त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
प्रेमचंद का किसानबोध /वंशीलाल
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पाश्चात्य जगत में सामंतशाही आधारों पर टिके समाज का अंत होने पर साहित्य में धार्मिक विचारधारा के स्थान पर स्वतंत्र सामाजिक व्यक्तिमूलक विचारों का साहित्य में प्रवेश होता है। हिन्दी साहित्य में यह विचारधारा अंग्रेजी साहित्य के माध्यम से आई। इसी के फलस्वरूप जो साहित्य अब तक राजा, राजकुमारों एवं नारी सौन्दर्य की अतिश्योक्ति लतीफों तक सीमित था, उसका दायरा बढ़ने लगा। साहित्य में मेहतनकश जनता के श्रमसीकरों की महक आने लगी। साहित्य पहले से कहीं अधिक आम जिन्दगी के करीब आने लगा। साहित्य उनकी जिन्दगी के रोजमर्रा के संघर्ष, समस्याओं की वकालत की ओर उन्मुख हुआ, जो आप और हम हैं या जो आम भारतीय है, जो अपनी जिन्दगी अपनी मेहनत पर जीते हैं। हाँ, यह आम जन चाहे किसान हो या अन्य मध्यवर्गीय जमात का, लगभग दोनों ही साहित्य में एक साथ आते हैं। साहित्य का यह दुर्भाग्य ही है कि अन्य मध्यवर्गीय जमात पर तो भरापूरा हिन्दी साहित्य खड़ा है, परन्तु किसान आज हिन्दी साहित्य से नदारद हैं। समाज को अपने श्रम से सामर्थ्यवान बनाने वाले की साहित्य में इतनी उपेक्षा क्यूँ?
वास्तव में कृषि प्रधान भारत का इतिहास किसानों
का ही इतिहास रहा है। ऋग्वेदिक चरित्र कृषक समाज के ही प्रतिनिधि रहे हैं। इस देश
को धन-धान्य से परिपूर्ण कर इसे अन्नपूर्णा अथवा सोने की चिड़िया बनाने के मूल रूप
में किसान ही प्रथम थे। भारत में भौतिक सुखों के यही प्रथम उत्पादक थे और विश्व
में कृषि के प्रसार का कार्य भी भारतीय कृषकों ने ही किया था। अमरकोश में कृषकों
को ‘व्रात्य’कहकर
सम्बोधित किया गया है। इन्हीं व्रात्यों ने ही कृषि को विश्व में पहुँचाया।
अथर्ववेद के 15वें काण्ड में व्रात्यों (किसानों) की
विश्वयात्राओं का उल्लेख है। ऋग्वेद पाँच किसान वंशों की विशेष चर्चा करता है।
इन्हें ‘पंचजनाः, ‘पंचकृष्टयः’ या ‘पंच
कृषवी’ कहा गया है। ऋग्वेद में प्रयुक्त कीनाश शब्द ही
वर्तमान का किसान है। परवर्ती साहित्य में ‘कीनाश’ कृषक
या किसान के लिए आया है।
किसानी संस्कृति का मूलाधार किसान भारतीय समाज का सबसे बड़ा वर्ग है। हिन्दी
के लेखक-आलोचक सबसे अधिक दुहाई आज भी किसानों-मजदूरों के प्रति प्रतिबद्ध होने की
ही देते हैं। लेकिन सच इसके विपरीत दिखाई पड़ता है क्योंकि हिन्दी साहित्य में
प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रम’ (1922) एवं
‘गोदान’ (1936) के
बाद अगर किसान की वृहद पृष्ठभूमि पर लिखी गयी कोई कृति नजर आजी है तो वह ‘संजीव
का फांस’(2015) है। अस्सी-नवे वर्ष के इस अन्तराल में
