आलोचकीय :बाजार में यायावर – छोटूराम मीणा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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आलोचकीय :बाजार में यायावर – छोटूराम मीणा

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
भारतीय मानस में ‘यात्रा’ करने का आशय है - तीर्थ यात्रा पर जाना। पहले तीर्थयात्रा भी सेंत-मेंत में हो जाती थी, लेकिन आज इक्कीसवीं सदी में यह बात पुरानी पड़ चुकी है। अब तीर्थयात्रा पर जाने के लिए भी यात्रियों को मोटी रकम साथ लेकर चलनी पड़ती है। अगर यात्री ऐसा न करें तो यात्रा अधुरी छोड़ने तक की नौबत आ सकती है। आजकल तीर्थस्थलों में देव-दर्शन के लिए वीआईपी पंक्तियों का प्रचलन बढ़ रहा है। आमतौर पर तीर्थयात्रा को लेकर भारतीय जनमानस की यह सोच रही है कि हम यात्रा में जितना अधिक दुख उठाएंगे, हमें उतनी ही अधिक फल-सिध्दि होगी। संभवतः इसीलिए हमारे यहाँ तीर्थयात्रा के दौरान कम से कम साधनों के उपयोग पर बल रहता था। साधनों की कमी के कारण यात्रा में प्रायः सुख गायब रहता था। लेकिन अब स्थितियाँ पूरी तरह से बदल गई हैं। 

आज के दौर में तीर्थस्थल तक बाजार के चँगुल में आ गए हैं। चारों तरफ फैलते बाजार के जाल के कारण गरीबों की यात्राएँ सिमटती चली गई। इतना ही नहीं, अब तो बाजार के विस्तार के साथ-साथ पनपते बाजारवाद के कारण तीर्थस्थलों पर कई तरह की कुरीतियाँ पनपने लगी हैं। ऐसे में कई तीर्थस्थल बाजार की बलि चढ़ चुके हैं, कई चढ़ रहे हैं और कई इसके लिए अपने आपको तैयार करने में जुटे पड़े हैं। अब वो समय गया, जब लोग कम-से-कम साधनों में बड़ी-से-बड़ी तीर्थयात्राएँ संपन्न कर लिया करते थे और बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा करते थे कि “हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होय”। इसके विपरित आजकल मंदिर ही व्यवसाय केन्द्र बन गये है। लगभग सभी बड़े मंदिरों की अपनी दुकानें और अपने उत्पाद हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में ईश्वरीय स्थल भी अपने भक्तों को उपभोक्ता के रूप में देखने और चिह्नने लगे हैं। यहाँ भी व्यक्ति की पहचान उसकी जेब से होने लगी है। बाजार के लिए वही व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है, जो बाजारप्रदत्त सुविधाओं का उपभोग करने में समर्थ है। 
पर्यटन और यात्रा में यह अंतर है कि पर्यटन व्यवस्थित और सैर-सपाटे के लिए होता है, जबकि यात्रा आपके मानस को, आपकी अवधारणाओं को बदलने का काम करती है। यात्राएँ यात्री के दिमाग में दुनिया को देखने समझने के लिए नयी खिड़की खोलती है। पर्यटन भले ही करते आप अपनी मर्जी से हैं, लेकिन उससे आपके नजरिये में कोई बदलाव नहीं आता। इक्कसवीं सदी में पर्यटन-संस्कृति बढ़ी है, न की यात्रा-संस्कृति। यात्री की जगह पर्यटक बढ़ रहा है। पर्यटन उद्योग के लिए भले ही यह शुभ संकेत है पर यात्रा करने वाले यायावर के लिए चिंता यह चिंता का विषय है कि अब वह भी पर्यटक की श्रेणी में गिना जा रहा है। बाजार में कोई यात्री नहीं है। सब पर्यटक हैं। सब उपभोक्ता बन गये है। इंटरनेट और पर्यटन-संस्कृति के विकास के साथ-साथ होटल व्यवसाय खूब फला-फूला है। यात्रा कराने वाली तमाम कम्पनियां लाखों के विज्ञापन दे रही है और अपने ऑनलाइन व ऑफलाइन व्यवसाय से करोड़ों का मुनाफा कमा रही है। 

