जर्मन कहानी:डेयर हिम्मल इऊबर मियर/राइनर वेकवेर्थ

                   कहानी डेयर हिम्मल इऊबर मियर“ (Der Himmel über  mir)
                        
लेखक का परिचय – राइनर वेकवेर्थ का जन्म 1959 में एसलिंगन, जर्मनी में हुआ था। वे एक प्रख्यात जर्मन लेखक हैं और लघु- कहानियों के लिए मशहूर हैं। 36 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला उपन्यास “एमिली वुंदरज़ाम् राइज़ा इन्स लांड डेयर त्रौएमन” लिखा था। तत्पश्चात उनकी दो किताबें प्रकाशित हुईं। 2002, 2013, 2014 में वेकवेर्थ को “यूगेंडबूखप्राइज़” से नवाजा जा चुका है।


मेरे ऊपर का आकाश

जैसे ही नूबिया की नींद खुली सब ओर शांति थी। ना ही झोपड़ी में और ना ही गाँव में कुछ सुनाई दे रहा था। कुत्ते भी सो रहे थे। बगल में उसके छोटे भाई-बहन, आकिन और इमारा सो रहे थे। मिट्टी के चूल्हे के ठीक सामने उसकी माँ नवजात शिशु के साथ, जो की तीन महीने पहले ही दुनिया में आया था, लेटी हुई थी। उसके माँ-बाप ने शिशु का नाम दायो रखा था, जो उनकी इस नयी जिंदगी की शुरुआत की उम्मीद थी। एक साल पहले वे राजधानी से गाँव में रहने आ गए थे।

नूबिया उनके घर छोड़ने का असल कारण नहीं जानती थी। बड़े लोग एक चौदह साल की बच्ची से ऐसी घटनाओं के बारे में बातें नहीं करते, लेकिन घर से भागने से पहले उसने अपने पापा और दादाजी के बीच हो रही बातचीत को सुन लिया था। उनके बीच का संवाद युद्ध और सरकार बदलने के बारे में था। नयी सरकार सेना-शासित थी, जो कि विपक्षी राजनेताओ के पीछे पड़ी थी और बिना किसी दया के उनको जान से मार देती थी। दादाजी पुराने राष्ट्रपति की सरकार में बड़े विभाग के मंत्री थे, लेकिन सेना ने तख़्ता पलट कर सत्ता अपने हाथ में ले ली और उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। तब से उनका कुछ अता-पता नहीं था। उसके पापा ने कभी इस बारे में कोई बात नहीं की थी, लेकिन वह उनके चेहरे पर लिखा साफ-साफ पढ़ लेती थी कि उनको अब विश्वास नहीं था कि वे कभी भी अपने पिता को जिंदा देख पाएंगे।

काली रात के बीचो-बीच उन्होंने और माँ ने बच्चो को जगाया और वे लोग एक लौरी में बैठ कर राजधानी छोड़ कर चले गए। वे लोग दूर-दराज किसी समुन्द्र के किनारे पर रहने चले गए, जहाँ उन्हें कोई नहीं पहचानता था और ना ही कोई जानता था कि उसके पापा एक मशहूर राजनेता, डिकेंबे म्बोला, के बेटे हैं। वे खुद राजनीति मे नहीं थे लेकिन एक वकील होने के नाते देश के विकास में उनका योगदान था और इस वजह से वह नयी सरकार के दुश्मन बन गए थे।

उसके पापा अब एक साधारण से मछुआरे की तरह अपने परिवार के साथ खुले, नीले आसमान के नीचे रहते थे। नूबिया ने अपने आपको इस नयी जिंदगी में जल्दी ही ढाल लिया था। स्कूल में भी उसे कोई समस्या नहीं हुई और वह अपनी अध्यापिका को काफी पसंद करती थी। धरती के दूसरी तरफ यह साधारण जीवन, पहले वाले शहरी, सुविधाजनक शान-शौकत से भरे जीवन से बहुत अलग था। यहाँ समुन्द्र के किनारे जिंदगी सूर्योद्य, सूर्यास्त, लहरों के हिसाब से चलती थी। यहाँ कोई बिजली, टीवी नहीं था, बस एक बैटरी से चलने वाला रेडियो, जिस पर गाने प्रसारित होते थे, जो की किसी दूसरी दुनिया का बखान करते थे।

