'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास में भाषाई विनोदियत
-
रोहित
जैन एवं डॉ. सीमा चंद्रन
“भाषा के विकास के क्रम में कविता की
भाषा निरंतर गद्य की भाषा होती जाती है।”
-अज्ञेय, दूसरा सप्तक
"मैं जो हूँ वह तो
हूँ। जो होना चाहता हूँ वह मैं अपनी रचना में होता हूँ।”
-विनोद कुमार शुक्ल, पाखी के वक्तव्य में
हम सभी के
पसंदीदा कवि कथाकार विनोद कुमार शुक्ल अपने भाषा प्रयोग के नये सृजनात्मक रूप और नवीन
संवेदनात्मक समझ को लेकर सदैव अनन्य या विशिष्ट बने रहते है। प्रेम, परिवार और प्रकृति जैसे
तत्वों को
(ही) विनोद कुमार शुक्ल अपनी
नवीन संवेदना की
'अनूठी
कहन'
द्वारा
प्रज्ज्वलित कर उन्हें नए सरोकारों के साथ जोड़कर हमारे लिए प्रस्तुत करते है। उनके
शुरूआती तीनों उपन्यास.jpg)
हिंदी कथा-साहित्य परंपरा के आठवें
दशक के कथाकार विनोद कुमार शुक्ल ने हिंदी कथा जगत को भाषा (प्रयोग) की सृजनात्मकता के स्तर
पर नवीन आयाम दिया है। समकालीन हिंदी कथाकरों में विनोद कुमार शुक्ल एक प्रतिष्ठित
नाम है। मात्रा की दृष्टि से अभी तक उनके आधा दर्जन उपन्यास और लगभग तीन कहानी संग्रहों
के अलावा,
कविता संग्रह
प्रकाशित हुए हैं। उनका पाठक इस बात से भली भांति परिचित हैं कि विनोद कुमार शुक्ल
का लेखन किसी
'वाद' के प्रति प्रतिबद्ध न
होकर,
निरपेक्ष
भाव द्वारा जीवन की बहुआयामी सहज संवेदनाओं से वृहत्तर रूप से संबद्ध है। विनोद कुमार
शुक्ल पहले पहल अपनी भाषा की विशिष्टता को लेकर विवादित रहे परंतु उनके असाधारण कथा
भाषा के प्रयोगों ने कथा शैली को विकसित ही किया है। नवलेखन के दौर में भारतीय समाज
की प्रकृति में तीव्र व व्यापक परिवर्तन हुए जिसके कारण कथा साहित्य की दुनिया में
भी तेज़ी से बदलाव आया। उपभोक्तावादी संस्कृति देखते ही देखते मीडिया पर सवार होकर
देशभर में फैल गयी। इन सारे परिवर्तनों में सामाजिक संरचना जटिल होती गयी और कथा साहित्य
के समक्ष इस जटिल एवं विडंबनाग्रस्त यथार्थ को प्रस्तुत करने की चुनौती खड़ी हो गयी।
हिंदी कथा साहित्य ने इन सभी परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में समाज के जीवंत चित्र प्रस्तुत
करने के लिए कथ्य व रूप दोनों स्तरों पर नए रचनात्मक प्रयोग किए। ऐसे ही नवीन प्रयोगों
में विनोद कुमार शुक्ल यूटोपिया रचते नज़र आते है।
विनोद कुमार शुक्ल अपने कथा–साहित्य में निम्न मध्य वर्ग के चित्रण के साथ पर्यावरण के प्रति एक विशेष लगाव प्रदर्शित करते आए है। उनका साहित्य संसार यथार्थ के समानांतर एक स्वप्निल दुनिया का साहित्य है; जिसे वैकल्पिक संसार की खोज की तरह देखा गया है। जिसमें सरलता एवं सहजता बतौर मूल्य के रूप में शामिल है अर्थात् अपनी भाषा प्रयोग की सृजनात्मकता को वह अपने साहित्य में बिना किसी अतिरेक भाव के, सहजता-सरलता के साथ अपनाते है। अपने एक साक्षात्कार में वे अपनी इसी सहजता को बताते हुए कहते है कि, "मेरे शब्द ऐसे ही हैं, जैसे सड़क किनारे के जंगली पेड़, घर के अंदर जो बेल-बूटे अपने-आप उग आते हैं, मेरे शब्द ऐसे ही हैं, जैसे सड़क किनारे के पेड़ के नीचे खड़े होकर धूप में छाया का सुख ले लिया या फिर पानी लेकर अपनी प्यास बुझा ली।"1 इस प्रकार विनोद कुमार शुक्ल अपने कहने के अंदाज़ में इतने अधिक नए है कि वे किसी भी परिचित शैली में नहीं समा पाते। इसी कारण उन्हें अपनी रचनाओं में अपनी तरह की विशिष्ट भाषा प्रयोग हेतु जाना जाता है। विनोद कुमार शुक्ल के समकालीन कवि नरेश सक्सेना का मानना है कि, "शिल्प और कल्पनाशीलता की ताजगी से उन्होंने रूढ़िग्रस्त भाषा को नया और अभूतपूर्व शुभ संस्कार दिया है।"2
आम मध्यवर्गीय परिवार के घरेलू प्रेमाख्यान, उनके लोक राग और सुख-दुख को चित्रित करने वाले उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' का संपूर्ण हिंदी कथा साहित्य परंपरा में अपना एक खास महत्व है। हालांकि यह उपन्यास एक न सुनी जा सकने वाली पदचाप की तरह हिंदी कथा साहित्य में प्रवेश करता है और कुछ ही समय में अपने खास मिज़ाज और आत्मीय सहजता के माध्यम से न केवल हिंदी कथा साहित्य में वरन संपूर्ण कथा साहित्य परंपरा में एक मुहावरे को स्थापित भी करता है। हिंदी में यह अपने ढंग का विलक्षण उपन्यास है और यहां प्रयुक्त गद्य के आकर्षण में पाठक बंधे रह जाते हैं। यह उपन्यास एक विवाहित दंपति रघुवर प्रसाद और सोनसी की प्रेम कथा है। इस प्रेम कथा में कोई बड़ी घटना या घटनाओं की बहुलता नहीं है बल्कि रोजमर्रा का जीवन है, परंतु रोजमर्रा के इस जीवन में पल रहे पति-पत्नी के प्रेम में इतना रस और इतनी गरमाहट है कि कई प्रेम कहानियाँ फीकी लगने लगती है। संसार की ज्यादातर प्रेम कहानियाँ अविवाहितों के प्रेम पर है और उसमें वर्णित प्रेम लोकाचार के विरुद्ध रहा है। विवाहितों