शोध:शिवानी के उपन्यास और सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदना/हीरा लाल लुहार

चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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शोध:शिवानी के उपन्यास और सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदना/हीरा लाल लुहार 

मानवीय अस्तित्व को बनाए रखने के लिए समाज एक महत्त्वपूर्ण आधार है। मनुष्य समाज से विलग नहीं हो सकता। समाज में ही जन्म लेता है और अपना सम्पूर्ण जीवन समाज में ही बिताता है। मनुष्य के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास समाज में ही होता है। अरस्तु के अनुसार- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, मनुष्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए अन्य व्यक्तियों से सम्बन्ध रखना पड़ता है। इन सम्बन्धों को सामाजिक सम्बन्ध कहते हैं।प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैकाइवर तथा पेज के अनुसार समाज कार्य प्रणालियों और चलनों की अधिकार सत्ता और पारस्परिक सहायता की अनेक समूह व श्रेणियों की तथा मानव व्यवहार के नियंत्रणों अथवा स्वतंत्रताओं की एक व्यवस्था है। इस निरंतर परिवर्तनशील व जटिल व्यवस्था को हम समाजकहते हैं।हैरी एम. जॉनसन के अनुसार, “संस्थापित प्रतिमानों द्वारा समूहों के परस्परबद्ध होने की सुसमेकित-सी प्रणाली को समाज कहते हैं।

उपर्युक्त रूप से समाज को परिभाषित करने के बाद निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मनुष्य जीवन में समाज का अत्यधिक महत्त्व है और व्यक्ति तथा समाज एक दूसरे के पूरक हैं। शिवानी के उपन्यासों व कहानियों में समाज की व्यक्ति के जीवन में विभिन्न भूमिकाओं एवं संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जिसका जिक्र निम्न विवेचन में प्रस्तुत है।समकालीन कथा दौर में दाम्पत्य सम्बंधों को लेकर लगभग सभी लेखकों ने कलम चलाई है। स्त्री-पुरूषों के विपरीत स्वभावों एवं प्रकृति के कारण सम्बन्धों में टूटन, बिखराव व संघर्ष का आना स्वाभाविक है। पहले पुत्र-पुत्री की इच्छा को जाने बिना अभिभावक ही सम्बन्ध स्थिर कर दिया करते थे फलस्वरूप वैचारिक भिन्नता के चलते दाम्पत्य जीवन में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती। 

शिवानी ने चाँचरीलघु उपन्यास में चाँचरी और श्रीनाथ के संघर्षमयी दाम्पत्य जीवन का वर्णन किया है। श्रीनाथ के परिवार वाले चाँचरी और श्रीनाथ के विवाह से खुश नहीं थे। असंतुष्ट परिवार जन उसे किसी न किसी बहाने प्रताड़ित करते रहते। यहाँ तक की उस पर चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर घर से निकाल देते हैं। चाँचरी आश्रम में जाकर तपस्विनियों की तरह जीवन-यापन करने लगती है। वह अपलक दृष्टि से उसे देख रही थी। इतने वर्षों बाद भी उसे देखकर वह नहीं चौंकी। महामाया का साक्षात् पार्थिव विग्रह ही क्या सहसा अवतरित हो उसे सम्मोहित कर रहा था। वह अडिग भव्य मुद्रा में पूर्ववत् खड़ी थी- शान्त, निश्चल, अस्खलित किसी अदृश्य प्रलयाग्नि की दीप्त प्रभा से उसकी मनोरम कान्ति रह-रहकर दमक रही थी। श्रीनाथ को एक क्षण को लगा, वह गिर पड़ेगा। उसका दृढ़ संकल्प विषम परिस्थिति से टकराकर चूर-चूर हो गया।
गैंडालघु उपन्यास में राज का पति सुपर्णा के पति की तुलना में बेहद बदसूरत है जबकि राज, सुपर्णा से खूबसूरत है, उसके मन में अपने पति को लेकर हमेशा हीनता का भाव रहता है। इसलिए उसका दाम्पत्य जीवन ज्यादा सुखी नहीं होता। अपने पति को वह गैंडाकहती है। परन्तु सदा की भाँति सुपर्णा से अपना पलड़ा भारी दिखाने के चक्कर में कहती, ‘बदसूरत पति की पत्नी होने में जो सुख है, वह तू कभी समझ ही नहीं सकती। कोई भी फरमाइश मुँह से निकलते ही पूरी ! हाथ की हथेली में पति ऐसे उठाकर चलता है जैसे काँच की गुड़िया हूँ। ससुर का अफ्रीका में बहुत बड़ा व्यापार है। ये तो शौकिया नौकरी कर रहे हैं, जब जी ऊबेगा, फिर वहाँ उड़ जाएँगे।शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में दहेज समस्या को भी प्रमुख संवेदना के रूप में अभिव्यक्त किया है। साथ ही ऐसे नारी चरित्रों को भी उभारा है जिन्होंने दहेज के खातिर अपने माँ-बाप को दयनीय दशा में देखकर विवाह के प्रस्ताव तक ठुकरा दिये और दरवाजे पर आई हुई बारात को भी पुनः लौटा दिया।

