वक्तव्य : तुलसीदास भारतीय जनता के हृदय पर राज्य करते है- डॉ. अवनीजेश अवस्थी

तुलसीदास भारतीय जनता के हृदय पर राज्य करते हैं

     
तुलसी की प्रासंगिकता का प्रश्न क्यों? ये बात भी सही है कि हम सब लोग उन व्यामोह में पड़ जाते हैं कि एजेंडा तो कोई और तय करता है और हम जवाब देते हैं। एक लंबे समय से कुछ लोगों ने कुछ नैरेटिव ऐसा बना दिया, मेरी कुछ बातों से आपकी असहमति हो सकती है, लेकिन फिर भी मैं अपनी बात आपको समर्पित करूँगा....कुछ नैरेटिव पॉइंट बना दिया कि तुलसी के समय में ही तुलसी का विरोध हुआ, ब्राह्मणों ने उनका बहुत अधिक विरोध किया, इसकी कुछ कथाएं भी हैं तुलसी के जीवन चरित्र के बारे में भी कुछ कुछ कथाएं रही हैं और तुलसीदास के समय के बाद आज पिछले अगर 70-80 वर्षों में देखें तो लगातार कुछ विद्वानों, विद्वानों तो नहीं कहूँगा लेकिन एक ऐसा वर्ग है जो तुलसीदास को बिना संदर्भ के जाने हुए उनकी आलोचना करता है, और तुलसी की आलोचना क्यों करनी है ये महत्त्वपूर्ण बात है, ये अगर जान लें तो जो आलोचना करते हैं उनके मन्तव्य को समझ जाएंगे। विल्सन स्मिथ नाम के एक इतिहासकार हैं, जिन्होंने मुगलकाल पर लिखा हैं। मैं कोई अंग्रेजी के इतिहासकारों के व्यामोह में नहीं रहता कि उनका कोई अतिरिक्त प्रभाव है लेकिन विल्सन स्मिथ की एक बात के बारे में आपका ध्यान आकर्षित करूंगा। विल्सन ने लिखा है कि मध्यकाल में भारतवर्ष में दो ही महान व्यक्तित्व हुए हैं एक सम्राट अकबर और दूसरे गोस्वामी तुलसीदास अब आप कह सकते हैं कि अकबर से समानता करे तुलसी को छोटा कर दिया, पर अगली पंक्ति में लिखते हैं कि अकबर तो भारतवर्ष की जनता पर भौगोलिक रूप से शासन करता था पर गोस्वामी तुलसीदास भारतीय जनता के हृदय पर राज्य करते थे वे भारतीयों के हृदय-सम्राट थे। अब यह समझ लीजिए विल्सन स्मिथ जब उस काल का अध्ययन करता है तो उसका मन्तव्य क्या है, अपने समय में तुलसी कितने प्रभावशाली थे,- पहला दूसरा एक उदाहारण आता है कि हम सब जानते हैं कि मध्यकाल में संस्कृत के ग्रंथों का बहुत अनुवाद हुआ अवधी  और ब्रज में भी अनुवाद हुआ। रीतिकाल में तो ऐसा कहा ही जाता है, जो अगर हम खांचों में बाँट कर देखें तो जो काव्य शास्त्रीय ग्रन्थ है, वे अनुवाद ही है। रामचरित्रमानस मध्यकाल का अकेला एक ऐसा ग्रंथ है जो अवधी में लिखा गया और उसका अनुवाद संस्कृत में हुआ। संस्कृत से अवधी और ब्रज मे अनुवाद हुए, इसके बहुत उहाहरण मिलते है, इसकी एक लम्बी परम्परा मिलती है एक रीति ही ऐसी चली लेकिन अवधी में लिख ग्रंथ का संस्कृत में अनुवाद हो एक अविस्मरणीय उदाहरण है। गोस्वामी तुलसीदास के समय में रामो द्विवेदी उनके एक मित्र थे, जिन्होंने मानस का अनुवाद किया।

