शोध:समकालीन हिन्दी उपन्यासों में उत्तर आधुनिकता/डॉ. गोपीराम शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-17, जनवरी-मार्च, 2015
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चित्रांकन: राजेश पाण्डेय, उदयपुर 
आधुनिकता ने सम्पूर्ण मानवता को अज्ञान एवं अविवेक से मुक्त करवाकर ज्ञान-विज्ञान और बौद्धिकता के धरातल पर खड़ा किया। परन्तु विश्व युद्धों के बाद अनेक सामाजिक विषमताएँ ऐसी उभरी, जिनका हल आधुनिकता के पास नहीं था। भौतिक विकास, आर्थिक समृद्धि, मशीनीकरण, इहलौकिकता ने आदर्शों , मूल्यों की बलि चढाते हुए मनुष्य के जीवन को कई तरह के अन्तर्विरोधों से भर दिया। आधुनिकता की चकाचौंध लोगों में ऊब बनकर उभरी और उसने उत्तर आधुनिकता के लिए मार्ग खोलना शुरु किया। वर्तमान समाज, संस्कृति, सभ्यता, अर्थव्यवस्था, संवेदना, राजनीति, कला, साहित्य, फैशन, सिनेमा, यौन चिंतन, दर्शन, मूल्य आदि में जो तीव्र परिवर्तन लक्षित हो रहे हैं, उनके मूल में उत्तर आधुनिकता की अवधारणा है।

    उत्तर आधुनिकता कोई एक सिद्धांत नहीं, बल्कि अनेक सिद्धांतों का एक नाम है। इसकी कोई बंधी-बंधाई परिभाषा नहीं। उत्तर आधुनिकता परिवर्तित होते लक्षणों को कहा गया है। ‘‘यह एक ऐसा वाद है जो एक स्थिति या दशा की तरह है जो लगातार अस्थिर है, चंचल है, विखंडशील है।’’1 उत्तर आधुनिकता बहुलतावाद, विकेन्द्रीयता, स्थानीयता, अन्तर्विषयी चिंतन, अन्तर्पाठीयता, अर्थ की अनिश्चितता, युगल विपरीतता, पेरोडी-पेष्टीच आदि को अपनाती है, वहीं सर्वसत्तावाद, कला की शुद्धता-पवित्रता, समग्रता, नैतिकता, स्वायत्तता, पूर्णतावाद एवं महाख्यानों को नकारती है। वह आधुनिकता के कमाये सत्यों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए हर प्रचलित सैद्धान्तिकी को समस्याग्रस्त करती है। ‘‘उसके अनुसार कोई विचार, दर्शन शाश्वत, पूर्ण, अंतिम और स्थायी नहीं है, सब कुछ अनिश्चित और अस्थिर है। हर अवधारणा एक भ्रम है।’’2 लकां, आलथूसे, फूको, बार्थ, देरिदा, देल्यूज, ल्योतार्द आदि विचारकों में उत्तर आधुनिकता की अभिव्यक्ति मिलती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में जन्मी यह विचारधारा हिन्दी में सन् 1980 के आस-पास लक्षित होने लगी और आज हिन्दी की हर साहित्यिक विधा में किसी ने किसी रूप में मौजूद है। ‘‘उत्तर आधुनिकता के सूत्रों को समझे बिना हम अपने समय को नहीं समझ सकते, क्यों कि हमारे न चाहने पर भी वह हमारे बोध में सक्रिय है। हमारी ‘आक-थू’ से वह नष्ट नहीं होने वाली।’’3

    हिन्दी उपन्यासों का उद्भव भारतेन्दु काल से ही हुआ। प्रेमचन्द के ‘गोदान’ से आधुनिकता की शुरुआत मानी जा सकती है। स्वातंत्र्योत्तर काल में आधुनिकता अधिक सघनता से महसूस की जाने लगी। आज उत्तर आधुनिकता भी समकालीन उपन्यासों में देखी जा सकती है।   हिन्दी उपन्यासों में 1974 ई. के कृष्ण बलदेव वैद कृत ‘विमल उर्फ जाये तो जायें कहां’ में पहले-पहल उत्तर आधुनिकता चिह्नित होती है। इसकी पुष्टि करते हुए डॉ. हेतु भारद्वाज लिखते हैं- ‘‘कृष्ण बलदेव वैद को ‘विमल उर्फ जायें तो जायें कहां’ के आधार पर पहला उत्तर आधुनिकतावादी उपन्यासकार कहा गया है।’’4 इस उपन्यास में आधुनिकतावादी मूल्यों का नकार है। ‘यौन’ को एक नये रूप में चित्रित किया है जो कि उत्तर आधुनिकतावादी लक्षण है।

    ‘अपनी सलीबें’ उपन्यास नमिता सिंह द्वारा रचित है, इसमें उत्तर-आधुनिकतावादी तत्त्वों के दर्शन  होते हैं। इसमें स्त्री अस्मिता को रेखांकित किया गया है। स्त्री का साहित्य के केन्द्र में आना उत्तर आधुनिक विचार है। ‘‘विचार का केन्द्रवाद ध्वस्त हो गया है और विकेन्द्रीयता की प्रवृत्ति उभर रही है। दलित, दमित, नारी, अल्पसंख्यक जो कभी हाशिए पर थे, केन्द्र में आ रहे हैं।’’5 इस उपन्यास में नारी की समाज में दूसरे दर्जे की हैसियत पर चिन्ता व्यक्त हुई है। स्त्री की प्रगति में समाज की रूढ़ियां बाधक हैं- ‘‘यह जिन्दगी तो जैसे अंधेरे घने जंगलों में निकलने वाली पगडंडी का नाम है। कब किधर सेे कोई बाघ या भेड़िया हमला कर दे। कुछ पता नहीं।’’6 नायिका नीलिमा आई.ए.एस ईशू से प्यार करती है, पर जब नीलिमा को पता चलता है कि ईषु चमार जाति से है तो उसका प्यार समाप्त हो जाता है। यह उत्तर आधुनिक संदर्भ है कि व्यक्ति के बजाय पद, पावर और पैसा महत्त्वपूर्ण है। पात्र  ईशू के बहाने जाति पर बहस की गई है- ‘‘भारतीय यथार्थ की एक निर्णायक सांस्कृतिक श्रेणी जाति है, इसमें कोई शक नहीं, बुर्जुवा मानवतावाद ने इस श्रेणी को दबाए रखा। आधुनिकतावादी विमर्षो ने इसे दबाए रखा, जबकि उत्तर आधुनिक स्थितियों में यह श्रेणी फिर अनुभव के क्षेत्र में निर्णायक भूमिका अदा करने लगी है।’’7

    ‘मुझे चाँद चाहिए’ सुरेन्द्र वर्मा कृत उपन्यास उत्तर आधुनिक बोध को व्यक्त करता है। इसमें सिलबिल के वर्षा वषिष्ठ बनने और वर्षा वषिष्ठ द्वारा चाँद पाने अर्थात यष पाने की कथा है। अभिनय की उँचाइयों से वह अपने चाँद को पा जाती है। इस उपन्यास में कला बनाम व्यवसाय को लेकर बहस उठती रही है। ‘‘यहाँ से कला के महान मूल्यों की जगह उपभोग के मूल्यों का वर्चस्व शुरू होता है, छवियों और ग्लैमर का निर्णायक संसार शुरू होता है, जिसे वर्षा क्या, कोई नहीं ठुकरा सकता।’’8 इस उपन्यास में वर्षा वषिष्ठ मौलिक विद्रोहिणी स्त्रीवादी नायिका के रूप में उभरती है। कस्बे की सिलबिल लखनऊ, एन.एस.डी. होते हुए बम्बई पहुँचती है। उसकी इस यात्रा में अनेक आधुनिकतावादी मूल्य विखंडित हो जाते हैं। सिलबिल दमित यौन की प्रतीक है। वह अपनी अतृप्त इच्छाओं की राह में दिव्या, मिट्ठू, हर्ष, सिद्धार्थ, शिवानी, अनुपमा आदि से यौन या लैस्बियन सम्बंध जोड़ती दिखती है और अन्त में हर्ष के बच्चे के अनब्याही माँ बनकर देह मुक्ति की घोषणा करती है। ‘‘वर्षा एक नई तरह की औरत है जिसे आधुनिक कहकर परिभाषित नहीं किया जा सकता, वह मध्यमवर्गीय पारम्परिक औरत से अलग है और साथ ही पारम्परिक है।’’9 वर्षा वशिष्ठ की व्याख्या फ्रायड से नहीं, लकां से हो सकती है। वर्षा का आत्म आत्मरतिवादी है। वह देह के सौन्दर्य की खोज में संलग्न है। अभिनय भी इसी आत्मरति का विस्तार है। अभिनय की उँचाइयाँ छूकर ही अपने सौन्दर्य लोक या चाँद को पाती है। अन्तर्पाठीयता, कलाकार के लिए निरंकुश सत्ता की मांग, नये अर्थषास्त्र, यष-पैसे की चाहत, स्त्री अस्मिता, देह की कथा आदि उत्तर आधुनिक लक्षण इस उपन्यास में मिलते हैं।

    ‘डूब’ वीरेन्द्र जैन का उत्तर-आधुनिकतावादी विशेषताओं से युक्त उपन्यास है। इसमें पात्र ‘माते’ के माध्यम से कथा कही गई है। विकास योजनाओं के नाम पर विनाष को अभिशप्त ग्रामीणों की व्यथा इसमें चित्रित है। माते विकास विरोधी चरित्र हैं। वह विकास में विश्वास नहीं रखता। वह कहता है- ‘‘उस विकास से क्या फायदा जो मनुष्यों को उखाड़ दे, बेघरबार कर दे, उन्हें गलत जगह रोप दे, उनकी सहजात इच्छाओं को रौंद दे?’’ इस आधुनिकतावादी विकासवादी युग में यह ऐसा पात्र सामने आता है जो हिलने को तैयार नहीं है।  उसके दाँत में सुपारी शुरू में फंस जाती है, वह आखिर तक माते की तरह ढृढ रहती है। माते कहता है- ‘‘दांतन में जा सुपारी तो मोती साव की नाईं मो से चैंट गई है।’’10 इसमें एक भूमिपुत्र विकास की अवधारणाओं पर प्रश्नचिह्न लगाता है। यह विकास जड़ों से काटने की साजिश में लगा है। पूँजीवादी व्यवस्था गांवों को लील जाने को उद्यत है। शहरीकरण, विकास को चुनौती देकर इस उपन्यास में मार्क्सवाद जैसे महाख्यान का नकार किया है। ‘‘उत्तर आधुनिकतावाद घोषित तौर पर कहता है कि साहित्य में महाख्यान का युग समाप्त हो गया है और अब कोई न तो सर्वमान्य आलोचना सिद्धान्त है, न हो सकता है।’’11

    ‘‘कुरु-कुरु स्वाहा’’ में मनोहर श्याम जोशी ने उत्तर आधुनिक गद्य प्रस्तुत किया है। आधुनिक युगीन अस्तित्ववाद का इसमें अन्त है- ‘‘बात यही है कि एक वह होता है, एक वह होती है और जो कुछ होता है, वह कुछ भी नहीं होता क्योंकि वह उनके दो होने से होता है और सच्ची-मुच्ची वे दो थोड़ी ही होती है।’’12 इसमें मनोहर श्याम जोशी के तीन चेहरे हैं। ये तीनों जब चाहे गडमड करते हैं। कहानी का कोई भी पात्र स्थिर चरित्र नहीं रहता। यह मेटा नैरेटिव है। इस उपन्यास की नायिका पहुँचेली सजग, चेतनाशील नारी है। उसे शक्ति के मिथक से जोड़कर नारी अस्मिता की बात कही है पुरुष प्रधान समाज एवं संस्कृति पर चोट करते हुए वह कहती है- ‘‘तुम्हारे सपने पुल्लिंग मात्र है और मेरे दुःख स्त्रीलिंग मात्र? प्रार्थना करो कि यह तुम्हारा यह पौरुष पिटा हुआ फिकरा न साबित हो।’’13 पहुँचेली की व्याख्या पुरानी थ्योरियों से नहीं, उत्तर आधुनिकतावादी लकां से हो सकती है। पहुँचेली हर बार पाठक की पकड़ से फिसल जाती है कि पाठक उसे टैक्स्ट में फिक्स नहीं कर पाता। इस उपन्यास का षिल्प, संरचना और भाषा भी उत्तर-आधुनिक है। पेरोडी-पेष्टीच, अन्तर्पाठीयता, अर्थ की अनिष्चितता यहाँ विद्यमान है। पेरोडी इस उपन्यास में कई जगह है, यथा-’’ तुम पतुरिया के प्यार के इस चक्कर से बाद में साहित्य का चक्कर चलाओगे और झूठ को सच बनाकर पतुरिया को छिन्नमस्ता के समकक्ष नही तो समानान्तर अवष्य रख दोगे।’’14 पेरोडी के साथ पेष्टीच की भी झलक इसमें मिलती है। इसके संवादों में अन्तर्पाठीयता है। इसमें  भाषा ऐसा खुला खेल है कि चालू समीक्षाएँ संकटग्रस्त हो जाती हैं। यह खेल साहित्य, वृत्तान्त, कथा को खत्म कर देता है। उसे विविध स्तरीय किस्सा बना देता है जिसका फिर केवल विखंडन ही किया जा सकता है।

    ‘हरिया हरक्यूलीज’ की हैरानी’ भी मनोहर श्याम जोषी द्वारा रचित है। इसमें गूमालिंग के जादुई बिम्ब द्वारा न्यू फ्रायडवाद के सीजोफ्रेनिक चित्त को उभारा गया है। पूरी कथा परम्परावादी पाठक के लिए एक शौचालय दर्षन है पर यही उत्तर आधुनिकता का ‘टेक्स्ट’ है। उत्तर आधुनिकता के युग में सत्य की प्रतिनिधिकता संकटपूर्ण हो गई है। सत्य और झूठ आपस में ऐसे मिल गए हैं कि वास्तविकता जानना  मुश्किल हो गया है। यही इस उपन्यास में है- ‘‘संषयात्मा भी तीन गुटों में बंट गए थे, एक डॉक्टर नीलाम्बर और पत्रकार धारी का था... दूसरा गुट, जिसका झण्डा हेमुली बोज्यू मरते दम तक उठाये रही... संषयात्मा गुट की तीसरे घडे़ ने, जिसकी नेता विदूषी राजनीतिक कार्यकर्त्री डॉक्टर कौमुदी त्रिपाठी थी...।’’15

इस उपन्यास में पहल कभी हैरान न होने वाल हरिया के साथ पाठक भी हैरान होते हैं कि गूमालिंग था कि नहीं, हरिया और हैरी स्मिथ एक थे या नहीं। इन प्रश्नों से कथा को अन्तर्पाठीयता मिलती है। पाठक अपने-अपने अर्थ निकालते हैं। इस उपन्यास में बौद्रीआ की छलना पैदा हुई है जिसने कथा के भोलेपन को समाप्त कर उसे ‘पाठ’ में बदल दिया है। इस उपन्यास में कोई समग्र सत्य उभर कर नहीं आता। क्योंकि उत्तर आधुनिकता समग्रता की विरोधी है।

    श्री लाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ उत्तर आधुनिकतावादी विशेषताओं से युक्त है। यह उपन्यास व्यंग्यात्मक शैली में वर्णित है। कथा का केन्द्र शिवपालगंज है। लेकिन यह कथा भारत के किसी गांव की हो सकती है। इस उपन्यास में मूल्यहीनता, स्वार्थ, अवसरवादिता, अमानवीयता, नैतिक गिरावट, कुत्सित राजनीति जैसे आधुनिकतावादी लक्षणों के साथ ऐसी स्थितियाँ चित्रित हुई हैं जो उपन्यास को उत्तर आधुनिक बनाती है। लेखक पाठक को उत्तेजित नहीं करता। समस्याओं को हटाने के लिए लेखक कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करता। यही उत्तर आधुनिक संदर्भ है कि लेखक कोई सुधारक नहीं है। राग दरबारी पुराने पाठों के बजाय अनेक नये पाठों की मांग करता है। इसकी पठन पद्धति यथार्थवादी नहीं है, इसमें अन्तर्पाठीयता है। जैसे थाने के वर्णन में लेखक कहता है- ‘‘हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थी जो लगता था गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बांस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी नाले पार करने और झपट कर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है।’’16

    इन उपन्यासों के अलावा विनोद कुमार शुक्ल के ‘खिलेगा तो देखेंगे’, मैत्रेयी पुष्पा का ‘इदन्नमम’, दूधनाथ सिंह का ‘नमो अंधकार’, भीमसेन त्यागी के ‘सुरंग’, जयप्रकाष कर्दम के ‘छप्पर’, रामदरश मिश्र के ‘बीस बरस’, मिथलेश्वर के ‘यह अंत नहीं’ एवं वीरेन्द्र सक्सेना के ‘खराब मौसम के बावजूद’ आदि में भी उत्तर आधुनिक युग की आहट सुनाई देती है। ‘खिलेगा तो देखेंगे’ में एक खुला अंत या निष्कर्षहीनता प्रकट हुई हैं अन्तर्पाठीयता संभव होती है। ‘इदन्नमम’ मे कई्र केन्द्र टूटे हैं। स्त्री, जाति आदि कई नये केन्द्र बने हैं। यही स्त्री अस्मिता ‘सुरंग’ में भी वर्णित है। ‘छप्पर’ और ‘बीस बरस’ में दलित और स्त्री केन्द्र में आए हैं। ‘खराब मौसम के बावजूद’ में आधुनिकतावादी मूल्यों को नकारा गया है। इसमें विवाह संस्था पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है। विवाह के कारण प्रेम और सेक्स का समुचित समन्वय नहीं हो सकता।

  
डॉ. गोपीराम शर्मा
व्याख्याता हिन्दी
              डॉ. भीमराव अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय,
              श्रीगंगानगर (राज.)
समकालीन युग में उपन्यासों में एक नवीन जीवन दृष्टि मिलती है। इनकी भाषा नये सन्दर्भो वाली है। आधुनिकतावादी मूल्य चेतना इनमें है पर कुछ उपन्यासों में नवीन बोध प्रकट होने लगा है। इनमें न कुछ अपूर्व है न ही अलौकिक, न कुछ पावन है, न कुछ विलक्षण, न ही कुछ दार्शनिक है न कुछ आध्यात्मिक। ये उपन्यास कोई समाधान न प्रस्तुत कर खुले अंत के साथ रह जाते हैं। इसका कारण है कि आज के समय में सभी समस्याओं का हल आदर्शों और नैतिकता से संभव नहीं है। आधुनिकता के मूल्य और आदर्श आज दरक गए हैं, उनकी व्यर्थता साबित हो रही है। इसलिए आज लेखन ‘सृजन’ नहीं, ‘टेक्स्ट’ है। इस टेक्स्ट में शाश्वत, पावन, स्थायी, कल्याणकारी, आध्यात्मिकता जैसे अर्थ सन्दर्भ मृत हैं। साहित्य ने अब उस सृजनात्मकता की ओर कदम बढा दिया है, जिसे उत्तर आधुनिकता कहा जाता है। समकालीन उपन्यास वर्तमान समय और समाज को उद्घाटित करते हैं। इन उपन्यासों को पुरानी समीक्षाओं के आधार पर विश्लेषित नहीं किया जा सकता। उत्तर आधुनिकता के आधार पर ही नये उपन्यासों को समझकर वर्तमान समय और समाज को जान सकते हैं।
सन्दर्भः-

1.    डॉ. सुधीष पचौरी-उत्तर आधुनिक साहित्यिक विमर्ष, वाणी प्रकाषन, दिल्ली, 1996 ई, पृष्ठ-96
2.    कृष्णदत्त पालीवाल-उत्तर आधुनिकतावाद और दलित साहित्य, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2008 ई., पृष्ठ-33
3.    देवषंकर नवीन-उत्तर आधुनिकताःकुछ विचार, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2000 ई.,पृष्ठ-18
4.    डॉ. हेतु भारद्वाज-हिन्दी उपन्यास: उद्भव और विकास, पंचषील प्रकाषन, जयपुर, 2005 ई., पृष्ठ-178
5.    कृष्णदत्त पालीवाल-उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2008 ई. पृष्ठ-36
6.    नमिता सिंह-अपनी सलीबंे, राधाकृष्ण प्रकाषन, नई दिल्ली, 1995 ई. पृष्ठ-32
7.    सुधीष पचौरी-उत्तर यथार्थवाद, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2005 ई., पृष्ठ-126
8.    सुधीष पचौरी-उत्तर आधुनिक साहित्यिक विमर्ष, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 1996 ई., पृष्ठ-166
9.    रवीन्द्र त्रिपाठी का लेख-हंस, जुलाई 1994 ई., पृष्ठ-84
10.    वीरेन्द्र जैन-डूब, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 1998 ई., पृष्ठ-93
11.    कृष्णदत्त पालीवाल-उत्तर आधुनिकतावाद और दलित साहित्य, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2008 ई., पृष्ठ-23
12.    मनोहर श्याम जोशी-कुरु-कुरु स्वाहा, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, 1983 ई.,पृष्ठ-127
13.   
मनोहर श्याम जोशी-कुरु-कुरु स्वाहा, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, 1983 ई., पृष्ठ-73
14.   
मनोहर श्याम जोशी-कुरु-कुरू स्वाहा, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, 1983 ई., पृष्ठ-64
15.  
मनोहर श्याम जोशी-हरिया हरक्यूलीज की हैरानी, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, पृष्ठ-115
16.    श्री लाल शुक्ल-राग दरबारी, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, 2008 ई., पृष्ठ-12             

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