महान् यायावर व यात्राशास्त्र के प्रणेता राहुल सांकृत्यायन ने कभी कहा था कि “दो-चार काम और तीन-चार भाषाओं का काम चलाऊ ज्ञान यात्रा करने के लिए काफी है”, लेकिन इक्कीसवीं सदी में उनकी यह सिखवन पुरानी पड़ गई है। कहाँ तो ‘दो-तीन भाषाओं का कमा-चलाऊ ज्ञान’ और कहाँ बाजार का भयावह मकड़जाल! जैसे-जैसे यात्रा पर बाजार की शक्त्तियाँ हावी हो रही है, वैसे-वैसे यात्री के लिए यात्रा करना महंगा सौदा सिद्ध हो रहा है। और तो और यायावर को लूट, ठगी, चोरी-डकैती तक का डर ज्यादा सताने लगा है। पर्यटन की बढ़ोतरी आमतौर पर लोगों को क्षुद्र, स्वार्थी, बनावटी बल्कि बेईमान बनाती है। यही कारण है कि दूकानों में किसी भी चीज के दाम के बारे में यकीन से कहना मुश्किल होता है कि यह उसका सही दाम क्या है; और जो चीज असली बताकर दी जा रही है, वह नकली नहीं है। इस तरह के पर्यटन को बढावा मिलने के बाद, एक बात तो यह साफ हो गई कि ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’। यह मूलमंत्र जितना व्यवसाय के बारे में सही है, उतना ही पर्यटन के बारे में भी। ऐसा बिलकुल नहीं कि है कि आज के यात्री तमाम सेवाएँ और वस्तुएँ बिल्कुल मुफ्त चाहते हो; यह संभव भी नहीं है। उनके लिए परेशानी का सबब किसी सेवा या वस्तु का मूल्य देना नहीं बल्कि जबरन ठगे जाना। व्यर्थ ही ठगा जाना तो किसी को भी बुरा ही लगेगा। 

असल में समकालीन पर्यटन ने ठगी की संस्कृति को बढ़ावा दिया है, जो भारतीय संस्कृति के बिलकुल उलट है। वरिष्ठ साहित्यकार अजीत कुमार अपने यात्रावृत्त ‘यहाँ से कहीं भी’ में स्पष्ट लिखते हैं कि “सफर के साथ ‘नामे’ का गहरा जुड़ाव है। आप घर में हो तो पेट पर कपड़ा बाँध दो-एक रोज भूखे-प्यासे भी रह सकते है, पड़ोसियों से उधार ले सकते हैं, लेकिन सफर पर निकलेंगे तो राह-खर्च, पेट-पूजा, टिकने-ठहरने के लिए पास में ‘नामे’ का होना बेहद जरुरी है। उस वक्त को भूल जाइए जब लोग तन पर जोगिया चादर लपेट, हाथ में लोटा-डोर या कमंडल थाम, समूचे देश की यात्रा बिना पैसे-कोड़ी के कर आते थे। आज आप किसी दरवाजे पर ‘जै श्रीराम या बम भोलेनाथ’ गुहारेंगे तो, संभव है। आपको चोर- उचक्का समझ ‘अगला घर’ देखने का मशविरा दिया जाय। टेंट में अच्छी रकम रखे बिना आज आप यायावरी पर निकलेंगे तो बहुत करके धक्के ही खाएगें, रोटी तो मिलने से रही।” इक्कीसवीं सदी की यायावरी की सबसे बड़ी विडंबना है, जो अपने संभावित यात्रियों या यायावरों को को यह सीख देती हैं कि जब भी सफर पर निकलो, अपनी जेब भारी करके निकलों, अन्यथा घर बैठकर काल्पनिक यात्रा का लाभ लो। 