मुझे ये लगता हैं कि जो हम बात करते हैं कि तुलसीदास का अपने समय मे बहुत विरोध हुआ, ये कहानियाँ बहुत अधिक इसलिए बनाई गई कि गोस्वामी तुलसीदास की आलोचना की जा सके। एक और नैरेटिव इनके जीवन से सम्बन्धित बनाया गया कि ये अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे, इससे भी काम नहीं चला कि पत्नी उनसे बिना पूछे मायके चली गई, वे घर पहुँचे तो वह घर पर नहीं थी वे पत्नी से मिलने के लिए पत्नी मायके पहुँचे रास्ते में बड़ी बारिश थी तैर कर पहुँचे, दो मंजिले मकान होते ही होंगे... दो मंजिले मकान पर एक साँप लटका था उसको रस्सी समझा, उसे पकड़ कर ऊपर चढ़ गए। कितनी बढ़िया कहानी है। अभी राम रंग जी नहीं हैं, यहाँ होते तो इसकी सत्यता कि बारे में कुछ बताते। मुझे तो ये कहानी रामगोपाल वर्मा की फिल्म की सी लगती है। लेकिन इसका दुष्परिणाम क्या हुआ, अब जब मैं क्लास में कहता हूँ कि आप तुलसीदास के बारे में क्यों जानते हैं? तो तुलसी कि बारे में वह यह जानते हैं कि वे अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और बाढ़ में चले गए, साँप को रस्सी समझकर पत्नी से मिलने, बाद में पत्नी ने बहुत फटकार उनकों और वे राम भक्ति में लीन हो गए। और इसीलिए तुलसीदास जी अपनी व्यक्तिगत कुंठाओं के कारण नारी-विरोधी हो गए, बड़ा आसान हो गया तुलसी को नारी-विरोधी सिद्ध करना कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी में पत्नी से डाँट-पफटकार खाई थी। आगे चलकर इसीलिए संदर्भ से काटकर तुलसी की रचनाओं का उनकी पंक्तियों का गलत अर्थ निकालना बड़ा सरल हो गया। ये इसलिए आप लोगों के समक्ष कह रहा हूँ कि प्रासंगिकता के हमने निकष गलत बनाए। प्रासंगिकता पर बात करना गलत नहीं है, लेकिन प्रासंगिकता के निकष जो हमने तय किए लम्बे समय से हिन्दी आलोचना मे जिन मानदण्डों पर हम साहित्यिक कृतियों को कसते हैं वे निकष निहायत संकीर्ण और एक विशेष मन्तव्य से परिचलित होते हैं, इसलिए गलत हैं। इसलिए उन निकषों पर कसना गलत है। तुलसी को आप किसी भी निकष पर कस लीजिए और मान लीजिए कि उनके समय की प्रासंगिकता के जो निकष है इस आधर पर तुलसी के समय के बारे में ये कहा जाता हैं कि खेती न किसान को भिखारी को न भीख भली धूत कहो अवधूत कहो - ये ऐसी कुछ रचनाओं में कलिकाल के वर्णन संदर्भ से उद्धरित करके देखो तो उस समय ऐसी स्थितियाँ थी और अब भी ऐसी स्थितियाँ हैं और अगर मान लीजिए कि इस समय ऐसी स्थितियाँ नहीं होती तो क्या तुलसी प्रासंगिक नहीं होते क्या स्थितियाँ की समानता तय करके किसी कवि को प्रासंगिक सिद्ध करना आलोचना को निहायत पूर्वाग्रह ग्रस्त एक कार्य नहीं है। 

