शोध आलेख : कृषि विकास में जनसंचार माध्यमों का योगदान / बनवारी लाल यादव

शोध आलेख : कृषि विकास में जनसंचार माध्यमों का योगदान

 - बनवारी लाल यादव


शोध सार : विश्व की छठी बडी अर्थव्यवस्था भारत की आबादी का ज्यादातर हिस्सा आज भी कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में कार्यरत है। लेकिन बावजूद इसके स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग पंद्रह वर्षों तक भारत खाद्यान्न मोर्चे पर विफल होता रहा। बिगड़े मौसम, कृषि शोध के अल्प ज्ञान और प्राकृतिक बंधनों के कारण देश में भीषण अकाल की स्थिति तक पैदा हुई। मगर छठे दशक में भारतीय कृषि का कायाकल्प हुआ, और हमने हरित क्रांति को साकार कर अन्न आत्मनिर्भरता के युग में कदम रखा। इसके पीछे यों तो कई कारण गिनाए जा सकते हैं। मसलन बेहतर बीज, सिंचाई सुविधाएं, नयी कृषि प्रौद्योगिकियां आदि। मगर बात जहां आकर टिकती है, वह यह है कि आखिर यह कृषि ज्ञान प्रयोगशाला की चारदीवारी से निकल सही समय पर, सही भाषा लिए इसके उपयोगकर्ता किसानों तक पहुंचा कैसे? कृषि संबंधी ज्ञान को प्रयोगशाला की चारदीवारी से निकाल किसानों तक पहुंचाने में जनसंचार माध्यमों की अहम भूमिका रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जहां कृषि संबंधी पत्र-पत्रिकाओं ने किसानों में चेतना का संचार किया वहीं बाद में रेडियो ने भी इसमें अहम जिम्मेदारी निभायी। कालांतर में टेलीविजन के जरिए प्रसारित कृषि कार्यक्रमों ने इस विद्या में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया। वर्तमान में कृषि तकनीक और नवाचार को किसानों तक पहुंचाने में जनसंचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका है, शायद यही कारण है कि अब कृषि पत्रकारिता जैसे व्यावसायिक कोर्स भी नामी गिरामी संस्थानों द्वारा चलाए जाने लगे हैं।

 

बीज शब्द : कृषि पत्रकारिता,  कृषि विकास, खेती, कृषि दर्शन, जनसंचार, कृषक जगत।

 

मूल आलेख : कृषक चेतना में जनसंचार माध्यमों का कितना योगदान रहा है ये जानने के लिए हमें पारंपरिक रूप से खेती कर रहे किसान के आधुनिक किसान बनने के पीछे की कहानी को समझना होगा। आजादी के समय समाचार पत्रों ने जन चेतना में अहम भूमिका निभाई थी, इसी तरह हरित क्रांति के दौर में समाचार पत्रों और रेडियो ने प्रयोगशाला और खेत की दूरी को कम करने में महत्वपूर्ण किरदार निभाया। 1959 में भारत में टेलीविजन प्रसारण के साथ ही टेलीविजन के जरिए भी किसानों की चेतना को जागृत करने वाले कार्यक्रम प्रसारित किए जाने लगे। इस तरह कृषक चेतना में संचार के विभिन्न माध्यमों ने समय-समय पर असरदार तरीके से अपना कार्य किया है और परंपरागत किसान के आधुनिक किसान बनने में एक अहम किरदार निभाया है।

कृषि विकास में जनसंचार माध्यमों के योगदान को विस्तार से समझने के लिए हम इसे तीन भागों में बांट सकते हैं।

1.      प्रिंट मीडिया

2.      रेडियो

3.      टेलीविजन।

 

1 प्रिंट मीडिया और कृषि

कृषि की नई तकनीकी और विकास संबंधी समाचार किसानों तक पहुंचाने के लिए कृषि पत्र-पत्रिकाओं प्रमुख साधन होते हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं से किसान खेती से जुड़ी आधुनिक जानकारियां और नई कृषि तकनीक के बारे में जानकारी ले पाते हैं।  खेती संबंधी पत्र-पत्रिकाएं कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के साथ ही निजी स्तर पर भी निकाली जा रही है। भारत में पहला कृषि पत्र कृषि सुधार1918 में आगरा से प्रकाशित हुआ। 1914 में कृषि नामक पत्र निकला। इसके बाद 1934- 35 में बंगाल में कृषि संबंधी पत्र पत्रिकाएं छपी। 