पाथेयलघु उपन्यास में डॉ. तिलोत्तमा ठाकुर के विवाह के अवसर पर दहेज विरोधी अभिभावक कहते हैं- हम तुम्हारी  भावजी से ही अपने प्रतुल का विवाह करेंगे- जो उसके कान में तुम लोगों ने माणिक के झुमके और गले की चेन देखी थी, उसे ही पहनाकर तो आशीर्वाद कर गए। बोले- हमें दान-दहेज कुछ नहीं चाहिए बस यह सुन्दरी कन्या चाहिए।

चाँचरीलघु उपन्यास में श्रीनाथ जब अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ बूढे़ दरिद्र ब्राह्मण की बेटी ब्याह लाया, वह भी बिना दहेज के, तब वे बड़े क्रोधित हुए लेकिन चाँचरी के पिता को तो जैसे जामाता के रूप में देवता मिल गया, ‘विदा के पूर्व वह दीन ब्राह्मण जामाता के पैरों पर ही गिर पड़ा था, “तुम निश्चय ही देवता हो बेटा, नहीं तो क्या इस दरिद्र ब्राह्मण को ऐसे उबार लेते ? कहाँ राजा भोज तुम और कहाँ मैं गंगू तेली। सिवाय कुश कन्या के मेरे पास है ही क्या ?”

कालिंदीउपन्यास में कालिंदी घर पर आई हुई बारात को दहेज माँगने की खातिर उल्टे पैरों लौटा देती है। मामा-मामी इसे अपना अपमान समझकर कहते हैं- लड़की ऐसी ही राज-राजेश्वरी थी तो पहले ही लेन-देन की बात पक्की कर लेते। पहाड़ में तो लेन-देन अब नई बात नहीं है- कोई दिखा के लेता है, कोई छिपा के। एक तो पहाड़ में वैसे ही लड़कियों के लिए अच्छे लड़के नहीं जुटते, अच्छी चीज लोगे तो अच्छे दाम भी देने पड़ेंगे। द्वार पर आई बारात को अपमानित कर लौटाने में तो हमारी भी नाक कटी।

पूतोंवालीलघु उपन्यास में पाँच पुत्रों के पिता शिवसागर दहेज की रकम सुन सुनकर उलझन में पड़े हुए हैं- तीसरे हरामखोर बेटे अजय के विवाह के बाद तो उन्होंने उसका मुँह ही नहीं देखा, न देखेंगे। वह प्रशासकीय सेवा में आया तो कन्याग्रस्त समृद्ध पिताओं ने, उसे प्रस्तावों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु ही बना दिया। उदार दहेज के नीलामी हथौड़ों की चोट से शिवसागर लगभग बहरे ही हो गए थे। एक चालीस हजार की घोषणा करता तो दूसरा पचास हजार, तीसरा पुत्री के साथ सजा-सजाया फ्लैट और मारूति गाड़ी का तोहफा सजाए चला जाता।

रथ्यालघु उपन्यास में गरीब ब्राह्मण की बेटी से विमल का विवाह हुआ, परन्तु गरीब ब्राह्मण के पास दहेज में देने को कुछ नहीं है। विमल के पिता बड़े वैध कहते हैं- देखने में लड़की साधारण है विमल, पर रूप को मैं कभी महत्त्व नहीं देता। तेरी माँ भी तो साँवली थी। लड़की खाते-पीते घर की है। तू लोगों के भड़काने में मत आना। बाप ने दहेज में दो भैंसे भी देने का वायदा किया है।

