आलेख: तुलसी के साहित्य में सामाजिक जीवन मूल्य/ कमलेश वधवा

             तुलसी के साहित्य में सामाजिक जीवन मूल्य
             
भारतीय महापुरुषों में अग्रगण्य गोस्वामी तुलसीदास भारतीय समाज और संस्कृति के जहाँ एक ओर उन्नायक हैं वहीं दूसरी ओर सुधारक भी हैं। तत्कालीन समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों, ऊँच-नीच, छुआछूत जाति-पाति के भेदभाव को दूर करके तुलसीदास ने एक स्वस्थ समाज की स्थापना की।  तुलसी के युग में जनता मुगलों के शोषण और आतंक से भयभीत थी। समाज में फैली विकृतियाँ, विसंगतियाँ, नैतिक विडम्बनाएँ यथा-ढ़ोंग, पाखण्ड़ और कर्मकांड की जड़ता से सामाजिक संबंधों का पतन हो रहा था। भारतीय समाज रूढ़ियों और धार्मिक बेड़ियों में जकड़ गया था। इन परिस्थितियों का तुलसीदास ने ड़टकर सामना किया और राम जैसे मर्यादित चरित्र से समाज की चेतना को आलोकित किया। तुलसी ने जिस समाज की कल्पना की थी उसे उजागर करते हुए डाॅ. राजपत दीक्षित ने लिखा है कि - ‘‘तुलसीदास का सारा प्रयास जनता जनार्दन के मानस परिष्कार के लिए था।  वह जिस समाज की कल्पना करके चले वह स्वार्थ-त्याग और बलिदान सिखाने वाला था और उन्होंने जिस राज्य की भावना की थी वह लोकाराधन के लिए राज्य, सुख, राग आदि सबको निछावर कर देने वाला था। उन्होंने राजा और प्रजा के लिए जो आदर्श रखा था वह संक्षेप में प्राचीन वर्ण-व्यवस्था का पुनरूज्जीवक और रामराज्य का प्रस्थापक था।’’  तुलसीदास का साहित्य लोकमंगल, समानता और विश्वबन्धुत्व की भावना पर ही केन्द्रित हैं। विशेष रूप से रामचरित मानस उनका एक ऐसा महाकाव्य है जो हमारे समाज को प्रतिबिम्बित करता है। इस ग्रंथ से समाज प्रेरणा और मार्गदर्शन दोनों प्राप्त करता है। इनके साहित्य में भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल आदर्शों की अभिव्यक्ति हुई है।

            तुलसीदास ने परंपरा से चली आ रही भारतीय समाज-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ही अपने समाज को देखने का प्रयास किया। समाज के हित को केन्द्र में रखते हुए तुलसी एक आदर्श और स्वस्थ समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें मानवीयता हो, आपसी भाईचारा हो और समाज का यह परिवर्तन क्षणिक न होकर चिरस्थायी हो।

            तुलसीदास अपने समय के अव्यवस्थित समाज को व्यवस्थित करना चाहते थे। इसीलिए समाज के हर क्षेत्र में फैले वैमनस्य को दूर करने हेतु अपने साहित्य में इस प्रकार के जीवन मूल्यों की स्थापना की जो प्रत्येक वर्ग, वर्ण, जाति को प्रेरित करते थे। जाति-पाति, ब्राह्मण-शूद्र, ऊँच-नीच, छूत-अछूत आदि पारस्परिक भेदभावों से हिन्दु समाज पतन के कगार पर जा रहा था। तुलसीदास ने इन रूढ़ियों को तोड़ने के लिए ही स्वयं ब्राह्मण होने के बाद भी स्पष्ट रूप से कहीं भी अपनी उच्चता का बखान नहीं किया है- इस सन्दर्भ में वे कहते हैं -
                                 ‘‘मेरे जाति-पाँति न चहौ काहू की जाति-पाँति
                                  मेरे कोऊ काम को न हौं काहू के काम को
                                 साधु कै असाधु कै भलौ के पोंच सोचु कहा
                                 का काहू के द्वार परौं जो हौं सो हौं राम को।’’
               तुलसीदास को जाति-पाति से कोई लेना-देना नहीं। अपने आराध्य राम के चरणों में स्थान पाने के लिए उन्होंने भला-बुरा, साधु-असाधु आदि प्रवृतियों को महत्व नहीं दिया है। यहाँ तुलसीदास सन्त कवियों की विचारधारा हरि को भजै सो हरि का होय को ही पुष्ट कर रहे हैं। तुलसीदास एक तटस्थ भक्त कवि हैं, उन्होंने किसी भी वर्ग के साथ पक्षपात नहीं किया। समाज के निम्न वर्ग नाई, धोबी, केवट आदि को भी लिया है और साथ ही समाज से बहिष्कृत लोगों जैसे निषाद, शबरी, भील कोल किरात आदि को भी अपने साहित्य में उचित स्थान दिया है। निम्न वर्ग से आए इन पात्रों को समाज ने जहाँ कठपुतली की भांति नचाया है वहीं तुलसी के राम इन्हें बन्धु और सखा कहते हैं। उनके राम दुखियों असहायों के दुख में साथ देने वाले हैं, बौद्धिक सहायक नहीं। तुलसीदास ने मानवता को सर्वोपरि माना है, तभी उनके राम अपनी कुलीनता और राजत्व को त्याग कर साधारण और नीच समझी जाने वाली जनता के बीच हैं। रावण जैसे राजा को परास्त करने के लिए आदिवासियों की सहायता लेना उस वर्ग को जागरुक करना था जो सदियों से पीड़ा, कष्ट, शोषण, अत्याचार सहन कर रही थी। लोकहित की भावना से प्रेरित तुलसी के प्रगतिशील विचारों को आज भी सामाजिक चिंतकों और प्रगतिशील लेखकों की दलितों के शोषण एवं अत्याचार के विद्रोह के रूप में देख सकते हैं। तुलसी ने राम को अयोध्या नरेश के रूप में नहीं बल्कि साधारण मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। उस युग में राजा का प्रजा के प्रति जो अत्याचारी व्यवहार था तुलसी ने उसे तोड़ा है। तुलसीदास का मानना है कि राजा को निज स्वार्थ को त्याग कर प्रजा के प्रति अपने कत्र्तव्य का पालन करना चाहिए। परिवार और सगे सम्बन्धियों से ऊपर राष्ट्र का सम्मान करना चाहिए क्योंकि जो राजा प्रजा के प्रति ईमानदार नहीं है उसका कभी भला नहीं हो सकता।

                              ‘‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।’’

                       उनके राम अपनी प्रजा को इतनी आत्मीयता देते हैं कि प्रजा उनसे अलग रह ही नहीं पाती। राम के वनवास गमन पर पूरी अयोध्या शोक के सागर में डूब जाती है स्वयं को अनाथ समझ व्याकुल हो जाती है।

                          ‘‘चलत रामु लखि अवध अनाथा। विकल लोग सब लागे साथा।।
                          कृपासिंधु बहुविधि समुझावहिं। फिरहि प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं।।’’

            तुलसी के राम का प्रजा के प्रति आत्मीय प्रेम निश्चित रूप से सारे भेदभावों को दूर करने में सक्षम है। अछूत प्रजा को उच्चवर्ग के प्रतिष्ठित व्यक्ति के गले मिलाने का काम तुलसी ही कर सकते थे। केवट का अपनी शर्त ;पहले मैं आपके पैर पखारूँगा बाद में नाव लाऊँेगाद्ध मनवाने पर नाव लाना, निषाद के स्वागत करने पर राम द्वारा उसकी कुशल-क्षेम पूछना और शबरी के जूठे बेर खाना छुआछूत के भेदभाव को दूर करके समाज में निम्न वर्ग को प्रतिष्ठित करना था। शबरी के यहाँ जब राम पहुँचते हैं तब दोनों हाथ जोड़कर वह कहती है -

                        ‘‘केहि विधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।’’

            यह सुनकर राम कहते हैं -

                         ‘‘कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।
                           जाति पाति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
                            भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।’’
            राम ने श्रद्धा और प्रेम को महत्त्व दिया है। ऋषि वसिष्ठ से इन अनार्य आदिवासियों का परिचय कराते हुए राम उन्हें अपना सखा कहते हैं और उन्हें भरत से भी अधिक प्रिय मानते हैं। बंदर, भालुओं को भरत से भी अधिक प्रिय कहने वाले राम मनुष्यत्व का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। तुलसी जाति-पाति छुआछूत ऊँच-नीच के कट्टर विरोधी थे और यदि कहीं रंचमात्र कुछ दिखाई भी देता है तो वह सामाजिक मर्यादाओं का पालन करने हेतु किया है ताकि एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। तुलसी जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर वर्ग विभाजन के पक्षधर थे।
            तुलसीदास के युग में भारतीय जनता वेद, शास्त्र, ज्ञान-वैराग्य और राम-भक्ति मार्ग को त्याग अपने समय में प्रचलित अनेक प्रकार के पंथों, सम्प्रदायों में भटक रही थी। तुलसी ने इसकी कड़ी आलोचना की और अपने युगधर्म को पहचान कर रामभक्ति की धारा को प्रवाहित किया। उनका भक्तिपरक दृष्टिकोण समन्वयवादी था। ‘‘सामंजस्य का भाव लेकर गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा ने उस समय भारतीय जनमानस के बीच अपनी ज्योति जगाई जिस समय नए-नए सम्प्रदायों की खींचतान के कारण आर्य धर्म का व्यापक स्वरूप आँखों से ओझल हो रहा था, एकांगदर्शिता बढ़ रही थी।’’  उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों भक्ति-पद्धतियों को महत्त्व देते हुए सगुण भक्ति को महत्त्व दिया। ‘‘उन्होंने युगधर्म को पहचाना और गुण की आवश्यकता के अनुसार रामभक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। वे व्यक्तिगत मोक्ष के साथ ही लोक-कल्याण के भी अभिलाषी थे। उन्होंने अनुभव किया कि लोक-संग्रह के लिए निर्विशेष-निर्गुण ब्रह्म निरर्थक है। विश्व  को ऐसे ईश्वर की आवश्यकता है जो दीन-दुखियों की पुकार सुन सके, तत्काल पहुँचकर उनकी रक्षा कर सके, अधर्म का नाश करके धर्म की प्रतिष्ठा कर सके। परिस्थिति का आग्रह था कि जनता को लोकरक्षक वर्णाश्रम-धर्मपालक-धनुर्धर राम की आवश्यकता है रासलीला-विलासी-मुरलीधर कृष्ण की नहीं। अतएव उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की दास्य-भक्ति का गौरवगान किया।’’  तुलसी की भक्ति व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण करने वाली है व्यक्तित्व का परिष्कार अहंकार के शमन से हो सकता है। इसीलिए सम्पूर्ण विनयपत्रिका में उन्होंने दैन्यबोधक विशेषणों से युक्त व्यक्ति की भूमिका को उपस्थित किया है जिससे ईश्वर की महत्ता और भक्त की तुच्छता की अनुभूति स्वयं ही हो जाती है। इसी से ही भक्त को मानसिक संतुष्टि मिलती है।

                         ‘‘तुलसिदास प्रभु कृपा करहु अब मैं निज दोष कछु नहिं गोयो।’’

             तुलसी ने दास्यभक्ति को स्वीकार किया है और राम के प्रति प्रेम रखने को ही भक्ति कहा है। तुलसी की भक्ति सभी जातियों और वर्णों के लोगों को मिलाने वाली थी। उनकी रामभक्ति का एक प्रमुख कारण यह है कि उनके प्रभु राम ने जातिहीन व्यक्तियों को अपनाया था। दोहावली का यह दोहा देखिये -
                                       ‘‘जातिहीन अघजनम महि, मुकुत कीन अस-नारि।
                                        महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहिं बिसारि।।’’

            भक्त कवियों के मूल मंत्र- जाति पाति पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई को तुलसीदास ने भी सिद्ध किया है। ‘‘तुलसीदास की भक्ति वर्ण, जाति, धर्म आदि के कारण किसी का बहिष्कार नहीं करती। जो अति अघरूप समझे जाते हैं, उन ‘‘आभीर-जवन किरात खस स्वपचादि के लिए भी वह कहते हैं कि राम का नाम लेकर वे भी पवित्र हो जाते हैं। इससे उनकी भक्ति का जनवादी तत्व अच्छी तरह प्रकट हो जाता है।’’  पुरोहित वर्ग ने जिन लोगों के लिए उपासना और मुक्ति के द्वार बंद कर दिए थे, तुलसी ने उन्हें सबके लिए खोल दिया था।

            तत्कालीन समाज में नीची जातियों की भांति स्त्री की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। तुलसी नारी विरोधी है। इसे सिद्ध करने के लिए प्रमाणस्वरूप उनकी यह चैपाई बार-बार उद्धृत की जाती है - ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी। तुलसीदास मर्यादावादी थे। समाज में मानवीय मूल्यों के विघटन और नारी के प्रति हो रहे शोषण को देखकर ही तुलसी ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए उपदेश दिये। एक तरफ पति-सेवा का उपदेश, दूसरी तरफ कत विधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।। अर्थात पराधीन नारी के लिए स्वप्न में भी सुख न होने पर क्षोभ; यह कला तुलसीदास को छोड़कर और कहीं नहीं है।  तुलसी स्त्रियों की पराधीनता को जानते हुए भी उन्हें पशुओं की तरह ताड़न की अधिकारी कहें तो इससे अधिक कठोरता क्या हो सकती है? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि ‘‘पुरूषों की अधीनता में रहकर गृहस्थी का कार्य संभालना ही वे स्त्रियों के लिए बहुत समझते थे। उन्हें घर के बाहर निकालने वाली स्वतन्त्रता को वे बुरा समझते थे। पर यह भी समझ रखनी चाहिए कि जिमि स्वतन्त्र होइ बिगरहिं नारी कहते समय उनका ध्यान ऐसी ही स्त्रियों पर था जैसी कि साधारणतः पायी जाती हैं, गार्गी और मैत्रेयी की ओर नहीं।’’  तुलसी ने सभी स्त्रियों की निन्दा नहीं की और न ही सभी को वैरागियों की सेवा में लगने का उपदेश दिया है। स्त्रियों के लिए दिए गए उपदेश को वैसे ही समझना चाहिए जैसे ऋषिवधु ने सरल मृदु वानी से सीता जी को दिया था। तुलसीदास नारी जाति के विरोधी नहीं हैं बल्कि उन्होंने एक आदर्श नारी की परिकल्पना की है। उन्होंने पुरूषों  के लिए एक पत्नीत्व होने पर बल दिया है। तुलसीदास ने जो भी कहा है वह समाज और परिवार के हित में ही है। तुलसी ने नारी को पुरूष से कहीं अधिक महत्त्व व अधिकार दिया है। जब राम वनवास जाने की सूचना कौशल्या को देते हैं तो उनका मातृत्व हृदय द्रवित होकर कहता है -

                             ‘‘जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहुजानि बड़ि माता।।
                              जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।।’’

            अर्थात यदि केवल पिता ने ही वन जाने का आदेश दिया है तो माता का स्थान पिता से ऊँचा है यह मानकर तुम वन मत जाओ और यदि कैकेयी और पिता दोनों ने कहा है तो वह वन तुम्हारे लिए अवध के बढ़कर है। तुलसीदास पति पत्नी के संबंधों को भी मधुर बनाना चाहते थे क्योंकि उस समय पति पत्नी दोनों एक दूसरे की उपेक्षा करके पर-पुरूष और परस्त्री से सम्पर्क स्थापित करके अपने कुल की मर्यादा नष्ट कर रहे थे। तुलसीदास ने स्त्री-पुरुष के आपसी श्रद्धा, प्रेम और विश्वास बढ़ाने के लिए भगवान शंकर और पार्वती तथा राम और सीता को उदाहरण-स्वरूप प्रस्तुत किया

                                 ‘‘गिरा अरथ जल बीचि समकहिअत भिन्न न भिन्न।
                                      बंदउं सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।’’

               तुलसी ने नारी ज्ञान और साहस की भी प्रशंसा की है। कैकेयी राजा दशरथ के साथ युद्ध के मैदान में जाती थी और इसी तरह बालि की पत्नी ने सुग्रीव से युद्ध करने से पूर्व उसे समझाया था लेकिन बालि ने अभिमानवश उसकी एक न सुनी और बुरा परिणाम भोगना पड़ा। राम ने मृत्यु शय्या पर बालि से यही कहा था कि - मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।। यहाँ तुलसी ने नारि सिखावन को महत्त्व दिया है। तुलसी ने सीता के माध्यम से भारतीय नारी के शील, गुण, लज्जा, सहनशीलता, कर्तव्यपरायणता आदि गुणों का चित्रण किया है।

              तुलसीदास की कविता का मुख्य स्रोत मानव प्रेम है। उनके समय में स्थापित सामन्ती व्यवस्था ने सामाजिक जीवन को जर्जर बना दिया था। तुलसी इस समाज को व्यवस्थित करने के लिए रामराज्य की कल्पना करते हैं। एक ऐसे राज्य की स्थापना जो केवल शरीर को ही नहीं हृदय को भी प्रभावित करेें। जहाँ किसी प्रकार का वैर भाव न हो।

                                  राम राज बैठे त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
                             बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।

             रामराज्य में सभी लोग बिना किसी वैरभाव के परस्पर प्रीति से रहते हैं तथा वेदविहित मार्ग पर चलकर सभी अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं।  शारीरिक, मानसिक, दैवीय किसी प्रकार के कष्टों से जनता पीड़ित नहीं थी।

                                 ‘‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहू नहीं व्यापा।।
                              सब नर करहिं परसपर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत स्रुति नीती।।

             रामराज्य पूर्णतः सुव्यवस्थित था। मानव के साथ-साथ प्रकृति भी अपनी मर्यादा का पालन करती थी। तुलसी ने रामराज्य में राजा के लिए भी कुछ गुणों का उल्लेख किया है यथा-लोक वेद द्वारा विहित नीति पर चलना, धर्मपरायण होना, प्रजापालक होना, सज्जन एवं उदार हृदय होना, दृढ़निश्चयी और दानवीर होना आदि। उनके राम में एक आदर्श राजा के सभी गुण विद्यमान हैं। ऐसे रामराज्य में जहाँ राजा और प्रजा अपनी मर्यादाओं का पालन करें वहाँ विषमता टिक ही नहीं सकती। वर्तमान काल में गाँधी जी ने जिस रामराज्य की कल्पना की थी उसका आधार तुलसी की रामराज्य की कल्पना है।

             तुलसी की काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल की भावना है। लोकमंगल का विधान तभी  हो सकता है जब समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना हो। तुलसी की दृष्टि रामकथा के माध्यम से आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना पर ही केन्द्रित थी। समाज में आदर्शवादी मूल्यों के साथ-साथ तुलसी ने पारिवारिक आदर्श के रूप में विभिन्न पात्रों को प्रस्तुत किया है। तुलसी के राम भारतीय जनता के नैतिक गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राम की मानवीय सहानुभूति माता, पिता, भाई, निषाद सभी के लिए है। सीता पातिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत करती हुई अपने पति के साथ चैदह वर्ष का वनवास स्वयं वरण करती है। राम एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, राजा और मित्र आदि की भूमिका निभाते हुए समाज के सामने मधुर सम्बन्धों का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। भ्रातृ स्नेह की जीती जागती प्रतिमा भरत हैं। उन्हें जब पता चलता है कि कैकेयी ने दशरथ से राम के लिए वनवास और भरत के लिए राज्य की मांग की है तो वे ग्लानि से भर कर अपनी माँ के प्रति रोष व्यक्त करते हुए कहते हैं -

             वर मांगत मन भइ, नहिं पीरा। गरि न जीह मुंह परेउ न कीरा।।

           दूसरी तरफ राम चित्रकूट में सबसे पहले कैकेयी से मिले, क्योंकि वे जानते थे कि कैकेयी को बहुत पश्चाताप हो रहा है। राम ने उन्हें यह कहकर दोषमुक्त किया कि

                                          अम्ब ईस आधीन जब काहु न देइय दोषु।

              ये जो भी हुआ है ईश्वर की इच्छा से हुआ है इसमें आपका कोई दोष नहीं। भरत पर भी उन्हें पूर्ण विश्वास है इसलिए वे लक्ष्मण से कहते हैं भरत अयोध्या का राज पाकर तो क्या ब्रह्मा विष्णु और महेश का पद पाकर भी राजमद नहीं हो सकता। तुलसी के राम एक आदर्श मित्र के रूप में भी दिखाई पड़ते हैं। सुग्रीव से मित्रता होने पर बालि से उसकी रक्षा का आश्वासन देते हुए राम एक मित्र के कर्तव्य का बोध कराते हुए कहते हैं -

                              ‘जे न मित्र दुख होहि दुखारी। तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।

            जो व्यक्ति अपने मित्र के दुख में दुखी नहीं होता उसे देखना भी पाप है। राम एक आदर्श राजा भी हैं। विभीषण जब उनकी शरण में आता है तो शत्रु का भाई होने पर भी वे उसे आश्रय देते हैं। इसी प्रकार तुलसी के साहित्य में जो संत असंत के लक्षण निरुपित किए गए हैं वे भी सामाजिक आदर्श, सामाजिक जीवन मूल्यों को व्यक्त करते हैं।

            गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में व्यक्ति धर्म, परिवार धर्म और समाज धर्म का विवेचन हुआ है। व्यक्ति से ऊँचा परिवार और परिवार से ऊँचा समाज और समाज से ऊँचा लोक धर्म को मानते हुए तुलसी ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की व्याख्या की है। तुलसीदास जातीय जनजागरण के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविता का आधार जनता की एकता है। इस जातीय एकता के मार्ग में साम्प्रदायिकता, ऊँच-नीच का भेदभाव, नारी के प्रति सामन्ती व्यवहार आदि अनेक बाधाएँ हैं। तुलसी ने अपने साहित्य में जिन जीवन मूल्यों की स्थापना की है वे हमें इनसे संघर्ष करना सिखाते हैं। तुलसी का मूल संदेश है - मानव प्रेम। इसीलिए उन्होंने अपने युग की स्थितियों-परिस्थितियों से दुखी होकर मर्यादापुरूषोत्तम राम के परिवार का आदर्श जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। इससे वे समाज एवं देश में व्याप्त कलुषित भावना को दूर करके एक नवीन चेतना का संचार करना चाहते थे। उस युग में भी तुलसी के चिन्तन की महती आवश्यकता थी और आज भी हमारा समाज जिस प्रकार भ्रष्ट हो रहा है, अपनी संकुचित मानसिकता से घिरा हुआ है उसे देखते हुए कह सकते हैं कि आज भी तुलसी की जरूरत है। तुलसी का आदर्श उनके सामाजिक जीवन मूल्य युगों-युगों तक लोगों के हृदय में विद्यमान रहेगें और उन्हें प्रभावित करते रहेगें।  

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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