शोध आलेख : ‘स्वदेश’: स्वराज्य का स्वप्न / निरंजन कुमार यादव

‘स्वदेश’ : स्वराज्य का स्वप्न 
- निरंजन कुमार यादव

शोध सार : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आई राजनीतिक जन-जागृति के परिणाम स्वरूप बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। यह बात सर्वविदित है कि हिंदी पत्रकारिता भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की एक अनिवार्य परिणति है। जैसाकि हम जानते हैं कि पत्रिकाएं अपने समय का इतिहास हुआ करती हैं। जिसके माध्यम से हम उस समय के तत्कालीन समय और समाज को देख एवं जान सकते हैं। अतः अंग्रेज़ी राज में जब्त हुए साहित्य का अध्ययन करने से हमको उस समय एवं समाज के मनोभावों के साथ पत्रकारिता के युग धर्म को भी जानने  समझने में मदद मिलती है। आधुनिक हिंदी के विकास और पत्र - पत्रिकाओं के नियमित प्रकाशन के साथ धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार का असली चरित्र उस समय की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों, समसामयिक प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों के माध्यम से लोगों के मध्य उजागर होने लगा था। हिंदी नवजागरण के अध्येताओं ने इस बात को रेखांकित किया है कि हिंदी पत्र-पत्रिकाएं स्वतंत्रता आंदोलन में व्यापक राष्ट्रीय संवेदनाओं से संबद्ध होकर भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु आंदोलित एवं प्रेरित करने में अपनी महत्वपूर्ण  भूमिका अदा कर रही थीं। जिसकी आशंका धीरे -धीरे ब्रिटिश हुकूमत को भी होने लगी और ब्रिटिश हुकूमत ने प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित करने के प्रयास से प्रबंधन के कानून को लागू कर दिया। एक तरफ हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय जनमानस में ‘स्वदेश’ प्रेम एवं राष्ट्रीयता का संचार हो रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेज़ी सरकार का हिंदी पत्र-पत्रिकाओं पर दमन का शिकंजा कसता जा रहा था। पत्र-पत्रिकाएं जब्त हो रही थीं। उनके अंकों पर प्रतिबंध लग रहे थे। संपादक मण्डल एवं प्रकाशकों के ऊपर मुकदमें लिखे जा रहे थे। उन्हें कारावास और  का अर्थदण्ड दिया जा रहा था, बावजूद इसके राष्ट्रहित एवं राष्ट्रधर्म में पत्र-पत्रिकाएं निकलती रहीं। ऐसा ही एक पत्र गोरखपुर से निकलता था, जिसका नाम – ‘स्वदेश’ था। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, बस्ती आदि जनपदों का प्रमुख हिंदी साप्ताहिक पत्र था। बिहार के छपरा, बेतिया, चंपारण, मुंगेर, की चिट्ठियां भी इसमें प्रकाशित हो रही थीं। इतना ही नहीं मध्य प्रदेश एवं पंजाब में भी इस पत्र की लोकप्रियता थी। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर ने एक विशेष आदेश के द्वारा ‘स्वदेश’ की प्रतियों को पंजाब में न प्रसारित करने का भी उपक्रम किया था। ‘स्वदेश’ की कुछ प्रतियां कार्यालय द्वारा अपने पड़ोसी देशों के पाठकों के अलावा अमेरिका और इंग्लैंड में भी भेजी जाती थीं  जिससे यह पता चलता है कि यह पत्र स्थानीयता की सीमा को तोड़ते हुए अपना निरंतर विस्तार कर रहा था ‘स्वदेश’ ने अपने संपादकीय, टीका - टिप्पणियों, लेखों और कविताओं के माध्यम से हिंदी क्षेत्र की जनता में क्रांतिकारी विचारों को प्रवाहित करने और उन्हें क्रांतिकारी कार्यों की ओर उन्मुख करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। यह पत्रिका अपने प्रकाशन के आरंभ से लेकर अंत तक अपने उग्र विचारों एवं स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण ब्रिटिश सरकार के कोप का शिकार बनी रही। इसके प्रकाशन से पूर्व ही इस पत्रिका को 500 रुपये जमानत राशि भरनी पड़ी थी और 7 अक्टूबर 1924 को प्रकाशित ‘स्वदेश’ के ‘विजयांक’ को सरकार द्वारा प्रतिबंध कर जब्त कर दिया गया।