वेश्या को समाज में अत्यंत तिरस्कृत दृष्टि से देखा जाता है लेकिन कोई इसके पीछे छिपे कारणों की तह तक नहीं पहुँचना चाहता। वेश्या जन्मजात नहीं होती। परिस्थितियाँ उसे बनाती है। वेश्या सम्बन्ध यौन सम्बन्ध का ही एक दूसरा रूप है। पुरूष इसी उद्देश्य से वेश्या के पास पहुँचता है कि उसकी यौन सम्बन्धी शारीरिक आवश्यकताएँ तुष्ट हो जाएँ। स्त्री इसलिए वेश्या वृत्ति धारण करती है कि उसको अपने जीवन में कभी भूल से या मनुष्य के बल प्रयोग से सामाजिक बंधनों, धर्म और संस्कृति की दृष्टि से शील भ्रष्ट होना पड़ता है। अतः उसे जीवन यापन के लिए वेश्या जीवन के बिना दूसरा पर्याय नहीं होता।

शिवानी ने अपने उपन्यास साहित्य में वेश्या जीवन को सहानुभूतिपूर्ण तरीके से उकेरा है। वेश्या होने से पहले वह एक नारी है और नारी से उसे वेश्या बनाने का जिम्मेदार सिर्फ पुरूष है। कृष्णकलीउपन्यास में कली असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित माता पार्वतीतथा पिता असदुल्लाकी सन्तान है। पार्वती उसे मार डालना चाहती है लेकिन डॉ. पैद्रिक की सहायता से पन्ना वेश्या उसका पालन पोषण करती है। पन्ना कली को अपने जीवन की काली छायाओं से दूर ही रखती है। वह कभी नहीं चाहती कि कली भी इसी दलदल में धँसे। लेकिन कली को अपनी माँ पन्ना और उसके प्रेमी मजूमदार से पता चल ही जाता है कि वह किसकी संतान है। कई तरह के धन्धे करने के बावजूद कली अपने चरित्र के प्रति संयमित रही केवल प्रवीर ही उसके मन घर कर सका। हालांकि वह भी उसे नहीं मिला परन्तु कली कुत्सित वातावरण में रहते हुए भी सभी पाठकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ गई।

रथ्यालघु उपन्यास में बसंती को परिस्थितियों ने वेश्या बनाया। अगर विमल का पिता बसंती को अपनी बहू स्वीकार कर लेता तो वह सर्कस के साथ भागती नहीं। अगर सर्कस का मैनेजर उसका शील भंग नहीं करता तो वह वेश्यावृत्ति के मार्ग पर नहीं चलती, क्योंकि उसके बाद बसंती के लौटने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे। लोगों का मनोरंजन करके उसने खूब पैसा कमाया, परन्तु विमल के प्रेम को वह अंत तक नहीं भूल सकी। जब विमलानंद बसंती के घर गया, “छोटे वैद,” उसे खींचकर बसंती ने गुदगुदे गद्दे पर बिठा दिया, फिर उसके दोनों घुटने थाम वह उसके पैरों के पास बैठ गई। मैं जानती थी, एक दिन तुम ऐसे ही चुपचाप आकर मेरे द्वार पर खड़े हो जाओगे।” जबकि विमल उसके प्रेम और निश्छल भावना को न समझ उसके घर पहुँचने वाली सड़क को रथ्यानाम दे जाता है।

करिए छिमाकी हीरावती वेश्या है। परन्तु श्रीधर के प्रति सिर्फ प्रेम का भाव रखती है, वह उसके लिए समर्पित है। सिर्फ श्रीधर को बचाने के लिए कि उसकी इज्जत न चली जाए, अपने बच्चे को जिसके नैन-नक्श श्रीधर से काफी मिलते थे, जल में डुबोकर मार देती है। आज इतने वर्षों पश्चात् उसी हत्यारिन की स्मृति श्रीधर को विह्वल कर रही थी। क्या अब भी वहीं रह रही होगी ? क्या सचमुच ही उन सुकुमार हाथों ने अलकनन्दा की तीव्र हिम शीतल लहरों में किसी नन्ही-सी देह को निर्ममता से बहा दिया होगा ?”
कैंजाउपन्यास में सुरेश भट्ट की पहली पत्नी वेश्या है।

कृष्णवेणीलघु उपन्यास में भास्करन का जिक्र उसके वेश्या संबंध को लेकर होता है- मैं बार-बार यही मन में दोहरा रही थी। भास्करन का निष्पाप चेहरा मेरी आँखों में छा गया। उसने मुझसे कभी कुछ नहीं छिपाया, न अपने पिता की दरिद्रता, न अपना दौर्बल्य। कैसे कुसंगति में पड़कर वह एक बार अठारह वर्ष की उम्र में ही वेश्यालय चला गया था। कैसे उसने एक बार चाचा की शराब चुराकर पी थी। फिर इतनी बड़ी बात वह क्यों छिपा गया ?”