जैसे-जैसे जिंदगी गाँव की दिनचर्या के अनुसार बीतने लगी, नूबिया को एहसास हो रहा था की उसके पापा सुकून महसूस कर रहे हैं। और जितनी चैन-शांति उसके पापा के चेहरे से झलकती, उतनी ही वह खुश होती।
शुरुआत के दिनों में वे अक्सर हर रात में धीमे से धीमे शोर से चिड़चिड़े हो जाते थे और इस वजह से पूरा परिवार अशांत हो जाता। नूबिया को लगता था कि पापा ने गाँव में अपने लिया जगह ढूंढ ली है।
गाँव के पुरुषों ने नूबिया के पापा के साथ मिलना-जुलना शुरू किया। इतने कम समय में नूबिया के पापा की अच्छी पहचान बन गयी थी। वे लोग नूबिया के पापा के पास आकर अलग-अलग विषयों पर राय-मशवरा करते। वे इन लोगों के लिए हमेशा समय निकालते और साथ बैठकर खाते-पीते।
नूबिया को अपने पापा के हर अंदाज पर गर्व था। उनकी यही गर्मजोशी और हंसी उसको भविष्य के लिए प्रोत्साहन करती और उम्मीद देती थी। कभी-कभी वे नूबिया को बाहों में भरते और कहते कि एक नया जीवन उसका इंतजार कर रहा है। सूर्य की किरणों के नीचे और उन लोगों के अपनेपन के बीच में रहना, जिन लोगों के साथ वे रहते हैं।
“हल्के बादल”, उसके पापा ने उससे कहा। “तुम आसमान छूओगी और इंसानियत के लिए एक फरिश्ता बनोगी।”
नूबिया को पता था कि उसके पापा चाहते हैं कि वह डॉक्टर बने, और वे उसको इस कदर डॉक्टर बना देखना चाहते थे की उसके पापा का ख्वाब उसका बन गया था।
वह अपने पापा से बहुत प्यार करती थी। जिन रातों को वे बाकी पुरुषों के साथ समुन्द्र में मछली पकड़ने के लिए जाते थे, नूबिया उन रातों में जल्दी सो जाया करती, जैसे की वह अगली सुबह तड़के ही समुन्द्र के किनारे चली जाए और जैसे ही उनकी नाव वापिस आए, वह अपने पापा को दूर से हाथ हिला सके।
जब भी सभी पुरुष नाव में खुशी के गीत गाते, तब वह दूर से ही समझ जाती कि उन्होंने बहुत सारी मछलियाँ पकड़ी हैं। जब नाव पर शांति होती थी या सिर्फ सिगरैट का धुआँ दिखाई पड़ता था, इसका मतलब कि रात भर की मेहनत का उन्हें सफल परिणाम नहीं मिला है और परिवार में खाने के लाले पड़ सकते हैं। लेकिन ऐसे दिनों में भी उसके पापा हँसते रहते। वे उसको दूर से आवाज लगाते, हाथ हिलाते और जैसे ही समुन्द्र के किनारे लकड़ी के पुल पर उतरते, तुरंत उसे बाहों में भर लेते। जिस कारण नूबिया खुश हो जाती और उसके ऊपर का नीला आकाश चारों ओर फैला होता।
“आज कैसा होगा?, उसने अपने आप से पूछा। वह चुप-चाप खड़ी हुई और झोपड़ी से बाहर निकली। बाहर आकर उसने गमछा अपने कंधों पर रखा, रात एकदम ताजी थी और क्षितिज पर नीला रंग आने वाली सुबह का संकेत था। उसके ऊपर का आसमान साफ था और यह एक सुनहरी सुबह का संकेत था।

जैसे ही नूबिया बकरी को धीरे से पुचकारती हुई गुजरी, बूढ़ी बकरी अपने तबेले में खड़ी धीरे-धीरे मिमियाने लगी। उसकी माँ ने ऐलान कर दिया था कि ये जल्द ही दूध देना बंद करने वाली है, तब इस को मारकर, इसका गोश्त बगल वाले गाँव के बाजार में बेच दिया जाएगा।

खुद इस जानवर को खाने का सवाल नहीं था, क्योंकि वो बहुत कीमती थी। उसकी माँ को उम्मीद थी कि आने वाले पैसे से वे एक मेमना खरीद पाएंगे, जो कि बूढ़ी बकरी कि जगह लेगी और एक दिन दूध दे पाएगी। जिस कारण वे मूल्य के उतार-चढ़ाव से बेपरवाह थे।