के प्रेम को प्रेम की कोटि में माना नहीं गया क्योंकि यह लोकाचार की लक्ष्मण रेखा के भीतर रहा। परंतु विनोद कुमार शुक्ल ने हिंदी में कम से कम इस उपन्यास के माध्यम से यह पहली बार दिखाया है कि वैवाहिक जीवन का घरेलू प्रेम भी इतना उत्कृष्ट और जादू से भरा हो सकता है। संपूर्ण कथा में शब्दों के विलक्षणीय प्रयोग और उनकी (शब्दों) अर्थात्मक लय से पाठक अपने हिसाब से जुड़ता चला जाता है। बातों-ही-बातों में पात्रों के मध्य आदान-प्रदान होते विचारों का भी एक पूरा सिलसिला बनता हुआ कथा में दिखाई देता है। अपने समय की विभिन्न समस्याओं को लेखक ने अपने गल्प के साथ जिस बारीक ढंग से पिरोया है उससे कथागत वैशिष्ट्य उभर कर दिखता है। विनोद कुमार शुक्ल का लेखन एक संजीदा पाठक की मांग करता है; चूंकि विनोद कुमार शुक्ल के यहां कथा अत्यंत परतदार रूप में है तथा उन कथा परतों में अर्थ को अंतर्निहित करने के लिए उन्होंने जिस भाषा को साधन के रूप में अपनाया है वही विनोद कुमार शुक्ल की कथा भाषा है। "भाषा की सृजनात्मकता को केंद्र में रखकर आधुनिक रचनाकार की सृजनात्मक दृष्टि की व्याख्या करना अपने आप में उपयोगी और महत्वपूर्ण है।"3 विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास पर एक ठहरी हुई दृष्टि से देखने पर, उनकी भाषा के विविध रूपों को बड़ी सहजता से देखा व समोया जा सकता है।
उपन्यास में आकांक्षा की भाषा का प्रयोग वृहद स्तर पर दिखाई पड़ता है। जो उपन्यास के स्तर पर नवीन प्रयोग है। आकांक्षा की भाषा से आशय है कि हम वही देखते है; जो देखना चाहते है, वही सुनते है; जो सुनना चाहते है। ऐसे सच का बयान करने के कारण उपन्यास की भाषा अद्भुत बन पड़ी है। विष्णु खरे आकांक्षा की भाषा को व्याख्यायित करते हुए उपन्यास के अनुकथन में लिखते है कि, "उपन्यास में एक अद्भुत भाषा वह है जिसमें बोलने वाला और सुनने वाला बारी-बारी कहते कुछ हैं और सुनते कुछ और हैं और यह एक और ही अर्थबाहुल्य स्निग्धता को जन्म देता है।"4 उपन्यास में रघुवर प्रसाद, सोनसी और बूढ़ी अम्मा के प्रसंग देखते बनते हैं:–
पत्नी ने पूछा, "बस स्टैंड से रिक्शे
में आए थे
?"
एक अन्य प्रसंग में रघुवर
प्रसाद ने कहा कि
"थक
गए तो चाय पी,
पत्नी ने
सुना केसरिया दूध पिया।"6
लौटते समय रघुवर प्रसाद
ने कहा
,"बूढ़ी
अम्मा मैंने चाय अभी तक नहीं पी ।" बूढ़ी अम्मा ने सुना रघुवर प्रसाद ने कहा है, "घंटे दो घंटे के लिए
सोनसी को काम करने के लिए बुला लिया करो।"7
यह सोनसी और बूढ़ी अम्मा की आकांक्षा को व्यक्त करती भाषा ही तो है, जो उनकी मनःस्थिति को व्यक्त करती है। इस तरह कहने और सुनने में जो फर्क है, वह वस्तुस्थिति और मनःस्थिति के असलियत और आकांक्षा के अंतर से पैदा होता है। "यहां भाषा में आकांक्षा को पिरो दिया गया है। आकांक्षा को अलग से कहना नहीं पड़ रहा है। भाषा वह काम खुद कर ले रही है।"8 भाषा के ऐसे प्रयोग को देखते हुए डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि मैं चकित हूँ कि यह उपन्यास चले आ रहे एक रेखीय ढांचे को तोड़ता है। टॉलस्टॉय के उपन्यासों की भाँति छोटी-मोटी बातें, रोजमर्रा के ब्यौरे यहाँ भी है। मैं इस उपन्यास के शिल्प से प्रभावित हूँ। नामवर जी के इस कथन से स्पष्ट है कि वास्तव में विनोद कुमार शुक्ल अपने अद्भुत कल्पनामयी कथा भाषा संसार में पाठक को डूबो लेते हैं। जिससे बहुत जल्दी पाठक का बाहर आना मुमकिन नहीं होता। यहां डूबना, तल्लीनता के अर्थ जैसा डूबना है। जहां लेखक ने अपनी आकांक्षा के अनुरूप कथा संसार को पिरोया है और वही आकांक्षा रूपी कल्पना लोक अभावों के संसार में भी संबंधों की प्रगाढ़ता व संवेदनाओं के गाढ़ेपन को बनाए हुए है। अर्थात् व्यवहारिक जीवन में संबंधों व संवेदनाओं को “जो है उससे बेहतरी में पाने की आकांक्षा”9 विनोद जी अपनी भाषा द्वारा दिखाने की कोशिश करते है। इस तरह विनोद जी उपन्यास में संवाद की एक नई भाषा गढ़ते हुए नज़र आते है और यह संवाद जीवन का अनन्य हिस्सा होते हैं, इनकी गरमाहट और गाढ़ापन संबंधों को स्फूर्ति के साथ-साथ नई दिशा भी देता है।
