शोध:समकालीन कविता में प्रकृति वाया आलोक धन्वा /हरि प्रताप(दिल्ली)

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 मार्च -2014 


समकालीन कविता में प्रकृति : आलोक धन्वा की कविताएँ

    
चित्रांकन
वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी
 
समकालीन कविता के अंतर्गत प्रकृति से जुड़ी कविताएँ बड़ी संख्या में देखी जा सकती हैं| संभवतः यही कारण है कि कभी कभी इसे 'फूल-पत्ती-चिड़िया' की कविता भी कहा जाता है| कह सकते हैं कि समकालीन कविता को समझने के लिए ये जरूरी हो जाता है कि हम ये देखें कि इस कविता का प्रकृति के साथ कैसा रिश्ता है? और कविता और प्रकृति के पूर्ववर्ती रिश्तों से वो किस प्रकार भिन्न है?प्रकृति सदैव से काव्य का उपजीव्य रही है| परन्तु कालक्रम के अनुसार 'प्रकृति' और 'काव्य' के रिश्तों की प्रकृति निरंतर बदलती रही है| मध्यकालीन कविता  के लिए वो 'उद्दीपन' का माध्यम थी तो छायावादी कविता के लिए वो स्वयं आलंबन बन गयी|श्रीधर पाठक की 'कश्मीर-सुषमा' से लेकर निराला की अनेक कवितायेँ इसका प्रमाण हैं | आगे प्रयोगवाद के दौरान अज्ञेय ने माना कि 'आधुनिक भावबोध' के दौर में 'प्रकृति काव्य' संभव नहीं है |उनके अनुसार प्रकृति अब 'जीने की नहीं केवल देखने की वस्तु'1 है|

      किन्तु इसी के समानांतर प्रगतिवादी काव्यधारा भी चल रही थी| नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल ने प्रकृति और जीवन को एकमेक करके अनेक असाधारण कवितायेँ लिखी हैं| 'अकाल और उसके बाद' इसका सर्वोत्तम उदाहरण है | समकालीन कविता में प्रकृति की उपस्थिति को समझने की यह सही भूमिका है | राजेश जोशी की कविता 'पानी की आवाज' से एक उद्धरण है-

"पानी का ही जादू था
कि पानी की आवाज भी पारदर्शी और तरल लगती थी
बहकर समुद्र की तरफ बहती आवाजों में
पहाड़ से उतरकर आने की आवाजें भी शामिल थीं"
पानी की आवाज का विश्लेषण करते करते वो लिखते हैं -
"माँ की आवाज बार बार सुनायी देती थी
वह आवाज अक्स़र हमें घर के भीतर बुलाती थी"2

     
आलोक धन्वा जी 
यहाँ 'पानी की आवाज', 'माँ की आवाज' में बदल जाती है या कहें तो दोनों की आवाज में कोई अंतर नहीं रह जाता | यहाँ प्रकृति का चित्रण परिवेशगत है | परिवेश में प्रकृति शामिल है और माँ भी | समकालीन कविता में प्रकृति इसी कोमल स्मृति का प्रतिबिम्बन करती है | प्रकृति और माँ दोनों ही कवि की स्मृतियों के कोमल पक्ष का हिस्सा हैं| पर यह कोमलता रूमानियत से जुड़ी नहीं है बल्कि यथार्थ से निरंतर संघर्ष और उस क्रम में अपनी स्मृति की रक्षा की हिकमतों से उपजी है| यही वो बिंदु है जहाँ समकालीन कविता में उपस्थित प्रकृति अपनी पूर्ववर्ती काव्य परंपरा से भिन्न हो जाती है|
  
      'नेहरू युग' के अंत के बाद पूंजीवादी विकास का मॉडल देश में प्रभावी रूप से लागू किया गया| आर्थिक विकास के नाम पर गांवों को उजाड़ा जाना, अनियमित शहरीकरण और उसके परिणाम स्वरूप 1980 के दशक में उपजने वाले विरोध आन्दोलन इसका साक्ष्य हैं| 1990 के बाद भूमंडलीकरण के आवेग ने भारतीय चेतना को और हतप्रभ किया है| एजाज अहमद के अनुसार 'भूमंडलीकरण की तकनीकें अतिआक्रामक हैं| और जिस तरह से ये हमारे घरों में घुसी हैं, उपनिवेशवाद कभी नहीं घुसा|'3 आर्थिक विकास के पूंजीवादी मॉडल और उसके बाद भूमंडलीकरण के इस आवेग ने समकालीन कविता को अपने परिवेश और प्रकृति की और मोड़ा है| अशोक बाजपेयी ने नक्सलबाड़ी के दौर की आवेगमयी और मुखर कविताओं के बाद की कविताओं के लिए जब 'कविता की वापसी'4 जैसा पद प्रस्तावित किया तो उनका आशय भी कविता में परिवेश और जीवन के चित्रों की वापसी से था| उन्होंने इस संदर्भ में आलोक धन्वा की ही एक कविता को उद्धृत किया -

"ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
चमकीले इशारों से बुलाते हुए" 5

      आलोक धन्वा की कविताओं में भी प्रकृति अपने परिवेशमयी सौन्दर्य के साथ उपस्थित होती है| इस परिवेश में जीवन भी समाहित है| 'पगडंडी' कविता से एक उदाहरण -

"वहाँ घने पेड़ हैं
उनमें पगडंडियाँ जाती हैं
ज़रा आगे ढलान शुरू होती है
जो उतरती है नदी के किनारे तक
वहाँ स्त्रियाँ हैं
घास काटती जाती हैं
आपस में बातें करते हुए
घने पेड़ों के बीच से ही उनकी
बातचीत सुनायी पड़ने लगती है।"6

      इस कविता में कवि प्रकृति का वर्णन करते हुए जीवन में प्रवेश करता है और कविता एक 'मानवीय गतिविधि' का संकेत करती हुई समाप्त हो जाती है या कहें कि समाप्त नहीं होती| पाठक को जिज्ञासु मनःस्थिति में छोड़ जाती है कि वह बातचीत क्या होगी? दरअसल समकालीन कविता कि कोशिश है की वह कम से कम शब्दों में वृहत्तर आशयों की कविता बने| परमानन्द श्रीवास्तव ने 'कविता का अर्थात' जैसा पद इसी कोशिश के लिए प्रस्तावित किया है| धन्वा की कविता में प्रकृति अक्स़र वृहत्तर आशयों से जुड़कर आती है|जैसा कि पहले कहा गया है कि समकालीन कविता में प्रकृति प्रायः 'स्मृति लोक' का हिस्सा बन कर आती है| धन्वा की कविता 'पतंग' इसी ओर इशारा करती है -

"सबसे काली रातें भादों की गयीं
सबसे काले मेघ भादों के गये
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती
डंका पीटती- तेज़ बौछारें
कुओं और तलाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं"7

      यह 'स्मृति लोक' समकालीन कविता का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है| इसी ओर इशारा करते हुए प्रणय कृष्ण लिखते हैं "समकालीन कविता एक उजाड़ी जा रही दुनिया के शोक गीत की तरह सामने आती है तो वह यथार्थ संवेदना है, उत्तर आधुनिक विचारणा की उपज नहीं| यदि बदलाव मनुष्य विरोधी दिशा में हो रहा हो तो जानी-पहचानी सुकूनबख्श दुनिया को बचाने की चाहत और उसे बची देख मिलने वाली राहत महज नोस्टाल्जिया नहीं|"8 धन्वा की कविता में ये उजाड़ी जा रही दुनिया अपने विशिष्ट रंग के साथ उपस्थित होती है|यह उजाड़ी जा रही दुनिया ही वह सामाजिक संदर्भ है जो कवि को आदिम बिम्बों और रागों की ओर ले जाता है| धन्वा के यहाँ इस आदिमता से जुड़ी अनेक कवितायेँ हैं| 'बकरियां' कविता से एक उदाहरण -

"अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियाँ
अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियाँ टूंग कर वहाँ से
फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में
लौट आतीं " 9

     
इस तरह बकरियों के पत्तियाँ टूंगने का बिम्ब पूरे काल में संचरित हो जाता है| 'अनंत' केवल स्थानवाची शब्द नहीं है बल्कि कालवाची भी है| कविता कुछ इस तरह समाप्त होती है -

"लेकिन चरवाहे कहीँ नहीं दिखे
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है।"10

      'चरवाहों का सोना' हमें आदिम पर्व की ओर ले जाता है| इस तरह के बिम्ब समकालीन कविता में विरल हैं | 'कपडे के जूते' उनकी अपेक्षाकृत लम्बी कविता है जो अपने साथ वृहत्तर ऐतिहासिक और राजनैतिक आशयों को समेटे है| किन्तु कवि की दुनिया में ये राजनीति और इतिहास आदिम बिम्बों से ही प्राम्भ होता है| कवि लिखता है-

"गड़रिये वहाँ तक ज़रूर आये होंगे !
क्योंकि जूतों के भीतर एक निविड़ता है-
जो नष्ट नहीं की जा सकती
क्योंकि भेड़ों के भीतर एक निविड़ता है आज भी
जहाँ से समुद्र सुनाई पड़ता है
और निवि‍ड़ता एक ऐसी चीज़ है-
जहाँ नींद के बीज सुरक्षित हैं"11

      आज का समय जिन दबावों से संचालित है वो चीजों में निरंतर परिवर्तन का हिमायती है| सूचना की भरमार किसी भी पूर्व सूचना को स्मृति में टिकने नहीं देती | ऐसे में धन्वा की कविता इन अनुभवों को फिर से जगाने की कोशिश करती है और इस तरह से बाजार के 'न्यू' का प्रत्याख्यान करती है| उनकी 'नदियाँ' कविता नदियों की स्मृति को सुरक्षित रखने की कोशिश में लिखी गयी कविता है| नदियों ने मानव सभ्यता को हजारों साल तक पाला -पोसा है| और आज भी वो जल का सबसे प्रमुख  स्रोत हैं| पर बाजार की हिकमतों ने उनकी स्मृति पर भी संशय पैदा कर दिया है|-

"इछामती और मेघना
महानंदा
रावी और झेलम
गंगा गोदावरी
नर्मदा और घाघरा
नाम लेते हुए भी तकलीफ़ होती है
उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है
जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं
और उस समय भी दिमाग कितना कम
पास जा पाता है
दिमाग तो भरा रहता है
लुटेरों के बाज़ार के शोर से।"12
      
हरि प्रताप
शोधार्थी,दिल्ली विश्वविद्यालय,

2/2 इंदिरा विकास कॉलोनी,
थर्ड फ्लोर,दिल्ली-110009

मो--9540175575,
ई-मेल:haripratap12@gmail.com
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यह ध्यान रखने योग्य है कि आदिम राग और ये स्मृतियाँ स्वयं में प्रतिरोध का पर्याय नहीं हैं| कई बार ये स्मृतियाँ कवि को अध्यात्म की और भी ले जाती हैं| अनेक कवि इन आदिम स्मृतियों के द्वारा स्वयं को यथार्थ की जटिलता से दूर ले जाते हैं | पर धन्वा इन कविताओं के द्वारा प्रतिरोध का नया पाठ गढ़ते हैं| धन्वा प्रकृति को जिस तरह कविता में लातें हैं, वो उन्हें सामाजिक संघर्षों और आंदोलनों की और ले जाता है| उन्हीं के एक बिम्ब के माध्यम से कहें तो -

"समुद्र
तुम्हारे किनारे शरद के हैं
और तुम स्वयं समुद्र
सूर्य और नमक के हो
तुम्हारी आवाज आन्दोलन और गहराई की है" 13 

सन्दर्भ
1. रूपाम्बरा की भूमिका, काव्य प्रकृति :प्रकृति काव्य -अज्ञेय.
2. राजेश जोशी, 'दो पंक्तियों के बीच', राजकमल प्रकाशन, 2000, पृ 30.
3. एजाज अहमद, संस्कृति और भूमंडलीकरण, आलोचना (जुलाई-सितम्बर)2001.
4. कवि कह गया है-अशोक बाजपेयी,भारतीय ज्ञानपीठ,2006 में संकलित लेख जो पहली बार 1976 में प्रकाशित हुआ.
5. उपरोक्त लेख में अशोक बाजपेयी द्वारा उद्धृत.
6. दुनिया रोज बनती है : आलोक धन्वा, राजकमल प्रकाशन,1998,page-83.
7. दुनिया रोज बनती है,page13.
8. प्रणय कृष्ण का लेख,समकालीन कविता का प्रातिनिधिक सफ़र:राजेश जोशी की कवितायेँ, कथा(स. मार्कंडेय),अंक 13,नवम्बर 2008,page 114.
9. दुनिया रोज बनती है, बकरियाँ page-11
10. वही
11. दुनिया रोज बनती है, कपड़े के जूते, page-20
12. दुनिया रोज बनती है,नदियाँ, page-10
13. दुनिया रोज बनती है, page70

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