सन 1966 में कृषि क्रांति का आरंभ होते ही देश भर में कृषि की अनेक सरकारी और निजी क्षेत्र की पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई। विस्तार सेवा निदेशालय और भारतीय कृषि अऩुसंधान परिषद ने कृषि से संबंधित अऩेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया है। ये है- धरनी’, ‘गोसंवर्द्धन’, ‘उन्नत खेती’, ‘खेती’, ‘पशुपालन’, ‘कृषि चयनिका1

भारत में हरित क्रांति को सफल बनाने में भी कृषि पत्रकारिता की अहम भूमिका रही थी। कृषि पत्रकारिता के महत्व को देखते हुए ही विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों ने कृषि से संबंधित पत्रिकाएं प्रकाशित करनी शुरू की थी। उदाहरण के लिए हिसार कृषि विश्वविद्यालय ने हरियाणा खेती 1969 में शुरू की थी। जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय पंतनगर ने किसान भारती शुरू की थी। पत्रिकाओं के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों ने भी कृषि संबंधित लेख छापना शुरू किए। राजस्थान पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चंद कुलिश के निर्देशन में अखबार जब तक निकलता रहा, तब तक ना सिर्फ खेती-किसानी, बल्कि राज्य पृष्ठ पर हर दिन किसी ना किसी गांव की वहां से एक चिट्ठी जरूर छपती थी। इसी तरह हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र रहे वाराणसी से छपने वाले आजऔर इंदौर से प्रकाशित नई दुनियामें खेती-किसानी पर अलग से जानकारियां जरूर दी जाती थीं। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी पत्रकारिता भी पुराने दिनों की बात हो गई। हिंदी में अपनी तरह के देसज प्रयोगों का दावा करने वाले बिहार और झारखंड से प्रकाशित अखबार प्रभातखबर ने पंचायत खबरनाम से साप्ताहिक निकाला। लेकिन वह भी लंबे समय तक नहीं चल पाया3

 

               दिल्ली से प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स में ग्रामीण रिपोर्टिंग से संबंधित एक अग्रणी पाक्षिक कॉलम हमारा गाँव- छतेरा”  काफी चर्चित रहा। दिल्ली से 25 मील की दूरी पर हरियाणा में स्थित इस गांव की बहुत चर्चा हुई। फरवरी 1969 से 1975 तक लगभग सात वर्षों तक चले हमारा गाँव- छतेरा”  कॉलम ने देश में खेती और ग्रामीण विकास के लिए एक खिड़की खोली। इस मौके को कुछ लोगों ने छोड़ दिया लेकिन कईयों के बीच एक समर्पित पाठक विकसित किया और युवा पत्रकारों की एक नस्ल का उत्पादन किया जो इस अनुभव से गहराई से प्रभावित थे। इसी तरह केरल के समाचार पत्रों ने भी ग्रामीण विकास की रिपोर्टिंग में अग्रणी भूमिका निभाई। मलयाला मनोरमा और मातृभूमि, ये दोनों शायद भारत के पहले दैनिक समाचार पत्र थे जिन्होंने देश में कृषि सुविधाओं को शुरू करने के लिए, हर सप्ताह एक पृष्ठ विशेष रूप से छापना शुरू किया2। भारत में व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों में से एक,  द हिंदू ने ग्रामीण और कृषि पत्रकारिता के  क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और गांवों की रिपोर्टिंग के लिए विशेष कृषि संवाददाताओं की नियुक्ति की। अखबार ने विभिन्न राज्यों में चल रहे कृषि संबंधित प्रोजेक्ट के बारे में खबरों के जरिए सूचना दी। साथ ही किसानों के लिए नोट-बुक नाम से एक नियमित कॉलम शुरू किया, इस कॉलम में नवीनतम शोध, निष्कर्ष और विभिन्न क्षेत्रों में  नवाचार में उपयोग के लिए उनकी गुंजाइश कृषि इनपुट, उद्योग इत्यादि की जानकारी दी जाने लगी। यह कॉलम किसान समुदाय को कृषि नवाचारों के बारे में जानकारी फैलाने में बेहद सफल साबित हुआ। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया फैलोशिप मिलने के बाद प्रसिद्ध विकास पत्रकार पी. साईनाथ ने पांच राज्यों के दस सबसे गरीब जिलों का दौरा करके  भारत में दूरस्थ और दूर-दूर की भूमि में रहने वाले लोगों की वास्तविक स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की। उन्होंने ग्रामीण भारत की स्थिति और उनकी समस्याओं से रूबरू होने के लिए देश के सबसे गरीब राज्यों में 16 अलग अलग आवागमन के साधनों के जरिए 100,000 किलोमीटर की यात्रा की थी। इनमें 5,000 किलोमीटर वे पैदल चले थे। इस 18 महीने के दौरे में उन्होंने 84 लेख लिखे। इन्हीं लेखों पर आधारित उनकी किताब एवरीबडी लव्ज अ गुड ड्रॉट छपी। पेंग्विन की यह ऑल टाइम बेस्टसेलर है। किताब से मिली रॉयल्टी के जरिए वे नौजवान ग्रामीण पत्रकारों को पुरस्कार में बड़ी राशि देते हैं।