उपन्यास में भाषा प्रयोग की दूसरी विशेषता है शब्दों का बारीक प्रयोग जिसे हम 'नक्काशीदार भाषा’ का प्रयोग भी कह सकते हैं। इसे व्याख्यायित करते हुए योगेश तिवारी अपनी पुस्तक 'विनोद कुमार शुक्ल: खिड़की के अंदर और बाहर’ में लिखते है: “उपन्यास का गद्य भी प्राकृतिक बारीक नक्काशी का नमूना तो माना जा सकता है, पर वह बेलबूटेदार नक्काशी का उदाहरण नहीं है।”10 विनोद जी शब्द–प्रयोग की बारीकी से भली प्रकार परिचित है, इसी कारण उनके इस बारीक गद्य पर सर–सरी निगाह दौड़ने वाले पाठकों को उनके ऐसे शब्द प्रयोग उलझे और निरर्थक नज़र आते है। विनोद जी को समझने के लिए उनके गद्य में “चहलकदमी से कदम” की जरूरत रहती है। हड़बड़ाहट जैसे कदम पाठक को उनके (विनोद जी) संसार में गिरा देते है। “चहलकदमी वाले कदमों” से पढ़ने पर पाठक को विनोद जी का प्रत्येक शब्द अपने प्रयोग और अर्थ गांभीर्य में सार्थक दिखाई देता है। उपन्यास के एक प्रसंग में लेखक कहता है– “शहर फैलते-फैलते नजदीक के गाँव तक पहुंचता तो गांव शहर का मुहल्ला बन जाता था।” वहीं दूसरी जगह "खिड़की से आकाश दिखता था, इसलिए खिड़की से झांकते हुए बच्चे आकाश से झांकते हुए लगते थे।" इस तरह विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास द्वारा उनकी शब्दों की कलात्मक शक्ति का अंदाज हमें इन विभिन्न प्रसंगों में दिखाई पड़ता है।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास की भाषा के जिस पहलू पर सबसे अधिक चर्चा हुई वह है गद्य में काव्यात्मकता। गद्य की एकरसता की बजाए पद्य की लयात्मकता संभवत: विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में सर्वप्रथम मिलती है। “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रेणु आदि के उपन्यासों में भी एक प्रकार की काव्यात्मकता देखने को मिलती है। पर विनोद कुमार शुक्ल के यहां यह काव्यात्मकता काफी मुखर रूप में मौजूद है।”11 विनोद कुमार शुक्ल ने अपने इस उपन्यास में गद्य की संघर्षशील भाषा के बजाय कविता की कल्पनापरक भाषा का प्रयोग किया है। उपन्यास में काव्यात्मकता का आभास होता है, किन्तु वह काव्य न होकर शिल्पगत नवीनता का ही आयाम है। साधारण मनुष्यों की जिंदगी का जितना प्रमाणिक किन्तु स्वप्नदर्शी, संघर्षपूर्ण किन्तु सरल-सहज रूपांकन विनोद कुमार शुक्ल ने अपने उपन्यास में किया है वह कथात्मक होते हुए भी परम काव्यमय है। पात्रों, घटनाओं, ब्योरों के बावजूद कथा में कविता भीतर तक धँसी हुई है। प्रोफेसर रवि रंजन अपने लेख में बताते है कि – “विनोद जी का वाक्य विन्यास उपन्यास विधा की अपनी आंतरिक रचनात्मक मांग के तहत गद्य का ही रहता है, पर उसमें अंतर्निहित लय मूलत: उनके कवित्व से नाभिनालबद्ध है। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उनकी इसी रचना यात्रा की सर्वाधिक प्रौढ़ कृति है।”12 इसी प्रसंग में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन याद आता है, जिसमें वह कथाकारों को भारतीय कथा परंपरा की भाषाबद्ध लय को बनाए रखने का आग्रह करते हुए कहते है– "उपन्यास को काव्य के निकट रखने वाला पुराना ढांचा एकबारगी क्यों छोड़ा जाए? उसके भीतर हमारे कथात्मक गद्य–प्रबंध (कादंबरी, हर्षचरित) के स्वरूप की परंपरा छिपी हुई है।”13 इस प्रकार विनोद कुमार शुक्ल अपने उपन्यासों में जो नई कथा भाषा निर्मित करते है, वह हिंदी कथा परंपरा में पहले से मौजूद भाषा की लय को नवीन कथ्य चेतना से सिंचित करना ही है। इस प्रकार विनोद कुमार शुक्ल का यह उपन्यास कविता और कथा के बीच की दीवार को गिरा देता है। जिसमें कविता तथा कथा का रस मिलता है साथ ही विनोद कुमार शुक्ल अपने इस उपन्यास में केवल मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों को नए सिरे से परिभाषित ही नहीं करते अपितु जीवन-मूल्यों को बचाने की बेचैनी भी उनके उपन्यास में दिखायी देती हैं। डॉ. गोपाल राय के अनुसार, “विनोद जी ने अपने उपन्यास की संरचना एक ऐसी प्रबन्ध कविता में की है जिसमें प्रथमतः उपन्यास कुछ खंडो में विभक्त होकर पुनः प्रत्येक खंड भावों के अनुसार पैराग्राफ में विभक्त किया गया है।”14 इस प्रकार हम देखते है कि विनोद जी के इस काव्यमय उपन्यास में प्रकृति(अपने भाव के अनुरूप), कविताओं के प्राकृतिक सौंदर्य की तरह सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। गद्य में मिलने वाली काव्यात्मकता के कुछ नमूनों को हम उपन्यास के विभिन्न प्रसंगों में देख सकते हैं–
"यह लय धीरे-धीरे समय बीतने की लय
थी। गर्मी की दोपहर जैसे धीरे-धीरे बीतती है। ... चलते-चलते वह बीत जाएगी और
आगे रात मिलेगी और यह सिलसिला कई रात कई सुबह तक चलता रहेगा।"15
"दिन को गिनती में नहीं
समझना चाहिए। किसी को भी नहीं। गिनती चारदिवारी की तरह है जिसमें सब मिट जाता है। अन्तहीन
जैसे का भी गिनती में अन्त हो जाता था।"16
"पेड़ों के हरहराने की
आवाज में,
चिड़ियों
के चहचहाने की आवाज बैठी थी।"17
यहाँ उपन्यासकार कहीं-कहीं शब्दों को नहला-धुला कर करीने से टांकता-सा जान पड़ता है। कई पंक्तियां एक ही शब्द के इर्द-गिर्द गोल-गोल घुमती-सी नज़र आती है। शब्द से शब्द और पंक्ति से पंक्ति निकालकर बनाया गया-सा 'प्रतीत' होता है। उनकी इस अद्भुत विशेषता को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी लिखते है, “उपन्यासकार(विनोद कुमार शुक्ल) के यहां शब्दों की खोखली बाजीगरी नहीं है, बल्कि यहां शब्दों को साधा गया है।”18 कहा जाय तो यह उपन्यास हिंदी कथा परंपरा में ‘कवितामय उपन्यास’ का अनन्य उदाहरण है; अनायास ही नहीं लेखक उपन्यास की शुरूवात ‘उपन्यास में पहले एक कविता रहती थी’ पंक्ति से करता है।