अवैध मातृत्व एक ऐसी समस्या है जो प्राचीन काल से चली आ रही है। कुँवारी कन्या का विभिन्न परिस्थितियों वश माँ बन जाना अवैध मातृत्व कहलाता है चाहे इसमें कन्या का दोष हो या ना हो समाज के लिए कलंक ही माना जाता है। पुरूष अपना कर्म करके छूट जाता है, दण्ड भोगना पड़ता है कन्या को।शिवानी ने अपने उपन्यास साहित्य में अवैध मातृत्व के कई चित्र उकेरे हैं साथ ही उसे वैधता प्रदान कराने का भी आदर्श स्थापित किया है। ‘किशनुली का ढाँटलघु उपन्यास में शास्त्रीजी अर्द्ध विक्षिप्त किशनुली को अपनी वासना का शिकार बना पश्चाताप के लिए निकल जाते हैं और वहाँ से पत्र लिखते हैं- उसके पैरों पर सिर रखकर स्वयं कहना चाहता था, पर गर्ग गोत्री इस नीच ब्राह्मण का ब्रह्मतेज बहुत पहले ही चुक गया है। कैसे कहूँ ? न जाने कितनी बार स्टेशन तक जा-जाकर लौट आया हूँ, उससे कह देना किशनी का ढाँट, ढाँट नहीं है, तेरी काखी का यह अधम पति ही उसका जनक है।

करिए छिमालघु उपन्यास में हीरावती और श्रीधर के सम्बन्धों से जो बच्चा पैदा होता है, श्रीधर की इज्जत की खातिर हीरावती उसकी हत्या कर देती है। अलकनन्दा में अपने नवजात शिशु पुत्र की मूड़ी डूबोए, हीरावती को ग्राम के डाकिए ने देखा और जब तक वह भागकर पटवारी को बुलाकर लाया, नन्ही लाश को तीव्र लहरें अदृश्य कर चुकी थी।जब श्रीधर ने पूछा, “तुमने ऐसा क्यों किया हीरावती।वह बोली, “जनमते ही उसने आँखे खोली।हीरावती ने मैली ओढ़नी से आँखें पोंछी। मैंने पहचान लिया। अदालत में मैं पहली बार झूठी बनी। तुम्हारी ही कंजी आँखें थी। वही नाक। वैसे ही टेढ़े होंठ कर मुस्कराया भी था दुसमनिया। सोचा कि मैं तो बदनाम हूँ ही, तुम्हें कीचड़ में क्यों घसीटूँ? सारा गाँव तुम्हें पूजता था। बड़ा होता, सब पहचान लेते कि किसका बेटा है।

कैंजाउपन्यास में सुरेश और मालदारिन की पगली लड़की बसंती के सम्बन्धों से रोहित का जन्म होता है। नंदी सुरेश के साथ विवाह करके रोहित की सौतेली माँ का भार अपने ऊपर लेती है। वह कहती है- मैंने आप सबको यहाँ क्यों बुलाया है, शायद ताई आपको बता चुकी है। मैंने निश्चय किया है कि मैं सुरेश भट्ट से विवाह करूँगी। रोहित आज तक यही जानता है कि मैं ही उसकी सगी माँ हूँ। आप सबसे मैं हाथ जोड़कर अनुरोध करती हूँ, कल उसके घर लौटने पर कोई भी उससे इस विवाह की चर्चा न करे।” 

तीसरा बेटालघु उपन्यास में सावित्री अवैध संतान को पाल पोसकर बड़ा करती है। जब गंगा बड़ा होकर उसे अपने बारे में पूछता है, तो वह कहती है- तुझे सब सुनना है ना ! तो सुन 15 दिसम्बर को हम तीर्थ यात्रा से लौट रही थी, रेल के डिब्बे में ही मुझे मिला था। उसी दिन मद्रास में कपालेश्वर के शिव मन्दिर के दर्शन कर लौटी थी। इसी से तेरा नाम धरा गंगाराम और जिस कम्बल से तू लिपटा था, वही है तेरी जन्म कुण्डली।

