0 नटवर त्रिपाठी
(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा ही लिए गए हैं-सम्पादक )
(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा ही लिए गए हैं-सम्पादक )
आये दिन समाचार पत्रों में जहां-तहां मयूरों की हत्या, अवैद्य पंख व्यापार के लिए झुण्ड के झुण्ड मयूरों को मौत की नींद सुला देने व रासायन युक्त बीजों के खा जाने से इनकी मौतों के समाचार मीडिया में छाये रहते हैं। हर किसी को इस पर टीस जरूर होती है, पर सब बेबस। इससे उलट गुजरात में जामनगर के कल्याणपुर पंचायत के ग्राम कैनेडी के साधारण किसान नारायण मेरावण करंगिया मोरों के संरक्षण और पोषण का असाध्य काम गत 40 वर्ष से कर रहे हैं। सौराष्ट्र अंचल की सात पंचायतों के कई ग्रामों में 70 केन्द्रों पर इनके अथक प्रयत्नों ने भूमि में विशेष प्रकार से समायोजित मटकियों में मयूरों को दाना परोसा जाता है। जब जंगल और खेतों में इनके लिए खाना-पीना कम हो जाता है तो इन केन्द्रों पर हर रोज दाना डालते समय मयूरों का वहां मेला लगा रहता है। मयूर केन्द्रों के इन ग्रामों में मयूरों की भांति-भांति की केकावली, बड़ी संख्या में एक साथ मौजूदगी और ग्रामीण छतों पर इनके साम्राज्य के दृश्य किसी को भी पुलकित करने के लिए पर्याप्त हैं।
सैंकड़ों मोर-मोरनियां का एक साथ एक जगह दाना चुगने, कई मयूरों के एक साथ छत्र करने, उसके ईर्द-गिर्द मोरनियों का रास रंग करने का दृश्य अलौकिक और अकल्पनीय लगता है। प्रकृति का समूचा सौन्दर्य वहां पसरा पड़ा रोमांचपूर्ण होता है। दर्शकों की आंखे चुन्धिया जाती है और बिना हिले-डुले दुबके हुए लोग उस अप्रतिम नज़ारे को अपनी आंखों में समेट लेना चाहते हैं। इन पंक्तियों के लेखक को मयूर सेवी नारायण भाई ने अपनी मोटर साइकिल पर 150 किलोमीटर में फैले ऐसे डेढ़ दर्जन केन्द्रों का अवलोकन कराया। हर केन्द्र पर 150-200 मटके भूमि में टेढ़े जमाये हुए रहते हैं, और उन केन्द्रों के स्थापित किसान रोज सबेरे उन मटकों में मोरों के लिए दाना डालते हैं।


वर्ष 1988 में ग्राम कैनेडी में एक ‘मोर उछेर केन्द्र’ स्थापित किया। इसके बाद तो हर साल यह संख्या बढ़ती गई। उनके इस काम में उनकी पत्नी ने अपरिमित सहयोग किया। असामयिक पत्नी वियोग ने भी इन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं किया बल्कि और अधिक संकल्प और शक्ति से वे इस कार्य में जुट गए। इस साधारण किसान का सम्मान करने और पुरुष्कृत करने अनेक संस्थाएं आगे आई, अनेक अन्न और धन दान करने वाले आगे आए। परन्तु इस माटी के लाल को कोई सम्मान नहीं चाहिए। यहां तक कि अमेरिका की बायोग्राफिकल इन्स्टीट्यूट द्वारा 2006 में सम्मानित किए जाने के प्रस्ताव से भी ये विचलित नहीं हुए और अपने अंचल के मोरों की सेवा का मोह नहीं छोड़ा। नारायण भाई की एक आवाज़ पर मोर उनके पास चले आते हैं। कंधे और हाथों पर बैठ जाते हैं। इनके बच्चे सोते हैं और मयूर उनके पास नाचते हैं। भोजन के समय कोई न कोई मयूर इनके पास उनका साथ दे रहा होता है।
वर्ष 2003 में वर्षा ऋतु में सिन्धणी बांध में यकायक इतना पानी आगया कि बांध में खड़े वृक्षों पर कई मोर और पक्षी फंस गए। नारायण भाई ने एक नाव का प्रबन्ध कर 40 मयूरों में से आधे मयूरों को सुरक्षित निकाल लिया। मजेदार बात यह है कि उन दो-एक वृक्षों पर मयूरों के अतिरिक्त बिल्ली, चूहे, सांप और कई जानवर व पक्षी भी थे, परन्तु इस संकटावस्था में कोई किसी अन्य पशु-पक्षी को हानि नहीं पहुंचा रहा था।
द्वारका और सोमनाथ के आसपास समन्दर और दरिया के किनाने-किनारे इस इलाके के ग्राम पीण्डारा, आम्बलिया, टूपणी, सांगळ, कोटड़ा, जय रणछोड़ आश्रम, हड़मतिया, मेवासा, राण, लीम्बड़ी, महादेविया, गागाबे, रणजीतपुर, बतड़िया, मालेता, पटेलका, पाणेली, जैपुर और राजपुरा आदि केन्द्रों पर मयूर सेवा का वहां के ग्रामवासियों का अपूर्व समपर्ण देखने को मिला।
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(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं। पूरा परिचय
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