिए अंग्रेज़ों को तमाम नीतियों और सच कहा जाए तो अनीतियों का सहारा लेना पड़ा। इन नीतियों का एक ही उद्देश्य था- हिन्दुस्तान के राजनैतिक और सांस्कृतिक गढ़ों की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देना। यह सिलसिला लम्बे अरसे तक चलता रहा। इसी तारतम्य में जब अंग्रेज़ों की वक्र दृष्टि सांस्कृतिक नगरी बनारस पर पड़ी़ तो कितने ही सुयोग्य कवि, लेखक, नाटककार, कठपुतली नचाने वाले कलाकार, कथाकार, कीर्तनकार, नृत्यकार, ध्रुपदिए, ख़यालिए, ठुमरी व टप्पे के उत्तम कलाकार, शहनाई नवाज, सारंगिए, सितारिए, सरोदिए, पखावजिए, ढोली और तबलची अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धो बैठे।
आने वाले पल को यदि चित्रित करना हो तो एक प्रश्नचिह्न ही अंकित किया जा सकता है। भविष्य के गर्भ में क्या है कोई नही जानता। तबले पर थिरकती अंगुलियों ने क्या कभी कल्पना की होगी कि एक दिन उनकी दक्षता, चने-मुरमुरे की पुड़ियाँ लगाने मात्र के लिए उपयोगी रह जायेगी। सारंगी के तारों पर साधिकार फिसल, वाहवाही लूटती अंगुलियों ने कभी न सोचा होगा कि एक दिन किसी अहंकारी रईसज़ादे के द्वारा भीख में फेके गए एक पैसे की खातिर उन्हें सड़क किनारे की धूल में विचरना होगा। घर के किसी अँधेरे कोने में धूल खाती पड़ीं कठपुतलियाँ, शायद ठट्ठा मार कर हँसती होंगी कि उन्हें अपनी अंगुलियों पर नचाने वाला उनका आक़ा, पेट की आग बुझाने के लिए नियति के धागों में उलझा हुआ, स्वयं समय की अंगुलियों पर नाच रहा है।
नवाब वाजिद अली शाह ने मटियाबुर्ज को पूर्णतः लखनवी संस्कृति में ढाल लिया। वही बोलचाल, वही शायरी, वही कथक और वही रहस। उन्होंने वहाँ लखनऊ के बड़े इमामबाड़े की एक नक़ल भी तैयार करवाई। मटियाबुर्ज आ कर कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह अवध में नहीं कलकत्ता में है।आला दर्जे़ के कलाकारों के लिए मटियाबुर्ज के द्वार सदैव खुले हुए थे। नवाब, अवध से लेकर मटियाबुर्ज तक निरंतर एक कलाकार और कला संरक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे।
A good exposition of Wajid Ali Shah’s contribution to music during his exile years in Matiaburz.
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