बीज शब्द : स्वदेश, हिन्दी-भाषी, पत्र-पत्रिकाएं, हिन्दी साहित्य का इतिहास, विजययांक, ब्रिटिश सरकार, प्रतिबंध, जब्त, आन्दोलन, स्वतंत्रता, क्रांति, गोरखपुर, उग्र आदि।

मूल आलेख : डॉक्टर संतोष भदौरिया अपनी पुस्तक ‘अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएं’ में लिखते हैं कि - "किसी भी आंदोलन की सफलता बहुत सीमा तक तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर करती है। भारत में बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध पत्रकारिता के संघर्ष का काल था। भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को सफल बनाने में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र- पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारतीय पत्रकारिता के प्रति ब्रिटिश सरकार और उसके शासन तंत्र के प्रत्येक क्षेत्र पर पहरा करना जारी रखें स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक पत्र पत्रिकाएं प्रबंधन का शिकार हुई।" गोरखपुर से प्रकाशित होने वाला ‘स्वदेश’ एक ऐसा ही चर्चित एवं लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र था।

    गोरखपुर का नाम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। यह पूर्वोत्तर का प्रमुख क्रांतिकारी केन्द्र था। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने अपनी पुस्तक ‘चौरी चौरा’ में  बहुत विस्तार से लिखा है। यहाँ के लोगों ने 1857 की क्रांति से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक में देश की आजादी के लिए कुर्बानी दी है। इस मिट्टी के सपूत अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कभी पीछे नहीं रहे। इसी जनपद में तरकुलहा देवी मंदिर(अब देवरिया) में 1857 की क्रांति से जुड़े शहीद बंधु सिंह की वीरता के किस्से गूंजते हैं तो चौरीचौरा शहीद स्थल ने स्वतंत्रता संग्राम की एक बारगी दिशा ही बदल कर रख दी थी। गोरखपुर के डोहरिया कलां (सहजनवा)में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आजादी के दीवानों ने ब्रिटिश हुकूमत से सीधा मोर्चा लिया और देश के लिए शहीद हो गए थे। इसी गोरखपुर में महान क्रांतिकारी पं. राम प्रसाद बिस्मिल की शहादत हुई थी। उर्दू बाज़ार के दायरे में आने वाला खूनीपुर मोहल्ले का तो नाम ही आजादी के लिए खून बहाने से मिला हुआ है। आज भी बसंतपुर मोहल्ले में लालडिग्गी के सामने मौजूद एक जर्जर इमारत वहां से गुजरने वाले हर उस व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींचती है, जिन्हें अपनी विरासत से लगाव है। यह बात कम ही लोगों को पता है कि वह जर्जर इमारत कभी मोती जेल के नाम से मशहूर थी, जिसका प्रयोग अंग्रेज अधिकारी क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए किया करते थे। इस परिसर में एक कुआं भी है, जिसे कभी खूनी कुआं कहा जाता था। लोग बताते हैं कि अंग्रेज कुएं को फांसी के लिए इस्तेमाल करते थे। इसका सर्वाधिक प्रयोग अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के दौरान किया था। गोरखपुर के महान क्रांतिकारी शाह इनायत अली को फांसी इसी कुएं में दी गई थी। इतना ही नहीं शहर के व्यस्ततम उर्दू बाजार में खड़ी मीनार सरीखी इमारत जिसे हम आज घंटाघर के रूप में सुरक्षित रखे हुए हैं, वह अपने-आप में तमाम क्रांतिकारियों की शहादत और उनकी गौरव-गाथाओं को समेटे हुए है। इसके निर्माण के बारे में लोग बताते हैं आज जहाँ घंटाघर है। वहाँ 1857 में एक विशाल पाकड़ का पेड़ हुआ करता था। इसी पेड़ पर पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अली हसन जैसे देशभक्तों के साथ दर्जनों स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी दी गई थी। “सन 1930 में रायगंज के सेठ राम खेलावन और सेठ ठाकुर प्रसाद ने पिता सेठ चिगान साहू की याद में इसी स्थान पर एक मीनार सरीखी ऊंची इमारत का निर्माण कराया था, यह इमारत शहीदों को समर्पित थी। यह वही इमारत है जिसकी पहचान आज घंटाघर के रूप में है।” इसके अलावा आज भी गीताप्रेस और स्वदेश भवन (रिजनल स्टेडियम के ठीक सामने की कोठी) स्वतंत्रता संग्राम में गोरखपुर की भूमिका को बताने वाले स्तम्भ के रूप में मौजूद हैं । यह सब स्थल गोरखपुर के इतिहास के पन्नों में इस तरह दर्ज हो गए हैं कि स्वतंत्रता संग्राम की कहानी बिना इनके पूरी ही नहीं होगी। राष्ट्रप्रेम के लिए अपने त्याग, बलिदान और साहस की कहानी कहने के लिए मानो आज भी बूढ़े बाबा की भांति स्वदेश भवन शहर के बीचो-बीच दूधिया लिबास में विराजमान है। उसकी दीप्ति राष्ट्रीयता की दीप्ति है जिसने कभी भी लोगों के मन को मलिन न होने दिया। उनके अन्दर सुलग रही स्वतंत्रता की चिंगारी को उसने बुझने नहीं दिया अपितु उसे सदैव दीप्त करने का ही यत्न किया। यहीं से 06 अप्रैल 1919 को राष्ट्रीय आन्दोलन में जन-जन में राष्ट्रीय विचारधारा समन्वित करने हेतु राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत साप्ताहिक पत्रिका ‘स्वदेश’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। गोरखपुर के गौरवशाली अतीत की श्रीवृद्धि हेतु यह मील का पत्थर साबित हुआ। यह पत्रिका अपने नाम और ध्येय वाक्य के चलते अपने प्रथम प्रकाशन के साथ ही आम जनमानस में लोकप्रिय हो गयी । इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने 07 अक्टूबर 1924 के इसके ‘विजयांक’ को प्रतिबंधित कर दिया । यहाँ हम थोड़ा सा प्रतिबंधन के बारे में जान लेते हैं फिर इस अंक की सामग्री की चर्चा कर उसका अनुशीलन करेंगे । 