किसान साहित्य के केन्द्र में अगर कहीं है भी तो वह आंशिक रूप से ही है। वैसे
हिन्दी साहित्य में किसान समस्याओं को कविता के मंच से बालमुकुन्द गुप्त, मैथिलीशरण
गुप्त एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने अपनी लेखनी से उकेरा लेकिन
एक किसान को उसके समग्र जीवन एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं के साथ हिन्दी साहित्य
में पदस्थ करने का काम प्रेमचन्द ने ही किया। प्रेमचन्द ने किसान के श्रम सीकर की
महत्ता को सबसे पहले तवज्जो दी और साहित्य में नायकत्व प्रदान किया, भले
ही उनके जीवनपर्यन्त की दुश्वारियों एवं कभी न टलने वाले दुर्भाग्य के साथ। प्रेमचन्द
का जुड़ाव गाँव से घनिष्ठ रूप से रहा, उन्होंने
खेत-खलिहानों में काम करते किसान सिर्फ देखे ही नहीं बल्कि उनसे बतियाये, उनके
दुख-दर्द के सहभागी भी हैं, शायद
यही कारण है उनके साहित्य में किसान जीवन मुखर होकर अभिव्यक्ति पाता है। आज के
साहित्यकार का रहन-सहन शहर या नगर है, गाँव
से, खेत से, किसान
से उनका कटाव है। यहीं कारण है कि आज साहित्य में किसान या किसानी जीवन का नितान्त
अभाव दिखाई पड़ता है।
प्रेमचन्द का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसान जन-जीवन को आधार बनाकर लिखा
गया। वह किसान जिसकी रोजी-रोटी का मुख्य जरिया खेती-बाड़ी है। प्रेमचंद का किसान आज
का किसान नहीं है, वह परतंत्र भारत का किसान है। परतंत्र
भारत के किसान की अलग समस्याएँ थी, मसलन
जमीन उसके पास थी पर उस पर अधिकार अंग्रेजी सरकार का था। अंग्रेजी सरकार के बहाने
जमींदार, सामन्त किसानों के मालिक थे। लगान एवं
कर्ज किसान की असल समस्या थी। लगान के लिए कर्ज और कर्ज का सूद, इसी
मकड़जाल में चकराते किसान के पिसान होने की कहानी प्रेमचन्द का कथा-साहित्य बयान
करता है। यही किसान की नियति है, इससे यह बच नहीं सकता। कुदरत का न्याय, किसान
की हाय, यही नियम शायद ईश्वर को मंजूर है।
किसान का जीवन कृषि आधारित है। कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता होती है।
जनसंख्या बढ़ने के साथ ही कृषकों की जो थोड़ी सी भूमि थी, वह
भी छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गई। अब जीवकोपार्जन और मुश्किल हो गया, ऊपर
से जमींदारी प्रथा, लगान, बेकारी, प्राकृतिक
विपत्तियाँ एवं महाजनों के कर्जे से किसानों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई।
अंग्रेजी शासन काल में किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय रही। यह दयनीयता जब असह्य
हो गई तभी शायद वे आन्दोलन के लिए एकत्र हुए। जबकि इतिहास बताता है पहले ऐसी
स्थिति नहीं, यद्यपि राजा द्वारा पहले भी कर लिया
जाता था। लेकिन यह व्यवस्था अंग्रेजी शासनकाल की व्यवस्था से सरल थी। सन् 1907 ई.