जब नूबिया समुन्द्र के किनारे टहलने जा रही थी, तब वह इन सब बातों के बारे में ही सोच रही थी। पूरा गाँव अब भी सो रहा था। कुछ ही झोपड़ियों मे से चूल्हे का धुआँ नज़र आ रहा था। हमेशा कि तरह आज भी लहसुन की खुशबू हवा में तैर रही थी, बीच-बीच में मसालों और भुनी हुई मछली की खुशबू आ रही थी। नूबिया का पेट भूख के कारण अकड़ रहा था। उसने शाम को बस मुट्ठीभर चावल ही खाये थे।

बाबा हमारे लिए एक बड़ी सी मछली पकड़ कर लाएँगे, तब हम भी आज शाम राजाओं की तरह खाएँगे।

हालांकि नूबिया की परवरिश फ़्रांसीसियों की तरह हुई थी, वह देहाती भाषा भी बोल लेती थी। उसके पापा की हंसी नहीं रुकती थी जब वह शब्दों का फेरबदल करती या बहुत ही गड़बड़ वाक्य बनाकर बोलती। लेकिन इससे उसको कुछ फर्क नहीं पड़ता था। वह हमेशा उनकी गहरी और खुले दिल की हंसी सुनती जो उसे एक प्रकार की खुशी और सुरक्षा का एहसास देती थी।

रास्ता खजूर के पेड़ों के बीच मे से होकर गुजरता था। उसके सामने चमकता हुआ समुन्द्र का किनारा फैला हुआ था। किनारे पर एक लकड़ी का पुल था, जो कि कच्ची और खराब लकड़ियों पर टिका हुआ था, इसपर चलते वक्त हर व्यक्ति को गिरने का डर रहता।

अब तक कोई नाव नहीं आई थी। बूढ़ा अद्योआ रेत पर लगी आग को बुझने से बचा रहा था। उसने आग इसलिए लगाई हुई थी कि मछुआरों को आसानी से घर का रास्ता मिल जाए। वह कई बरसों से वहाँ बैठता था, सुबह के नीले आसमान को देखता और ईश्वर से प्रार्थना करता कि सभी मछुयारें सही सलामत घर आ जाए। जिस दिन ज्यादा मछली पकड़ी जाती, उस दिन सभी पुरुष उसको मछली देकर, उसका धन्यवाद करते।

नूबिया उसके पास गयी और बैठ गयी।

“नमस्ते, अब्बा”,नूबिया ने उसे ऐसे शब्द से संबोधित किया, जो “पापा” शब्द का बहुत पुराना पर्यावाची था।

“नमस्ते, नुबिया। ये लोग अब तक वापस नहीं आए।”

“हां, मुझे दिख रहा है। क्या आपको लगता है कि आज दिन सुंदर रहेगा?
बूढ़े व्यक्ति ने अपना सिर ऊपर हवा की ओर किया। ......... “हाँ बिल्कुल, वे लोग पर्याप्त मछलियाँ पकड़ कर लाएँगे।”
नूबिया के लिए यह बात किसी पहेली से कम नहीं थी कि उनकी भविष्यवाणी हमेशा सही निकलती थी। अद्योआ खुद कहा करता था कि वह समुन्द्र के पास के मौसम को सूँघता है और मौसम उसे खुद अपने सब रहस्य बता देता है।

“यह जानकार खुशी हुई।”

“लगातार स्कूल जा रही हो?
“हाँ, बाबा पढाई पर ज़ोर देते हैं, वे कहते हैं कि पढ़ाई बहुत जरूरी होती है। मेरी माँ को लगता है कि पढ़ाई से अच्छा मुझे किसी मछुयारे के साथ शादी करके, बाकी महिलाओं की तरह झोपड़ियों में और खेतों में काम करना चाहिए। पढ़ाई सिर्फ दुख देती है क्योंकि इंसान पढ़-लिख कर बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेता है लेकिन उसे बदले में कुछ मिलता नहीं हैं।”

“तुम्हारी माँ को शहर की याद आती है।”, बूढ़े अद्योआ ने जवाब दिया। “उनका यहाँ मन नहीं लग रहा है। वहाँ वे बहुत इज्जतदार महिला थी, जिनके पास बंगला था, नौकर-चाकर थे और अब.....”
“.... हम एक गाँव में रहते है और बहुत खुश हैं।”

“तुम यहाँ की नहीं हो।”

“आप ऐसा क्यों कह रहे हो, अब्बा?