 

कृषि क्षेत्र के नये आविष्कारों और खेती तथा पशुपालन के नये तरीकों को आम लोगों विशेषकर किसानों तक पहुंचाने वाली खेती पत्रिका के प्रकाशन के 2018 में 70 वर्ष पूरे हो गये। किसानों, पशुपालकों तथा अन्य संबंद्ध कार्यकलापों से जुड़ी आबादी तक उनकी भाषा में कृषि अनुसंधान की उपलब्धियों को पहुंचाने के लिये भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने मई 1948 में 'खेती' का पहला अंक प्रकाशित किया था। उस समय तक परिषद अंग्रेजी पत्रिका 'इंडियन फार्मिंग का प्रकाशन कर रही थी। सत्तर वर्ष पूरे होने के अवसर पर खेती के ताजा अंक (2018) में पत्रिका के मई 1948 में प्रकाशित प्रवेशांक को मौलिक रूप से समाहित किया गया है।


"कृषि विभाग के लोग खेतीपशुपालन और तत्संबंधी दूसरे विषयों पर बहुत खोज करते रहते हैं। इन खोजों के द्वारा बहुत लाभदायक अविष्कार होते रहते हैंजो समय-समय पर प्रकाशित होते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से एक पत्र 'इंडियन फार्मिंगके नाम से प्रकाशित होता है। इसमें कृषि और पशुपालन संबंधी लेख छपा करते हैं। पर देखा गया है कि यह पत्र उन कृषकों तक नहीं पहुंच पाता जो अंग्रेजी नहीं जानते और यह सत्य है कि ऐसे कृषकों की संख्या बहुत ज्यादा है। इसीलिए यह निश्चय किया गया है कि इस पत्र का हिंदी संस्करण भी प्रकाशित हुआ करेगा। इस हिंदी संस्करण द्वारा नए-नए तरीके और सभी तरह की बाते कृषकों तक आसानी से पहुंचायी जा सकेगी। आशा की जाती है कि इनसे लाभ उठाकर कृषक पैदावार बढा सकेंगे और अपने देश का भला कर सकेंगे। हमारे देश में कृषि की पैदावार दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम है। जिस तरह हो सकें इसे बढाना चाहिए। नए-नए तरीकें और नए नए साधन जिनकों काम में लाकर पैदावार बढ़ाई जा सकती हैइस पत्र द्वारा बताए जाएंगे। मैं इसका स्वागत करता हूं।" -राजेन्द्र प्रसाद


देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने प्रवेशांक को भेजे अपने संदेश में कहा था कि इस पत्रिका के द्वारा नये-नये आविष्कार, खेती और पशुपालन संबंधी नूतन तरीके और सभी तरह की बातें कृषकों तक आसानी से पहुंचायी जा सकेंगी। आशा है कि इससे लाभ उठाकर कृषक पैदावार बढ़ा सकेंगे और अपना तथा देश का भला कर सकेंगे। हमारे देश में कृषि की पैदावार अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम है, जिस तरह से भी हो सके इसे बढ़ाया जाना चाहिये। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी में इस पत्रिका के प्रकाशन का स्वागत करते हुए कहा था कि वैज्ञानिक और किसान के बीच, नये अविष्कार तथा खेतों में उनके प्रयोग के बीच चिरकाल से भयंकर भेद चला आ रहा है। उन्होंने विश्वास जताया था कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद प्रांतीय तथा रियासती सरकारों की सहायता से देश के प्रत्येक ग्राम में अपने प्रयोगों के परिणाम पहुंचाने का प्रयास करेगी। उस समय सरकार ने खेती पत्रिका के प्रकाशन को कितना महत्व दिया था इसका आभास इसके लिये गठित प्रकाशन समिति से पता चलता है। इस समिति में केंद्र सरकार के कृषि विकास कमिश्नर, कृषि कमिश्नर, पशुपालन कमिश्नर, वनस्पति सलाहकार, प्रमुख कृषि और पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों के अध्यक्षों को शामिल किया गया था4