ये महत्त्वपूर्ण  बात हैं कि तुलसीदास अपने समय मे कितने प्रासंगिक थे उसके दो उदाहरण मैंने दे दिए एक विल्सन स्मिथ का और एक उनके अनुवाद का दिया कि उस समय तुलसीदास कितने प्रभावशाली थे, तीसरे उन्होंने जो रामलीला शुरू की उस समय वह आज तक चली आ रही है जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था लोक में राम की कथा का रामलीला ने जो प्रभाव डाला है वो तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण है। तुलसीदास ने अपने समय में जो रामलीला का आरम्भ किया वह रामलीला तब से आज तक अबाध गति से चल रही है। ये महत्त्वपूर्ण तीन कारण हैं, तुलसीदास के उस समय से अब तक लेकिन ये बहुत कुछ एकपक्षीय है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भक्ति आंदोलन के संबंध में जो राय है या उसका सही मूल्यांकन हुआ है, वह यह कि भक्ति द्रविड़ ऊपजी लाए रामानंद’- इससे हमने सोच लिया कि दक्षिण से आई भक्ति उत्तर भारत में ... भक्ति एकांतिक साधना है। भक्ति ईश्वर और भक्त के बीच का पारस्परिक संबंध है सा परानुक्ति... अमृत स्वरूपअगर भक्ति एक है तो ऐसी ऐकांतिक साधना के साथ आंदोलन शब्द कैसे जुड़ गया और अगर आंदोलन शब्द जुड़ा है तो इसका साभिप्राय है, कि भक्ति कि इतिहास मे सन् 1857 से लेकर 1947 तक की जितनी क्रांतियाँ हैं, उनके मूल में कहीं ही कहीं अध्यात्म अवश्य रहा है, इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा। समूचे 300 वर्षों तक भक्ति के माध्यम से उस समय के शासन-तंत्र को जो चुनौती दी गई, वह भक्ति-आंदोलन दे रहा था। इसका प्रभाव मैंने आपको बताया। इसका मैं आपको प्रमाण देता हूँ कि तुलसी की प्रासंगिकता का एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत करना राजतन्त्र के खिलाफ एक समूची अपनी समकालीन व्यवस्था में रामराज्य की व्यवस्था का एक राजनैतिक विकल्प और विमर्श प्रस्तुत करना समूचे मध्यकाल में लेकिन ऐसे समय में जहाँ इतिहास यह कहता है, या आपको पढ़ाया जाता है, दुर्भाग्य से कि जहाँगीर न्यायप्रिय शासक था। एक राजा था, ना तो गुरू अर्जुन देव के बारे में क्या राय होगी उसकी।

