वक्तव्य: भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास/श्रीधर पराड़कर व डा. रामशरण गौड़

भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास/ श्रीधर पड़ारकर


आज 520 वर्ष बाद भी यदि हम चर्चा कर रहे हैं कि गोस्वामी तुलसीदास भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैं तो यह प्रश्न उठता है कि क्या आज भी यह बताने की आवश्यकता है कि गोस्वामी तुलसीदास भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैंहाँबताना ही पड़ेगा क्योंकि आज की परिस्थिति ही ऐसी है। एक प्रसंग याद आता है - मैं संघ की शाखाएँ लगाया करता था। एक दिन एक लड़के ने आकर अखण्ड रामायण के पाठ का प्रसाद लेने हेतु हमसे आग्रह किया। हम उसके घर गए तो पता चला कि अपने बड़े भाई से जमीन का केस जीतने के उपलक्ष्य में वह पाठ रखा गया था। यह अजीब विडम्बना है कि जिस रामायण में राम और भरत दोनों ही राज्य लेने से मना कर देते हैंत्याग का मानदण्ड स्थापित करते हैं उसी का पाठ भाई से सम्पत्ति का केस जीतने के अवसर पर कराया जा रहा है। इसीलिए तुलसी के विचारों पर फिर से चर्चा करने की आवश्यकता है।

एक प्रश्न यह है कि क्या पुरानी बातों पर चर्चा करना निरर्थक हैक्या केवल मनुष्य के लिए जो चीजें आज आवश्यक हैं केवल उन्हीं की चर्चा होनी चाहिएलेकिन यह बात कही गयी है कि आहारनिद्राभय और मैथुन - ये चार चीजें मनुष्य और पशु में समान हैं। इनके बिना न पशु जीवित रह सकता है न मनुष्य। लेकिन यदि केवल यहीं चीजें दोनों में हैं तो मनुष्य पशु से कैसे अलग हुआदरअसल धर्म  ही एक चीज है जो पशु और मनुष्य को अलग करता है। हमारे देश में समस्या यह है कि यहाँ धर्म  का नाम लेना ही पाप बन गया है क्योंकि हम धर्म  निरपेक्ष हैं। समस्या यह है कि मनुष्य केवल हाथ-पैर-नाक-मुँह का ढ़ाँचा तो है नहीं। वह मनुष्य बनता है धर्म  सेलेकिन हम धर्म  से निरपेक्ष हो गए। ऐसे में जब हम मनुष्य ही नहीं बन पाए तो फिर संस्कृति का प्रश्न ही कहाँ उठता हैफिल्मों आदि में रोटी, कपड़ा और मकान की ही चिन्ता और चर्चा है। लेकिन वे शाश्वत मूल्य जिनसे मनुष्य बनता हैजब तक वे लोगों के समक्ष नहीं जाएँगे तब तक न तो वह साहित्य मनुष्य के काम का होता है न मनुष्य के द्वारा स्वीकार किया जाता है। आज के साहित्य में इन्हीं चीजों के अभाव के कारण पाठक नहीं मिल रहे हैं लेकिन लोग इस चीज को समझने को तैयार नहीं हैं कि 520 वर्ष बाद भी लोग तुलसीदास जी को क्यों पढ़ रहे हैंशिवाजी सावंत की मृत्युंजय’ प्रस्तुत अनेक भाषाओं में आई। तात्पर्य यह है कि पाठक आज भी हैं। पाठक न होने की बात कहना अपनी बला दूसरों पर टालने जैसा है। इसलिए मेरा कहना है कि तुलसीदास जी ने शाश्वत मूल्यों को अभिव्यक्त किया है। समाज की विकृतियाँ तो हर युग में होती हैं। देखना यह होता है कि उसे समाजिक मान्यता किस युग में हैंजैसे पहले बुराई को सामाजिक मान्यता नहीं थी आज सामाजिक मान्यता है। सीता के अपहरण का वर्णन रामायण और रामचरित मानस में है। आज भी अपहरण होते हैं। द्रोपदी के चीरहरण का वर्णन महाभारत में है और आज भी ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं। लेकिन रामयण या महाभारत में इन घटनाओं का महिमा मंडन नहीं है। इसी कारण आज तक भी किसी व्यक्ति ने अपने बेटे का नाम रावण या दुर्योधन नहीं रखा है। कहने का अर्थ यह है कि हमें तुलसीदास से यह सीखना चाहिए कि समाज के यथार्थ का चित्रण तो आवश्यक है लेकिन बुराई का महिमा मंडन नहीं होना चाहिए।

तुलसीदास की बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने व्यक्तियों, सही-गलत का बोध जागृत किया। आज हमने भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता प्रदान कर दिया है। ऐसे में साहित्यकार की भूमिका यह है कि वह बुराइयों के प्रति व्यक्ति को जागृत करे। तुलसीदास जी को स्मरण करके हम आज के साहित्यकारों को इस दिशा में प्रेरित कर सकते हैं।

तुलसी की महानता यह है कि साक्षर लोगों के मध्य उनका जितना सम्मान है निरक्षरों के मध्य भी उनकी उतनी ही प्रतिष्ठा है। उनकी रचनाओं की स्वीकृति सर्वव्यापी है। महाभारत में धर्म  पर व्यापक आख्यान है। फिर भी भीष्म पितामह कहते हैं कि धर्म अत्यन्त गहन हैउसको समझा नहीं जा सकता। जबकि तुलसीदास जी ने धर्म  को एक ही चौपाई में समझा दिया,

परहित सीसं धर्म  नहि भाईपर पीड़ा सम नहिं अधिमाई

तुलसी सबको समझ में आने वाले कवि हैं। दरअसल साहित्य के लिए बोधगम्यता अत्यन्त आवश्यक है। आस्था, सेवा, विश्वास त्याग जैसे मूल्य जिनसे मनुष्य मनुष्य बनता हैवे जब तक लेखन में नहीं होंगे तब तक मानवीय मूल्यों का विकास संभव नहीं। इस दृष्टि से तुलसीदास जी का लेखन अत्यन्त सफल है। यही कारण है कि आज 520 वर्ष बाद भी हम उन्हें याद कर रहे हैं। उन्हें जीवन में उतारने की कोशिश कर रहे हैं।


श्रीधर पराड़कर 
राष्ट्रीय संगठन मंत्री 
अखिल भारतीय साहित्य परिषद्  
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डा. रामशरण गौड़ 

मैं तुलसीदास जी को श्रद्धान्जली आर्पित करता हूँ। 1554 संवत में गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ था। भारत के लिए वह संक्रान्ति काल था। हमारी संस्कृति पर आघात हो रहे थे। ऐसे समय में तुलसीदास जी का जन्म हुआ। वे अवतारी पुरूष थे और उन्होंने भारतीय संस्कृति के लिए जो महत्त्वपूर्ण कार्य किए उसके लिए उनका स्मरण करना हमारा कर्तव्य  बनता है। केवल जयन्तियों पर नहीं उनके देय के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाना चाहिए। उन्होंने केवल रामचरित मानस ही नहीं दिया है। यदि आज कवितावली को पढ़े तो उस दौर की समग्र राजनैतिक स्थिति और सामाजिक ढा़ँचे को यथार्थ रूप में समझ लेंगे। रामचरित मानस तो विश्व का ऐसा ग्रंथ है जिनकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से नहीं की जा सकती है।

वाल्मीकि और तुलसीदास ने मिलकर राम को जो स्वरूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया वह तीन-चार बातों के लिए प्रसिद्द है, वाल्मीकि ने राम के 33 गुणों का उल्लेख किया है। पहली बात तो यह कि राम आततायियों को दण्ड देना जानते थे। उन्होंने इतनी दूर, लंका में जाकर रावण का वध् किया। खर-दूषण जैसे अनेक असुर जिन्होंने समाज में हिंसा फैला रखी थी, समाज को दूषित किया था और लोगों को संत्रास दे रहे थे उनको दण्डित किया। राम दण्ड देना जानते थे क्योंकि दुष्टों को दण्डित करना समाज के लिए आवश्यक है।

राम की दूसरी विशेषता है दलितों के प्रति आत्मीय भाव। सबरी और निषाद राज के प्रति राम का स्नेह भाव हमारे समक्ष उदाहरण के रूप में मौजूद है। राम की तीसरी विशेषता है मातृभूमि के प्रति प्रेम, जिसे आज के तथाकथित बुद्धिजीवी लोभवश भूलते जा रहे हैं। यदि देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा नहीं होगी, हमारी संस्कृति और अच्छी परम्पराओं के प्रति आस्था नहीं होगी, समाज और संस्थाएँ नहीं बचेंगी तो व्यक्ति भी जीवित नहीं रह सकता है।

अंग्रेजी की एक कहावत है जिसमें एक राक्षस चार लोगों के पीछे पड़ जाता है। वे अपनी-अपनी जान बचाने के लिए भागने लगते हैं और राक्षस बारी-बारी से चारों को पकड़ कर खा जाता है। पश्चिम का जो झोका आ रहा है और मार्क्सवादियों का जो षड्यंत्र चल रहा है, उससे बचने के लिए हमारी युवा पीढ़ी को ऋषि-मुनियों के प्रयासों से निकली अच्छी बातों से प्रेरणा लेनी चाहिए। लेकिन ये बातें युवाओं तक पहुँच नहीं पा रही हैं, क्योंकि युवा पीढ़ी फोन और टी.वी. में इस भाँति व्यस्त है कि उसके पास इन बातों के लिए समय ही नहीं है। पश्चिम के देश बच्चों में मोबाइल एडिक्सन से पैदा होने वाली समस्याओं से बहुत चिन्तित हैं। इंग्लैंड के 70 बच्चे मानसिक समस्याओं से ग्रस्त हैं। हमारे देश में भी इस तरह की समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इसलिए जरूरी है कि हम बच्चों को अच्छी बातें बताएँ और अच्छी किताबें पढ़ने को दें। पहले घरों में सत्यनारायण भगवान की कथा होती थी जिसमें पूरे परिवार के लोग एक साथ आकर बैठते थे। जिससे सामाजिक सद्भाव और सहिष्णुता का भाव पैदा हेता था। जिसे हम आज भूलते जा रहे हैं। इसलिए आज जरूरी है कि हम संत गोस्वामी तुलसीदास को फिर से याद करें। हमारे घरों में रामचरित मानस पर जो धूल जमी है, उसे साफ करने की आवश्यकता है। केवल पाठ करने से कोई लाभ नहीं होने वाला। हमें राम के जीवन मूल्यों से सीख लेनी होगी।

हमारी संस्कृति में राम के अतिरिक्त और भी महापुरूष हैं जिन्होंने जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है। इसका निर्णय हमें करना है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। यदि पश्चिम में भी कुछ अच्छा है पश्चिम के एक स्कूल में आग लगी तो 5 मिनट के भीतर अग्नि शमन दल और पुलिस दोनों पहुँच गए लेकिन हमारे यहाँ आग लग जाए तो घंटों तक अग्नि शमन दल नहीं पहुँचता हे। अकर्मण्यता हमारी बड़ी कमजोरी है जिससे सरकार और समाज दोनों चिन्तित हैं। इन सब बातों पर चर्चा की जरूरत है।


डा.रामशरण गौड़ 
अध्यक्ष, इन्द्रप्रस्थ साहित्य परिषद एवं अध्यक्ष दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी 
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प्रस्तुति -
डॉ. सत्यप्रकाश 

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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