"मैं 'इंडियन फार्मिंगके हिंदी संस्करण के प्रकाशन का स्वागत करता हूं। वैज्ञानिक और किसान के बीच नए अविष्कार तथा खेतों में उनके प्रयोग के बीच चिरकाल से एक भयंकर भेद चला आ रहा है। मुझे विश्वास है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद प्रांतीय तथा रियासती सरकारों की सहायता से देश के प्रत्येक ग्राम में अपने प्रयोगों के परिणाम पहुंचाने का यत्न करेगी। इस समय जबकि हमे अपने साधनों द्वारा इतना भोजन प्राप्त करना चाहिए जितना अधिक से अधिक संभव है यह नितांत आवश्यक है कि जनता तक आवश्यक अनुसंधान पहुंच सकें। ग्रामीण जनता की आर्थिक उन्नत्ति तथा संपन्नता को निश्चित बनाने के लिए प्रत्येक संभव यत्न करना सरकार की सर्वश्रेष्ठ जिम्मेवारी है। इसलिए मैं आशा करता हूं कि हमरे कृषिसेवी लोग 'खेतीकी कदर करेंगे और उसे अपने कठिन जीवन में अच्छे और विश्वसनीय साथी के रूप में अपनाएंगे।" -जवाहर लाल नेहरू


दैनिक समाचार पत्रों में भी कृषि के लिए जगह आरक्षित रखनी चाहिए। कृषि पत्रकारिता में एक समस्या यह आती है कि पत्रकारों को कृषि के बारे में सामान्य जानकारी भी नहीं होती है। इसके लिए पत्रकारों को ग्रामीण परिवेश और कृषि के विभिन्न आयामों की जानकारी होनी भी जरूरी है। इसके लिए चीन के पीजेंट डेली समाचार पत्र से सबक लिया जा सकता है। इस समाचार पत्र के नियमों के अनुसार प्रत्येक रिपोर्टर और संपादक को हर साल कम से कम दो महीने गांवों में बिताना जरूरी है ताकि वे किसानों की समस्याओं और उनकी उम्मीदों से रूबरू हो सके। हमारे देश में कुछ ही अखबार ऐसे हैं जो खेती पर आधारित हैं। महाराष्ट्र में सकाल ग्रुप का अखबार एग्रो वन निकलता है। आम तौर पर एग्रो वन के संवाददाता और संपादक कृषि स्नातक होते हैं। विदर्भ से कृषकोन्नति पेपर निकलता है। नीलेश मिसरा भी गांव कनेक्शन के नाम से एक ग्रामीण अखबार निकालते हैं। कृषि से संबंधित पत्रिकाओं में कृषि संबंधी साहित्य के अतिरिक्त किसानों की रूचि की अन्य जानकारी भी होनी चाहिए।

 

2 रेडियो और कृषि विकास

अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो एक लोकप्रिय जनसंचार माध्यम है जब आप ऐसे लोगों से मिलना चाहते हो जो लिखना पढ़ना नहीं जानते, या जो लोग सुदूरवर्ती गांव में रहते हैं, और आप जब इन लोगों से तेजी से संम्पर्क करना चाहते हैं तो रेडियो सर्वोत्तम विकल्प है। यह एक व्यक्तिगत माध्यम है जिसे निजी रूप में श्रोता द्वारा स्वयं या उसके पारिवारिक सदस्यों के साथ ग्रहण किया जाता है। रेडियो वार्ता युक्त शब्द के रूप में सूचना संचार का साधन है।  1965 में कृषि क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय के सहयोग से देश के 10 आकाशवाणी केन्द्रों में फार्म एण्ड होम यूनिट की स्थापना की। प्रथम चरण में फार्म एण्ड होम यूनिट्स जालंधर, लखनऊ, पटना, कटक, रामपुर, पुणे, हैदराबाद, बैंगलोर, तिरूची तथा दिल्ली के आकाशवाणी केन्द्रों में खोली गयी। इन यूनिटों के अन्तर्गत कृषि सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करके आवश्यकतानुसार गांव के लोगों विशेष रूप से किसानों के लिए कार्यक्रमों की विषय वस्तु निर्धारित करके, कार्यक्रमों का निर्माण करने के पश्चात उन्हें सम्बन्धित आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित किया गया। कालांतर में आकाशवाणी के सभी स्‍टेशनों से ग्रामीण श्रोताओं पर केन्द्रित खेत और घरेलू कार्यक्रम प्रसारित किए जाने लगे। वास्‍तव में खेती करने वाले समुदाय की मौसम संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए हर दिन उन्‍हें जानकारी देने की दिशा में विशेष कार्यक्रम तैयार किए गए हैं। कृषि उत्‍पादन के लिए आधुनिकतम प्रौद्योगिकी और सूचना के प्रसारण का कार्य इसके खेत और घरेलू कार्यक्रम का निरंतर हिस्‍सा बना हुआ है। इन कार्यक्रमों से न केवल खेती के बारे में जानकारी मिलती है बल्कि इससे किसानों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के आर्थिक उपायों के बारे में जागरूकता भी लाई जाती है।