इक्कीसवीं सदी में मनुष्य की यायावरवृत्ति कम हुई है। इसका एक कारण यह है कि इस दौर में भारतीय समाज ने कृष्णनाथ के बाद कोई बड़ा यायावर या यात्री लेखक पैदा नहीं किया। उनकी भी अधिकांश यात्राएँ बीसवीं सदी की ही उपलब्धियाँ हैं। राहुल सांकृत्यायन बीसवीं सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। हमारे समय की एक बड़ी विडंबना यह भी रही कि हम अपनी नदियों को भी उस रूप में न चिह्न सके, जिसकी तमीज हमें अमृतलाल वेगड़ में सिखाई थी। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और कॉरपोरेटीकरण की सर्वनाशी आँधी में नदी-परिक्रमा करने वाला दूसरा अमृतलाल वेगड़ भी न पैदा हुआ। कभी शान से इठलाती नदियाँ या सीना चौड़ा खड़े किए पहाड़ लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच लिया करते है। अब वे अपना मूल स्वरूप खो चुके हैं। नदियों का रास्ता और पानी दोनों ही बदले जा चुके हैं। पहाड़ों के कद बौने किए जा चुके हैं। नदियों और पहाड़ों की तो छोड़िए बाजार ने तीर्थस्थलों तक को ‘टूरिस्ट प्लेस’ या ‘पिकनिक स्पॉट’ बना दिया है। इससे यह संभावना दिनोंदिन बढ़ती जा रही है कि कौन टूरिस्ट किस पर्यटक की कितनी जेब साफ करता है? सचिदानंद हीरानंद अज्ञेय के अनुसार “टूरिस्ट तो आधुनिक जीवन की जुकाम की तरह है, जो कहीं भी और किसी भी समय हो सकती है।” हमारे यहाँ के यात्रियों की यात्रा के उद्देश्य प्रायः भिन्न रहे हैं। हमारी अधिकांश यात्राएँ पूण्य-अर्जन का माध्यम होती है और उसमें हमारी कोशिश रहती है कि हम कम-से-कम धन में अधिक-से-अधिक तीर्थाटन कर सकें। इससे इतर यूरोपियन तो यात्रा करते ही पैसे खर्च करने के लिए हैं। वहाँ के विद्यार्थियों के लिए यात्रा करने का सबसे सस्ता व लोकप्रिय तरीका है ‘हिच-हाइकिंग’। इसमें यात्री बने विद्यार्थी बहुत कम पैसे लेकर सड़क किनारे खड़े हो जाते है और वहाँ से गुजरने वाले तमाम वाहनों से लिफ्ट माँगते है। लिफ्ट मिल जाए तो बढ़िया अन्यथा वे सड़क किनारे तब तक खड़े रहते हैं, जब तक कोई गाड़ीवाला रोक कर उन्हें बिठा नहीं लेता।
यात्राओं में लिफ्टनुमा संग-साथ का भी अपना मजा है। अगर आप किसी इंसान को जानना चाहते हो तो उसका सबसे आसान व सुगम तरीका है - उसके साथ कुछ कुछ दिनों तक यात्रा करना। इसके लिए जो साधन काम लें, उसमें पैदलयात्रा बेजोड़ सिद्ध होती है। पैदलयात्रा आपको बात करने का सर्वाधिक अवसर प्रदान करती है। दूसरा बेहतर विकल्प साइकिल है। साइकिल में संवाद की निरंतरता बनी रहती है। संवाद की यह प्रक्रिया ताँगा, बग्घी, बैलगाड़ी व ऊँटगाड़ी में भी बनी रहती है, लेकिन स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस या हवाईयात्रा में संवाद की यह निरंतरता टूट जाती है। आज का पर्यटक इन साधनों का व्युत्क्रम में इस्तेमाल करता है। वह हवा में उड़कर सब कुछ देख लेने और छू लेने के मिथ में जीने का आदी होता जा रहा है। महंगे साधनों को ट्रेवेल एजेंट खूब भुनाते हैं। इससे होता यह है कि पर्यटक केवल वही स्थल देख पाता है, जो ट्रेवेल एजेंट उसे दिखाता/दिखाना चाहता है और ट्रेवल कंपनी अपने मुनाफे के अनुसार रकम ऐंठ लेती है। लूट का यह व्यवसाय धार्मिक स्थलों पर खूब फैल रहा है। इससे बचने का एक उपाय तो यह है कि जहाँ तक संभव हो सके, यात्रा के दौरान पुराने साधनों का प्रयोग किया जाए। पदयात्रा को सबसे बेहतर इसलिए भी माना जाता है कि उसमें दृश्य अधिक बारीकी, विस्तार तथा गहराई से मन पर अंकित होते है। 