    सामान्य अर्थ में प्रतिबंधन का अभिप्राय “रोकना होता है” लेकिन प्रशासनिक परिप्रेक्ष्य में इसका अर्थ उस वैधानिक कार्यवाही से होता है जिसमें प्रशासन द्वारा किसी संस्था, संगठन, सभा,यात्रा प्रकाशन एवं साहित्य आदि को गैर कानूनी घोषित कर उसके प्रति दमनात्मक रुख अपनाया जाता है। प्रायः सत्ता पक्ष यह कार्यवाही उनके विरुद्ध करता है जिससे उसको सत्ता में बने रहने के लिए खतरा महसूस होता है, जिससे उसकी सत्ता में खलल पड़ने की आशंका भी होती है और उसकी दुर्व्यवस्था एवं कुनीतियों का भंडाफोड़ होने का डर भी होता है। इसके अलावा यह उन पर भी पाबंदी लगाता है जो सत्ता की कुरीतियों के प्रति जन जागरूकता लाने का यत्न करता है एवं उन्हें अपने हक की लड़ाई के लिए प्रेरित करता है । साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था की यह प्राथमिक विशेषता होती है कि वह अपने विरोध के स्वर को सुनना नहीं चाहता। वह अपने खिलाफ आवाज को दबा देना चाहता है। असहमति का स्वागत लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की विशेषता है जबकि हर असहमति का दमन तानाशाही शासन की व्यवस्था है। यह उन सभी शक्तियों को कुचल देना चाहता है जिससे जनता में मुक्ति की आकांक्षा पनपने की गुंजाइश रहती है। यह गुंजाइश किसी व्यक्ति के माध्यम से हो सकती है, साहित्य के माध्यम से हो सकती है, पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से हो सकती है। इसीलिए हम पाते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य में प्रतिबंधन की कार्यवाही खूब हुई है।