 

रेडियो चावल : जनसंचार माध्यमों की सफलता का उदाहरण

 दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में तनाजुर जिले में रेडियो चावलदक्षिण भारत में कृषि हस्तक्षेप का एक प्रसिद्ध उदाहरण है। एक सक्रिय भूमिका निभाते हुए  रेडियो ने ये साबित कर दिया कि वह किस तरह नई तकनीकों के प्रचार और किसानों द्वारा अपनाने में काफी मददगार साबित हो सकता है। जमीनी स्तर पर काम करने वाली और हरित क्रांति के उद्देश्यों की प्राप्ति में महत्वपूर्ण संबंध बनाने वाली अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर, रेडियो प्रसारण प्रारूप सामाजिक वास्तविकता और अनपेक्षित पात्रों से विकसित हुए जिन्होंने श्रोताओं आंदोलित किया, आकाशवाणी तनाजुर के प्रभावी प्रचार के चलते धान की इस किस्म को  'रेडियो चावल' कहा जाता है। इस सफलता की कहानी की पृष्ठभूमि यह थी कि तिरुचिरापल्ली के पास अदुथराई में कृषि अनुसंधान स्टेशन ने ADT 27 नामक एक नई किस्म का धान का आविष्कार किया, जिसने अन्य पारंपरिक किस्मों के माध्यम से प्राप्त होने वाले 20 बैग प्रति एकड़ के मुकाबले 40 बैग प्रति एकड़ का उत्पादन दिया। रेडियो कार्यक्रमों ने धान की इस किस्म को अपनाने की वकालत की और कृषि विस्तार कार्यकर्ताओं ने किसानों को इसे अपनाने के विभिन्न चरणों में नव विकसित किस्म के बारे में समझाने और रेडियो द्वारा उत्प्रेरित करने में बहुत मदद की5। किसानों ने इस फसल की पहचान "रेडियो धान" (रेडियो नेल) के रूप में की और बाद में ADT 27 सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए रेडियो नेल या रेडियो धान बन गया।

 

3 टेलीविजन और कृषि विकास

दूरदर्शन कृषि सम्बन्धी जानकारी प्रदान करने का एक सशक्त माध्यम है। दूरदर्शन के दृश्य और श्रव्य प्रभाव की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिससे अशिक्षित व्यक्ति भी दिए गये संदेश को भली-भांति समझ सकते हैं। वास्तव में यह शिक्षितों से अधिक अशिक्षितों के लिए एक वरदान की तरह है। किन्तु  ग्रामीण लोगों के लिए दूरदर्शन के अन्य कार्यक्रमों का अभी तक सम्यक विषलेषण करना शेष रह गया है, कृषक महिलाओं पर बहुत कम अध्ययन हुए हैं। विश्व में भारत पहला देश है जहां सुदूर गांवों के लिए सेटेलाइट द्वारा सीधा प्रसारण हो रहा है। सेटेलाइट अनुदेशी दूरदर्शन प्रयोग (SITE) परियोजना वर्ष 1975-76 के दौरान एक वर्ष तक बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के पिछड़े जिलों में चलाई गयी थी, चूंकि मीडिया तक गरीब लोगों की पहुंच नहीं थी, इसलिए सामुदायिक रूप से श्रव्य/दृष्य साधनों की व्यवस्था की गयी6। पहली बार 1965 में दूरदर्शन का जब नियमित प्रसारण शुरू हुआ तो खेती-किसानी पर भी कार्यक्रम बनाने का सोचा गया। 1975 में कृत्रिम उपग्रह की स्थापना के साथ ही भारत में दूरदर्शन विस्तार में नया अध्याय जुड़ा। इस वर्ष  दिल्ली केन्द्र की देखरेख में उपग्रह प्रसारण एकककी स्थापना हुई जिसकी सहायता से एक बड़े क्षेत्र में न केवल सामान्य कार्यक्रम बल्कि कृषि आधारित कार्यक्रमों को भी प्रसारित किया गया। इसके बाद वर्ष 1982 में जब एशियाई खेलों की शुरुआत भारत में हुई तो दूरदर्शन प्रसारण को फिर विस्तार मिला7