“मुझे तुम्हारे कोमल हाथ और आंखो में चमक दिखाई पड़ रही है। तुम्हारे जैसे जवान लोगों के हाथों में भविष्य होता है। तुमको अच्छे से पढ़ाई करनी चाहिए ताकि तुम डॉक्टर बन सको। वरना तुमको तब तक कसावा तोड़ना पड़ेगा, जब तक तुम्हारे हाथ भी मेरे हाथ जैसे कठोर ना हो जाएं।

“मैं तो यहीं रहना पसंद करती हूँ। आखिरकार पापा ने जगह और शांति खोज ली।”

“क्या वे अब भी नींद में चिल्लाते हैं?

“कभी-कभी, लेकिन पहले से कम।”

नूबिया और बूढ़े अद्योआ ने समय के बीतने के साथ-साथ अनुमान लगाना सीख लिया था। बूढ़े अद्योआ का गाँव में कोई अपना नहीं था, और नूबिया को लगता था कि उसमें उनको अपनी पोती दिखती है, जिसको उन्होंने आजतक नहीं देखा था क्योंकि उनका परिवार काम ढूँढने के सिलसिले में गाँव छोड़कर कहीं दूर चला गया था। उसके बाद से उनको उनकी कोई खबर नहीं मिली।
नूबिया के लिये वह दूसरे दादाजी जैसे बन गए थे, जिनके साथ वह अपने परिवार को बिना पता चले अपनी हर चिंता, अपना डर बाँट सकती।
नूबिया ने फिर से क्षितिज की ओर देखा। समुन्द्र के ऊपर सूर्य की पहली किरण की लाली चमक रही थी। जल्द ही आसमान बहते सोने के रंग में बदल गया और उसके पापा बाकी मछुयारों के साथ नाव से वापस आ रहे थे। वे बेसब्री से हाँफ रहे थे।
“आज आसमान अलग है”, बूढ़े अद्योआ ने कहा।
“क्या मतलब है आपका, अब्बा?
“हवा चलेगी और बारिश होगी। मूसलाधार बारिश।”
“लेकिन ये तो खेतों के लिए अच्छा है।”
“हाँ लेकिन तब भी। आज का आसमान वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए, कुछ अलग है।”
आखिर वे कहना क्या चाहते हैं?
अद्योआ ने एक लकड़ी अपने हाथ में ली और आग के बीचों-बीच घूमाने लगा। चिंगारी हवा में फैल गयी।
उन्होंने नयी लकड़ियाँ रखी, आग जलायी, जिससे परछाई द्वारा उनके चेहरे पर अजीब-सी आकृतियाँ बन गयीं।
वे किसी प्रेत की तरह लग रहे थे।
शायद वे भूत ही थे, भूतकाल का भूत जो पुराने समय के बारे में बताते हैं।
एक ठंडी हवा का झोका नूबिया का स्पर्श करती हुई उसके ऊपर से निकली और वह काँप उठी। वाकई में तेज़ हवा चल रही थी।
कुछ पलों के लिए वह चुप होकर आसमान की ओर एकटक होकर देखने लगी, तब ही आसमान का रंग साफ होने लगा और चारों ओर रोशनी फैल गयी। खूब रोशनी में बादलों के बीच से बैंगनी रंग की धारियां दिखने लगी और क्षितिज के ऊपर नीले आसमान में सूरज चमकने लगा। समुन्द्र की तरह असीम।
नूबिया खड़ी हुई, अपने हाथ को आंखों के ऊपर, माथे पर रखकर दूर समुन्द्र में देखने लगी। उसने दायें से बाएँ देखा, लेकिन कहीं भी नाव नहीं दिख रही थी। 
अब्बा, मैं उन लोगों को नहीं ढूंढ पा रही हूँ।
बूढ़े अद्योआ ने कुछ बड़बड़ाया और उसके बगल में आकर खड़ा हो गया।। आज आसमान कुछ अलग है।”, उसने कहा।
वे यहीं बात क्यूं दोहरा रहे हैं? मेरे पापा कहाँ हैं? क्यों मुझे नाव नहीं दिख रही है, गानों की आवाजें भी नहीं आ रही हैं?
डर उसको अंदर ही अंदर खा रहा था लेकिन नूबिया ने शांत रहने की कोशिश की। रात मे कोई आंधी नहीं चली थी, सब कुछ सामान्य था, मछुयारों को आने में बस देर हो गयी थी। 
शायद उनको बड़ी मछली पकड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, और जाल समेटने में देर हो गयी थी। 
उसकी आँखों में बार-बार समुन्द्र की ओर देखने की वजह से जलन हो रही थी। 
तब ही उसको कुछ दिखाई दिया। 
पूरब दिशा की ओर, ऊपर आसमान में कुछ काले रंग के धब्बे जैसा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे आसमान मे दरार पड़ गयी हो। यह धब्बा टेढ़ा-मेढ़ा निराकार था, और जैसे ही नूबिया इस धब्बे को ध्यान से देखने लगी, ऐसा लगा जैसे कि वह बढ़ रहा हो। धीरे-धीरे, निर्दय फैल रहा था जैसे स्याही कागज़ पर फैलती है।
यह काला रंग इतना अध्क था कि उसके आगे चमकता हुआ नीला रंग फीका पड़ रहा था।  लगभग सारी रोशनी बुझ ही गयी थी, काले आसमान पर सिर्फ एक प्रकाश की किरण बाकी थी।  
अब्बा, देखो, आसमान की तरफ। इसका मतलब क्या है?” उसने आवाज लगाई। लेकिन जैसे ही वह अद्योआ की तरफ मुड़ी, वह गायब हो चुका था। 
बिना इस बात पर ध्यान दिये, वह ऐसे कैसे जा सकता है?
वह भौंचक्की होकर बालू के ऊपर देखने लगी, जिस पर अब आग नहीं लग रही थी, बल्कि मटमैला हो गया था। पैरों के निशान नहीं थे। अभी तो वह यहाँ उसके बगल में बैठा था और उससे बातें कर रहा था और अब एकदम चला गया।
आग बुझ गयी थी, सिर्फ ठंड थी, जली हुई टहनियाँ उसके अस्तित्व की साक्षी थीं। 
मुझे समझ नहीं आ रहा! यहा क्या हो रहा है ?
 