संस्कृति वह सीखा हुआ व्यवहार है, जिसकी सहायता से मानव मानवेत्तर प्राणियों से पृथक् होकर सभ्य कहलाता है। संस्कृति के दायरे में किसी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र आदि की वे सब बातें जो उसके (मनुष्य के) मन रूचि आचार विचार कला कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक रहती है।उसे संस्कृति कहा जाता है।शिवानी ने भी प्राचीन भारतीय संस्कृति का जिक्र करते हुए अपने लघु उपन्यास मोहब्बतमें कहा है- सातवीं शताब्दी की मूर्तियाँ, सौराष्ट्र के प्राचीन दुर्गों के भव्य भग्न द्वार, हड़प्पा की दुर्लभ मोहरें, मिथुन मूर्तियों की सज्जा में सँवरे सरौते, दुर्लभ नीली सिरेमिक्स के भग्न पात्र, ऐतिहासिक महत्त्व की मनकों की मालाएँ, कंकण, खिलौने, नमाजियाँआदि प्राचीन संस्कृति की विशेषताएँ हैं।हिंदू-धर्म में नामकरण, विवाह, अंत्येष्टि आदि संस्कार शास्त्र-वर्णित हैं। इनका पालन सांस्कृतिक परम्परानुसार किया जाता है। शिवानी के उपन्यास-साहित्य में इनका वर्णन दिखाई देता है।

शिवानी ने अपने उपन्यास में नामकरण संस्कार को भी महत्त्वपूर्ण स्थान देकर भारतीय संस्कृति को पुष्टता प्रदान की है। उक्त संस्कार प्रत्येक परिवार का महत्त्वपूर्ण संस्कार है। संतान का नाम ऐसा धरा जाता है, जो सुगम हो और ऊँची भावना प्रदान करने वाला हो।मोहब्बतलघु उपन्यास में दामिनी ने अपनी पुत्री का नाम वैदेही रखा था। कितने नामों की अवहेलना कर, उसके गुरू ने उसकी पुत्री का यह नाम धरा था - वैदेही। तब, यह क्या जानती थी, कि वह एक दिन सचमुच ही इस नाम को सार्थक करेगी- अभागिनी के भाग्य में क्या वैदेही के ही अरण्यवास की यह दुःसह वेदना लिखी थी ?”

किशनुली का ढाँटलघु उपन्यास में महाभारत की कुन्ती ने सूर्य का आह्वान किया परन्तु उसे अवैध सन्तान के रूप में कर्णकी प्राप्ति हो जाती है। उक्त उपन्यास में भी कुछ ऐसे ही हालातों में किशनुली और पण्डित के अवैध सम्बन्धों के चलते पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाती है फलतः उसका नाम भी कर्णरखा जाता है।तीसरा बेटालघु उपन्यास में सावित्री अनाथ बच्चे को घर ले जाती है। उसे अपना तीसरा बेटा मानती है। तीर्थयात्रा से लौटते हुए मिलने के कारण उसका नाम गंगाधररखती है।हिंदू धर्म में वैवाहिक संस्कार महत्त्वपूर्ण विधि संस्कार है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में विवाह धार्मिक कर्तव्य की श्रेणी में आता है। दाम्पत्य सम्बन्ध को जन्म-जन्मांतर का सम्बन्ध माना गया है।

शिवानी के कथा-साहित्य में कई अवसरों पर कुमाऊँनी पहाड़ी पद्धति एवं आधुनिक रीति-रिवाजों से सम्पन्न वैवाहिक कार्यक्रमों की झलक दिखाई पड़ती है। कैंजा लघु उपन्यास में नंदी व सुरेश के विवाह का उदाहरण द्रष्टव्य है- यह शुभ कार्य तत्काल सम्पन्न हो, क्योंकि कल सुबह ही रोहित शायद लौट आऐगा। उसकी इस चट मँगनी और पट विवाह में फिर दो घंटे भी नहीं लगे थे। सौभाग्य से उस दिन भी ताई का व्रत था, निर्जलनिराल कर उन्हीं ने कन्यादान किया और अपनी एकमात्र मोहनमाला नववधू को पहना दी। ऐसा विचित्र विवाह उस गाँव में ही क्या, शायद संसार में भी पहले कभी नहीं हुआ था। उत्तेजना से क्लान्त हो गया नौशा बार-बार निढाल होकर बिस्तर पर लेट जाता था। कई बार विवाह वेदी से उठ-उठकर वधू ने उसकी नब्ज देखी। सप्तपदी के बीच पावन-अग्नि की आँच में ही सिरिंज उबाल उसे इंजेक्शन दिए और जब फेरे फिरने का समय आया, तो वह वरविहीन वधू पीले पटुके को अपने आँचल से बाँध, अकेली ही पावन अग्नि की प्रदक्षिणा कर गई थी। पलंग पर पड़ा सुरेश भट्ट बीच-बीच में आँखें खोलता और फिर बन्द कर लेता। विवाह सम्पन्न होते ही सहमे अतिथि स्वयं ही विदा हो गए, तो चिन्तातुरा नन्दी सुरेश भट्ट के सिरहाने बैठ गई।
                  