 

साल 1983 में भारतीय उपग्रह इनसेट-1 बी को अंतरिक्ष में स्थापित किए जाने के बाद 70 फीसद जनता तक दूरदर्शन की पहुंच बढ़ी तो खेती-किसानी के कार्यक्रमों पर भी गंभीरता से सोचा जाने लगा। दुर्भाग्य यह है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कथन सब कुछ इंतजार कर सकता है मगर कृषि नहींके बावजूद खेती-किसानी पर खास ध्यान नहीं दिया गया। अलबत्ता 1966 में दूरदर्शन में कृषि कार्यक्रमों को खास स्थान देते हुए कृषि सेवा की शुरूआत की गई। इसके सेवा के अंतर्गत 26 जनवारी 1967 को कृषि दर्शननामक कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। विधिवत कार्यक्रम दो फरवरी से प्रसारित होना शुरू हुआ, तब यह कार्यक्रम मात्र दस मिनट का होता था। देखते ही देखते इसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी और पहले सप्ताह में तीन दिन, फिर चार दिन और छह दिन पर बाद में पांच दिन के लिए इसका प्रसारण शुरू किया गया। तब से लेकर खेती-किसानी का यह कार्यक्रम कृषि दर्शन लगातार स्थानीय केन्द्रों से दूरदर्शन द्वारा स्थानीय भाषा में प्रसारित हो रहा है8वर्तमान दौर में अलग-अलग टेलिविजन चैनल्स पर कृषि से संबंधित विभिन्न कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं। दूरदर्शन पर प्रसारित कृषि दर्शनऔर चौपाल कार्यक्रम इनमें सबसे लोकप्रिय रहे हैं। यह कार्यक्रम दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले सबसे पुराने कार्यक्रमों में से है। कृषि दर्शन कार्यक्रम का ध्येय किसानों तक कृषि-सम्बन्धी जानकारी पहुँचाना है। इसके साथ ही चौपाल कार्यक्रम जो ग्रामीण जिंदगी पर फोकस रहता है, इसमें भी किसानों की चेतना को लेकर सूचनापरक कार्यक्रम दिखाए जाते हैं।

 

संदर्भ:

1. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/92590/9/09_chapter-3.pdf

2. महिपाल, कृषि पत्रकारिता के आयाम, जनसत्ता, नई दिल्ली, 5 जून 2016

3. उमेश चतुर्वेदी, कृषि पत्रकारिता में नई क्रांति, सोपान स्टेप, नवबंर 2016; पृ 20

4 https://m.dailyhunt.in/-

कुजूर, जी और झा  एम एन, (2009). कृषि विस्तार में मीडिया का   सहयोग: आकाशवाणी की सफलता की कहानियां: महानिदेश,आकाशवाणी,पृ 6

6 http://www.manage.gov.in-retrieved on 28/12/2018

7  ddindia.gov.in/Business/.../4%20-%20Annexure.pdf

कुलदीप शर्मा, डी डी बंसवाल, ग्रामीण विकास की धुरी इलेक्ट्रॉनिक मीडया    योजना, जुलाई 2013 पेज संख्या 53-54

 

बनवारी लाल यादव

शोधार्थीपत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।

banwar7@gmail.com, 998270467

 

शोध निदेशक-  डॉ राजन महान



अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

1 टिप्पणियाँ

  1. कृषि के क्षेत्र में जनसंचार की भूमिका के महत्व को प्रदर्शित करता यह आलेख कृषि के विकास में जनसंचार के महत्व को बखूबी दर्शाता है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने