आलेख:तस्लीमा नसरीन और लेखिका ग्लोरिया अंजल्दुआ–शिल्पी गुप्ता

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेख:तस्लीमा नसरीन और ग्लोरिया अन्जलदुआ के उपन्यासों में सीमावर्ती इलाकों के जनजीवन के मुद्दे (भाषिक अस्मिता के संदर्भ में) /शिल्पी गुप्ता


तसलीमा नसरीन, बंगलादेशी लेखिका हैं, जो अपनी पुस्तक लज्जाके लिए दुनिया भर में विख्यात हैं, उनके ज्यादातर उपन्यास धार्मिक विवादों और औरतों पर किये गए उत्पीड़न के लिए जाने जाते हैं। बहुत कम ही ऐसे लेख मिलेंगे जिनमें उनके उपन्यासों में बॉर्डरको लेकर विवेचन-विश्लेषण किया गया हो। इस बात को ध्यान में रखते हुए इस लेख में बॉर्डर पर बात करने की कोशिश की गई है, जिसकी मान्यता ना सिर्फ् भौगोलिक रूप में बल्कि लाक्षणिक रूप में भी दिखाने का प्रयास किया गया है।

      तसलीमा नसरीन का जन्म एक पाकिस्तानी नागरिक के रूप में हुआ था, क्योंकि बांग्लादेश पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। उन्होंने अपने बचपन में हिंदुस्तान के बंटवारे की कहानियां अपने बुजुर्गो से सुनी थीं और १९७१ के दौरान उन्होंने बांग्लादेश बनते भी देखा, जिसके निर्माण के लिए लोगों को एक दूसरे से लड़ते, सरहद बनते और देश की नागरिकता बदलते देखा। बंटवारे के कारण इन तीनों देशों के बीच सिर्फ सरहदें नहीं बनीं, बल्कि तसलीमा ने अपनी आँखों से बंटवारे को ले कर धर्मों के बीच की लड़ाई और औरतों को उसका शिकार बनते हुए देखा। इन घटनाओं को तसलीमा ने अपनी यादों में बनाए रखा और उसे अपने उपन्यास लज्जामें बहुत हद तक दिखाने की कोशिश की। लेकिन जिस समाज में पितृसत्ता ने औरत और मर्द के बीच में एक मोटी और मजबूत लकीर खींच दी हो, जहाँ औरत नव-उदारतावादऔर आधुनिकतावादी विचारधारा की शिकार बन चुकी हो, जिसमें औरतों और मर्दों के बीच में उत्पीड़ित और उत्पीड़क का रिश्ता बना दिया गया हो वैसे समाज की (राज)नीति में सिर्फ पुरुष वर्ग ही भाग लेते हैं और औरतें घरों की चार दीवारियों में बंद रह जाती हैं। ऐसे समाज में एक औरत को मर्दों और उसके बनाये धार्मिक रीतियों के विरुद्ध कुछ भी लिखने का हक़ नही होता है। जिसका सबसे बड़ा उदहारण १९९४ में तसलीमा की किताब लज्जाके प्रकाशन के तुरंत बाद देखने को मिला, जब तसलीमा के विरुद्ध बांग्लादेश के धार्मिक गुरुओं ने फतवा जारी कर दिया और अब तक जिस स्त्री ने अपने जीवन में बॉर्डरको दो धर्मों तथा औरतों और मर्दों के बीच ही महसूस किया, उसी स्त्री के लिए इन घटनाओं के बाद अपने जीवन में बॉर्डरकी एक नयी परिभाषा से संपर्क हुआ।