विनोद कुमार शुक्ल के लेखन की बड़ी विशेषता है अमूर्त में मूर्त की कल्पना। अर्थात् निरपेक्ष विषयों या वस्तुओं को भी सापेक्ष रूप में प्रस्तुत करना। विनोद जी के उपन्यास सतही संरचना की कथा न बुनकर, गहरी कसावटमयी शब्द क्रीड़ा द्वारा यथार्थ को अंतर्निहित करते है। उन्होंने अपने इस उपन्यास में एक ठोस दाम्पत्य प्रेम को ‘यथार्थ में सुख की लय’ की कल्पना में गुंथा–पिरोया है। जिसकी मूर्त कल्पना प्रत्येक पाठक करता है। इस तरह विनोद जी निरपेक्ष विषयों को सापेक्ष रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यही उनकी सृजनात्मक कलात्मकता है। उनकी इसी कलात्मक दृष्टि को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘विनोद कुमार शुक्ल: खिड़की के अंदर और बाहर’ में लिखते है:– “विनोद जी के लेखन में ‘कला’ तो है पर सिर्फ ‘कला ही’ नहीं है और भी बहुत कुछ है। जीवन का यथार्थ है। यथार्थ को देखने की एक नई दृष्टि और नया दृष्टिकोण है। सूक्ष्म और पैनी दृष्टि।”19 विनोद जी की इसी सृजनात्मक कलात्मकता को रेखांकित करता उपन्यास का ये अंश देखते बनता है-
"जो दिख रहा था वह दिन
के आरंभ की भर्ती थी। वे (रघुवर प्रसाद) हाजिरी ले रहे थे। उन्होंने
सूर्य कहा हो और कुछ चढ़ आए सूर्य ने उपस्थित कहा हो। सूर्य का उपस्थित कहना रघुवर प्रसाद
के ऊपर सुबह की धूप का पड़ना था।"20 ध्यान देते बनता है कि कैसे प्रकृति
को कल्पनात्मक अंदाज में पुकारा जा रहा है और उसकी उपस्थिति को यथार्थ की छुअन से संबोधित
किया जा रहा है। इस प्रकार कहा जाय तो सृजन की भाषा अपने मूल कथ्य की संवेदनाओं से
बारीकी के साथ बुनी हुयी होती है;
इसी कारण
इन्हें अलग-थलग करके नहीं देखा जा
सकता।
'दीवार एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास में भाषा से एक स्वप्न संसार रचा गया है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। कहना चाहिए कि रचना की ताकत इस बात में भी होती है कि उसने हमें बेहद ही निजी स्तर पर छुआ हो। साथ ही हमारी चेतना के आंतरिक प्रश्नों में गुदगुदी की हो और रचना को पढ़ने के बाद पाठक यही नहीं हो जो रचना की शुरुआत में हो। 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास में ठीक-ठीक कुछ न कह पाने की असमर्थता वाली बात को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। उपन्यास के एक प्रसंग में- "रघुवर प्रसाद पगडंडी पर सोनसी के पीछे हो गए । जैसे पैर के चिन्ह छूटते हैं उसी तरह आगे चल रही सोनसी के पीछे सोनसी के चाल की लय के छूटे हुए चिन्ह की तरह सब कुछ सब तरफ था.....आकाश से लेकर धरती तक सोनसी और रघुवर प्रसाद का घराना था।” एक दूसरे प्रसंग में विनोद जी प्रकृति का आलिंगन करवाते है- “चंद्रमा, तारे तालाब के पानी से धुल गए हैं। आकाश में इनको देखो तो ये सब शीतल स्पष्ट हैं।”
यह 'आकाश से धरती तक का घराना' को अपना कहना पृथ्वी (संपूर्ण पृथ्वी) को अपने होने में शामिल करने जैसा है। चंद्रमा को तालाब के पानी से विनोद जी ऐसे धुलवाते हैं मानो मनुष्य अपने पेड़-पौधों या बच्चों को नहला रहा हो। यह प्रकृति को, जीवन को, संबंधों को देखने का एक नया दृष्टिकोण ही है। बकौल योगेश तिवारी, "ऐसे में जब चीजों को देखने-दिखाने की एक बंधी-बंधाई परिपाटी-सी चल पड़ी हो; विनोद जी की चीजों को देखने-दिखाने की शैली तनिक अलग है।"21 विनोद जी के पास सपने देखने की 'नई आंख' है और उड़ान भरने के लिए मजबूत 'पंख' भी। यह नई आंख ही भाषा की सृजनात्मकता के टटकेपन को बनाए हुए है। जिसमें इस तरह के विभिन्न स्वप्न संसारों को विनोद जी ने चित्रित किया है।
विनोद कुमार शुक्ल सहज-सरल भाषा में अपने भावों को प्रकट करते हैं जो पाठकों को अपनी साधारणता में भी असाधारण होने का अहसास कराती है। बहुत ही मामूली से संवादों में एक जगमगाहट जगाती-सी साधारणता को विनोद जी भाषा में पिरोते चलते है जैसे एक जगह वह लिखते है, "आईना देखना चेहरे का छापाखाना है" तो ऐसी साधारणता ही है जो पाठक का ध्यान देर तक अपनी ओर खींचे रहती है। उनके इसी भाषायी प्रयोग को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी लिखते है- "भाषा के साधारण घिस चुके शब्दों को लेकर विनोद जी साधारण जीवन का एक असाधारण आख्यान रचते है। यह संसार हमारे रोज-रोज के देखने में छूटा हुआ संसार है।"22 उपन्यास के एक प्रसंग में लेखक लिखता है- "रात के बीतने से जाता हुआ यह अंधेरा शायद हाथी के आकार में छूट गया था। ज्यों-ज्यों सुबह होगी हाथी के आकार का अंधेरा हाथी के आकार की सुबह होकर बाकी सुबह में घुलमिल जाएगी।"23 वहीं दूसरे प्रसंग में सोनसी के गौर वर्ण को दिखाती विनोद जी की भाषा देखते बनती है- "सोनसी कमरे में जहां होती कुछ अधिक उजाले में लगती।"24 इस प्रकार सोनसी के रूप का प्रभाव हो या अंधेरे का सुबह में घुलने का दृश्य हो, सभी में विनोद जी साधारणता में भी असाधारण का अहसास कराते है।
