सिनेमा:‘माँझी रे तेरी प्रीत सांची’/ पीयूष राज

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)

माँझी रे तेरी प्रीत सांची’     
पीयूष  राज  

चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625)
माँझी द माउंटेन मैनदलित, आदिवासी या वंचित तबकों के वास्तविक जीवन में नायक-नायिका पर बनने वाली कोई पहली मुख्यधारा की फिल्म नहीं है। इससे पहले भी बवंडर’, ‘बैंडिट क्वीनजैसी फिल्में बन चुकी हैं।  लेकिन माँझी द माउंटेन मैनइन फिल्मों से अलग  हटकर है। दलितों के जीवन पर बनी फिल्मों का केंद्रीय विषय हमेशा जातिगत उत्पीड़न ही रहा है जो उनके जीवन की सचाई भी है। ऐसा भी नहीं है माँझी द माउंटेन मैनमें दलितों के जीवन से जुड़े विषय को उठाया नहीं गया है। इस फिल्म में सामन्ती व्यवस्था के भीतर दशरथ माँझी के संघर्ष का बखूबी चित्रण है परन्तु फिल्म में वह सहायक विषय है। इस फिल्म का केन्द्रीय विषय प्रेम है। एक सबसे गरीब और अत्यंत ही वंचित तबके के व्यक्ति का प्रेम। अभी तक हिंदी सिनेमा में प्रेम या रोमांस पर जो भी फिल्में बनी हैं उसमें  उच्च वर्ग या मध्य वर्ग के जीवन को आधार बनाया गया है। जैसे व्यक्तिगत प्रेम जैसी कोई वस्तु दलितों के जीवन में होती ही नहीं है। 

माँझी द माउंटेन मैनइस धारणा को तोड़ने वाली फिल्म है। सामाजिक दंश को झेलते हुए भी कोई व्यक्ति अपने प्रेम के लिए कुछ भी कर सकता है। हर तरह की स्थितियाँ चाहे वो सामाजिक हो या आर्थिक फिल्म के नायक दशरथ माँझी के विपरीत थीं। फिर भी वो अपनी पत्नी फगुनिया से अथाह प्रेम करता है। जब तक फगुनिया जीवित रहती है , माँझी कहता है कि कैसे बताएँ  कि हम तुमसे कितना प्रेम करते हैं। वह अपने प्रेम की भावना को प्रकट करने के लिए ताजमहल का प्रतिरूप फगुनिया को भेंट करता है। लेकिन ताजमहल एक शक्तिशाली और सम्पन्न शासक के प्रेम की अभिव्यक्ति है। उसमे एक गरीब और दलित के प्रेम को अभिव्यक्ति कैसे मिल सकती है? वह ताजमहल की कल्पना कर सकता है पर हकीकत में बना तो नहीं सकता। साथ ही असली जीवन की फगुनिया कहीं से फिल्म की नायिका राधिका आप्टे की तरह तो नहीं ही होगी। यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि वो सौन्दर्य के परम्परागत प्रतिमानों पर तो कहीं से भी खरी नहीं उतरती होगी। फिर भी दशरथ माँझी को उससे असीम प्रेम था जिसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार था। दशरथ माँझी जिस जाति (मुशहर) से आते हैं वहाँ आज भी बाल विवाह और दूसरे विवाह का प्रचलन आम है। इसके बावजूद दशरथ माँझी दूसरा विवाह नहीं करते हैं। वास्तव में फगुनिया उनके लिए मरी ही नहीं थी। प्रेम की इस पराकाष्ठा को माँझी द माउंटेन मैनमें बहुत ही गहराई से दिखाया गया है। 

दशरथ माँझी की पहाड़ तोड़ने की जिद , हर तरह की कठिनाइयों को सामना करने साहस ; इन सबके पीछे की एक मात्र प्रेरणा उनका प्रेम था। वे पहाड़ से बदला लेते हैं पर शत्रु बनाकर नहीं मित्र बनाकर। उनका उद्देश्य सिर्फ उसकी अकड़ को तोड़ना था। वास्तव में दलित और बेहद गरीब दशरथ माँझी के पास ऐसा कुछ नहीं था जिससे वो फगुनिया के प्रति अपने प्रेम को बयान कर पाते इसलिए उन्होंने उस पहाड़ को ही तोड़ने की जिद ठानी जिसने उनसे उनकी फगुनिया को छीना था। प्रेम के लिए पहाड़ से टकराने का मुहावरा  तो बहुत आम है लेकिन दशरथ माँझी ने इस मुहावरे को सचाई में बदल दिया। एक बहुत ही प्रसिद्ध शेर है कि एक बादशाह ने ताजमहल बनाकर हम गरीबों की मुहब्बत का मजाक उड़ाया है। इस फिल्म को देखकर यह कहा जा सकता है कि एक गरीब ने पहाड़ तोड़कर ताजमहल का मुँह चिढ़ाया है। अकेले पहाड़ तोड़कर 22 वर्षों में बनाया गया वह रास्ता ताजमहल की तुलना में कहीं अधिक बड़ा प्रेम का प्रतीक है। शाहजहाँ को अगर अकेले ताजमहल बनाना होता तो शायद ही वह बन पाता लेकिन दशरथ माँझी ने अकेले ही पहाड़ को तोड़ दिया। एक दलित और गरीब का प्रेम जीवन की कठिनाइयों से जूझकर विकसित होता है इसीलिए उसका सार्थक परिणाम सामाजिक होता है। ताजमहल की भव्यता किसी गरीब को राहत नहीं दे सकती पर गहलोर गाँव की उस सड़क ने कई लोगों की कठिनाइयों को दूर किया है।

व्यक्तिगत जीवन पर बनी फिल्मों की प्रामाणिकता पर हमेशा प्रश्न खड़ा होता है। कई लोगों ने इस फिल्म के बारे में भी इस तरह के सवाल उठाए हैं। वास्तव में पापुलर सिनेमा की अपनी कुछ मजबूरियाँ होती हैं। हिंदी सिनेमा अभी भी इन मजबूरियों से पार पाने की कोशिश में लगा है। हो सकता है इसमें मगध का पूरा परिवेश उभर नहीं पाया हो या जातिगत-सामन्ती उत्पीड़न का बहुत ही सतही चित्रण हो। परन्तु इस फिल्म का उद्देश्य यह सब नहीं था। इस सीधा उद्देश्य एक दलित नायक के प्रेम की पराकाष्ठा को दिखाना था। हर तरह के उत्पीड़न के बीच भी कोई दलित उसी तीव्रता और गहराई के साथ प्रेम कर सकता है और किया है, जिस तीव्रता के साथ अन्य वर्ग या जातियों के ऐतिहासिक प्रेमियों ने किया है। संभवतः इस प्रेमियों से महान प्रेम था दशरथ माँझी का और यह फिल्म इस बात को सिद्ध करने में सफल रही है। चाहे वह कहानी के स्तर पर हो, संवाद के स्तर पर हो या अभिनय के स्तर पर हो। इस फिल्म के बारे में यही कहा जा सकता है – ‘ शानदार, जबर्दस्त, जिंदाबाद। 


पीयूष राज, शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली
संपर्क रूम न. 355 झेलम छात्रावास, जेएनयू, नई दिल्ली
मो.9868030533,ई-मेल piyushraj2007@gmail.com     

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