साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) मार्च-2014
अनहद धरिहैं रूप सबद सब सोहैंगे
![]() |
चित्रांकन वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी |
आदि कविताओं के ये अनसुलझे रहस्य यहीं छोड़कर कुछ आगे बढ़ते हैं। वहाँ जहाँ वैदिक ऋचाओं का साम्राज्य है। कहते हैं वेद अपौरुषेय हैं। इनका सृजन नहीं हुआ दर्शन हुआ पर मन्त्रों में जो कविता है वो तो अद्भुत है। सृजन या दर्शन इसे जो भी माने पर इसने भारतीय मनीषा का माथा तो चंदन चर्चित करके जगत वंद्य बना ही दिया ....... कुछ और आगे बढ़ते हैं जहाँ कोई वाल्मीकि किसी निषाद को क्रौंच वध पर क्रुद्ध होकर श्राप देते-देते किसी महाकाव्य की नींव रख रहा है। संवेदना शब्दों का आधार लेकर कविता बन रही है और कविता अपने विस्तार में केवल एक कथा नहीं सहेज रही वरन ज्ञान के प्रत्येक सोपान पर अधिकार पूर्वक आलोकित होने जा रही …… फिर अनेक कालखंड हैं वीरता, भक्ति, श्रृंगार, रहस्य , देशभक्ति और मुक्ति की अनेक गाथाएँ हैं जहाँ कविता नए नए रूप धरकर सामने आती है और अर्श से फ़र्श तक , महलों से झोपड़ियों तक, हृदय से होंठों तक , क्रंदन से वंदन तक , भावों से अभावों तक , गर्जन से रंजन तक , संसद से सड़क तक न जाने कहाँ-कहाँ गूंजती है ……पर इतिहास के पन्ने पलट ही रहा होता हूँ कि अचानक जैसे स्वप्न-भंग हो जाता है और एक सवाल आकर सामने खड़ा हो जाता है कि कविता का भविष्य क्या होगा ???
कविता का भविष्य !!! व्याप्ति की विराटता अचानक अस्तित्व का सवाल खड़ा कर देती है। कहाँ तो मैं ज़र्रे-ज़र्रे में कविता की मौज़ूदगी देख रहा और कहाँ ये सवाल कि क्या भविष्य में कविता बचेगी ??? पहली प्रतिक्रिया में इतिहास की दुहाई देता हूँ। प्रकृति और वेदों से लेकर वर्तमान तक की यात्रा की गौरव गाथा बांचता हूँ। पर अचानक सब कुछ धुंधला होने लगता है और यह एक सवाल अनेक सवालों को साथ में सामने ले आता है …कहाँ हैं वे जंगल जहाँ प्रकृति का असीम विस्तार अबूझ ध्वनियों का संसार सहेजे बैठा है ? कहाँ हैं वे आश्रम जहाँ कविता का सृजन नहीं दर्शन होता है ? कहाँ हैं वे संवेदानशील हृदय जो एक पक्षी की मृत्यु पर महाकाव्य का बीजारोपण कर सकें ? कहाँ हैं वे तुलसी, कबीर, सूर, मीरां, रसखान जो निराकार और साकार को कविता में ढाल दें ?
कहाँ हैं वे मतवाले जो गीत गाएं तो आज़ादी का पथ प्रशस्त हो ? कहाँ हैं वे कविता को नया रंग नया ढंग देने वाले आधुनिकता के आलिम हुज़ूर ? तो क्या सब कुछ ख़त्म हुआ ?? और ये जो दिन-रात कविताएँ लिखी जा रही हैं क्या ये सब व्यर्थ हैं ???कब कहा मैंने कि ये सब व्यर्थ हैं पर एक तो ये भविष्य नहीं वर्तमान हैं और दूसरी बात यह है कि आधिक्य अस्तित्व का परिचायक नहीं होता। पर इसे भी छोड़िये क्योंकि बात कविता के भविष्य की करनी है।भविष्य की बात करनी हो तो राय किसी बच्चे से लेनी चाहिये क्योंकि भविष्य तो वे ही हैं। कुछ दिनों पहले एक बच्चे से पूछा था कि वो क्या बनना चाहता है तो उसने कहा था - 'स्पाइडर मैन '
ज़वाब में मासूमियत है पर यही हमारे युग का सत्य भी है। असल में हमने तरक्की की जो बिसात बिछायी है उसमें हर एक मोहरा ताकतवर बनना चाहता है और ताकतवर बनने के लिए उसे स्वयं से अधिक यांत्रिक संसाधनों पर भरोसा है। विज्ञान का युग है और विज्ञान विकास की जो परिभाषा गढ़ेगा वो शायद पूर्ण विकसित उसे ही कहेगी जो यांत्रिक मनुष्य होगा अर्थात - रोबोट मनुष्य। विषय से भटक न जाऊं इसलिए इसके में विस्तार से नहीं जाऊंगा पर यदि मनुष्य यंत्र बन गया तो कविता का भविष्य क्या होगा ??
क्या यांत्रिक मानव को कविता की ज़रुरत होगी ?? चलिए एक कहानी के साथ बात ख़त्म करते हैं। मैं ठहरा किस्सागो तो हिंदी में लगभग न लिखी जाने वाली साइंस फिक्शन में हाथ आजमाता हूँ ……
इक्कीसवीं सदी का अंत है। मनुष्य रोबोट बन चुका है। सारी दुनिया के रोबोट इतने उन्नत और ताकतवर हैं कि किसी भी दूसरे ग्रह तक आना-जाना भी बहुत मामूली बात है।लेकिन संघर्ष भी बहुत बड़ा हो चुका है। तकनीकी विनाश के ऐसे-ऐसे साधन जुटा देती है कि कोई भी रोबोट मनुष्य कहीं भी निरापद नहीं है।अत्यंत विनाशकारी संघर्ष से त्रस्त होकर दुनियां के श्रेष्ठतम रोबोट मनुष्य समाधान तलाशते हैं और इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि यांत्रिक तरक्की को ख़त्म करके रोबोट मनुष्य को फिर से मनुष्य बनाया जाए तभी अस्तित्व बच सकता है। शोध किया जाता है और रोबोट मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए डी एन ए में जिस तत्व को खोजा जाता है वो तत्व वही तत्व है जो कविता का कारक तत्व है …………