विनोद कुमार शुक्ल का कथ्य भाषायी रूढ़ता की सीमाओं को नये प्रयोगों से आलोकित कर नवीन शब्द-सौंदर्य के साथ-साथ कथा भाषा के बंजरपन को खाद-पानी से सींचता भी है। उनकी मौलिक उपमाएँ और प्राकृतिक प्रतीक इस उपन्यास की भाषा को सम्पन्न कर सुंदर बना देते हैं। जैसे 'सोनसी नित नई सुबह थी', 'सभी तालाबों का जल धरती के समतल था पर तालाब गहरे थे', 'सोनसी के अंदर एक तालाब था जिसमें रघुवर प्रसाद की परछाई हो।' इस तरह कहीं वे सोनसी को सुबह की उपमा देते है, तो कहीं उन्हें सोनसी के भीतर ही तालाब के जल में रघुवर प्रसाद का दिखना- यह सारा कुछ भाषायी-कौशल का आख्यान ही तो है। उनकी रचना की इस विशेषता को इंगित करते हुए दुर्गा प्रसाद गुप्त लिखते है, "यह(उपन्यास) भाषा में आख्यान का सृजन ही नहीं, भाषा का पुनर्जन्म में प्रवेश कर नए आख्यान का सृजन करना है।"25 भाषा का यह पुनर्जन्म उसके सृजनशील होने की प्रमुख विशेषता है और विनोद जी के यहाँ यह सृजनशीलता भाषा के सामांतर भाव और विचार के स्तर पर भी देखते बनती है। इसी के साथ ही सृजनात्मक भाषा के अन्य प्रयोगों में विनोद जी पात्रों के दैनंदिन जीवन की समस्त हरकतों का बड़ी सावधानी से वर्णन करते है। वे इस बात का विशेष ध्यान रखते है कि कहीं कोई शब्द अथवा हरकत छूट न जाए- “चलने से दोनों पैर एक साथ चलते हैं। रुकों तो दोनों पैर एक साथ रुक जाते है। दोनों पैर एक साथ आराम करते हैं।” इस तरह के वर्णनों द्वारा विनोद जी नवीन कथा रूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते है। "वह छोटे-से-छोटे ब्यौरे को भी बारीकी से भाषा में पिरोकर पेश करते हैं- सिर्फ क्रिया व्यापार के ब्यौरे ही नहीं, मन की आकांक्षाएं और इच्छाएं भी।"26 दुर्गा प्रसाद गुप्त अपने एक लेख में लिखते है-, "उपन्यास में सामानांतर बातों को भी बारीक बात में बदलकर भाषा के विसंगतिपूर्ण क्षेत्र में पहुंचाया गया है …. यह विशिष्टानुभूति का कला और भाषायी कौशल है।"27 इस प्रकार भाषा और भावों को अपनी कलम की बारीकी से एक अद्भुत रंग में रंगने वाले विनोद कुमार शुक्ल निश्चित रूप से साहित्य के क्षेत्र में एक अविस्मरणीय हस्ताक्षर है।
संदर्भ:
1. आजकल,
जनवरी
2022, पृष्ठ
22
2. आजकल,
जनवरी
2022, पृष्ठ
13
3. हिन्दी
उपन्यासों में भाषा का सर्जनात्मक स्वरूप-
सुरेश
चंद्र;
पृष्ठ-124
4. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-168
(अनुकथन
से
)
5. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-34
6. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-35
7. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-70
8. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-60
9. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-28.
10. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि.,नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-58.
11. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली, संस्करण-2013,
पृष्ठ-38
12. http://gadyakosh.org/gk/विनोदकुमार_शुक्ल_के_उपन्यासों_का_समाजशास्त्र_/_रवि_रंजन
13. हिन्दी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली , संस्करण-2016, पृष्ठ-458
14. उपन्यास
की संरचना-गोपाल राय,
राजकमल
प्रकाशन प्रा. लि.,
नई
दिल्ली, संस्करण-,
पृष्ठ-439
15. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-38-39
16. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-113
17. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-101
18. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-8
19. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-58
20. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-123
21. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-57
22. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-07-08
23. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-48-49
24. दीवार
में एक खिड़की रहती थी-विनोद
कुमार शुक्ल, वाणी प्रकाशन
,नई
दिल्ली , पृष्ठ-66
25. अनहोना
शिल्प:
अनहोनी
कथाएँ-
सं.
प्रेम
भारद्वाज (भाषा के अकेलेपन का जोखिम
-दुर्गा
प्रसाद गुप्त), अनन्य
प्रकाशन, दिल्ली;
संस्करण-2016,
पृष्ठ-171
26. विनोद
कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर
- योगेश
तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.