आज के बाजार ने धर्म को आय का मुख्य स्त्रोत बना लिया है। उसके लिए तीर्थयात्री इंसान नहीं बल्कि एक संख्या मात्र बनकर रह गया है। हरिद्वार जैसे शहरों से यह बात साफ होने लगती है कि इनकी जीविका मुख्यत धर्म के व्यवसाय से चलती है। इन शहरों ने भी अब खुद को इसी रूप में ढ़ाल लिया है। आपके पास पैसा है तो आप प्रचुर मात्रा में आध्यात्मिक आनंद ले सकते है, अन्य गरीबों के लिए तो धर्मशालाओं के बरामदों, स्टेशनों और घाटों का ही सहारा है। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत में आज भी एक चौथाई लोग कर्ज लेकर यात्रा पर जाते है। ऐसे में तीर्थस्थलों की महँगाई के अर्थशास्त्र के मर्म को समझा जाना चाहिए। तीर्थस्थलों पर मँहगाई के बारे ‘पहियों पर रात-दिन’ के लेखक महेश कटारे कहते है कि “तीर्थस्थलों पर मँहगाई का सूचकांक माँग और पूर्ति तथा मौसम पर निर्भर रहती है। तीर्थ बाजार भी बड़ा अस्थिर होता है। सड़क किनारे ही रजाई-गद्दे भी किराए पर मिलते है। यात्रा में धर्मशाला के किराये को देखकर यह लगता है कि तीर्थों में पुण्य किराए पर चलता है, जो खर्च कर सके, वह कुछ समय भोग लें।” तीर्थस्थलों की असुविधा को देखकर भारतेंदु युगीन साहित्यकार और पत्रकार बालकृष्ण भट्ट ने कभी कहा था कि “इन मंदिरों को इतना चढ़ावा तीर्थयात्रियों से मिलता है तो मंदिर के चढ़ावे में से ही कुछ रुपये खर्च कर यात्रियों के आवास की कुछ व्यवस्था की जा सकती है।” ठीक इसी तरह की ही बात आज महेश कटारे कह रहे है कि “जितनी लागत में सौ आदमियों के ठहरने की व्यवस्था वाला सितारा होटल बनता है, उससे कम लागत में हजार यात्रियों के ठहरने योग्य सुविधाजनक रैनबसेरा बन जाएगा।” मंदिरों में सोने के बने पूजा पात्रों और सामानों को देखकर गाँव के लोगों की श्रध्दा भले ही बढ़ जाए, लेकिन लेखक कहते है कि ऐसे स्थलों पर “हमारी श्रध्दा पर भी सोना चढ़ा दिया जाता है।” 