चौदह फेरेउपन्यास में बसन्ती के विवाह पूर्व की तैयारियों का दृश्य- आभूषणों के उपहार और दामी साड़ी देने के बाद, अहल्या पर ताई की कृपा दृष्टि बढ़ती गई थी। बेटी, ज़रा तू लाल कपड़े पर रूई से स्वागतम् तो लिख देना, बंगाल में तो तूने ऐसी सजावट तस्वीरें निकालना खूब सीखा होगा। अकेला रज्जू ही सब काम में जुटा है, और छोकरों को तो मरी छोकरियों को देखने से ही फुर्सत नहीं।

विवाह के आह्लादपूर्ण वातावरण से गृह का ओर छोर भीग उठा था। बाहर पत्थर के आँगन के ऊपर, रंगीन शामियाना टांग दिया गया। नीचे बिछे दामी भारी गलीचों पर कई बच्चों का दल कलाबाजियाँ खा रहा था। वर के स्नान से अभिषेक की गई, हल्दी से पूर्वांग सम्पन्न हो गया था। बड़ी-सी पीतल की परात में, दोनों घुटनों में मुँह छिपाए बसन्ती को लाल रोली के स्वस्तिक बने पटले पर बिठाकर तीनों भाभियाँ, कुमाऊँनी विचित्र अतिबद्ध स्वर लहरी के साथ, हल्दी पोत रही थी। बसन्ती का पीला चेहरा हल्दी के पीलेपन से रंगकर और भी पीला लग रहा था।इस प्रकार शिवानी के कथा-साहित्य में विवाह संस्कार के कई उदाहरण मौजूद हैं।

भारतीय संस्कृति में मृत व्यक्ति को श्मशान घाट तक पहुँचाने का कार्य प्रायः पुत्र करते हैं। जिस व्यक्ति के पुत्र नहीं है तो यह कार्य बेटी या बहू सम्पन्न करती है।” ‘रति विलापलघु उपन्यास में- दिन-भर बयान लिखवाने ही में बीत गया। उनकी अन्त्येष्टि का दुरूह भार भी फिर मेरे ही दुर्बल कन्धों पर आ गिरा। बहू होकर भी मैंने बेटे का कर्तव्य-भार निभाया, बहन ! मैंने ही उन्हें मुखाग्नि दी।

तीसरा बेटालघु उपन्यास में अनाथ गंगाधर सावित्री की अन्त्येष्टि का भार उठाता है। जो गंगा नित्य कलफ किए मलमली कुरतों की छटा बिखेरता दिग्दिगन्त को अपनी सुवास से भ्रमित करता घूमता था, वहीं गंगा कोरी मार्किनिया धोती घुटनों तक समेट, नंगे बदन, इस जननी की अरथी को कन्धा लगाए आगे-आगे चल रहा था, जिसने उसे गर्भ में न रखकर भी जन्म दिया था।इस प्रकार शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में भारतीय संस्कृति के विविध संस्कारों, रीति-रिवाजों का उल्लेख किया है, इनमें विधि संस्कार, तर्पण संस्कार, दत्तक पुत्र विधि संस्कार, पिंडदान, पाथेय विधि संस्कार एवं कई रीति-रिवाजों का उल्लेख भी वर्णित है।भारतीय संस्कृति में उत्सवों, पर्वों का विशेष महत्त्व है। 26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों के अतिरिक्त वर्ष पर्यन्त कोई न कोई उत्सव मनाते रहना भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, लोक गीतों को संजीदगी से स्थान दिया है। जैसे रतिविलापमें रूस में रामलीला के मंचन का जिक्र भी किया गया है, “मुझे आज जाना ही होगा। कुछ साड़ियाँ परसों अमरीकन इम्बेसी भेजनी है। उधर रूस में रामलीला हो रही है, सीता स्वयंवर के लिए एक भारी साड़ी का आर्डर मिला है। उसे भी परसों भेजना है।