लि.,
नई
दिल्ली , संस्करण-2013,
पृष्ठ-07
27. अनहोना
शिल्प:
अनहोनी
कथाएँ-
सं.
प्रेम
भारद्वाज (भाषा के अकेलेपन का जोखिम
-दुर्गा
प्रसाद गुप्त), अनन्य
प्रकाशन, दिल्ली;
संस्करण-2016,
पृष्ठ-171
यह सोनसी और बूढ़ी अम्मा की आकांक्षा को व्यक्त करती भाषा ही तो है, जो उनकी मनःस्थिति को व्यक्त करती है। इस तरह कहने और सुनने में जो फर्क है, वह वस्तुस्थिति और मनःस्थिति के असलियत और आकांक्षा के अंतर से पैदा होता है। "यहां भाषा में आकांक्षा को पिरो दिया गया है। आकांक्षा को अलग से कहना नहीं पड़ रहा है। भाषा वह काम खुद कर ले रही है।"8 भाषा के ऐसे प्रयोग को देखते हुए डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि मैं चकित हूँ कि यह उपन्यास चले आ रहे एक रेखीय ढांचे को तोड़ता है। टॉलस्टॉय के उपन्यासों की भाँति छोटी-मोटी बातें, रोजमर्रा के ब्यौरे यहाँ भी है। मैं इस उपन्यास के शिल्प से प्रभावित हूँ। नामवर जी के इस कथन से स्पष्ट है कि वास्तव में विनोद कुमार शुक्ल अपने अद्भुत कल्पनामयी कथा भाषा संसार में पाठक को डूबो लेते हैं। जिससे बहुत जल्दी पाठक का बाहर आना मुमकिन नहीं होता। यहां डूबना, तल्लीनता के अर्थ जैसा डूबना है। जहां लेखक ने अपनी आकांक्षा के अनुरूप कथा संसार को पिरोया है और वही आकांक्षा रूपी कल्पना लोक अभावों के संसार में भी संबंधों की प्रगाढ़ता व संवेदनाओं के गाढ़ेपन को बनाए हुए है। अर्थात् व्यवहारिक जीवन में संबंधों व संवेदनाओं को “जो है उससे बेहतरी में पाने की आकांक्षा”9 विनोद जी अपनी भाषा द्वारा दिखाने की कोशिश करते है। इस तरह विनोद जी उपन्यास में संवाद की एक नई भाषा गढ़ते हुए नज़र आते है और यह संवाद जीवन का अनन्य हिस्सा होते हैं, इनकी गरमाहट और गाढ़ापन संबंधों को स्फूर्ति के साथ-साथ नई दिशा भी देता है।
उपन्यास में भाषा प्रयोग की दूसरी विशेषता है शब्दों का बारीक प्रयोग जिसे हम 'नक्काशीदार भाषा’ का प्रयोग भी कह सकते हैं। इसे व्याख्यायित करते हुए योगेश तिवारी अपनी पुस्तक 'विनोद कुमार शुक्ल: खिड़की के अंदर और बाहर’ में लिखते है: “उपन्यास का गद्य भी प्राकृतिक बारीक नक्काशी का नमूना तो माना जा सकता है, पर वह बेलबूटेदार नक्काशी का उदाहरण नहीं है।”10 विनोद जी शब्द–प्रयोग की बारीकी से भली प्रकार परिचित है, इसी कारण उनके इस बारीक गद्य पर सर–सरी निगाह दौड़ने वाले पाठकों को उनके ऐसे शब्द प्रयोग उलझे और निरर्थक नज़र आते है। विनोद जी को समझने के लिए उनके गद्य में “चहलकदमी से कदम” की जरूरत रहती है। हड़बड़ाहट जैसे कदम पाठक को उनके (विनोद जी) संसार में गिरा देते है। “चहलकदमी वाले कदमों” से पढ़ने पर पाठक को विनोद जी का प्रत्येक शब्द अपने प्रयोग और अर्थ गांभीर्य में सार्थक दिखाई देता है। उपन्यास के एक प्रसंग में लेखक कहता है– “शहर फैलते-फैलते नजदीक के गाँव तक पहुंचता तो गांव शहर का मुहल्ला बन जाता था।” वहीं दूसरी जगह "खिड़की से आकाश दिखता था, इसलिए खिड़की से झांकते हुए बच्चे आकाश से झांकते हुए लगते थे।" इस तरह विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास द्वारा उनकी शब्दों की कलात्मक शक्ति का अंदाज हमें इन विभिन्न प्रसंगों में दिखाई पड़ता है।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास की भाषा के जिस पहलू पर सबसे अधिक चर्चा हुई वह है गद्य में काव्यात्मकता। गद्य की एकरसता की बजाए पद्य की लयात्मकता संभवत: विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में सर्वप्रथम मिलती है। “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रेणु आदि के उपन्यासों में भी एक प्रकार की काव्यात्मकता देखने को मिलती है। पर विनोद कुमार शुक्ल के यहां यह काव्यात्मकता काफी मुखर रूप में मौजूद है।”11 विनोद कुमार शुक्ल ने अपने इस उपन्यास में गद्य की संघर्षशील भाषा के बजाय कविता की कल्पनापरक भाषा का प्रयोग किया है। उपन्यास में काव्यात्मकता का आभास होता है, किन्तु वह काव्य न होकर शिल्पगत नवीनता का ही आयाम है। साधारण मनुष्यों की जिंदगी का जितना प्रमाणिक किन्तु स्वप्नदर्शी, संघर्षपूर्ण किन्तु सरल-सहज रूपांकन विनोद कुमार शुक्ल ने अपने उपन्यास में किया है वह कथात्मक होते हुए भी परम काव्यमय है। पात्रों, घटनाओं, ब्योरों के बावजूद कथा में कविता भीतर तक धँसी हुई है। प्रोफेसर रवि रंजन अपने लेख में बताते है कि – “विनोद जी का वाक्य विन्यास उपन्यास विधा की अपनी आंतरिक रचनात्मक मांग के तहत गद्य का ही रहता है, पर उसमें अंतर्निहित लय मूलत: उनके कवित्व से नाभिनालबद्ध है। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उनकी इसी रचना यात्रा की सर्वाधिक प्रौढ़ कृति है।”