कोई समय ऐसा अवश्य रहा होगा, जब यात्रा में अमीर और गरीब का कोई भेद न रहा होगा। निश्चय ही  ऐसा समय पैदलयात्राओं का समय होगा। परिवहन के साधनों के विकास ने इस अभेद पर प्रहार किया। जो हो, एक तरफ तो तीर्थयात्रा करने वाले गरीब आदमी को हमेशा इस बात का ध्यान रखना पड़ता पड़ता है कि वह कितने पैसे दान कर सकता है? उसे माया और राम के बीच संतुलन बनाए रखने की आदत होती है। दूसरी तरफ तीर्थस्थलों पर यात्रियों को अक्सर दान के लिए उकसाया जाता है कि ‘यहाँ’ सौ रुपये देगें तो ‘वहाँ’ सौ गुना पाँएगे! पास हो तो तीर्थस्थल में लोभ न करें! ईश्वर सब की गिनती रखता है! अक्सर अधिक चढ़ावा लेने के लिए मंदिर के दलालों से यात्रियों की लड़ाई होने की बातें/खबरें सामने आती ही रहती है। नेपाल तक में धर्मशालाएँ व्यक्तिगत आय का बड़ा स्त्रोत बन चुकी है। कोलकाता जैसे शहर में गरीब यात्री को ‘साहब’ कहकर बुलाना, उनकी जेब से पैसा निकलवाने का सर्वाधिक असरदार और मनोवैज्ञानिक तरीका है। यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि फटेहाल जनता को अपना मालिक कह कर नेतालोग वोट निकलवाते है। भारत में तिरुपति जैसा मंदिर भी है। जहाँ सब कुछ मंदिर का है। पैसे से वहाँ तमाम सुविधाएँ खरीदी जा सकती है। तिरुपति, वेटिकन सिटी की तरह है, जहाँ सब कुछ पोप का है, शहर भी और चर्च भी। जिस समय में हम रह रहे हैं, वहाँ शोर में संगीत में अंतर कर पाना मुश्किल हो गया है। हमारे मंदिरों को बाजार और इलेक्ट्रॉनिक का शोर निगलता जा रहा है। मंदिरों के भीतर और बाहर, दोनों ओर कानफोड़ू संगीत हमेशा बजता रहता है। ऐसे भयावह शोर में आध्यात्मिक शांति का अनुभव कर पाना, अँधेरे में बिल्ली खोजने जैसा है। 

बाजारवादी दुनिया में दान और गान मंदिरों के पर्याय बन गये है। ‘पहियों पर रात-दिन’ के लेखक महेश कटारे के साथ घटित एक घटना बताती है कि मंदिरों में दान लेने के लिए स्थानीय गुमाश्ता क्या नहीं कर सकता है! लेखक लिखते हैं कि “रामेश्वरम् मंदिर के दलालों ने यात्री दल को पकड़ लिया और ज्यादा से ज्यादा दान के लिए मजबूर करने लगे। बिना दान के तीर्थ करता है... औरों को भी रोकता है। साला मुसलमान... नरक जाएगा। इतनी दूर पुन्न कमाने आने वालों को पाप सिखाता है।” लेखक इन्हें सही ही ‘भेड़ियों की तरह लार टपकाते धर्म के धंधेबाज’ या ‘श्रध्दा का खून चूसती जोंकों’ के रूप चिह्नते हैं। आगे के दृश्यों में वे बताते हैं कि “लक्ष्मीपुत्रों ने साँई बाबा को भी सोने-चाँदी के बीच बिठा दिया है। तीर्थों पर धार्मिक भावना को उभारकर अर्थ दोहन का कौशल सीख लिया है। तीर्थयात्रा के बीच मनुष्यों के साथ वानर भी श्रध्दालुओं से छीना-झपटी करते हैं, वह भी सीनाजोरी के साथ। धार्मिकस्थल अब एक तरह से रोजगार के साधन बनते चले जा रहे है।” परिस्थितियाँ ऐसी बना दी गई है कि आजकल यथेष्ट व्यय के साथ पंड़ा, पुजारी, धर्मशाला, होटल, बस, रिक्शा आदि भाँति-भाँति के व्यवसायिकों को संतुष्ट करके ही पूण्य पाया जा सकता है! कई मंदिरों के बाजार तो तंत्र पूजन-अर्चन सामग्री पर आधारित है। यदि कोई ईश्वरीय पराशक्ति है तो वो बाजार के घेरे में आती जा रही है। किसी भी मूर्ति या मजार के सामने या आसपास जो दृश्य सत्य है, वह है पैसा। पैसे से यात्रा, पैसे से दर्शन, पैसे के अनुपात से अर्चना, पैसे के अनुपात से आशीर्वाद।