कैंजा लघु उपन्यास में नंदी तिवारी के लिए कहा गया यह कथन- एक बार ग्राम की रामलीला कमेटी ने सर्वसम्मति से उसे राम का पार्ट दिया। और फिर वह कई वर्षों तक उस भूमिका में अवतरित हो, सचमुच ही राम बन गई। न जाने उसके जोगिया वस्त्रों का आकर्षण था, उसकी असली लम्बी जटाओं का या उसके स्वर-भंग होते मीठे बचकाने कंठ-स्वर का। चौदह वर्ष के कठोर वनवास का दण्ड पा, वह लक्ष्मण सहित वनगमन हो जाने लगती, तो दर्शकों के साथ-साथ, शास्त्रीजी भी आँखें पोंछने लगते।

इस प्रकार उत्सव एवं पर्व से सम्बन्धित कई प्रसंग शिवानी के कथा-साहित्य में उपलब्ध है। पहाड़ी रीति-रिवाज का एक उदाहरण- किशनुलीलघु उपन्यास में, “नवजात शिशु के अधरों पर कटी नाल के ताजे रक्त-प्रलेपन का पहाड़ी टोटका मैं पहले भी सुन चुकी थी। लड़के की नाल कचहरी में गाड़ी जाती है, जिससे वह डिप्टी बने और लड़की की चूल्हे के नीचे, जिससे वह दक्ष गृहिणी बने। पहाड़ के इन दोनों नियमों से भी मैं अनभिज्ञ नहीं थी, किन्तु कस्तूरी के सुवासित बीड़े में नाल का लपेटा जाना तो निश्चय ही काखी की जननी का निजी अभिनव प्रयोग रहा होगा।

किशनुलीका ही एक अन्य उदाहरण- मैं जानती थी, यह लौट आएगी। मैंने भैरवनाथ का उचैणा’ (मनौती) माना था। हाय-हाय, यह क्या गत बना ली है तूने।शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में कुमाऊँ के ग्रामीण अंचल को कथानक का आधार बनाते हुए ऐसे कई प्रसंग वर्णित किए हैं, जिससे यह पता चलता है कि अंधविश्वास ग्रामीण जन जीवन पर किस तरह हावी है और उन्हें निरन्तर यह भय रहता है कि उनसे किसी परम्परा का उल्लघंन न हो जाए। ‘कालिंदीउपन्यास का यह उदाहरण द्रष्टव्य है- आधी रात बीत चुकी थी- सहसा उसकी खिड़की से सटे नीम के पेड़ पर उल्लू बोला। इस मनहूस आवाज को पहचानने में वह कभी भूल नहीं कर सकती थी। ऐसे ही तो उसके विवाह के एक दिन पहले भी उल्लू बोला था।

जेठ बौज्यू (ताऊ), अब तुम हमें छोड़कर मत जाना, यहीं रहना, हमेशा हमारे पास।देवी ने उनसे कहा तो एक पल को उनकी वैरागी आँखों में भी ममता की आर्द्रता छलक आई थी, “नहीं बेटा, गुरू को दिया वचन मिथ्या नहीं कर सकता- सीधे रौरव नरक में जाना पड़ेगा। तेरे बाप ने बहुत पहले वचन लिया था, “दाज्यू, मैं तुमसे पहले ही जाऊँगा, वचन दो कि तुम्हीं मेरा कर्म निबटाओगे। मेरे बेटों के पास न इतना अनुभव होगा, न श्रद्धा - तुम्हीं को गाय की पूँछ पकड़ा, मुझे वैतरणी पार करानी होगी- उसी वचन से बँधा मैं आज आया हूँ बेटा।
शिवानी ने अपने कथा-साहित्य में कई जगह पहाड़ी व्यंजनों का वर्णन किया है जो पहाड़ी संस्कृति एवं स्वयं शिवानी की रूचि को दर्शाता है। जैसे उनके कहानी संग्रह भिक्षुणीमें संकलित कहानी मामाजीका उदाहरण द्रष्टव्य है- रोहिणी ने उस दिन पहाड़ी पकवानों से मेज़ भर दी थी। मोमन डली फूली पूरियाँ थी। पहाड़ी ककड़ी का पीला रायता था। भाँग के बीज भूनकर बनाई गई दाड़िम की चटनी थी और घी में तले गए कुरकुरे लाल सिंगल थे, जिनकी खुशबू से देबूदा के नथुने फड़कने लगे। एक क्षण को वह सऊदी अरेबिया, जेनेवा, कॉन्फरेन्स और पंडित जी को भी भूलकर खाने की सामग्री पर टूट पड़े।

