आलेख:उत्सव : परम्परा-परिवर्तन-भविष्य/डॉ. हेमलता महावर

                       

                     उत्सव : परम्परा-परिवर्तन-भविष्य

भारतीय संस्कृति में उत्सवों का विशेष स्थान है। पर्व और त्यौहारों में मनुष्य मनुष्य के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। यहां तक कि उसे पूरे ब्रह्मांड के कल्याण से जोड़ दिया गया है। ऐसे आयोजन घर परिवार के छोटे बड़े सभी सदस्यों को समीप लाने, मिलकर बैठने, एक दूसरे के सुख दुख एवं आनंद में सहभागी बनने का शुभ अवसर प्रदान करते हैं साथ ही मानवीय उदारता, समग्रता, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पहुंचाते हैं। पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां मौसम के बदलाव की सूचना भी त्यौहारों से मिलती है। भारत में हर ॠतु में, हर महीने में कम से कम एक प्रमुख उत्सव अवश्य मनाया जाता है। कुछ उत्सव किसी अंचल  विशेष में मनाए जाते हैं तो कुछ सम्पूर्ण भारत भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। सूक्ष्म रूप से  उत्सव ,पर्व और त्यौहार में अंतर है। उत्सव शब्द सवन से उत्पन्न है। सोम या रस निकालना ही सवन है। वह रस जब ऊपर छलक आए तो उत्सवन या उत्सव है। पर्व प्रवाही काल का संकेत है। मनुष्य  द्वारा ऋतु को बदलते देखना, उसकी रंगत पहचानना, उस रंगत का असर अपने भीतर अनुभव करना पर्व का लक्ष्य है। पर्वसामूहिक रूप से मनाया जाने वाला कृत्य है, जैसे नवरात्र, शिवरात्रि, कार्तिकपूर्णिमा, मौनी अमावस्या आदि। त्यौहार, शब्द, तिथि वारशब्द का अपभ्रंश है, क्योंकि सभी त्यौहार एक निश्चित तिथि और वार के योग पर ही आधारित होते हैं भारतीय संस्कृति में एक समय ऐसा भी था जब‍ साल का हरेक दिन एक उत्सव होता था, यानी साल में 365 दिन  उत्सव, पर्व या त्यौहार। इसका कारण यह है कि उत्सव एक औजार की तरह है जो हमारे जीवन में उत्साह और उल्लास लाता है। 

अगर हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे तो संभव है कि अगली पीढ़ी कोई भी उत्सव नहीं मनाएगी। उन्हें पता ही नहीं होगा कि उत्सव क्या होता है। दुर्भाग्य से आज लोगों के लिए त्यौहार का मतलब सिर्फ छुट्टी का दिन होता है, इस दिन वे बारह बजे सो कर उठते हैं, फिर वे खूब खाते हैं, फिल्म देखने जाते हैं या घर पर बैठकर टीवी देखते हैं। पहले ऐसा नहीं था। किसी त्यौहार पर सारा शहर एक जगह इकट्ठा होता था और बहुत बड़ा जश्न होता था। त्यौहार के दिन लोग सुबह चार बजे उठते थे और घर  में ढेर सारे कार्यक्रम होते थे।किन्तु अब ऐसा नहीं है। उत्सव का बाहर से कोई मतलब नहीं होता, असल में यह हमारे अंदर घटित होता है। आधुनिक युग में तनाव  का सबसे बड़ा कारण है मन की चंचलता, क्योंकि मन रोज बदलती इच्छाओं के कारण भटकता रहता है। आमतौर पर इंसान खुश कम और दुखी ज्यादा रहता है, क्योंकि वह जीवन में घटी सुखद घटनाओं को जल्दी भूल जाता है और दुखद घटनाओं पर अटका रहता है, ये दुखद घटनाएं इंसान के जीवन को बोझिल बना देती है इसीलिये   हमारे समाज ने धर्म  के साथ उत्सव को जोड़ दिया, जिससे परेशान मन खुश हो जाए। ऐसा देखा भी जाता है कि उत्सव आने से पहले मन खुश होने लगता है और जाने के कुछ दिन बाद तक उस खुशी का अहसास बना रहता है।इसी बीच कुछ समय बाद फिर से एक उत्सव  आ जाता है। 