आप जहाँगीरनामापढ़कर देखिए कि गुरू अर्जुन देव के बारे में जहाँगीर के क्या विचार थे। हम जहाँ बैठे हैं, वहाँ से बहुत दुर नहीं है गुरूद्वारा शीशगंज, जहाँ शीश उतारा गया था, भाई मतिदास को आरे में लगाया गया था। उस समूचे मुगलकाल को जो महिमामंडित करने की कोशिश की जाती रही है, उसका यथार्थ ये हैं कि उस यथार्थ के खिलाफ समूचा भक्ति आंदोलन एक ऐसे रामराज्य की जिसमें कहीं किसी तरीके का उस राजतंत्र में, उसा तानाशाही पूर्ण अवस्था में वहाँ पर एक रामराज्य जिसमें प्रजा सर्वोपरि है, कहीं भी किसी प्रकार का कष्ट, दुःख, पाप, संत्रास नहीं होता, मध्यकाल में ये राजनैतिक विमर्श प्रस्तुत कर देना तुलसीदास की सबसे बड़ी एक ऐसी विलक्षण उपलब्ध है जो उसके बाद उसके पहले कहीं नहीं मिलती। इसलिए रामराज्य आज भी आदर्श है। इसलिए रामराज्य के नाम पर आज भी हिन्द का जनमानस प्रभावित होता है, आंदोलित होता है। ये तुलसीदास की प्रासंगिकता का सबसे महत्तवपूर्ण पक्ष है। आपने जाजिया की बात सुनी होगी, विश्व के 7 आश्चर्यों में जब ताजमहलका नाम लिया जाता हैं तो हम बहुत प्रभावित हैं। जब ये नियम बना होगा तब की स्थिति कैसी थी इतिहास-ग्रंथ हमें ये नहीं बताते मध्यकाल के इतिहासकार भी ये नहीं बताते।
तो ये निश्चित है कि उस समय में यह निमय बना कैसे होगा। प्लेग फैला था और जनता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, समृद्ध नहीं थी और शहाजहाँ कोई बिजनस  मैन तो था नहीं। उसने अपने पैसे से कैसे ताजमहल बनाया होगा जनता के करों से बना कर ताजमहल जैसे और उसे कलाप्रिय शासक कह देना उसको महिमाभक्ति करने का प्रयत्न, इतिहासकारों ने क्यों किया। ऐसे इतिहासकारों को जनवादी कहते हैं जनता की वास्तविक स्थिति का कहीं वर्णन नहीं है, और उसे न्यायप्रिय और कलाप्रिय शासकों की श्रृखला में लाकर खड़ा कर दिया। इसके विरोध में तुलसीदास कहते हैं कि रामराज्य की परिकल्पना का परिदृश्य प्रस्तुत करके उस मध्यकाल में एक नई थीसिस प्रस्तुत करते हैं इससे समस्या कहाँ थी समस्या थी कि जनमानस संशयग्रस्त था तुलसी का रामचरितमानस आज भी उतना ही प्रासंगिक है। चार वक्ता और श्रोता की वहाँ पर व्यवस्था की गई और वे चारों श्रोता संशयग्रस्त नहीं हैं। उस समय का जनमानस संशयग्रस्त है कि अगर मान लीजिए कि कहीं हैं हमारे रामचन्द्र भगवान ईश्वर तो क्यों नहीं आते इन अत्याचारियों का नाश करने वो तो संशय का निराकरण करते हैं, वक्ता उस जनसमाज में पुर्नस्थापित करते हैं अपनी समूची उस परम्परा को उस विश्वास को पुनर्जीवित करते हैं, पुनः स्थापित करते हैं कि नही! है तो....है... तोड़े  गए मंदिर, तोड़ी गई मूर्तियाँ, लेकिन उसके बावजूद उस समाज में ये स्थापित कर देना बहुत आवश्यक था कि नहीं ऐसा नहीं है। 

तुलसीदास के समूचे रामचरितमानस की परिकल्पना में आप देखते है, कि श्रोता संशयग्रस्त है कि राम है या नहीं है। शिव के साथ, सती के साथ या बाकी जो है कार्तिकेय है, गरूड़ है, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज है, तुलसी है, संत समाज है, समूचा श्रोता उस समय के जनमानस का प्रतिनिधित्व  करता है, और तुलसी समूचे वक्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं। उस जनमानस में पुनर्स्थापित कर देते हैं कि नहीं ऐसा नहीं है और वह पुनर्स्थापित होता है। समय का अभाव है, अन्यथा मैं यह प्रमाणित कर देता ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से कि यह बिल्कुल पुनर्स्थापित हुआ। जो कि इतिहास ग्रंथों में नहीं है। एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मध्यकाल एक बड़ा भक्ति आंदोलन है और मैं किसी की तुलना करता नहीं चाहता पर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ कि कबीर और तुलसी को बरक्स बहुत ज्यादा लिखा गया, इसके बारे में या चर्चा-आलोचना की गई। मैं बरक्स नहीं करता। लेकिन हैरत की बात यह है कि आधुनिकाल के सबसे बड़े क्रांतिकारी कवि निराला अपने आत्म संघर्ष को तुलसी के आत्म-संघर्ष से जोड़ते है।