जब ईश्वर बाजार से नहीं बच पाया तो इंसान भला कैसे बच पाता! इंसान को बाजार की ताकतवर शक्तियों से सावधान रहने की जरूरत है। बाजार से बचने के कई तरीके अपनाये जा सकते है। जैसे - जहाँ तक संभव हो - पैदल चलना, अन्यथा सार्वजनिक बस का सहारा लेना, अपना असबाब खुद उठाना, सस्ते ढ़ाबे में रहना आदि। धर्मभीरू भारतीय मानस यह मानकर चलता है कि बिना कष्ट भोगे ईश्वरीय कृपा नहीं मिलती, लेकिन आज के दौर को देखकर यह कहा जा सकता है कि ईशकृपा भी अब धन्नासेठों को ही मिलती है। ईशकृपा की प्राप्ति के लिए ये लोग मंदिर में मोटा चढ़ावा देने वाले ये धन्नासेठ मंदिर के शहर में धर्मशाला और सितारा होटलों का निर्माण भी करवाने लगे हैं। इन्हीं को देखकर बाजार ने एक नयी कहावत ईजाद की है कि ‘पैसा फेंक तमाशा देख।’ कहने को तो बाजार सबके लिए खुला है, लेकिन असल में बाजार उसी का है, जिसके पास खर्च करने के लिए पैसा है और जिसके पास पैसा है, बाजार का ईश्वर और उस ईश्वर के मूर्तिपूजक पंडे तथा धर्मशालाएँ-कम-होटल की सुविधाएँ भी उसी के लिए है। गरीबों के लिए ‘संतोषम् परम् सुखम्’ का नारा है ही! असल में यात्रा पर जाने से पहले हमें यात्रास्थल के बारे में सभी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जान/पढ़/एकत्रित कर लेनी चाहिए। स्थान-विशेष के जानकारों या वहाँ गए लोगों के अनुभव इसमें खासे मददगार सिद्ध होते हैं। इसके अलावा एक तरीका यह भी है कि जिन लोगों के पास इंटरनेटीय संजाल की सुविधा उपलब्ध हैं, वे यह पता करके अपनी यात्राएँ प्रबंधित कर सकते हैं कि किन-से मौसम में, कहाँ जाये कि भीड़ से बच सकें। इसी तरह यात्रास्थलों का चुनाव के दौरान सार्वजनिक वाहनों की उपलब्धता भी सुनिश्चित की जा सकती है। इस तरह हमें अधिकाधिक सुविधा के जाल में न फंसकर उपलब्ध सुविधाओं और साधनों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए। 

छोटूराम मीणा
शोधार्थी,दिल्ली विश्वविद्यालय
 संपर्क:meenachhoturam@gmail.com

6 टिप्पणियाँ

  1. अच्छा लेख। मुख्यतः तीर्थ यात्रा के बदलते रूप पर केंद्रित।

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  2. बढ़ियाँ लेख। यात्रा और पर्यटन का अंतर सटीक तरीके से किया गया है। इसीलिए ह्वेनसांग, इब्नबतुता, राहुल सांकृत्यायन को यात्री कहा जाता है। इन्होंने अपनी यात्रा में तमाम् कष्टों को उठाते हुए विश्व को अनुपम भेंट दिया। समकालीन अर्थो में पर्यटन से यह संभव नहीं होता।

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  3. बहुत सुन्दर लेख है

    भगवान की मौत तो उसी दिन हो गई थी
    जब मेरे मन मे ये ख़याल आया था
    की भगवान की माँ कौन है
    भगवान का बाप कौन है '

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  4. Good Article on evolving market forces at religious places which are destroying the holistic objective of market at such places.

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