में प्रकाशित पुस्तक ‘सम्पतिशास्त्र’ में
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-‘‘पुराने
जमाने में, हिन्दुस्तान में, जमीन
पर राजा का स्वामित्व न था। हर आदमी अपनी जमीन का मालिक था। राजा उससे सिर्फ उसकी
जमीन की पैदावार का छठा हिस्सा ले लिया करता था। बस राजा का सिर्फ इतना ही हक था।
एक प्रकार का कर था, जमीन का लगान नहीं। सलाना पैदावार के
घटने-बढ़ने के साथ ‘राजा का भाग’ भी
अपने आप घट-बढ़ जाता था। अंग्रेजों ने इस पुरानी परम्परा को खत्म करके एक निश्चित
नकद रकम के रूप में लेना शुरू किया।
अंग्रेजों के शासनकाल में जमीन का नया बन्दोबस्त हो गया। जमीन मालिक सरकार
बन गई। वह जमीन का लगान लेती है और लोगों को लाचार होकर देना पड़ता है। यह जमीन
जोतने के एवज में किसानों से वसूला जाता था। इससे बेचारे किसानों के सम्मुख और भी
आफतों का सामना करना पड़ा। उनकी आमदनी कम होती गई। अनाज पैदा करने में जो खर्च पड़ता
है, उसके बोझ तले वह बिल्कुल ही दबता चला गया।
किसान जीवन की समस्याओं के चित्रण का प्रथम प्रयास ‘प्रेमाश्रम’ (1922) में
लक्षित हुआ और उसे पूर्णता ‘गोदान’ (1936) में
प्राप्त हुई। ‘गोदान’ की
तो ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य ही कहा जाता है। कृषक जीवन का इतना
सच्चा, व्यापक और मर्मस्पर्शी चित्रण हिन्दी साहित्य
में दूसरा अभी तक सम्भव नहीं हो सका। प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में किसान संस्कृति
एवं समस्या के पहले एवं प्रबलतम पैरोकार रहे हैं। वे हिन्दी साहित्य में किसानों
के पहले वकील हैं। प्रेमचन्द के साहित्य का सबसे प्रमुख चेहरा किसान एवं उसकी
समस्या रही है। इस बात को स्वीकार करते हुए डा. नागेन्द्र अपने इतिहास ग्रन्थ में
लिखते हैं-‘‘प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में समाज
के विभिन्न वर्गों का चित्रण किया है। इनमें सबसे प्रमुख वर्ग है-किसान का, जो
मुख्यतः गाँवों में रहता था और जो देश की समूची आबादी का लगभग 85
प्रतिशत था।"2
प्रेमचन्द युगीन समाज में किसान की सबसे महत्वपूर्ण समस्या जमींदारी शोषण
की थी। प्रेमचंद का मानना था कि जमींदारी प्रथा के खत्म होने से ही किसान खुशहाल
हो सकता है। किसान का अगर कोई सबसे बड़ा शत्रु है तो वह जमींदार और उसके कारिंदे।
प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’में
इसी समस्या को उठाया है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते हैं-‘‘इस
उपन्यास में प्रेमचन्द ने मुख्यतः किसानों और जमीदारों के प्रश्न को उठाया है।, ग्रामीण
जीवन से किसानों का कथानक लेते हुए प्रेमचन्द ने गाँव के पटवारी, महाजन
आदि का भी चित्र दे दिया है। जमींदारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने मुंशी और
कारिंदे आदि के कारनामें भी लिख दिए हैं।’3
हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘प्रेमाश्रम’ का
प्रकाशन ऐतिहासिक महत्व मरखता है। इसके ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए डा.
रामविलास शर्मा लिखते हैं-‘‘एक तो किसानों पर लिखना ही रसराज का
अपमान करना था। उस पर किसी खास आदमी को नायक न बनाना और भी अनोखा प्रयोग था।
प्रेमचन्द ने पाप और पुण्य के राक्षस और देवता नहीं रचे। उन्होंने उस धड़कन को सुना
जो करोड़ों किसानों के दिल में हो रही थी। उन्होंने उस अछूते यथार्थ को अपना कथा