12 इसी प्रसंग में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन याद आता है, जिसमें वह कथाकारों को भारतीय कथा परंपरा की भाषाबद्ध लय को बनाए रखने का आग्रह करते हुए कहते है– "उपन्यास को काव्य के निकट रखने वाला पुराना ढांचा एकबारगी क्यों छोड़ा जाए? उसके भीतर हमारे कथात्मक गद्य–प्रबंध (कादंबरी, हर्षचरित) के स्वरूप की परंपरा छिपी हुई है।”13 इस प्रकार विनोद कुमार शुक्ल अपने उपन्यासों में जो नई कथा भाषा निर्मित करते है, वह हिंदी कथा परंपरा में पहले से मौजूद भाषा की लय को नवीन कथ्य चेतना से सिंचित करना ही है। इस प्रकार विनोद कुमार शुक्ल का यह उपन्यास कविता और कथा के बीच की दीवार को गिरा देता है। जिसमें कविता तथा कथा का रस मिलता है साथ ही विनोद कुमार शुक्ल अपने इस उपन्यास में केवल मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों को नए सिरे से परिभाषित ही नहीं करते अपितु जीवन-मूल्यों को बचाने की बेचैनी भी उनके उपन्यास में दिखायी देती हैं। डॉ. गोपाल राय के अनुसार, “विनोद जी ने अपने उपन्यास की संरचना एक ऐसी प्रबन्ध कविता में की है जिसमें प्रथमतः उपन्यास कुछ खंडो में विभक्त होकर पुनः प्रत्येक खंड भावों के अनुसार पैराग्राफ में विभक्त किया गया है।”14 इस प्रकार हम देखते है कि विनोद जी के इस काव्यमय उपन्यास में प्रकृति(अपने भाव के अनुरूप), कविताओं के प्राकृतिक सौंदर्य की तरह सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। गद्य में मिलने वाली काव्यात्मकता के कुछ नमूनों को हम उपन्यास के विभिन्न प्रसंगों में देख सकते हैं–
यहाँ उपन्यासकार कहीं-कहीं शब्दों को नहला-धुला कर करीने से टांकता-सा जान पड़ता है। कई पंक्तियां एक ही शब्द के इर्द-गिर्द गोल-गोल घुमती-सी नज़र आती है। शब्द से शब्द और पंक्ति से पंक्ति निकालकर बनाया गया-सा 'प्रतीत' होता है। उनकी इस अद्भुत विशेषता को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी लिखते है, “उपन्यासकार(विनोद कुमार शुक्ल) के यहां शब्दों की खोखली बाजीगरी नहीं है, बल्कि यहां शब्दों को साधा गया है।”18 कहा जाय तो यह उपन्यास हिंदी कथा परंपरा में ‘कवितामय उपन्यास’ का अनन्य उदाहरण है; अनायास ही नहीं लेखक उपन्यास की शुरूवात ‘उपन्यास में पहले एक कविता रहती थी’ पंक्ति से करता है।
विनोद कुमार शुक्ल के लेखन की बड़ी विशेषता है अमूर्त में मूर्त की कल्पना। अर्थात् निरपेक्ष विषयों या वस्तुओं को भी सापेक्ष रूप में प्रस्तुत करना। विनोद जी के उपन्यास सतही संरचना की कथा न बुनकर, गहरी कसावटमयी शब्द क्रीड़ा द्वारा यथार्थ को अंतर्निहित करते है। उन्होंने अपने इस उपन्यास में एक ठोस दाम्पत्य प्रेम को ‘यथार्थ में सुख की लय’ की कल्पना में गुंथा–पिरोया है। जिसकी मूर्त कल्पना प्रत्येक पाठक करता है। इस तरह विनोद जी निरपेक्ष विषयों को सापेक्ष रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यही उनकी सृजनात्मक कलात्मकता है। उनकी इसी कलात्मक दृष्टि को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘विनोद कुमार शुक्ल: खिड़की के अंदर और बाहर’ में लिखते है:– “विनोद जी के लेखन में ‘कला’ तो है पर सिर्फ ‘कला ही’ नहीं है और भी बहुत कुछ है। जीवन का यथार्थ है। यथार्थ को देखने की एक नई दृष्टि और नया दृष्टिकोण है। सूक्ष्म और पैनी दृष्टि।”19 विनोद जी की इसी सृजनात्मक कलात्मकता को रेखांकित करता उपन्यास का ये अंश देखते बनता है-
'दीवार एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास में भाषा से एक स्वप्न संसार रचा गया है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। कहना चाहिए कि रचना की ताकत इस बात में भी होती है कि उसने हमें बेहद ही निजी स्तर पर छुआ हो। साथ ही हमारी चेतना के आंतरिक प्रश्नों में गुदगुदी की हो और रचना को पढ़ने के बाद पाठक यही नहीं हो जो रचना की शुरुआत में हो। 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उपन्यास में ठीक-ठीक कुछ न कह पाने की असमर्थता वाली बात को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। उपन्यास के एक प्रसंग में- "रघुवर प्रसाद पगडंडी पर सोनसी के पीछे हो गए । जैसे पैर के चिन्ह छूटते हैं उसी तरह आगे चल रही सोनसी के पीछे सोनसी के चाल की लय के छूटे हुए चिन्ह की तरह सब कुछ सब तरफ था.....आकाश से लेकर धरती तक सोनसी और रघुवर प्रसाद का घराना था।” एक दूसरे प्रसंग में विनोद जी प्रकृति का आलिंगन करवाते है- “चंद्रमा, तारे तालाब के पानी से धुल गए हैं। आकाश में इनको देखो तो ये सब शीतल स्पष्ट हैं।”