    आम जन मानस के अनुरूप साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं ने भी आजाद भारत का स्वप्न संजोया था। अब वह ब्रिटिश हुकूमत की कुरीतियों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रमुखता से प्रकाशित करने लगे थे। इसलिए साहित्य में जब-जब जनचेतना जागृत करने की प्रेरणा उन्हें जहाँ-जहाँ दिखाई पड़ती है वह उस पद एवं साहित्य को प्रतिबंधित कर देते थे। पत्र-पत्रिकाओं के सामर्थ्य को बहुत पहले ही अकबर इलाहाबादी ने रेखांकित कर दिया था -

 “खींचो न कमानों को न तलवार निकालो । 
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।।”

इस बात को अंग्रेजी सरकार बखूबी समझती थी। इसलिए उसे जहाँ-जहाँ भी राष्ट्रीयता के स्वर सुनाई पड़े उसे बंद करने की पुरजोर कोशिश की गयी 

    प्रतिबंधित साहित्य पर बहुत ही विस्तृत एवं व्यवस्थित कार्य सन् 1976 में एन जेराल्ड बैरीयर ने एवं सन् 2001 में डा. संतोष भदौरिया ने किया है। एन जेराल्ड बैरीयर ने अपनी पुस्तक ‘बैण्ड कंट्रोवर्सियल लिटरेचर एंड पोलिटिकल कंट्रोल इन ब्रिटिश इण्डिया 1907-1947’ में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित सभी भारतीय भाषाओं में लिखे गए प्रतिबंधित साहित्य  का अध्ययन किया है । इसके साथ ही भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार और ब्रिटिश संग्रहालय इंडिया के पुस्तकालय में मौजूद प्रतिबंधित रचनाओं की सूची भी इस किताब में दी है। उन्होंने यह बताया है कि “इन 40 वर्षों के भीतर बांग्ला भाषा में 226, गुजराती में 158, हिंदी में 1391, हिंदुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेजी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 168, दक्षिणी भाषाओं में 224 और अन्य भाषाओं में 538 रचनाओं को ब्रिटिश शासन ने प्रतिबंधित किया।” 

    साहित्य के इतिहास में यह स्थिति आश्चर्य पैदा करती है कि इतना विपुल मात्रा में साहित्य लिखा गया है जो उस बीच में प्रतिबंधित कर दिया गया और हम सबके सामने नहीं आ सका  जिसका जिक्र न हिन्दी साहित्य के इतिहास में मिलता है और न ही नवजागरण के अध्येताओं के यहाँ मिलता है फिर भी आधुनिक युग की राष्ट्रीय चेतना एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में मौजूद है। इस बात से अब इनकार नहीं किया जा सकता है कि यदि यह रचनाएँ भी सम्मिलित कर ली जाएं तब साहित्य का स्वरुप कुछ और बन पड़ेगा। यहाँ एक प्रश्न और बनता हैं कि प्रतिबंधन का आधार क्या है ? क्या यह सिर्फ एक ही तरह के थे या इनके भी कई रूप हैं ? इसका उत्तर भी बैरीयर ने अपनी पुस्तक में दिया है- “एन जेराल्ड बैरीयर ने प्रतिबंधित साहित्य को तीन उप श्रेणियों में विभाजित किया है।” जिसका  विवरण निम्नवत है –
1-इसके अंतर्गत धर्म संबंधी, ब्रिटिश विरोधियों और धर्म निरपेक्ष राजनीति वाला साहित्य शामिल है। स्वाभाविक तौर पर यह समझना कठिन नहीं है कि इस ब्रिटिश शासन के अधीन एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था और जिसके विरोध में जनता में एक स्वर भी गूँजता था जिसका संबंध ईसाई धर्म से, उसके प्रचार से और मिशनरियों के अधिक हस्तक्षेप से है । 
2-इसके अंतर्गत भारत से प्रेम करने वाले देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी और अन्य रचनाएँ  शामिल हैं।   
3-इसमें राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई कविताएं, कहानियाँ और गीत शामिल हैं ।
‘स्वदेश’ इस तीसरी श्रेणी के अंतर्गत ही प्रतिबंधित हुआ था। ऐसा नहीं कि यही तीन तरह की रचनाएँ प्रतिबंधित होती थीं। यह एक मोटा -मोटा विभाजन है, इससे इतर भी बहुत सी ऐसी रचनाएँ ऐसी हैं जो अपने स्वभाव और प्रकृति से इन तीनों श्रेणियों का अतिक्रमण करती हैं। 

 बैरीयर ने जिन आधारों पर ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा साहित्य पर प्रतिबंध लगाया जाता था उसके मानदंड कुछ इस प्रकार निर्धारित किए हैं –
“1-जिस रचना में अट्ठारह सौ सत्तावन के आंदोलन का समर्थन दिखाई देता हो वह रचना प्रकाशित नहीं हो सकती। 
2-वह रचना भी प्रकाशित नहीं हो सकती जिसमें अंग्रेजी राज्य के दमन और शोषण के खिलाफत करने वाली हो।
3- दुनिया के किसी भी देश के स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन में लिखा हुआ लेख पूरी तरह से प्रतिबंधि था। 
4-रूसी क्रांति और मार्क्सवाद के बारे में भी जानकारी देने वाली रचनाएँ पूरी तरह से प्रतिबंधित थीं। ”

    उपर्युक्त वर्गीकरण और मानदण्ड पर ‘स्वदेश’ पूर्णतः खरा उतरता है। ‘स्वदेश’ अपने प्रकाशन के समय से ही लोकप्रिय रहा। हिंदी पत्रकारिता के क्रांतिकारी प्रकाशन के इतिहास में ‘स्वदेश’ का ‘विजयांक’ विशेष रुप से उल्लेखनीय रहा है। ‘स्वदेश’ में ब्रिटिश सत्ता को खुली चुनौती दी। 7 अक्टूबर 1924 में प्रकाशित ‘स्वदेश’ का ‘विजयांक’ राष्ट्रीय चेतना से भरपूर एवं क्रांतिकारी पाठ्य सामग्री से संकलित था जिसे तत्कालीन सरकार द्वारा जब्त कर दिया गया।‘स्वदेश’ के इस विजयदशमी विशेषांक के संपादक हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र थे । इस पचास पृष्ठ वाले विशेषांक में कुल 39 लेख एवं कविताएं प्रकाशित हुई थीं। जिसमें विशेष रूप से बाबूराव विष्णु पराड़कर, हरेन्द्र मिश्र, बाबा राघव दास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, कृष्णदेव प्रसाद गौंड, जयशंकर प्रसाद, शांतिप्रिय द्विवेदी, लाला भगवान दीन तथा रामनाथ सुमन के लेख संग्रहीत हैं।

 जिन रचनाओं पर ब्रिटिश साम्राज्य को घोर आपत्ति थी उसके अंतर्गत त्रिदंडी की रचना ‘भावी क्रांति’, रामचरित उपाध्याय की रचना ‘विजय’ एवं रामनाथ लाल सुमन की ‘विप्लव राग’ और ‘मां’ जैसी रचनाओं को रखा जा सकता है।

    ‘स्वदेश’ अपने नाम एवं अपने मुखपत्र पर अंकित कविता के माध्यम से ही भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए अपने पाठकों से लगातार अपील कर रहा था। ‘स्वदेश’ का प्रकाशन उस समय प्रारंभ हुआ जब हिंदी पत्रों का कोई बहुत नामलेवा नहीं था। पराधीन भारत में खासकर उत्तर प्रदेश के निवासियों में स्वराष्ट्र प्रेम की भावना जागृत करना ही ‘स्वदेश’ का मूल सिद्धांत एवं कर्तव्य था। इसके प्रथम पृष्ठ पर द्विवेदी युगीन “राष्ट्रीय भावनाओं के कवि गया प्रसाद शुक्ल स्नेही  ‘त्रिशूल”  की पंक्तियां अंकित रहती थीं  -

“जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है जिसमें ‘स्वदेश’का प्यार नहीं।।”

    ‘स्वदेश’ के ‘विजयांक’ को प्रकाशित होते ही उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके प्रकाशक पंडित दशरथ प्रसाद द्विवेदी और संपादक पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र पर धारा 224 के अनुसार राजद्रोह का मुकदमा लिखा गया। जिसके चलते दशरथ प्रसाद द्विवेदी को  2 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दे दी गई और संपादक पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र अंग्रेजो की आँखों में धूल झोंककर फ़रार हो गए। इस संबंध में पांडेय बेचन शर्मा अपनी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में लिखते हैं कि –“‘स्वदेश’के उस अंक को लेकर गोरी गवर्नमेंट में तहलका मच गया। गवर्नर इन कौंसिल ने केस चलाने का निश्चय किया। प्रेमचन्द के भाई महताब राय (सरस्वती प्रेस जहाँ से ‘स्वदेश’’मुद्रित होती थी के प्रिंटर )पकड़े गए। दशरथ प्रसाद द्विवेदी गिरफ्तार हुए, ’स्वदेश’ के संचालक, ‘स्वदेश’ प्रेस को रौंद दिया गया। लेकिन बन्दे खान तब तक मतवाला मंडल में कलकत्ता थे। गोरखपुर का वारंट जब कलकत्ता आया, मैं बम्बई भाग गया।” 

     ‘स्वदेश’ के ‘विजयांक’ में प्रकाशित रचनाएँ भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर रही थीं। श्री अनूप शर्मा शंकर  की कविता देशभक्तों के लिए प्रेरणा स्रोत रही-

 “क्रांति की ऊषा से होगा रक्त भारतीय व्योम
 ताप भरा नेह का तरणी तम  के ही गा । 
 कायरों! क्यों लेते हो कलंक को अकारथ ही
 भारत के भाग्य का सितारा चमके ही गा ।”

    इस कविता की प्रत्येक पंक्ति का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में किया गया तथा अंग्रेज अधिकारियों के पास उसकी प्रतियां भेजी गई, जिससे भारत के देश भक्तों की उग्र राष्ट्रीयता का पता उन्हें चल सके। ‘स्वदेश’ के अंक में प्रकाशित एक अन्य कविता ‘माँ’ में विदेशी शासन को अत्याचारी की संज्ञा प्रदान की गई है-

“वे नृशंस दर्शन से ही मर जाए बस आंखें मूंदे। 
 अत्याचारी बधिक विदेशी छाती पर न अधिक कूदें। 
 एक बार मां! एक बार तू नाच काम बन जाएगा। 
 तांडव की बस एक कला में रक्त पात्र भर जाएगा।”

    एन जेराल्ड बैरीयर ने जो मानदंड प्रतिबंधित होने के लिए निर्धारित किए थे वह सब इस अंक पर बखूबी लागू होते हैं। ‘स्वदेश’ के इस अंक में कृष्णदेव प्रसाद गौंड का लेख ‘मजदूर दल और भारतवर्ष’ प्रकाशित हुआ। इस लेख में इंग्लैंड में मजदूर दल के सत्ता में काबिज होने पर खुशी जाहिर की गई है। इसमें भारत की स्थिति के बयान के साथ इंग्लैंड के साम्राज्यवादी स्वरूप का खुलासा किया गया है। इसी अंक में पांडेय बेचन शर्मा उग्र की एकांकी ‘लाल क्रांति के पंजे में’ प्रकाशित हुई। इसका संपादकीय तो वैचारिक रूप से क्रांतिकारी था ही उसके साथ यह एकांकी भी कम क्रांतिकारी नहीं थी इस एकांकी में रूस में जारशाही शासन के सत्याच्युत होने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है। पूरी एकांकी अंको में विभाजित है। एकांकी का अंतिम संवाद उल्लेखनीय है- “कैसा शुभ संवाद है। अत्याचारी को उसके कर्मों का फल मिल गया। रावण का नाश हो गया । पूंजीवाद का समर्थक कुत्तों की मौत मार डाला गया। आज हमारा प्यारा रूस पवित्र हो गया। आज हमारी मातृभूमि पर मुस्कुराहट दिखाई पड़ रही है। मां इतने से ही संतोष कर लो। जार के ही खून से संसार के अंधों की आंख खुल जाए और गरीबों को उसकी झोपड़िया लौटा दो।”  इसी कड़ी में पंडित विश्वनाथ विद्या जी का लेख ‘पूंजीवाद के अंधकार में साम्यवाद का दिव्य प्रकाश’ भी पूंजीवाद की विषमताओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है तथा साम्यवाद की वकालत करता है।  