       इस लेख में मैंने सिर्फ तसलीमा नसरीन के जीवन में बॉर्डरके बदलते परिभाषा को ही नहीं बल्कि एक अंतररास्ट्रीय स्तर की जानी मानी लेखिका, ग्लोरिया अन्ज़ल्दुआ के जीवन में बॉर्डरकी परीभाषा पर भी बात की है। ग्लोरिया अन्ज़ल्दुआ मेक्सिको और अमेरिका की बॉर्डर की लेखिका हैं। अन्ज़ल्दुआ अपनी पुस्तक “Borderlands / La Frontera : The New Mestiza(१९८६)की वजह से दुनिया में जानी जाती हैं। अन्ज़ल्दुआ एक पहली दुनिया (अमेरिका) में रहने वाली अपने मेक्सिकन (तीसरी दुनिया) पहचान की वजह से अलग होने का एहसास करती हैं जिसे वो पहली दुनिया में एक चौथी दुनियाके नाम से संबोधित करती हैं। इसी सन्दर्भ में एक तीसरी दुनिया के भारतीय पाठक होने के नाते उनकी मैक्सिकन अमेरिकन बॉर्डर के बीच की अपनी पहचान की कसमकस को पढ़ते वक़्त प्रत्यक्ष रूप से भारत पाकिस्तान - बांग्लादेश के ऐतिहासिक जटिलता के ऊपर विचार करने की जिज्ञासा होती है। 

       दक्षिण एशिया की इन तीनों देशों का इतिहास खुद में विचित्र है। एक तरफ पाकिस्तान है, जिसने अपने राष्ट्र की नींव और भारत से बंटवारे की बात इस परिप्रेक्ष्य में की थी, कि उनकी संस्कृति, भाषा और धर्म भारत से भिन्न हैं। वहीं दूसरी तरफ बांग्लादेश धर्म की वजह से पाकिस्तान के करीब है, लेकिन उनकी संस्कृति भारतीय राष्ट्र के पश्चिम बंगाल राज्य से मिलती है। यही वजह है कि अन्ज़ल्दुआ की पुस्तक को पढ़ते वक़्त बार-बार हमारा ध्यान अपनी दक्षिण एशिया की बॉर्डर पर जाता है, और इसी सन्दर्भ में तसलीमा की रचनाएँ अन्ज़ल्दुआ के करीब मालूम पड़ती हैं। दोनों लेखिकाओं की रचनाएँ अपने-अपने देश और लोगों पर आधारित हैं। जहाँ अनाज़ल्दुआ २०वीं सदी के आखिरी में अपनी पुस्तकों के लिए जानी गई थीं, वहीं तसलीमा की पुस्तकें २०वीं और २१वीं सदी में प्रकाशित हो रही हैं। लेकिन अलग-अलग काल और जगह से इनकी रचनाएँ लिखीं होने के बावजूद भी दोनों रचनाकारों का जीवन बॉर्डरके मुद्दे से काफी प्रभावित रहा है और यही कारण है कि दोनों की रचनाएँ पाठक को साथ-साथ पढने के लिए मजबूर करती हैं। इसलिए इस लेख का मूल उद्देश्य दो बिलकुल अलग दुनिया की, एक दूसरे से बिलकुल अपरिचित लेखिकाओं और उनके निजी जीवन में बॉर्डरको ले कर किये गए समझौते को तुलना करने की कोशिश है। इस लेख के माध्यम से यह भी देखने को मिलेगा की दो बिलकुल अलग दुनिया की लेखिकाएँ कैसे बॉर्डर के मुदे पर एक ही मंच पर पाई जाती हैं, जिसके बारे में सोचने और बात करने की अत्यंत जरुरत है। इस लेख में अन्ज़ल्दुआ और तसलीमा की रचनाओं को एक भारतीय परिपेक्ष्य से देखा गया है।

जहाँ तक भौगोलिक सीमा की बात है ग्लोरिया का तजुर्बा तसलीमा से बिलकुल अलग है। जहाँ तसलीमा के लिए बॉर्डर का मतलब बदलता रहा है। उनके लिए बॉर्डर कभी दो देशों के बीच की एक लकीर है तो कभी धर्मों के बीच कि नफरत, कभी मर्दों और औरतों के बीच कि दीवार और कभी बहुत सारी बाधाएँ पार करती हुईं एक नई ज़िन्दगी जिसमें तसलीमा अपनी संस्कृति और यादों के पुलिंदे को साथ लिए घूम रही हैं, और वहीं दूसरी तरफ अन्ज़ल्दुआ की बात है तो उन्होंने धर्म और जाति को लेकर लकीरें बनते तो नही देखा, लेकिन उनके खुद के जीवन में जातियता (racism) और लैंगिकवाद ने उन्हें हाशिये पर धकेला है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो उनके पूर्वज उत्तरी मेक्सिको के रहने वाले थे, लेकिन सन १८४६ में मेक्सिको और अमेरिका के बीच युद्ध में मेक्सिकों ने अपनी आधी ज़मीन अमेरिका को गंवा दिया था, जिसकी वजह से अमेरिका द्वारा हथियाए मेक्सिकों की ज़मीन पर वहां के नागरिक अपनी ही धरती पर अप्रवासी बन गए और अन्ज़ल्दुआ के पूर्वज उनमे से एक थे। 

इस तरह से हम यह देखते हैं कि जहाँ एक तरफ तसलीमा ने धर्मों की वजह से देशों को लड़ते और बटते हुए देखा है, वहीं अन्ज़ल्दुआ अपने ही देश में अपने पूर्वजोँ को अप्रवासी बनते देखा है। दोनों लेखिकाओं का अनुभव बिलकुल अलग है, क्योंकि एक तरफ तसलीमा निर्वासित होने के बाद अलग-अलग देशों की सीमओं को पार कर रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ अन्ज़ल्दुआ बिना देश बदले अप्रवासी बन गयीं, क्योंकि दो देशों के बीच की सीमा बदल गयी थी। लेकिन अगर दोनों सीमावासियो के जीवन को गौर से देखा जाए तो उनके जीवन में सीमा का मतलब कुछ और भी मालूम पड़ता है। जैसे दोनों लेखिकाओं का अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और अपनी पहचान के साथ संघर्ष। इससे यह प्रतीत होता है कि दोनों लेखिकाएँ एक ही तरह के बॉर्डर पर रह रही हैं। आगे इस लेख में इस नई सीमा की परिभाषा जिसे आसक्ति/अनासक्ति (belonging/ unbelonging) के नाम से जाना जाता है, पर चर्चा की गयी है।

तसलीमा को उनके देश से निकाल दिए जाने के बाद, उन्होंने यूरोप के कई देशों का भ्रमण किया, जहाँ उन्हें अपनी भाषा (बांग्ला) को छोड़ दूसरी भाषाओं का प्रयोग करना पड़ा। इन बातों को उन्होंने अपनी आत्मकथा मुझे घर ले चलोमें उल्लेख किया है। वो कहती हैं कि जिस भाषा में वो कभी सोच नही पाती थीं उस भाषा में लिखने की बात उनके लिए असंभव थी। अंग्रेजी में साहित्य लिखने जितना ज्ञान मुझे नही था। अंग्रेजी भाषा हमेशा से मेरे लिए विदेशी भाषा रही है। यह भाषा न मेरी मातृभाषा थी, न ही मेरी जुबां या बोली। इस भाषा से मैं भले ही कोई काम लू, लेकिन कल्पना के घोड़े नही दौड़ा सकती।” (नसरीन २००७) बाद में जब वो भारत (पश्चिम बंगाल) लौट कर आयीं तो उन्हें लगा कि अब वो अपनी बांग्ला भाषा के करीब हैं, जिसमें वो लिख भी सकती हैं, बोल भी सकती हैं, लेकिन उन्हें वहाँ से भी निकल जाने को कहा गया। भारत छोड़ कर न जाने की उनकी जिद ने उन्हें दिल्ली में रहने तो दिया, लेकिन तसलीमा अपनी भाषा और अपने देश से जितनी करीब थीं, वो उनसे उतनी ही दूर हो गयी थीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जो बांग्ला वो लिखती हैं, वो भारतीय बांग्ला के हिसाब से महज एक बोली है और उनकी ज्यादातर पुस्तकें और उपन्यास बांग्लाभाषी क्षेत्र जैसे बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में प्रतिबंधित हैं। जिसके कारण उन्हें ऐसा लगता है कि बार-बार उन्हें अपनी अपनी भाषा / पहचान से दूर रखा जा रहा है। उसी प्रकार अन्ज़ल्दुआ ने भी अपनी पुस्तक “Borderlands” के द्वारा अपनी भाषाओं के कशमकश को दिखाती हैं। उनकी पुस्तक न ही पूर्णतया स्पेनिश (मेक्सिको की भाषा) में लिखी गई हैं और न ही पूर्णतया अंग्रेजी (अमेरिका की भाषा) में, बल्कि इस किताब में उन्होंने एक साथ एक ही वाक्य में दोनों भाषाओं का प्रयोग किया है और साथ ही वाक्यों को व्याकरणिक तरीके से गलत भी लिखा है। इस तरह से उन्होंने अपनी भाषा की पहचान पूरी दुनिया में करवायी है, क्योंकि यह उनकी और बाकी ऐसे ही मेक्सिकन अमेरिकन(चिकानोस) की भी भाषा है। इस शैली में लिखने से उन्होंने अपनी पहचान जो बनाई है वह न ही अब मेक्सिकन है और न ही अमेरिकन, उसे उन्होंने नईआवाजदिया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि एक तरफ दोनों भाषाएँ उनकी अपनी भाषा नहीं है और वहीं दूसरी तरफ अन्ज़ल्दुआ दोनों भाषाओं से खुद को अलग नहीं कर सकती हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपनी पहचान अब एक नई भाषा से की है जो न ही पूर्णतया स्पेनिश है और न ही अंग्रेजी, बल्कि दोनों का मिश्रण है - मिक्स्ड (स्पेनिश-इंग्लिश) भाषा। यही भाषा सीमा पर रहने वाले लोगों की बोली है जिससे वहाँ के लोग खुद को करीब मानते हैं।

जिस प्रकार अन्ज़ल्दुआ अपनी आसक्ति/अनासक्ति की दुविधा को अपनी पहचान मानती हैं उसी प्रकार तसलीमा की खुद की लड़ाई जिसमें वो एक तरफ बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल से निष्कासित हैं और दूसरी तरफ वो यूरोप में रहना नहीं चाहतीं, जहाँ कि उन्हें नागरिकता मिली है, वो अब अपनी संस्कृति के बोझ के साथ पूरी दुनिया घूम रही हैं। तसलीमा के इस निर्णय से ही उनकी पहचान आसक्ति और अनासक्ति से जुडी है जिसमे अब वो बांग्ला और दूसरी भाषाओं के साथ समझौता कर रही हैं। दोनों लेखिकाएँ अपनी इस तरह की पहचान जो कि बहुत ही अस्पष्ट और अंतर्विरोधी है के साथ ही अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। एक तरफ जहाँ अन्ज़ल्दुआ के लिए उनकी भाषा ही उनकी पहचान है मैं अपनी भाषा हूँजिसके अंतर्गत वोस्पेनिश इंग्लिश मिश्रण को भाषा मानती हैं वहीँ दूसरी तरफ़ तसलीमा ने अपनी इंटरव्यू में कहा है कई चेहरों ने मुझे अनदेखा किया साथ ही साथ मुझे अकेला भी छोड़ दिया गया लेकिन मेरी भाषा हमेशा से मेरा सहारा बनी। मेरी भाषा ने मेरा बचाव किया, मेरे लिए विरोध किया... भाषा मेरी माँ है, भाषा मेरी बहन है।

हालाँकि तसलीमा अपनी पहचान बांग्ला भाषा से करती हैं और दूसरी भाषाओं और बांग्ला के बीच में समझौता कर रही हैं वहीं दूसरी तरफ अन्ज़ल्दुआ अपनी मिश्रित भाषा में ही अपनी पहचान बनाती हैं। दोनों लेखिकाओं के तरीके अलग हैं लेकिन मुद्दा एक ही है। दोनों अपनी पहचान के लिए अपनी भाषाओं के बीच की कड़ी हैं। कभी वो बांग्ला से अपने आप को जोड़ती हैं तो कभी दूसरी भाषाओं में घिरे होने के कारण खुद को बांग्ला से दूर समझती हैं। उसी प्रकार अन्ज़ल्दुआ अंग्रेजी और स्पेनिश के बीच में (inbetween) हैं। 

  • शिल्पी गुप्ता,स्नात्तकोत्तर छात्र (स्त्री अस्मितामूलक चिंतन ),जेमा, ग्रेनेडा विश्वविद्यालय, स्पेन।इरसमुस मुन्डस छात्रवृत्ति प्राप्त। एम. फिल, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।संपर्क 34694483974,shilpigupta.jnu@gmail.com

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