किसी ने अपना हाथ उसके कंधों पर रखा और उसको ज़ोर से झटका दिया। नूबिया ने सिर घूमा कर काली आँखों मे देखा। आफ्रा, चालीस साल की साथी कैदी ने उसको तिरस्कार से देखा।  
यहाँ बैठ कर सपने मत देखो, इससे अच्छा झाड़ू लगाने में मेरी मदद करो।

समुन्द्र, किनारा, बूढ़ा अद्योआ और सब कुछ गायब हो गया था, वापिस से उसने अपने आपको सामुदायिक जेल में पाया। इस जेल में बीस से ज्यादा, जवान-बूढ़े कैदी एकत्रित थे।
करीब एक बरस हो गया था। नए राष्ट्रपति की सेना ने आधी रात में आकर उसे और उसके परिवार का अपहरण कर लिया था।
नूबिया ने सुना कि सैनिक घमंड से बता रहे थे कि कैसे उन्होंने उसके दादाजी और उनके सबसे पुराने वफादार सेवक अद्योआ को गोलियों से मार डाला। उसकी माँ और दो छोटे बच्चों को उन्होंने लौरी में बाकी भीड़ के साथ कहीं भेज दिया। 
नूबिया को दोबारा उन लोगों का कोई समाचार नहीं मिला। हर नया कैदी, जिसे बाकी कैदियों के साथ जेल मे डाला जाता, उससे उसके परिवार के बारे में जरूर पूछता। 
उसके पापा, मशहूर डिकेंबे म्बोला के पुत्र ने सारी ताकत इस्तेमाल करके अपनी और अपने परिवार की कैद का विरोध किया था। उनको उसकी आँखों के सामने ही गोली से मार दिया। वह उनके लिए चिल्लाई और उस तरफ भागना चाहती थी लेकिन लोगों ने उसको पकड़ रखा था। उसने भ्रमित होकर उनसे आँख मिलाने की कोशिश की, लेकिन उनकी आंखें भावहीन थी और वह दोबारा खड़े नहीं हुए। उस वक्त, जो कुछ भी घटा, वह नूबिया के दिलो-दिमाग में एक काले साये की तरह बैठ गया और वह उसी के बारे में सोचती रहती। एक गाँव के बारे में, जिसके बारे मे अक्सर उसके पापा उसे बताया करते। मछुआरों के समुदाय के बारे में, जो कि एक साथ काम करते और एक साथ रहते थे। अपने पापा के सपने के बारे में की वह एक साधारण मछुआरे बनना चाहते हैं और एक पुत्र पाना चाहते हैं, जिसको वे दायो नाम से पुकारना चाहेंगे,जो कि उनके नए जीवन का प्रतीक होगा।
किसी दिन तड़के ही उसको एक जिंदा लाश की तरह जेल मे डाल दिया गया था।