जीवन का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। उत्सव मनाने के लिए ज्यादा पैसों की नहीं, बल्कि प्रेम की जरूरत होती है। वैसे भारत में जीवन के सबसे गंभीर पहलुओं के साथ भी जश्न जुड़े हैं और अगर हम हर चीज को जश्न की तरह लेते हैं, तो हम जीवन को बोझ की तरह न लेते हुए भी उससे पूरी तरह जुड़ाव रखना सीख जाते हैं। आजकल ज्यादातर लोगों की समस्या यह है कि अगर उन्हें कोई चीज महत्वपूर्ण लगती है, तो वे उसे लेकर घोर गंभीर हो जाते हैं। अगर उन्हें लगता है कि कोई चीज महत्वपूर्ण नहीं है, तो वे उसे लेकर लापरवाह हो जाते हैं, वे उससे जुड़ाव नहीं दिखाते। जबकि जिंदगी का मर्म यह है कि हरेक चीज को बोझिलता से न लेते हुए भी उससे पूरी तरह जुड़ाव रखना चाहिये  जैसा हम किसी खेल में करते हैं।

उत्सव एक प्रकार से सामाजिक शिक्षा का माध्यम भी है अभिनय, गायन, कीर्तन, पठन, पाठन, स्वाध्याय इत्यादि साथ- साथ करने से समता का प्रचार त्यौहारों में होता है प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रूप से उन्हें सफल बनाने का उद्योग करता है। पुराने साँसारिक एवं आध्यात्मिक गौरव की स्मृति पुनः हरी हो जाती है  ऐसे में हम मिलजुल कर परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं, एक ही विषय पर सोच विचार कर अपनी समस्याओं का हल निकाल सकते हैं तथा परस्पर साथ रहने से हम एक दूसरे के गुण दोषों की ओर भी संकेत कर सकते हैं। वर्तमान में पूरी जिंदगी में वह क्षण नहीं आता जब विराम हो, विश्राम हो, उत्सव हो। वह हो ही नहीं सकता।, सवाल जल्दी चलने का है। हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं। जल्दी चलो। सब चिल्ला रहे हैं, "हरी अप'। लेकिन कहां? । लेकिन क्यों? क्या होगा इसका फल? क्या पाने की इच्छा है? उसका कुछ पता नहीं। इतना समय भी नहीं कि इसको सोचें। इतने में देरी हो जाएगी, पड़ोसी आगे निकल जाएगा। हम सब भागे जा रहे हैं। ये अति व्यस्तता से दिखाई पड़ता है कि काम ही सब कुछ हैउन्होंने  समाज को भारी नुकसान पहुंचाया हैं। एक नुकसान तो इन्होंने  यह पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं।पहले वर्षा ॠतु की विदाई के साथ हरी भरी प्रकृति और शीत ॠतु की सुनाई देने वाली दस्तक के बीच त्यौहारों का जो सिलसिला आरम्भ होता था, वह शीत ॠतु की विदाई के साथ ही खत्म हो पाता था। परन्तु अब ये सब कहा , वक्त के साथ हमारे इन त्यौंहारों का स्वरूप तो तेजी से बदल ही रहा है। बल्कि उत्सव भी कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न अवधारणा है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन "पैसिव' है, उत्सव "एक्टिव' है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने पैसे दिए हैं और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद ? यह समझना चाहिये कि लोक संगीत, नृत्ये, गायन, भजन कीर्तन, नाटक तथा खेलकूद की गतिविधियां परिपूर्ण जीवन की एक महत्वनपूर्ण कड़ी है। इसी मान्यता के आधार पर आनंद उत्सव की परिकल्पना की गई है।  

