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राजेश्वरी- अपने बचपन में आपकी शिक्षा अनेक शहरों में होने
का क्या कारण था? इसका आपके लेखन पर क्या प्रभाव पड़ा?
गी.- इसका सीधा सा कोई फार्मूला तो है नहीं। अलग-अलग तरह से
होता है। यदि आप एक रचनाकार हैं तो आपकी अदंर की बनावट ही कुछ ऐसी सेंसिटिव हो
जाती है। आपके एंटिना ऐसे होते हैं कि कभी आप कुछ देखते हैं वो मज़ा देता है, कभी आप कुछ सुनते हैं वो मज़ा देता है। किसी चीज़
से शुरू हो जाता है। अब ये नहीं कह सकती मैं कि हर बार एक तरह से कुछ होता है।
शायद आपने चक्करघिन्नी कहानी पढ़ी हो। यहाँ हाउज़िंग सोसायटीज़ बन गई हैं, बहुत सारे अपार्टमेन्ट्स हैं। मैं खुद ही सैर
करती हूँ और मुझे यह बहुत मज़ाकिया लगता है कि बहुत से लोग अब बाहर जाने की बजाय
उसी में गोल-गोल घूमते रहते हैं। बिल्डिंग्स के चारों ओर गोल-गोल-गोल-गोल घूमे जा
रहे हैं। ऐसे ही शायद एक मज़ाक की तरह सूझा कि घूमती चली जा रही है और रुक पा नहीं
रही। फिर वो अपने आप कहानी बनती चली गई। आप जो देखते हैं, सुनते हैं, अपने और दूसरे के अनुभव कभी कोई दुखी करता है कभी सुखी करता
है। आपको अगर वह हिलाता है, चाहे मज़े में ही। उसको लेकर एक इच्छा अपने आप
होने लगती है कि इसको लेकर थोड़ा इसके साथ चलो। शुरू यहाँ से होता है फिर साथ
चलते-चलते और चीज़ें खुलती जाती हैं। कोई ख़ाका तैयार नहीं होता है कि यहाँ से शुरू
करेंगे और वहाँ खतम। अनजान सी स्थिति होती है। पता नहीं होता कि बनेगी के नहीं और
कहाँ जाएगी।
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गीतांजलि श्री- मेरे पिता आई. ए. एस में थे, जिस कारण से यू.पी. के छोटे-बड़े शहरों में
तबादला होता रहता था। इस दौरान मैंने मध्यमवर्गीय जीवन के बारे में बहुत कुछ सीखा।
मुझे खुशी है कि छोटे शहरों में रहने की वजह से मेरा हिन्दी से जुड़ाव हमेशा बना
रहा। आजकल अग्रेंज़ी हमारे जीवन पर बहुत हावी हो गई है। खास तौर पर महानगरों में यह
समस्या ज़्यादा है।
यदि मेरा यह बेकग्राउंड न होता तो, मैंने जो सीखा है और अपने जीवन में एक हिन्दी लेखिका के रूप
में जो मुकाम हासिल किया है, शायद वह संभव न हो पाता। मैं जो कुछ भी सीख पाई और लिख पाई
उसके पीछे इस बेकग्राउंड की अहम भूमिका है।
रा.- विवादी नाट्य संस्था से आप कब से जुड़ी हैं?
गी.- दोस्तों के साथ ही इस सिलसिले की शुरूआत हुई। लगभग उसी
समय मैंने लिखना भी शुरू किया था। अनुराधा कपूर, जो मेरी दोस्त हैं और विवादी
संस्था चलाती हैं, ने ही मुझे नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया।
मुझे नहीं लगता था, लेकिन उनका विश्वास था कि मुझे नाटक लिखने
चाहिए। इस तरह बीच-बीच में हम कुछ नाटक पेश करते रहते हैं। पर मैं स्वयं को एक
नाटककार नहीं मानती, शायद मुझे ज़्यादा विश्वास नहीं है या फिर मेरे अदंर से ऐसा कोई ड्राइव नहीं
है कि मैं नाटक लिखूँ। मुझे लगता है कि कहानी या उपन्यास लिखूँ। नाटक लिखने की
डिमांड मुझ पर बाहर से आती है। परन्तु जब समूह के साथ काम करती हूँ तो आदान-प्रदान
होता है। मैंने बहुत कुछ सीखा है और हो सकता है कि उसका प्रभाव मेरे लेखन पर भी
पड़ा हो। वहाँ एक ग्रुप डायनामिक्स होता है जहाँ हर पल हर स्तर पर कृति बदल रही है।
मैं कुछ लिखकर देती हूँ, एक्टर जब बोलता है उसे कुछ और बना देता है, फिर जब वह स्टेज पर संगीत के
साथ पेश किया जाता है तो वह कुछ और हो जाता है। मैं बहुत दफ़ा कहती हूँ कि यह मेरा
लिखा है ही नहीं। जैसे उपन्यास के लिए मुझे लगता है कि मैंने ही किया है चाहे वो
जैसे भी पढ़ी जाएँ या समझी जाएँ। लेकिन नाटक से मेरा अन्तरंग रिश्ता है, मुझे मज़ा भी आता है और मैं
इसे करते रहना चाहती हूँ फिर भी मैं ये नहीं मानती कि मेरे अदंर से कुछ आया है और
मैंने ही किया है।
रा.- इसका प्रभाव आपके लेखन पर किस प्रकार परिलक्षित होता
है?