नूबिया एक साल से, पत्थर के फर्श पर रह रही थी और वह अक्सर ऊपर की ओर देखती रहती। जेल की दीवार बहुत ही अजीब ढंग से नीले रंग की पुती हुई थी और उसका मन उसको लेकर इस दीवार पर उड़ने लगता। वहाँ, इस नीले रंग में, वह फिर से अपने पापा, माँ, आकिन और इमारा के साथ थी, समुन्द्र की ताज़ी, नमकीन हवायेँ उसके शरीर पर स्पर्श करती, और उसके शरीर को कैद की गर्मी और नमी से मुक्त करती।
उसको समुद्री सिवार की, किनारे पर लगी आग की, लहसुन की और बीच-बीच में मसालों और भुनी हुई मछ्ली की बू आती जिससे कैदियों के मल से भरी बाल्टी की बदबू खत्म हो जाती, ठीक वैसे ही जैसे उसे कैदियों की ख़ासी और हांफी की आवाज़ की जगह समुन्द्र का शोर सुनाई पड़ता।
वहाँ, अपने सपनों की दुनिया में, अक्सर रोज़ जाया करती लेकिन जल्द ही असल जिंदगी में भी वापस आ जाती। नूबिया नीली रंग की दीवार को एकटुक होकर देख रही थी। जो दीवार कभी चमकदार हुआ करती थी, कुंठित और मैली हो गयी थी। दायें तरफ ऊपर कोने में एक काले रंग का धब्बा सा था, जिसके बारे में उसे ज्ञान नहीं था, कि वो गंदगी है या सीलन।
मुझे गार्ड को पुताई करवाने का आग्रह करना चाहिए। 

क्या आज भी तुम कुछ नहीं खाओगी?”,आफ्रा ने तीखे स्वर में पूछा, जो इसका पहले दिन से बहुत ध्यान रखती थी।
नूबिया ने उसको खोयी-खोयी नजरों से देखा। मछली है क्या?”

आफ्रा कष्टदायक हंसी हंसने लगी। उसकी त्वचा रूखी हो गयी थी, उसने कैद के समय लगभग अपने सारे दाँत खो दिये थे और उसके बाल गुच्छो में गिरते थे। 
चालीस साल की है और बूढ़े अद्जोआ से भी, जिन्होंने मेरे दादाजी का हर कदम पर साथ दिया, बूढ़ी दिखती है।
दाल और चावल,। रोज़ कि तरह। और तुम्हें खाना ही पड़ेगा, वरना तुम मर जाओगी।

नूबिया की आँखें दोबारा उस दीवार पर गयीं और फिर नीले रंग मे कहीं खो गयीं। उसने काले रंग के धब्बे को नज़रअंदाज़ किया।
आज मैं भुनी हुई मछली खाऊँगी। मेरे पापा ने बहुत बड़ी बास मछली पकड़ी है। मैं उनकी हंसी सुन सकती हूँ, देखो, वहाँ लहरों के पीछे नाव हैं। सभी पुरुष अखिरकार घर वापस आ ही रहे हैं। सूरज की किरणें समुन्द्र के नीले पानी पर चमक रही हैं, यह सुनहरा दिन है।
उसके बगल में बूढ़ा अद्योआ बुझती हुई आग को डंडी से वापस काबू कर रहा था।
आज आसमान अलग है”, उसने अपने शब्द दोहराएँ।
सब ठीक है, अब्बा, चलो पुल के पास चलते है। जब मेरे पापा घर लौटेंगे, मैं उनके लिए गाना गाऊँगी। 
(निधि माथुर, शोधार्थी , जर्मन भाषा एवं साहित्य, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय)


अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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