यह 'आकाश से धरती तक का घराना' को अपना कहना पृथ्वी (संपूर्ण पृथ्वी) को अपने होने में शामिल करने जैसा है। चंद्रमा को तालाब के पानी से विनोद जी ऐसे धुलवाते हैं मानो मनुष्य अपने पेड़-पौधों या बच्चों को नहला रहा हो। यह प्रकृति को, जीवन को, संबंधों को देखने का एक नया दृष्टिकोण ही है। बकौल योगेश तिवारी, "ऐसे में जब चीजों को देखने-दिखाने की एक बंधी-बंधाई परिपाटी-सी चल पड़ी हो; विनोद जी की चीजों को देखने-दिखाने की शैली तनिक अलग है।"21 विनोद जी के पास सपने देखने की 'नई आंख' है और उड़ान भरने के लिए मजबूत 'पंख' भी। यह नई आंख ही भाषा की सृजनात्मकता के टटकेपन को बनाए हुए है। जिसमें इस तरह के विभिन्न स्वप्न संसारों को विनोद जी ने चित्रित किया है।
विनोद कुमार शुक्ल सहज-सरल भाषा में अपने भावों को प्रकट करते हैं जो पाठकों को अपनी साधारणता में भी असाधारण होने का अहसास कराती है। बहुत ही मामूली से संवादों में एक जगमगाहट जगाती-सी साधारणता को विनोद जी भाषा में पिरोते चलते है जैसे एक जगह वह लिखते है, "आईना देखना चेहरे का छापाखाना है" तो ऐसी साधारणता ही है जो पाठक का ध्यान देर तक अपनी ओर खींचे रहती है। उनके इसी भाषायी प्रयोग को रेखांकित करते हुए योगेश तिवारी लिखते है- "भाषा के साधारण घिस चुके शब्दों को लेकर विनोद जी साधारण जीवन का एक असाधारण आख्यान रचते है। यह संसार हमारे रोज-रोज के देखने में छूटा हुआ संसार है।"22 उपन्यास के एक प्रसंग में लेखक लिखता है- "रात के बीतने से जाता हुआ यह अंधेरा शायद हाथी के आकार में छूट गया था। ज्यों-ज्यों सुबह होगी हाथी के आकार का अंधेरा हाथी के आकार की सुबह होकर बाकी सुबह में घुलमिल जाएगी।"23 वहीं दूसरे प्रसंग में सोनसी के गौर वर्ण को दिखाती विनोद जी की भाषा देखते बनती है- "सोनसी कमरे में जहां होती कुछ अधिक उजाले में लगती।"24 इस प्रकार सोनसी के रूप का प्रभाव हो या अंधेरे का सुबह में घुलने का दृश्य हो, सभी में विनोद जी साधारणता में भी असाधारण का अहसास कराते है।
विनोद कुमार शुक्ल का कथ्य भाषायी रूढ़ता की सीमाओं को नये प्रयोगों से आलोकित कर नवीन शब्द-सौंदर्य के साथ-साथ कथा भाषा के बंजरपन को खाद-पानी से सींचता भी है। उनकी मौलिक उपमाएँ और प्राकृतिक प्रतीक इस उपन्यास की भाषा को सम्पन्न कर सुंदर बना देते हैं। जैसे 'सोनसी नित नई सुबह थी', 'सभी तालाबों का जल धरती के समतल था पर तालाब गहरे थे', 'सोनसी के अंदर एक तालाब था जिसमें रघुवर प्रसाद की परछाई हो।' इस तरह कहीं वे सोनसी को सुबह की उपमा देते है, तो कहीं उन्हें सोनसी के भीतर ही तालाब के जल में रघुवर प्रसाद का दिखना- यह सारा कुछ भाषायी-कौशल का आख्यान ही तो है। उनकी रचना की इस विशेषता को इंगित करते हुए दुर्गा प्रसाद गुप्त लिखते है, "यह(उपन्यास) भाषा में आख्यान का सृजन ही नहीं, भाषा का पुनर्जन्म में प्रवेश कर नए आख्यान का सृजन करना है।"25 भाषा का यह पुनर्जन्म उसके सृजनशील होने की प्रमुख विशेषता है और विनोद जी के यहाँ यह सृजनशीलता भाषा के सामांतर भाव और विचार के स्तर पर भी देखते बनती है। इसी के साथ ही सृजनात्मक भाषा के अन्य प्रयोगों में विनोद जी पात्रों के दैनंदिन जीवन की समस्त हरकतों का बड़ी सावधानी से वर्णन करते है। वे इस बात का विशेष ध्यान रखते है कि कहीं कोई शब्द अथवा हरकत छूट न जाए- “चलने से दोनों पैर एक साथ चलते हैं। रुकों तो दोनों पैर एक साथ रुक जाते है। दोनों पैर एक साथ आराम करते हैं।” इस तरह के वर्णनों द्वारा विनोद जी नवीन कथा रूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते है। "वह छोटे-से-छोटे ब्यौरे को भी बारीकी से भाषा में पिरोकर पेश करते हैं- सिर्फ क्रिया व्यापार के ब्यौरे ही नहीं, मन की आकांक्षाएं और इच्छाएं भी।"26 दुर्गा प्रसाद गुप्त अपने एक लेख में लिखते है-, "उपन्यास में सामानांतर बातों को भी बारीक बात में बदलकर भाषा के विसंगतिपूर्ण क्षेत्र में पहुंचाया गया है …. यह विशिष्टानुभूति का कला और भाषायी कौशल है।"27 इस प्रकार भाषा और भावों को अपनी कलम की बारीकी से एक अद्भुत रंग में रंगने वाले विनोद कुमार शुक्ल निश्चित रूप से साहित्य के क्षेत्र में एक अविस्मरणीय हस्ताक्षर है।
संदर्भ:
13. हिन्दी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली , संस्करण-2016, पृष्ठ-458
रोहित जैन
शोधार्थी, हिन्दी एवं तुलनात्मक
साहित्य विभाग,
केरल
केंद्रीय विश्वविद्यालय कासरगोड, केरल
डॉ. सीमा चंद्रन
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय कासरगोड, केरल
drseemachandrancukhindi@gmail.com, 9447720229
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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