गी.- यह बात शायद दूसरे लोग बेहतर बता पाएँगे। अपनी
व्याख्या खुद कर पाना आसान नहीं होता। मुझे शब्दों की ध्वनि बहुत उत्साहित करती
है। हालाँकि पहले भी मुझमें यह रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि मेरी ध्वनि-चेतना
नाटक मंडली से जुड़ने के कारण और प्रबल हुई है। मैं अपने उपन्यास और कहानियाँ यह
देखने के लिए ज़ोर से पढ़ती भी हूँ कि वज़न ठीक तरह पड़ रहा है कि नहीं।
रा.- आपके लिए कहानी लिखने की प्रक्रिया से पहले क्या
मनस्थिति होती है? अचानक कोई कहानी सूझती है या किसी घटना विशेष
से आप प्रभावित होती हैं। कहानी आपके अदंर से आती कैसे है?
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गीतांजलि श्री |
रा.- अपने लिखने के अनोखे अदांज़ के बारे में आप कुछ बताना
चाहेंगी।
गी.- कोई सोचा-समझा प्लान नहीं होता कि ऐसे करेंगे। मेरे
लिए शब्द सिर्फ़ एक माध्यम नहीं हैं जिनके ज़रिए मैं कुछ कहना चाहती हूँ। उनका अपना
एक अलग व्यक्तित्व होता है और वे जो दृश्य पैदा करते हैं या ध्वनि पैदा करते हैं, वो अपने में ही एक कहानी है। यह जानना ज़रूरी
नहीं है कि वो कहाँ जा रहे हैं। फिर क्रम की ज़रूरत नहीं रही। एक तरह से मैंने उस
ज़रूरत को तोड़ दिया और अब कथा को सामने रखने का यह अलग ढंग मुमकिन हो गया। लैंग्वेज बिकेम एन एडं इन इटसेल्फ़, सिर्फ़ इफेक्ट्स पैदा करने के लिए नहीं, लैंग्वेज सिर्फ़ माध्यम नहीं है, वह अपने में भी एक पर्सनेलिटी है। मेरे लिए क्या कह रहे हैं से ज़्यादा मायने रखता है कि आप कैसे कह रहे हैं। एक
मामूली सी घटना ही यदि एक बिन्दास तरीके से लिखी है तो वह बिन्दासपन ही अपने आप
में कुछ कहता है। मुझे कोई नारा लगाने की ज़रूरत नहीं है। बेबाक तरीके से लिखी गई
बात खुद ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हो जाती है।
रा.- आपकी कहानियों में प्रकृति चित्रण बहुत दिखता है।
गी.- प्रकृति मेरे लिए बहुत मायने रखती है। मेरे कई पाठकों
ने मुझसे कहा है कि आपकी कथाओं में पेड़ या आसमान खुद पात्र हैं। वे मात्र एक
परिदृश्य बनकर सामने नहीं आते वे पार्टिसिपेट करने वाले पात्र होते हैं। मेरे लिए
यह बहुत सहज और भीतर से आने वाली चीज़ है। मैं इसके बारे में पहले से कुछ निर्धारित
नहीं करती लेकिन इसे बहुत अहम मानती हूँ। पिछले दिनों मैं आइसलैंड में थी। वो एक
वॉल्केनिक आयरलैंड है जहाँ कहीं भाप निकल रही है, कहीं ज्वालामुखी फट रहा है, तो कहीं झरना बह रहा है। असली ज़िन्दा चीज़ वहाँ प्रकृति है, लोग तो भूले-भटके हैं। जो थोड़े-बहुत हैं भी, वो प्रकृति के आगे मच्छर ही लगते हैं। मुझे तो
यह चीज़ बहुत ही ग़ज़ब की लगी। मैं उसका यथार्थवादी वर्णन कभी नहीं करूँगी। प्रकृति
मेरे लिए बहुत उम्दा चीज़ है, जिसके आगे मैं स्वयं को बिल्कुल बौना महसूस करती हूँ।
रा.- इस चित्रण में आपकी कल्पना का कितना
योगदान रहता है ?
गी.- मैं सीधे-सपाट यथार्थ से बहुत ऊब चुकी हूँ। खासकर
हिन्दी साहित्य जगत में जिसे हम आधुनिक साहित्य मानते हैं, वह हमारे नॅशनल मूवमेंट के वक्त से जुड़ता है।
अपने आप को पहचानना, राष्ट्रीयता, अपना अस्तित्व, हमारी भाषा इत्यादि। जहाँ वो शुरू होता है वहाँ समाज में एक
नई चेतना के रूप में पेश हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ कि वह यथार्थ में उलझ कर रह
गया है। समाज को सामने रखिए, अपनी मुहिम को सामने रखिए बस यही रह गया है। समाज तो आता ही
है, तरह-तरह से आता है। समाज न दिखे तो भी समाज आता
है। अधिकतर लोग ‘इतना आसमान’ को
समझेंगे ही नहीं। उन्हें लगेगा कि इसका समाज से क्या लेना-देना है पर वह कहानी भी
समाज के बारे में है । समाज से तो हम कहीं बच ही नहीं सकते। सारे रास्ते वहीं हमें
पहुँचाते हैं, लेकिन आप ये तो मान लीजिए कि अलग-अलग रास्ते
होते हैं। ज़्यादातर
साहित्य जगत ने मान लिया है कि बस एक सीध-सा रास्ता है, जिसमें आप वन-टू-वन रिलेशनशिप बनाते हैं। कल एक
रेप हुआ, आपने रेप के बारे में लिखा, वही रेप की कहानी नहीं होती है। आप देखिए कि
प्रकृति को कैसे तबाह कर दिया, इस बारे में लिखा तो वो भी रेप की कहानी है। मेरे रास्ते
टेढ़े-मेढ़े होते चले गए । मेरे लिए कल्पना की बहुत बड़ी भूमिका है, चाहे ऐसा लगे कि ये लिख क्या रही हैं, कुछ समझ नहीं आ रहा, तब भी मुझे कोई परेशानी नहीं है । कितनी बोर
बात है कि जितना दिखाई दे, उतना ही हो। उसके पीछे जो ध्वनियाँ हैं, जो और पर्तें हैं, वो नहीं हैं तो फ़ायदा क्या? एक जर्मन व्यक्ति, जो मेरा दोस्त है, हिन्दी का पंडित है और ‘तिरोहित’ का तर्जुमा कर
रहा है, ने मुझसे कहा कि, मुझे तुम्हारे लिखे की यह बात सबसे अधिक अच्छी लगती है कि
जो अपने मुखर रूप में लगता है कि है, वो कभी नहीं होता। यही बात किसी को बुरी लग सकती है पर उसे
बहुत अच्छी लगी और मुझे भी अच्छा लगा। यदि यह कोई खिलवाड़ की तरह सिर्फ़ जटिल बनाने
के चक्कर में कर रहा है, या आप बात को जानबूझकर उलझा रहे हैं फिर तो
मुझे भी ऐतराज़ है। पर मैं इतना पूरी ईमानदारी से कह सकती हूँ कि मैं कोशिश करके
ऐसा नहीं कर रही | मैं हूँ ही कुछ कॉम्प्लेक्स मेरी कल्पना भी कॉम्प्लेक्स है। मुझे उसमें में लेयर्स दिखते हैं। मैं काला-सफ़ेद सीधा-सपाट न बनाना चाहती हूँ, न देखती हूँ। मुझे इस बात से फ़र्क नहीं पड़ता कि
कोई इसे समझेगा कि नहीं। मैं खुद से संवाद करती हूँ, कभी परेशान होके और कभी खुश होके। मुझे तसल्ली मिलनी चाहिए
कि मैं कुछ कर पाई और मज़ा मुझे आया। यदि कुछ ऐसे पाठक हैं, जिनको मेरी इस पूरी प्रक्रिया में तथा इसके
फलस्वरूप जो रचना सामने आई उसमें उनको भी कुछ मज़ा मिल रहा है फिर तो मैं बहुत खुश
हूँ। इससे मुझे यह भी लगता है कि जो मैं कर रही हूँ वह ठीक है और मुझे करते रहना
चाहिए।
रा.- अपनी कहानियों में मृत्युबोध और उसकी विविधता पर थोड़ा
प्रकाश डालिए।
गी.- मैंने इस बात की कोई सूची नहीं बनाई है कि मैं बार-बार
मृत्यु के बारे में क्यों लिखती हूँ। लेकिन इसमें हैरानी की क्या बात है। मृत्यु
तो है ही हमारे चारों ओर। वह एक मज़ाक भी है और एक गंभीर चीज़ भी है। सारी वैरायटी उसमें है, ज़िन्दगी उसमें है। यदि इसकी कोई बात मुझे बार-बार अपनी ओर
खींच रही है तो मुझे कोई हैरानी नहीं होती। एक शोधार्थी ने मुझसे कहा कि आप चुप पर
बहुत लिखती हैं। मैंने कभी इस बारे में नहीं सोचा था लेकिन फिर लगा कि कमाल है।
उसने बताया कि इस बात पर अलग से लिखा जा सकता है कि, गीतांजलि के लेखन में चुप। अब ये कहाँ से आता है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन हमारा एक पूरा अवचेतन
तो है ही। शायद हमारे समाज में, शायद औरतों के जीवन में इस चुप का अलग महत्व है । अपने
चारों ओर हम हरदम मृत्यु देखते हैं और यह जीवन का सबसे बड़ा अहसास है।
रा.- स्त्री विमर्श पर आप क्या कहना चाहेंगी?
गी.-इस सवाल से मैं बहुत घबराती हूँ। यह तो हो ही नहीं सकता
कि मेरे लिए स्त्री-विमर्श का कोई मतलब न हो। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इससे अलग
कैसे हो सकता है? स्त्री ही क्यों आदमी भी। इस विषय पर सोचना-समझना चल ही रहा है।
स्त्रियों की स्थिति को लेकर अनेक सवाल उठाए गए हैं। ये बातें हमारे लिए मतलब रखती
ही हैं। आज जिस तरह का समाज है, जिस तरह की दुनिया है उसमें इसकी ज़रूरत भी बहुत है। मैं
इसको आइडियोलॉजिकल धारा की तरह रखना नहीं चाहती। मैं इस बात से भी घबराती हूँ कि
हम किसी चीज़ के प्रति सचेत होते-होते कहीं उसमें बँध जाते हैं और उसको बाँध देते
हैं। कोई एक परिभाषा बनाकर उसी में हर चीज़ फ़िट करने लगते हैं। शुरू में तो लगता है
कि यह परिभाषा कोई नई नज़र खोलती है, पर उसके बाद बँध जाती है। इसीलिए किसी भी विमर्श को लेकर
मैं ज़रा चिंतित रहती हूँ। इसमें बंधना नहीं चाहती और न अपनी नज़र और संवेदना को
बांध देना चाहती हूँ। स्त्री विमर्श बहुत बड़ी चीज़ है, हम सब उसमें हैं लेकिन उसे मैं किसी शार्प आउटलाइन में नहीं
रख देना चाहती। जहाँ तक मेरे लेखन का प्रश्न है, अधिकतर दुनिया में अभी भी पितृ सत्तात्मक समाज है। पश्चिम
का समाज उससे बाहर निकल आया प्रतीत होता है लेकिन वहाँ कुछ चीज़ें इनविज़िबल हो गई
हैं। हमारे यहाँ खुलकर सामने आती हैं, दिखाई पड़ती हैं । निर्भया कान्ड के समय अपनी एक किताब के लॉन्च के लिए मैं जर्मनी गई हुई थी। मैं वहाँ
वैल्वेट होटेल में ठहरी थी जो एक पॉश इलाके में है । मेरे होस्ट मुझे खाने पर ले
गए थे। वापस छोड़ते समय मैंने देखा कि हर पंद्रह-बीस कदम पर वहाँ एक औरत, जो अजीब-अजीब कपड़े पहने हट्टे-कट्टे रोबोट की
तरह दिख रही थी, खड़ी थी। मेरे होस्ट ने मुझे बताया कि वे
प्रौस्टीट्यूट्स हैं। अगले दिन वहाँ इसी बात को लेकर मुझ पर प्रहार हो रहे थे कि
भारत में यह सब होता है। मैंने कहा कि मैं मानती हूँ कि हमारे समाज में यह सब
गन्दी बातें हो रही हैं, लेकिन इसकी ज़िम्मेदार वह पुरुष मानसिकता है
जिसमें औरत को ऑब्जेक्टिफ़ाइ किया जा रहा है। मेरा उन सब से यह निवेदन था कि आप
सबसे बड़ी गलती यह कर रहे हैं कि आप अपने को एक तरफ़ रख रहे हैं और मुझे दूसरी तरफ़, जबकि हम एक ही तरफ़ हैं। दोनों जगह पर ही स्त्री को एक अलग नज़र से देखा जा रहा है।
हम सब एक खास तरह के सिस्टम का हिस्सा हैं, जिसमें औरत और आदमी दोनों की एक ख़ास तरह की
मानसिकता बन गई है, जिसे बदलने की ज़रूरत है। मैं विचारधारा के तौर
पर अपना लेखन इससे जोड़ना नहीं चाहती हूँ, लेकिन इससे औरतों को लेकर जो एक खास तरह की संवेदना पैदा
होती है, या औरत कहाँ फँसी है और कहाँ निकल रही है, इन सब चीज़ों को उजागर करता है। तिनके कहानी की नायिका विलेन नहीं है, लेकिन जो चीज़ें सहज होनी चाहिए, इस तरह के समाज में वे असहज बनी हुई हैं, इसके पीछे एक खास तरह की पुरुष प्रधान सोच है।
लेकिन मैं इस सब में नहीं पड़ना चाहती कि यह पुरुष-प्रधान सोच है, जो स्त्री को इस तरह से बाँध कर रखती है। लेकिन जो मैनिफ़ैस्टेशन्स हैं, मैं उनके बारे में ज़रूर सोचती हूँ। उनको लेकर मेरे अदंर
किरदार बनते हैं और परिस्थितियों से कथानक का निर्माण होता है । उन रिएक्शन्स को
लेकर मैं कुछ हूँ संवेदनशील और यही मेरी कहानियों में दिखाई देता है।
रा.- आज के समाज में स्त्री-विमर्श की क्या भूमिका है? यह मात्र एक किताबी या नारेबाज़ी वाली बात बनकर तो नहीं रह गई है?
गी. - स्त्री-विमर्श आज भी महत्वपूर्ण है। वह मुद्दे को भूलने
नहीं देता पर उसे खोलने की ज़रूरत है। फँसे हैं कहीं पर, उससे निकलने की ज़रूरत है। रेप को लेकर आए दिन पॉलिटिशियन्स, जिन्हें हम पढ़े-लिखे सेन्सेटिव लोग समझते हैं, जो बयान देते हैं उससे लगता है कि उनके लिए यह
कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं है ।कितना हमारा जीवन अपने को बचाने में, अपने को संभालने में और इससे डरने में निकलता
है । ये ऐसी चीज़ है जिसपर शोर तो मचाना ही चाहिए । लेकिन सिर्फ़ शोर मचाने पर बात
रुक जाए और उस बात को खोलेंगे नहीं तो उसका कुछ मतलब नहीं है । थोड़ा सृजनात्मक
करने और उसे खोलने की ज़रूरत है ।
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गी. - स्त्री-विमर्श आज भी महत्वपूर्ण है। वह मुद्दे को भूलने
नहीं देता पर उसे खोलने की ज़रूरत है। फँसे हैं कहीं पर, उससे निकलने की ज़रूरत है। रेप को लेकर आए दिन पॉलिटिशियन्स, जिन्हें हम पढ़े-लिखे सेन्सेटिव लोग समझते हैं, जो बयान देते हैं उससे लगता है कि उनके लिए यह
कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं है। कितना हमारा जीवन अपने को बचाने में, अपने को संभालने में और इससे डरने में निकलता
है। ये ऐसी चीज़ है जिसपर शोर तो मचाना ही चाहिए। लेकिन सिर्फ़ शोर मचाने पर बात
रुक जाए और उस बात को खोलेंगे नहीं तो उसका कुछ मतलब नहीं है। थोड़ा सृजनात्मक
करने और उसे खोलने की ज़रूरत है ।
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