टिप्पणी:भाषाई प्रभावना से आए है ये अच्छे दिन/कुसुम सिंह

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
अच्छे दिन आने वाले हैस्वर्णिम भविष्य की हठधार्मिताद्रढनिश्चयतावर्तमान की जिद और तस्वीर को एक साथ प्रस्तुत करता यह वाक्यदेश को एक आशातीत सुन्दरताअसीमित ऊर्जा से भर रहा हैइस साधारण से परन्तु जीवन्त वाक्य में भारतीय जनमानस का आकुल-व्याकुल और उमंगित मन खिल- खिल कर दिख रहा हैजो दुःखद अतीत के प्रति अपनी खीझनिराशा और दर्द को हंस- हंस कर खिझाने, दिखाने में विश्वास रखता आया हैमानो अब हम अच्छे दिन अपनी चोखट पर लाकर ही दम लेंगेअच्छे दिनों को लाने का यह दमदार मंत्र अतीत से कितना अनुभव लेगा-लियायथार्थ की कितनी चुनौतियों से गुजरेगा और भविष्य इन अच्छे दिनों के लिए क्या-क्या परिभाषाएँ गढ़ेगाइन अच्छे दिनों के लिए कौन-कौन से मुहावरे ईजाद होंगेनिश्चित रूप से ये भाषाई समीकरण भविष्य के पर्दे के पार लिखे जाएंगे परन्तु वर्तमान में भविष्य के लिए दिया गया जोश- जादू भरा अच्छे दिनों का यह मंत्र जिसने तंत्र के समीकरणों को बदल कर, उलट-पुलट कर रख दियाभविष्य के लिए इतिहास रच डाला और वर्तमानजो इन ऐतिहासिक अच्छे दिनों का साक्षी बना है|

इस मनभावन वाक्य कल्पना ने जमीन से जुड़ीं हुई सीधी-सरल हकीकत और उमंग को उड़ान दी है, जिसमें एक साधारण-सा मानव दर्शन हैजो बुरे-से-बुरे दिनों में भी अच्छे दिनों की कल्पना और जरुरत को समझता हैकल्पना में भावना हो सकती हैपरन्तु जरुरत हकीकत और हकीकत जरुरत को समझती है अच्छे दिन आएंगे नहीं कहा गयाक्योंकि इसमें मंचीय आश्वासन की-सी अविश्वसनीयता अधिक हैआने वाले हैं में एक निकटवर्ती मोहक आकर्षण और ज़िद का दर्शन दिखता है इस ह्रदय- उमंग और दर्शन को सपने से भरी भाषा-प्रभावना ने जन-जन के ह्रदय को ऐसा छुआ कि मानों उसकी स्वप्न-अभिलाषा को किसी एक की भाषा ने समझ लिया है |

इन अच्छे दिनों की भाषाई जरुरत, हकीकत ने सिद्ध कर दिया कि भाषा भी वह एक शक्ति है जो ह्रदय को ह्रदय से जोड़ कर रख सकती है यह ह्रदय-मंत्र किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं है ,किसी एक जाति-पातीमजहबसम्प्रदाय का नहीं हैयह सीमितसंकुचित नहीं है और अब रूढ़िबद्ध संकीर्णता भी इसे स्वीकार नहीं यह सार्वभौमिक मंत्र उस मानव- जरुरत और वक्त की भाषा का है -- जो परम्परागत मान्यताओं को बदलता हैपुरातन ढांचे की चूले हिला देता हैऔर व्यर्थ के सामयिक लच्छेदार प्रलोभनों को पहचानता है और अब नकारने की शक्ति भी रखता है |यह भाषा इतनी उदारमना और स्वप्नजीवी भी है कि इस अच्छे मुहावरे को गढ़ने के लिए मानवीय शक्ति स्वयं को अब नगण्यता के रूप में नहीं बल्कि लघुता और लघुता से बनने वाली उस गुरुता के रूप में देख सकी कि जिसने यह सिद्ध कर दिया कि अच्छे दिनों का यह मत बहुतो का मत है

एक वह भी भाषा थीजिसने गरीबों की दीन-हीन बुरे दिनों की स्थिति को सिरे से नकार कर,चंद रुपए उसकी जेब में होने पर उसे एक ऐसे तराजू पर बैठा दियाजहाँ से वह गरीब कतई नहीं तोला जा सकताभाषा की ऐसी अंधी अमीरी हमने देखी हैवही एक ऐसी चिंतनशील भाषा भी थीजो बोलने में जल्दबाजी तो कभी कर ही नहीं सकती थी परन्तुइतने गहन मनन में डूब गयी कि उसने मौनचुप्पी व उदासीनता की नई- नई शब्द-शैलियाँ तैयार कर दीकभी स्त्री की अस्मिता को उघारती खाप पंचायती भाषा की नग्नता दिखी तो कभी भाषा की एकता को जातीय और मजहबी राजनीतिक चालों के कारण संकीर्णता में भी बदलते भी देखा गयाभाषा की इस मक्कारीउदासीनतावीभत्सता व लघुता से प्रथक एक घ्वनि- स्वर- भाषा और वाक्य बनाजो सपने ख़ुशी और इंसानी जज्बे के निकट था 

मानव के निकट पहुंची यह भाषा जब साक्षात्कार में परिणत हुईतब इसकी उत्तर भावना भाषाई बनावटीपन और तत्काल उत्तर प्रवीणता के चातुर्य के बजाए इसमें एक ऐसी उत्तरदायित्वपूर्ण शैली का निर्वहन दिखाजिसमे पुरातनपंथी सुनी- सुनाई बचाव, आरोप शैली नहीं है कांईयापन नहीं,बडबोलापन भी नहीं और न लम्पटदार बहाव और न अनावश्यक और व्यर्थ का ठहराव इस बहाव और ठहराव के मध्य उभरती एक ऐसी जबान हैजो मुद्दे की बात सरलतासटीकता से कहने में विश्वास रखती है उसमे एक ऐसी तारतम्यता और देसीपन होता है किउसमे घर के एक जिम्मेदार बुजुर्ग का- सा अनुभवमय लहज़ा दिखता हैजिसके जवाब सुनने के बाद सामने वाला सोच- समझकर अगला प्रश्न दागता है |

यह भाषा जब राजनीतिक गलियारों से घर- घर तक पहुंचीतब सुनने वालों को ऐसा नहीं लगा कि सोवियतसंघ की कोई रिपोर्ट प्रस्तुत की जा रही है यह भाषा तथ्यों को भावों में बदलती है और आंकड़ो को मुहावरों में नेतागिरी की चिरपुरातन शब्दावली से दूरआश्वासनों से दूरउलझाऊ बोद्धिकता, जटिलता, दुरुहता से गुरेज करती हुई एक ऐसी सुनहरी भाषा है जिसने सबके दिल- दिमाग में अपनी पैठ बनाई यह भाषा अपनी नवीनता में प्रहार कर्ताओं के कटाक्ष और व्यंग पर जब लगाम लगाती तब साधारण जन के ह्रदय में एक ऐसे हम्म का भाव उभरता हैमानो अब सुना मन माफ़िक जवाब कि हमारे मुहँ की बात छीन ली हो 

कुसुम सिंह 
शोधार्थी- हिंदी विभाग 
दिल्ली विश्वविद्यालय
मो-: 9899 020 466
ई-मेल:kusumsinghsolanki@gmail.com
यह भाषा जब मंच पर चढ़ी तो इसका जादू हर- हर घर सिर चढ़ कर बोला इसके अंदाजे बयां और चुटकियों की शालीनता और जरूरती व्यंग शरारतों ने पारिवारिक माहौल जैसी स्तिथि उपस्थित कर दी यह एक ऐसी भाषा की प्रभावना थीजिसमे सस्तापन कहीं नहीं था परन्तु यह दूभर भी नहीं थी सतही नहीं थीपर इसमें गाम्भीर्य था हास्य का इसमें पुट थाजो उत्तरदायित्व की भावना से भरपूर था यह भाषा लोक रंजन और लोकमानस की इन दो खूबियों के साथ- साथ समुद्र की- सी विशालता और मस्तीमर्यादा और सुनामी की ऐसी लहर दीजिसमे सब ख़ूब भीगे |

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