विषय बनाया जिसे भरपूर निगाह देखने का हियाब ही बड़ों-बड़ों को न था। ‘प्रेमाश्रम’ लिखना
एक अद्भुत साहस का काम था। साहित्य का झंडा लिए हुए प्रेमचन्द ऐसे मार्ग पर चल पड़े, जिसे
पहले किसी ने नहीं किया था। उनकी प्रतिभा का यह प्रमाण है कि उन्होंने जो साहस
किया वह दुस्साहस साबित नहीं हुआ। प्रेमाश्रम एक अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास के रूप
में आज भी जीवित है।'4
हिन्दी साहित्य में वास्तविक रूप से शोषण के प्रति विद्रोह का सूत्रपात ‘प्रेमाश्रम’ से
ही होता है। अत्याचार-अन्याय के विरूद्ध यहाँ मर्माहत किसान खड़ा हो उठता है। और
उसके इस अप्रत्याशित प्रतिरोध को शोषक वर्ग अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसका मस्तक
झुका देने, तोड़ देने को सन्नद्ध है। ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास
का प्रारम्भ ही किसान समस्या से होता है। बनारस से बारह मील दूर उत्तर दिशा में
अवस्थित लखनपुर गाँव से कथा आरम्भ होती है। गाँव के किसान आपस में अपना दुखड़ा रो
रहे हैं। किसान समस्या जो आज भी उसी रूप में हमारे समाज में मुंहबाये खड़ी है कि
किसान को अपने उत्पाद का वाजिब बाजार भाव नहीं मिलता है, का
दृश्य मुखर है। जमींदार के पिता की बरसी होने वाली है। जमींदार ज्ञानशंकर का
चपरासी गिरधर शुद्ध घी के लिए बयाना बांट रहा है। ‘‘जमींदार
के चपरासी गिरधर महाराज किसानों को घी के लिए रूपये बांटने आये हैं। रूपये सेर का
भाव कटेगा यद्यपि बाजार भाव दस छटांक का है। अधिकांश किसान ने तो मारे डर के रूपये
ले लिए किन्तु मनोहर के यहाँ न भैंस थी न घी ही था और न पास में रूपये थे कि बाजार
से खरीदकर दे देता, उसने रूपये नहीं लिये। गिरधर कड़े पड़े, धमकी
दी, मनोहर भी उत्तेजित हो उठा यहाँ मानो नवीन किसान
चेतना बोल रही थी।’’5 मनोहर जैसा पात्र हिन्दी साहित्य में
इससे पहले नहीं आया था। जमींदार एवं किसान की लड़ाई में सारा सरकारी तंत्र जमींदारी
के साथ खड़ा है। किसान की हार होती है। मनोहर के बेटे बलराज को आत्मग्लानि के कारण
आत्महत्या करनी पड़ती है। गाँव के किसानों को विपत्ति में डालने का वहीं कारण था। ‘प्रेमाश्रम’ में
यह दिखाने का भरपूर प्रयास किया गया है कि किसानों के शोषण और उत्पीड़न में सरकारी
नौकरशाही, अधिकारी महकमा किसी भी तरह से पीछे
नहीं है। यह वर्ग उनकी परिश्रम की कमाई भी लूटता है, उनसे
बेगार कराता है, अपमानित भी करता है।
प्रेमचन्द के साहित्य के मूल में भारतीय किसान की वास्तविक हालत है।
प्रेमचन्द ने किसान जीवन के बोधपक्ष को जैसा कि वह है, उसी
रूप में सामने रखने का प्रयास किया है। 1936
में प्रकाशित ‘गोदान’कृषक-जीवन
का महाकाव्य कहा जाता है। होरी इसका नायक है। होरी इस उपन्यास का नायक है, होरी
व्यक्ति नहीं, पूरा वर्ग है। वह भारतीय किसान का एक
जीता-जागता चित्र है। ‘होरी’ के
रूप में प्रेमचन्द ने भारतीय किसान को मूर्तिमान किया है। जीवन भर परिस्थितियों से
संघर्ष करता हुआ किसान अंत में अपनी करूण कहानी का व्यापक प्रभाव छोड़कर समाप्त हो
जाता है। भारतीय किसान की समस्त विषमताएँ ‘होरी’में
साकार हो उठी। किसान साल भर खेती में कड़ा परिश्रम करते हैं और जब फसल तैयार होती
है तो उसका अधिकांश और कभी-कभी सर्वांश तक महाजनों के अधिकारों में चला जाता है। ‘‘अनाज
तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लिया, महाजन
ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढोकर
छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक
ही है, मगर महाजन तीन-तीन है, सहुआइन
अलग और मंगरू और दातादीन अलग। किसी का
ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रूपये बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर
रूपये उधार लिए तो काम चला।’’6 किसान की फसल उसका जीवन बेबाक नहीं कर
पाती। उसे आगे के लिए कर्ज लेना पड़ता है। यह प्रक्रिया किसान के पूरे जीवन भर चलती
है। किसान का यह कर्ज उसे कुदरत का उपहार है शायद जो कभी खत्म ही नहीं होता। गाँव
का एक पूरा समूह है जो किसानों को हर समय घेरे रहता है और उनकी प्रत्येक विवशता और
आवश्यकता का लाभ उठाकर उनकी परिश्रम की कमाई को अपहरण करता रहता है। मंगरू, दातादीन, दुलारी
सहुआइन, झिंगुरी सिंह, नोखेराम, पटेश्वरी
आदि इसी समूह में है। किसान के कर्ज की समस्या इन्हीं महाजनों से है। किसान एक बार
इनके जाल में फँस जाता है तो फिर उसका आजीवन उऋण होना कठिन हो जाता है। प्रेमचन्द
के शब्दों में कि कर्ज वह मेहमान है, जो
एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।
पाँच बीघे का मालिक एक किसान अपने परिवार को सुखी नहीं रख पाता। ये किसान
जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। परिवार के सदस्यों को ढंग से कपड़े तक मयस्सर नहीं
होते। शहर से लौटे गोबर की नजर में-‘‘धनिया
की साड़ी में कई पेबंद लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से
उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ झालरें सी लटक रही थी। सभी
के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं।’’7
कर्ज में डूबा किसान दिन पर दिन दरिद्र होता जाता है। उसे अपने खेत से बेदखल हो
दूसरे के यहाँ काम करना पड़ता। यह किसान के मजदूर बनने की विवशता है। होरी दातादीन
का साझे पर खेत जोतता है। ऊख की फसल से थोड़ा बहुत भरोसा था। ऊख काटी ही जा रही थी
कि सभी महाजन आ पहुँचे इन्हीं ऊख की फसल से होरी बैलों की जोड़ी खरीदना चाहता था।
पर अब कटते ही महाजनों के पेट में चूहे दौड़ने लगे। इस प्रकार किसानों को अपनी उपज की
रक्षा करना असम्भव है। किसान अपने जीवन भर अपनी आस पूरी नहीं कर पाता होरी न बैलों
की जोड़ी खरीद पाता है न किसान के द्वार की मरजाद गाय ही रख पाता है। होरी के मन
में एक गाय रखने की उत्कट अभिलाषा थी, यही
उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। पर वह उसे पूरा नहीं
कर पाता। वह गाय तो ले आता है, पर उसे रख पाने में असमर्थ है। डॉ.
जनरेश्वर वर्मा लिखते हैं-‘‘कृषक जीवन की यह कैसी बिडम्बना है कि
आजीवन परिश्रम करने के बाद उसकी यह साध पूरी नहीं हो पाती। जो कुछ वह कमाता है, उसका
अधिकांश जमींदारों और महाजनों के पेट में चला जाता है। गाय के प्रसंग को लेकर
प्रेमचन्द ने होरी के माध्यम से तात्कालीन कृषक समाज की आशाओं, आकांक्षाओं
से लेकर निर्मम शोषण और आर्थिक विवशताओं तक यथार्थपरक चित्र प्रस्तुत किया है।’’8
होरी अब किसान नहीं रह गया था, वह मजदूर हो चुका था। धनिया, सोना, रूपा
भी उसी के साथ मजदूरी करती थीं । होरी के जीवन में अंधकार बढ़ता ही जाता था। उसके
सिर पर भारी बोझ कम होने का नाम नहीं ले रहा था। वह जमीन से रमण करने वाला, जमीन
की छाती चीरकर अन्न उगा देने वाला किसान, जमीन
से युद्ध करते-करते पराजित सा हो चुका था। अब उसमें सामर्थ शेष न थी। एक दिन काम