दुनिया भर के लोगों को हिंदुस्तानियों की यह उत्सवधर्मिता ही चकित करती है। हमारी ऐतिहासिक विरासत और जीवंत संस्कृति के गवाह ये त्यौहार विदेशी सैलानियों को भी बहुत लुभाते हैं। दरअसल, रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में एक आम इंसान अवसाद में घिर ही जाता है, इसीलिए समाज ने हर ऋतु के अनुरूप थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद त्यौहारों की संरचना की, ताकि जीवन में आनंद और समरसता के साथ साथ मधुरता का संचार हो ; पर अफसोस कि आज त्यौहार सिर्फ शोरशराबे का पर्याय बनते जा रहे हैं। होली हो या दीपावली, ईद हो या गणेश चतुर्थी या फिर क्रिसमस,लोग हर तरफ कानफोड़ू संगीत और तड़क भड़क में लगे रहते हैं। आज एक ओर जहां त्यौहारों की रौनक महंगाई ने छीन है ली वहीं लोगों के स्वार्थपरक व्यवहार ने उन्हें बोझिल भी बना दिया है। पहले पर्वो का लोग बेसब्री से इंतजार करते थे लेकिन अब यह स्थिति है कि जैसे-जैसे पर्व की तिथि करीब आती है वैसे वैसे लोगों की चिंता बढ़ती जाती है। हालांकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों के लिए  तीज त्यौंहारों के कोई विशेष  मायने नही होते लेकिन मध्यम व गरीब तबके के लिए पर्वो का बड़ा महत्व होता है। वे त्यौंहारों के बहाने जीवन में सुधार लाकर वातावरण को खुशियों से भर लेते हैं। ये त्यौहार इन व्यक्तियों के जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं, जिससे इनके जीवन में गति आती है। ये त्यौहार इनका जीवन के प्रति सकारात्मक  रवैया भी तैयार करते हैं, ताकि किसी भी प्रकार की कठिनाई आने पर ये घबराएं नहीं ।वर्तमान में तो आधुनिक और तेजी से बदलती जीवनशैली ने हमारे उत्सवों के प्रति आस्था को ही सवालों के दायरे में ला कर खड़ा कर दिया है इस नई जीवन शैली ने हमें अपने उत्सवों में निहित स्वाभाविक उल्लास से काट दिया है। अब तो लोग दीपावली के दिन ही पटाखे और मिठाइयां खरीदने दौड़ते हैं। मिठाई भी ऐसी कि चार दिन तक रखना मुश्किल हो जाए। मिठाइयों की जगह अब चॉकलेट आ गए | युवाओं में अब फ़िल्मी गानों पर डीजे और होली पार्टी देने का चलन है| रंग हानिकारक केमिकल से भरे आने लगे हैं, ईद में नया कुछ है तो फ़िल्मी गाने और नयी आई फिल्मों को पहले सिनेमा घर में देखने की होड़| क्रिसमस का अर्थ  भी अब सिर्फ सैंटा क्लॉज़ बने बच्चे, चर्च में मोमबत्ती जलाना, केक खाना, क्रिसमस ट्री सजाना, ही  रह गया है। 

खुशियों के ये उत्सव अब फिजूलखर्ची के  उत्सव  बन कर रह गये है। शहरों में बाजार हफ्ता भर पहले से ही जगमगाते  हैं। दिल दहला देने वाले बमों और पटाखों ने पारम्परिक सुहावनी आतिशबाजी का स्थान ले लिया है। हर साल करोड़ों रुपये के पटाखे दीपावली के नाम फूंक दिए जाते हैं। सरकार और गैर सरकारी संगठनों की तमाम अपीलें भुला दी जाती हैं, बल्कि अब तो मुहल्ले स्तर पर आतिशबाजी की होड़ सी लगने लगी है कि कौन कितने तेज और देर तक आतिशबाजी कर सकता है। यह एक तरह से पटाखों की नहीं बल्कि दिखावे की होड़ है, जिसे बाजार संस्कृति ने विकसित किया है। यही नहीं विदेशी शराब की बोतलें, विदेशी चॉकलेट, ड्राई फ्रूटस और सोने के महंगे गिफ्ट पैक को भी उपहार में देने की संस्कृति तेजी से विकसित हो रही है विज्ञापनों ने इसकी जड़ें जमाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 