कालिंदी उपन्यास का एक उदाहरण, “तू बीच में मत बोल इजा, तेरे ही लाड़ ने इसे बिगाड़ दिया है, और खिला मक्खन-चीनी लगा बाल’ (रोटी में मक्खन लगाकर बनाया गया पहाड़ी क्रीम रोल’) और अब कहाँ गया वह ज्यूंणी हलवाई और कहाँ विलुप्त हो गया वह दानेदार दही ! इकन्नी में पूरे पाव-भर का थक्का दही, वह भी ऐसा कि चाकू से काटो तो कलाकन्द-सा कट जाए। फिर पड़ती चीनी, नमक, भुना जीरा, भुना भांगा और कार्तिकी शहद- कटी मूली के लम्बायमान टुकड़े और फिर नमक-मीठा चखने तीनों हथेलियाँ लार टपकाती।”‘रथ्यालघु उपन्यास में बसंती का कथन, “मैं अपने सरल पहाड़ी व्यंजनों का स्वाद भूल चुकी थी। तुम्हें तो पता ही है, मेरी बुबू की अँगुलियों से कैसा रस टपकता था, पर सच कहती हूँ छोटे वैद, मेरा अकृतज्ञ चित्त एक बार भी उनके बनाए सिंगल या डुबुक भात के लिए नहीं तरसा। चटपटे साँबर और इमली के रस में बने खट्टे रसम की नवीन महिमा ने ही मुझे मोह लिया।” इस प्रकार शिवानी ने सांस्कृतिक व सामाजिक संवेदना के अन्तर्गत अपनी दूरदर्शितापूर्ण एवं अनुभूतिजन्य लेखनी से कथा-साहित्य को रोचकता प्रदान करते हुए भारतीय समाज व संस्कृति को सफल तरीके से चित्रित कर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है।

संदर्भः-
1. समाज-मैकाइवर एवं चार्ल्स एच पेज- हिन्दी अनु.जी. विश्वेश्वरय्या- 1977 पृ.5
2. समाजशास्त्र एक विधिवत विवेचन- हैरी एम जॉनसन, हिन्दी अनु. योगेश अटल, पृ.145
3. चाँचरी (दो सखियाँ) - शिवानी- राधाकृष्ण प्रकाशन - नई दिल्ली पृ.59
4. गैंडा (स्वयंसिद्धा) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.74 
5. पाथेय (दो सखियाँ) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.81
6. चाँचरी (दो सखियाँ) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.62
7. कालिन्दी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.32
8. पूतोंवाली - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.16
9. रथ्या - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.
10. प्रेमचन्द के उपन्यासों में चित्रित स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का अनुशीलन- ए.गवली- अन्नपूर्णा प्रकाशन- 1983 - पृ.67
11. रथ्या (कस्तूरी मृग) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.110
12. करिए छिमा - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.58
13. कृष्णवेणी (रतिविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.95
14. किशनुली (रतिविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.60
15. करिए छिमा - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.58
16. करिए छिमा - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.60
17. कैंजा - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.
18. तीसरा बेटा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.140
19. नालंदा- विशाल शब्द सागर- सं.श्री नवल जी, न्यू इम्पीरियल बुक डिपो - पृ.1388
20. मोहब्बत - शिवानी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन- प्र.सं.1984 पृ.122
21. मोहब्बत - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली- पृ.135
22. किशनुली का ढाँट - शिवानी- राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
23. कैंजा - शिवानी राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृष्ठ सं. 72-73
24. चौदह फेरे - शिवानी- राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली - पृ. 84
25. चौदह फेरे - शिवानी- राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली - पृष्ठ 85
26. शिवानी के लघु उपन्यासों में प्रतिबिंबित समाज - डॉ. साताप्पा शामराव सावंत- पृ.59
27. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.33
28. तीसरा बेटा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.153
29. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली -पृ.11 
30. कैंजा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.49  
31. किशनुली (रतिविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.46
32. वही पृ.52
33. कालिंदी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ. 20
34. वही - पृ.51
35. मामाजी (भिक्षुणी) - शिवानी राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.57
36. कालिंदी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली पृ.41
37. वही पृ. 43

हीरा लाल लुहार
(शोधार्थी)
व्याख्याता,हिंदी,राउमावि,बिनोता,
तहसील-निम्बाहेड़ा,चित्तौड़गढ़

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