करते-करते होरी को लू लग गई। वह बीमार पड़ गया। इस तरह ‘‘........परिस्थितियों
की तरंगों में डूबता-उतरता, नियति के हाथों का खिलौना वह कृषक
जीवन-यात्रा के अंतिम छोर पर चला जाता है।’’9 यह
किसान परिवार की कैसी ट्रैजडी है? गोदान का अंत है किसान मूर्दा है, उसकी
पत्नी मूर्छित है, सूदखोर दातादीन पुरोहित अब भी हाथ
पसारे सामने खड़ा है।
प्रेमचन्द के तीन उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ हिन्दी
साहित्य में किसान समस्याओं पर आधारित हिन्दी के महानतम उपन्यास हैं। हिन्दी
साहित्य में ऐसी किसान संवेदना प्रेमचन्द के बाद नजर नहीं आयी। प्रेमचंद ने अपने
उपन्यासों के अलावा कहानियों में भी किसान
समस्या को प्रमुखता से उठाया है। ‘पूस
की रात’ का हल्लू कर्ज के कारण ही कम्बल नहीं
खरीद पाता, जिसका परिणाम यह होता है कि तैयार फसल
बर्बाद हो जाती है। किसान जीवन एवं उसकी समस्या प्रेमचन्द के कथा-साहित्य का मुख्य
विषय रहा है। किसान की समस्याओं एवं उनकी माली खस्ताहालत देखकर ही गाँधी जी ने
विकास का आधार गाँव को बनाने की बात की थी। उदारीकरण के बाद गाँधी के सपने टूटे।
गाँव एवं खेती का जबरन अधिग्रहण किया गया। कृषि का व्यवसायीकरण किया गया जिससे
किसानों की समस्याएँ और भी भयावह होती गई। जिससे हम रोज नये-नये किसान आन्दोलनों
एवं आत्म हत्याओं के गवाह हो रहे हैं।
प्रेमचन्द का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसान श्रम जीवन पर केन्द्रित है।
फणीश्वर नाथ ‘रेणू’ ने
भी ग्रामीण संस्कृति की अभिव्यक्ति की। किन्तु धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य से ये
दृश्य गायब होने लगे। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिस हिन्दी कथा-साहित्य में किसान
एवं मध्यवर्ग की उपस्थिति लगभग एक साथ हुई, उसी
साहित्य में आज मध्यवर्ग अपने उत्कर्ष पर है और किसान हाशिए पर।
सन्दर्भ
1-सम्पतिशास्त्र-महावीर प्रसाद द्विवेदी
रचनावली-सं0-भारत यायावर, किताब
घर प्रकाशन, नई दिल्ली, खण्ड-06, द्वितीय
संस्करण, पृ0सं0-114
2-हिन्दी साहित्य का इतिहास-डा.
नागेन्द्र, डा. हरदयाल, मयूर
पैपरवैक्स, चालीसवाँ संस्करण-2012, पृ0सं0-560
3-प्रेमचंद: एक साहित्यिक
विवेचन-नंददुलारे वाजपेयी रचनावली-सं.-विजय बहादुर सिंह, अनामिका
पब्लिशर्स, नई दिल्ली, पृ0सं0-125
4-उद्धृत, प्रेमचन्द
और भारतीय किसान-डा. रामवक्ष, वाणी प्रकाशन, प्रथम
संस्करण-1982, पृ0सं0-55, 56
5-हिन्दी उपन्यासों में कलंकित चरित्रों
की सामाजिकता-दीनानाथ सिंह, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई
दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0सं0-95
6-गोदान-प्रेमचन्द, प्रकाशन
संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण-2009, पृ0सं0-23
7-गोदान-प्रेमचन्द, प्रकाशन
संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण-2009, पृ0सं0-190
8-प्रेमचन्द: एक मार्क्सवादी
मूल्यांकन-डा.जनेश्वर वर्मा, ग्रन्थम प्रकाशन, प्रथम
संस्करण-1986, पृ0सं0-307
9-हिन्दी उपन्यासों में कलंकित चरित्रों
की सामाजिकता-दीनानाथ सिंह, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई
दिल्ली, संस्करण-2013, पृ0सं0-126
वंशीलाल
हिन्दी विभाग,हे.न.ब.ग. केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
श्रीनगर गढ़वाल,मो0न0-8382989973,
9597157216
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