    पूंजीवाद और फासीवाद का घनिष्ठ संबंध है। एक को कमजोर करना दूसरे को कमजोर करना है। एक की आलोचना में ही दूसरे की आलोचना छिपी हुई है इसीलिए साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था अपने जैसी किसी भी व्यवस्था का विरोध स्वीकार नहीं कर पाती, चाहे तानाशाह जार की आलोचना हो या पूंजीवाद की आलोचना हो यह ब्रिटिश हुकूमत को बर्दाश्त नहीं था ।

    ऐसा नहीं है कि ‘स्वदेश’ के विजयांक में ही सिर्फ राष्ट्रीय चेतना से संबंधित क्रांतिकारी लेख एवं कविताएं प्रकाशित हुई। इस पत्रिका में इससे पूर्व भी ऐसी कविताएं एवं लेख प्रकाशित होते रहे हैं। सन् 1919 में इसको अपने राष्ट्रवादी विचारधारा के चलते चेतावनी मिल चुकी है और पंजाब में तो इसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है। 13 मई 1919 के अंत में राष्ट्रीय पथिक द्वारा लिखित ‘कयामत होने वाली है’ शीर्षक कविता में ‘स्वदेश’ की क्रांतिधर्मिता और अधिक उग्र दिखलाई पड़ती है-

 “सितमगर सोच ले दम भर, तेरी दरख्वास्त जाली है। 
 महज ताबूते हैं बेजान है मुर्दार डाली है। 
 नहीं है ये सुलह  के ढंग, नहीं कौमी तरक्की के । 
 अरे! रुक झांक, नीचे तो तेरी बुनियाद खाली है । 
ये खून है बेगुनाहों का, दबाया नहीं जा सकता ।  
हशर तक वह पुकारेगा कि, ये तजबीज काली है । 
संभल जा वक्त है, अब भी बदल यह चाल बेढंगी। 
 तेरी रफ्तार पर बरपा कयामत होने वाली है।” 

    किसी भी पत्रिका की सम्पादकीय उसका प्राण हुआ करती है। ‘स्वदेश’ का मुखपत्र और संपादकीय तो सीधे-सीधे ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देता था। उसकी नीतियों को खुली चुनौती देते हुए उसकी आलोचना करता था। उदाहरणत: काकोरी के शहीदों को फांसी के बाद राष्ट्र के नाम उनके संदेश, फांसी पाने वालो की फांसी कैसे हुई, खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं आदि लेखों को हम देख सकते हैं। इसके अगले अंक में ‘सरकार का रुख’ शीर्षक संपादकीय में ‘स्वदेश’ की अंतिम पंक्तियां उल्लेखनीय हैं –“क्या हुआ यदि उनका मार्ग हमसे अलग था। क्या मुजायका है यदि परदेसी शासन में उन्हें डाकू और हत्यारा घोषित कर दिया। उनके हृदय में असीम देशभक्ति जो थी । बस केवल वही हमारे लिए स्तुति तथा उपासना के लिए पर्याय है। यह स्थिति पैदा हो जाने और उनको उस मार्ग का पथ बनाने की जिम्मेदारी भी थोड़ी बहुत हम शांति प्रिय लोगों के सर जरूरी है। किंतु अब क्या ? अब तो बाकी है उन वीरों का आत्मोत्सर्ग हमारी कायरता और सरकार की हृदय हीनता।” इसके पूर्व क्रांतिकारियों के प्रति ‘स्वदेश’ और ‘स्वदेश’ के प्रति क्रांतिकारियों के पारस्परिक संबंधों का परिचय इस तथ्य से भी होता है कि- “फांसी के पूर्व गोरखपुर कारागार में लिखित अपनी आत्मकथा की पांडुलिपि को पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने जेल अधिकारियों की दृष्टि से बचाकर ‘स्वदेश’ के संस्थापक संपादक श्री दशरथ प्रसाद द्विवेदी के पास भेजा था। जिसे बाद में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप प्रेस कानपुर में ‘काकोरी के शहीद’ नामक पुस्तक के अग्रभाग में प्रकाशित किया था।”