भारत में देसी पटाखों का कारोबार सालाना 10,000 करोड़ रुपए का है इसी प्रकार चाकलेट का बाजार करीब 3,000 करोड़ रुपए का है और यह क्षेत्र सालाना 15 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। इसी कारण उत्सव के नाम से जो उत्साह, उल्लास कभी हमारे दिलो-दिमाग में बरबस घुल जाया करता था, अब बस एक रस्म का निर्वाह करते हुए आता है ।आधुनिकता और परंपरा के बीच हम संतुलन बनाने की जिद्दोजहद में उलझे हुऐ हैं। महंगे होते इन त्योहार के साथ मध्यम वर्ग तो येन-केन अपने कदम मिलाने में समर्थ हो पा रहा है, लेकिन कामगारों के लिये महंगा होता यह त्योहार उनकी जिंदगी को दयनीय बना रहा है। सच तो यह है कि ये उत्सव धूम -धड़ाके, फूहड नाच-गाने, होटलों के हंगामे और हजारों लाखों के जुआ खेलने का त्योहार बन कर रह गये हैं। त्यौहार अपने मूल उद्देश्य से भटककर अब एक स्टेटस सिंबल हो गए है। धन-वैभव, राजनीतिक सामर्थ्य प्रदर्शन, चकाचौंध, दिखावा व स्वार्थ की प्रवृत्ति भी तेजी से विकसित हो रही है या यह कहें कि त्यौहार भारत में अब एक प्रमुख खरीदारी की अवधि का प्रतीक बन गया है तो गलत नहीं होगा। उद्योग जगत के एक अनुमान के अनुसार, ऑनलाइन गिफ्टिंग का बाजार सालाना 1,000 करोड़ रुपए से अधिक का हो रहा  है बीते कुछ सालों में घर सजाने में प्ला़स्टिक के सामान का इस्तेमाल भी बहुत बढ़ गया है। दीवाली पर तो यह घर सजाने के काम आते हैं, लेकिन कुछ‍ दिनों बाद ही ये सड़कों और गलियों में बिखरे देखे जा सकते हैं। ये नालियां तो जाम करते ही हैं साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाते हैं।। क्यों कि प्लास्टिक गलता नहीं है।प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं जीवविज्ञानी ए.सी. बर्मन के द्वारा किये गये अध्ययन के अनुसार आतिशबाजी के दौरान इतना वायु प्रदूषण नहीं होता जितना आतिशबाजी के बाद। जो प्रत्येक बार पूर्व दीवाली के स्तर से करीब चार गुना बदतर और सामान्य दिनों के औसत स्तर से दो गुना ज्यादा पाया जाता है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि आतिशबाज़ी के बाद हवा में धूल के महीन कण (en:PM2.5) हवा में उपस्थित रहते हैं। इसी प्रकार अत्री एटअल की एक रिपोर्ट  के अनुसार नए साल की पूर्व संध्या या संबंधित राष्ट्रीय के स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया भर  में आतिशबाजी समारोह होते हैं जो ओजोन परत में छेद के कारक हैं ।


डॉ. हेमलता महावर
व्याख्याता समाजशास्त्र 
महाराणा प्रताप
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
चित्तौड़गढ़
           सम्पर्क 9351965293
टेक्नोलॉजी के बेतहाशा प्रयोग से भी उत्सवों के मूल उद्देश्य को खतरा है।जहां मिठाइयां खाने के लिए दी जाती थी आज वहां मिठाइयां  फेसबुक, व्हाटसप्प के माध्यम से मोबाइल पर इमेज भेजी जा रही हैं जहां पतंग उड़ाया करते थे लोग वहां पर सोशल मीडिया पर पतंग भेज रहे हैं अर्थात जीवन का दौर आज मोबाइल टेक्नोलॉजी  आधारित हो गया है। आज आवश्यकता है  टेक्नोलॉजी से थोड़ा सा दूर हटकर अपने पारंपरिक जीवन का अनुभव लेने की। उत्सवों  को परंपराओं के अनुसार ही मनाने की । अन्यथा एक दिन हमें बच्चों को उत्सवों  की कहानियां सुनानी पङेगी और बच्चे उत्सवों की कहानियां सुनकर आनंद को अनुभव करने का प्रयास करेगें। हमारे सभी उत्सवों का उद्देश्य समाज को सामूहिकता की तरफ ले जाना, समाज में फैली विकृतियों को मिटाना और समाज को प्रगति की ओर ले जाना है। ये उत्सव तथा त्यौहार केवल रस्म अदायगी बाह्य दर्शन या झूठा दिखावा मात्र न बनेप्रत्युत पारिवारिक भावना, संगठन, एकता, समता और प्रेम की भावना के विकास में सहायक हो। हर बदलाव बुरा नहीं होता है किन्तु बदलाव को स्वीकारें प्रासंगिकता के साथ त्योहारों का अर्थ आनंद है, मजबूरी नहीं। इसके साथ ही ऐसा कुछ भी करें कि उल्लास का उजास अंधेरे कोनों तक भी पहुंचे।अपने जीवन में उजाला हो, पर दूसरों का जीवन भी चमके, व्यवहार और मन का भाव पवित्र हो, स्नेह की मिठाई हो, रागद्वेष का कचरा निकले और क्षमा  एवं परोपकार के धन से घर भर जाए तो उत्सव का मकसद पूरा हो जाएगा। ऐसा उत्सव फिर एक दिन तक ही सीमित नहीं रहेगा, पूरे साल दिखेगा।

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

1 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने