काव्य-लहरी:अभिषेक अनिक्का की कविताएँ

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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काव्य-लहरी:अभिषेक अनिक्का की कविताएँ
मैंने देखे हैं कई जूते
रंगीन जूते, काले जूते
फटे पुराने जूते
नाचते गाते जूते
कुचलते मारते जूते
कीचड़ से लिपे हुए जूते
खून से सने हुए जूते
ये साथ हों
तो कभी बेपरवाह राही की हिम्मत बढ़ा देते है
कभी जीवन से थके हुए को भगौड़ा बना देते हैं
इन्हें फ़ेंक दो
तो कभी विद्रोह का स्वर बन जाते हैं
कभी अहंकारी का दंभ बन जाते हैं
इन्हें पहन कर 
कोई नरसंहार का प्रेषक बन जाता है
तो कोई पर्वतों के शिखर पर चढ़ जाता है
इनकी गड़गड़ाहट से
कभी युद्ध का बिगुल बज जाता है
तो कभी क्रांति का परचम लहराता है
ऐसे जूते, वैसे जूते
तुम्हे पसंद हैं कैसे जूते ?

मुझे जानना है
क्या सोचते हो तुम
अंगों के बारों में
अपने अंगों के बारे में
मेरे अंगों के बारे में
निर्वस्त्र शरीरों 
के अन्दर छिपे
विचलित अंगों के बारे में
आकारों में फंसे
कुछ और बनने का प्रयास करते
विकृत अंगों के बारे में
प्रकृति के नाम पर
दबाये जा रहे 
निराश अंगों के बारे में
सतरंगी परदे के पीछे
निरंकार प्यार का मुखौटा
कल तक अच्छा था
आओ, आज बात करें
अंगों के बारे में ! 


अधपकी कविता
मैं और तुम
अक़्सर
अधपके ख़्वाबों से बनते हैं
अधपकी सड़कों पर
सफर अनजाना होकर भी
अक्स बदल जाता है
अधपके घरों के अंदर
बातें अनकही रह कर भी
समय भर देतीं हैं
अधपके रिश्तों की
रातें चुप चाप कट कर भी
सब कुछ बता जाती हैं
अधपकी जिंदगी में
लोग आधे अधूरे रह कर भी
कहानी पूरा कर जाते हैं
मैं और तुम
अक़्सर
अधपके ख़्वाबों से बनते हैं


अहम् कहाँ से आता है?
बाजरे की रोटी के ऊपर आंटे की रोटी
का अहम्
साइकल वाले के ऊपर रिक्शा वाले
का अहम्
पैदल चलने वाले के ऊपर गाड़ी चलाने
वाले का अहम्
किराना दुकान वालों के ऊपर डिपार्टमेंटल स्टोर
वालों का अहम्
प्रादेशिक भाषा वालों के ऊपर अंग्रेजी भाषा
वालों का अहम्
आठ लाख कमाने वालों के ऊपर दस लाख
वालों का अहम्
आई फ़ोन पांच वालों के ऊपर आई फ़ोन छह
वालों का अहम्
मचलते हुए
सर पर नाचते हुए
गुब्बारे की तरह फ़ूलता हुआ
ना धन देखता है
ना उम्र, ना लिंग, ना जगह
जहाँ देखो, वहीँ शुरू हो जाता है



बचपन

बैठे-बैठे अँधेरे के दोआब में,
मै अक्सर इंतज़ार करता हूँ
सुबह शाम बेचैन मन से ,
किसी के आने के लिए उमड़ता हूँ
बेरंग जीवन में समायी हुई,
प्रेरणा का रसपान करता हूँ
ख्वाबों के मोतियों को पिरोकर,
बचपन का हार मढ़ता हूँ

हर रोज़ इंतज़ार करता हूँ
उस बलून वाले बाबा का ,
जो आँगन की खिड़की से ललचाते
दो पल रुकते, फिर कहीं दूर चले जाते

हर रोज़ देखने की आशंका करता हूँ
उस फटे कपडे में घूमते पागल का ,
जो मार्मिक आँखों से छूने के बावजूद
अन्दर कुछ सहमा सा छोड़ जाता

हर रोज़ मचल जाता हूँ
उस घंटी को सुनने के लिए ,
जिसकी खन-खन मेरी ज़िद बन
अक्सर हवा बरी का स्वाद मुह में छोड़ जाती

हर रोज़ चहक जाता हूँ
उस खाली मैदान में खड़ा होकर,
जहाँ बल्ले की धुन पर अक्सर
गेंद और दोस्त, नाचते पाए जाते

हर रोज़ उड़ने की कोशिश करता हूँ
उन पतंगों के मेले में,
जहाँ पलंग के डंडे और बचे ऊन से
सूरज को ढकने की कोशिश की जाती

इन अरमानों के सेहर में खोकर,
यहाँ वापस लौटने से डरता हूँ
और दंभ भरे खाली बस्ते में
कुछ आशा की किरणे भरता हूँ



एक बेमानी कविता
टूटी सड़कों पर सन्नाटा चलता है
टूटे हुए तंत्र की कहानी गढ़ता है
बिना तालों की चाभियाँ
बिना डॉक्टर के अस्पताल
बिना तेल का एम्बुलेंस
बिना दवा की शीशियाँ
बिना शिक्षक के स्कूल
बिना पानी के नल
बिना फसल के हल
बिना आवाज़ के बल

जनतंत्र जब जन के बिना ही चलता है
तो केवल बेमानी कविताएं लिखता है


नींद
नींद, आज मत आना तुम
आज पलकें इतरा रहीं हैं
आज रौशनी भी धीमी है
आज सपने घूमने गए हैं
आज गाने भी चुप से हैं
नींद, आज मत आना तुम
आज प्रेम भी है और प्रेम पत्र भी
आज समय भी है और शून्य भी
आज दोस्त भी हैं और दोस्ती भी
आज कलम भी है और शब्द भी
नींद, आज मत आना तुम
आज इंसान अच्छा लग रहा है
आज लहू थोड़ा कम दिख रहा है
आज आवाज़ें भी बुलंद सी लग रहीं हैं
आज मुट्ठियाँ भी बंद सी लग रहीं हैं
नींद, आज मत आना तुम...
      अभिषेक अनिक्का
सामाजिक विकास के क्षेत्र में स्वतन्त्र कंसलटेंट के रूप में कार्यरत
साथ ही डिजिटल एवं प्रिंट पर्त्रिकाओं में फ्रीलान्स लेखनl
संपर्क 8936884181,

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