लम्बी परम्परा थी भारत वर्ष के कवियों की लेकिन अगर उन्होंने लम्बी कविता लिखी तो गोस्वामी तुलसीदास पर लिखी, उन्होंने अपने विरोध के बरक्स किसी और कवि को नहीं पाया। तुलसी का वह आत्म संघर्ष था जिस आत्म-संघर्ष को उन्होंने अपनी रचनाओं मे अभिव्यक्त करके अपने रामय के समाज को न सिर्फ जगाया बल्कि उन्हें पुनर्स्थापित भी किया उस विश्वास की जो हमारी समूची भारतीय चिति है, चेतना है भारतीय स्वभाव है वह स्वभाव निश्चित रूप से इन अत्याचारियों के विरूद्ध विजयी होगा। संक्षेप में एक बात और कि कविता को ब्रह्मनंद सहोदर कहा गया है अगर तुलसी की कविता से वो आत्मानंद प्राप्त होता है तो तुलसी शब्द रचना नहीं कर रहे हैं बल्कि मंत्र-रचना कर रहे हैं। सूरदास भी तुलसी की कविता को शब्द रचना नहीं मंत्र-रचना कहते है। शेखर सिंह जी बैठे है, इन्होंने अपनी एकल नाटिका तुलसीका सूरदास कहते है, कि मंत्र रचना कभी अप्रासंगिक नहीं होती। मंत्र पर प्रासंगिकता का प्रश्न नहीं किया जा सकता। इसलिए तमाम संदर्भों को स्थापित करके, बहुत अच्छा शब्द नहीं है, लेकिन एक बात तो तय है कि जनमानस तुलसी की रामचरितमानस को जानता है, अखंड प्रेम रखता है।


रामायण का जो तुलसी के रामचरितमानस का होता है। समूची रामकथा की सैकड़ों - हजारों कथाएं है, लेकिन जनमानस में जो बैठी है, वह उस मंत्र- शक्ति के कारण बैठी है, मेरे और आपके कहने से नहीं लाखों वर्षों से मन में जो विश्वास है, कि तुलसी की एक-एक पंक्ति से अपने समूचे क्लेश और कलुषित का निवारण होगा। ऐसी मंत्र रचना का कवि सृप्त, ऋषि कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता और जनमेजय, रांगेय राघव, यशपाल जैसे लोग कुछ मुट्ठी भर लोगों उन्हें अप्रासंगिक सिद्ध करे, सामंतवादी सिद्ध करें, ब्राह्मणवादी सिद्ध करें, या उन्हें कुछ और सिद्ध करें, इससे लगभग 500 वर्षों से यह साबित होता है कि लोकप्रियता में ही नहीं उनकी प्रतिष्ठा में भी कोई आँच नहीं आने पाई। चाहे कोई पथभ्रष्ट लिखकर उनको विस्थापित करने की कोशिश करे चाहे किसी और माध्यम से करें। हम सब लोग उसमे कोई कारण नहीं हैं नहीं विश्वविद्यालय कोई कारण है पाठ्यक्रम में निर्धरित हो या न हो, तुलसीदास जनमानस, जो रिक्शेवाला है, किसान है, जो मजूदर है , किसानों और मजूदरों की बात करते है। उन किसानों और मजदूरों का सबसे लोकप्रिय, जनप्रिय सबसे अपना कवि गोस्वामी तुलसीदास है। 500 वर्षों के पश्चात भी कोई उनकी लोकप्रियता को बिगाड़ नहीं पाया। गोस्वामी तुलसीदास नित्य प्रति और अधिक मन में बसे जा रहे है इससे और अधिक प्रासंगिकता का प्रमाण क्या हो सकता है।

अवनीजेश अवस्थी 
एसोसिएट प्रोफेसर 
पी.जी.डी.ए.वी. कालेज  


प्रस्तुति
डा. आशा देवी 
असिस्टेंट प्रोफेसर 
अदिति महाविद्यालय 

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

Post a Comment

और नया पुराने