    ‘स्वदेश’ सिर्फ स्वाधीन चेतना और क्रांतिकारी रचनाओं के लिए लोकप्रिय नहीं था वह अपने अंदर भारतीय समाज की विडंबना और स्त्रियों की दशाओं को भी प्रमुखता से प्रकाशित कर रहा था। इसके विजयांक में पंडित लक्ष्मीधर बाजपेई का लेख ‘हिंदू समाज की स्थिति’ और पंडित छविनाथ पांडे का लेख ‘समाज में स्त्रियों का स्थान’ इसका परिचायक है। इन लेखों में भारतीय समाज की कूपमंडूकता की कड़ी आलोचना की गई है। 

    इस प्रकार हम पाते हैं कि हिंदी का प्रतिबंधित साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ ने हमेशा समाज की कुरीतियों के प्रभाव पर अपनी पैनी नजर रखी और इसके साथ ही उनको भारतीय समाज के सामने समय-समय पर उजागर भी किया है। चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य का अत्याचार हो या पाखंड एवं अंधविश्वासों की जकड़ में जकड़ा भारतीय समाज हो।

निष्कर्ष : ‘स्वदेश’ पत्र अपने समय की सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक समस्याओं का एक प्रमाणिक दस्तावेज है। ‘स्वदेश’ की तेजस्विता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि तत्कालीन हिंदी एवं अंग्रेजी पत्रों के विचारों का मूल्यांकन किया जाए।  इसके समकालीन पत्र आज एवं प्रयाग से प्रकाशित होने वाले पत्र स्टार ने इसके संबंध में खूब लिखा है-“गोरखपुर को इस बात का गर्व होना चाहिए कि उनके यहाँ से हिंदी सप्ताहिक ‘स्वदेश’ का जन्म हुआ  राष्ट्रीय दृष्टि से पत्र उनके लिए सचमुच ही बहुमूल्य है, जिनके लिए इसकी आवश्यकता थी। हमारे सहयोगी का उत्साहयुक्त और जोरदार लेख लिखने का ढंग ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार कानपुर के प्रताप का।” अतः उपर्युक्त विवरणों  से स्पष्ट हो जाता है कि ‘स्वदेश’ का मुख्य उद्देश्य था स्वराज्य की प्राप्ति। इसी पत्र के प्रयास से गोरखपुर कमिश्नरी में अंग्रेजी सरकार के प्रति अपना प्रतिरोध जताने वालों की वृद्धि हुई। राष्ट्रभक्ति एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का बहुत बड़ा जत्था ‘स्वदेश’ ने तैयार किया था। ‘स्वदेश’ का यह कार्य तत्कालीन ब्रिटिश अफसरों की आंखों में किरकिरी बन गया था।

सन्दर्भ :
  1. भदौरिया,डा संतोष, ‘अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएं, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी,भोपाल,पृष्ठ संख्या- 41
  2.  दैनिक जागरण , गोरखपुर संसकरण, 25 जनवरी 2020
  3. प्रसाद कलिका ,सहाय राजबल्लभ,श्रीवास्तव मुकुन्दी लाल, ‘बृहत् हिन्दी कोश’, ज्ञानमंडल प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ संख्या-728
  4.  https://www.rekhta.org>couplts
  5. राय ,रुस्तम , ‘प्रतिबंधित हिंदी साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या –20 
  6. वही, पृष्ठ संख्या- 28 
  7. वही, पृष्ठ संख्या- 32 
  8. डा नागेन्द्र, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास, ‘ नेशनल पब्लिशिंग हॉउस, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 487
  9.  उग्र,पाण्डेय बेचन शर्मा,(सं.), ‘स्वदेश’, विजयांक- 07 अक्टूबर 1924 पृष्ठ संख्या- 01
  10. https://hindisamay.com>content
  11.  उग्र,पाण्डेय बेचन शर्मा,(सं.), ‘स्वदेश’, विजयांक- 07 अक्टूबर 1924 पृष्ठ संख्या- 07
  12. वही, पृ.45 
  13. वही, पृ. 32 
  14. भदौरिया,डा संतोष, ‘अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएं, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी,भोपाल,पृष्ठ संख्या- 108 
  15. द्विवेदी, दशरथ प्रसाद,(सं.) स्वदेश,01-08 जनवरी,1928
  16. भदौरिया,डा संतोष, ‘अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएं, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी,भोपाल,पृष्ठ संख्या- 117
  17. वही, पृ. 50   

निरंजन कुमार यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर 
8726374017
  
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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