शोध आलेख : मारवाड़ में हिंदू-मुसलमानों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय-16वीं शताब्दी के विशेष संदर्भ में / ममतेश अग्रवाल एवं डॉ. शरद राठौड़

मारवाड़ में हिंदू-मुसलमानों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय-16वीं शताब्दी के विशेष संदर्भ में
-ममतेश अग्रवाल एवं डॉ. शरद राठौड़

शोध सार : भारत भूमि पर हिंदू और इस्लाम दो महान संस्कृतियों का समन्वय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। सर जॉन मार्शल का विचार है कि मानव जाति के इतिहास में ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा गया जब इतनी विशाल, इतनी सुविकसित तथा मौलिक रुप से इतनी विभिन्न सभ्यताओं का सम्मिलन और सम्मिश्रण हुआ हो। इन सभ्यताओं और धर्मों के विस्तृत विभेद ने इनके संपर्क के इतिहास को विशेष रूचिकर तथा शिक्षाप्रद बना दिया। इस संपर्क ने संस्कृति के विभिन्न तत्वों-कला-साहित्य, आचार-विचार, व्यवहार सभी स्तरों पर संस्कृति एवं समाज को समृद्ध किया। हिंदू एवं मुसलमानों में एकीकरण की प्रवृत्ति सल्तनत काल से ही दिखाई देती है। भक्ति आंदोलन के प्रवर्तकों के प्रयास, मुस्लिम सूफी संतों की उदारवादी नीति ने हिंदू-मुसलमानों को एक-दूसरे के निकट ला दिया। कबीर ने दोनों धर्मों की कट्टरता एवं रूढ़ियों पर समान रूप से प्रहार किया-

हिंदू कहै मोहि राम पियारा, तुरक कहै रहिमान।
आपस में दोउ लड़ि-लड़ि मूये, मरम कोई जाना।।

कबीर ने यह कहकर कि राम और रहीम दोनों एक ही हैं दोनों धर्मों के बीच समन्वय की भावना पैदा की। उदारवादी तथा रूढ़िवादी दृष्टिकोणों से प्रभावित होने वाली यह प्रक्रिया मरु प्रदेश में बादशाह अकबर के समय तीव्र गति से प्रारंभ हुई। अकबर ने अपनी उदारवादी नीति से दोनों संस्कृतियों के मध्य संकुचित दृष्टिकोण, हठधर्मिता, धार्मिक असहयोग एवं पारस्परिक कलह को समाप्त कर सांस्कृतिक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। हिंदू-मुसलमानों में लंबे समय तक साथ रहने से मंगलकारी प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन हुआ। प्रस्तुत शोध पत्र में मारवाड़ में हिंदू-मुसलमानों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय का अध्ययन किया गया है।

बीज शब्द : हिंदू मुस्लिम समन्वय, सद्भावना, प्रस्फुटित, कलात्मक, बेल बूटे, कशीदाकारी, आकर्षण, मीनाकारी, आत्मसात, शौकीन, संस्कार।

मूल आलेख : हिन्दू-मुस्लिम समन्वय के प्रयास सही दृष्टि में अकबर के शासन काल से ही प्रारम्भ हुए। अकबर पहला शासक था, जिसने गद्दी पर बैठते ही तीर्थ यात्रा कर तथा जजिया कर समाप्त कर हिन्दुओं का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त किया। जाति धर्म के भेदभाव को समाप्त कर अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित किया, गैर मुस्लिमों को धार्मिक आजादी देकर उनका बलपूर्वक धर्मांतरण करने एवं गुलाम बनाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया तथा हिन्दुओं को धार्मिक क्रियाकलापों  की पूर्ण स्वतन्त्रता देकर हिन्दू जनता को इस्लाम के प्रति सद्‌भावनापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी। उसने सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू एवं मुसलमानों में एकता स्थापित करने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता की स्थापना की।

मुगलकाल में प्रारम्भिक शासकों के समय से ही हिन्दू मुस्लिम संस्कृति एक दूसरे के निकट आयी एवं सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र में समन्वय की मंगलकारी प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन हुआ। दिल्ली सुल्तानों तथा मारवाड़ राज्य के उत्तरार्द्ध में रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा, विवाह और परम्पराओं के अतिरिक्त स्थापत्यकला, चित्रकला, नृत्य कला, संगीत कला, साहित्य में सामंजस्य, सहिष्णुता सहयोग की जो प्रवृत्तियाँ समाहित हुई, वे मुगल शासन में पूर्णतया प्रस्फुटित हुई एवं सुन्दर संस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति हुई। यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय दोनों संस्कृतियों में दृष्टिगोचर होता है।              

इस्लामी सामाजिक व्यवस्था की विशेषता समानता रही है परंतु भारतीयों के संपर्क से उनकी यह विशेषता विलीन हो गई। हिंदू समाज की भांति उनमें भी असमानता तथा ऊंच-नीच की भावनाओं का समावेश हुआ। मुस्लिम समाज में अरब, फारसी, तुर्क, अफगान, उजबेग, अशरफ तथा धर्म परिवर्तित मुसलमानों के अनेक वर्ग मेवाती, कायमखानीहैवासी, बनजारा मेर इत्यादि बन परस्पर भेदभाव करने लगे। 

मुगलकालीन मारवाड़ में वेशभूषा और आभूषण : मारवाड़ की बहुरंगी वस्त्र परंपरा अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के लिए सदैव से ही प्रसिद्ध रही है। यहां बहुरंगी वस्त्रों के प्रचलन का मुख्य कारण मारवाड़ की तत्क्षेत्रीय शुष्क जलवायु और धूल भरा वातावरण रहा है। इन्द्रधनुषी रंगों से सजी विभिन्न प्रकार की पोशाकें अपने रंग-रूप, आकार और कलात्मकता में अद्वितीय एवं विशिष्ट स्थान रखती हैं। मारवाड़ में पुरुष सिर पर पगड़ी बांधते थे जिन्हें खिड़कियां कहा जाता था।1 ऋतु के अनुसार मारवाड़ में रंगीन पगड़ियां पहनने का रिवाज था। पुरुष सामान्यतया छोटा कुर्ता, अंगरखी तथा चादर ओढ़ते थे। स्त्रियों के वस्त्र कुर्ती, घाघरा, दुपट्टा, अंगिया, कांचली और चुनरी ओढ़नी आदि थे। जिन्हें अनेक प्रकार के बेल-बूटों से आकर्षक बनाया जाता था। मारवाड़ में आभूषणों का प्रयोग शरीर को सुंदर और आकर्षक बनाने के अलावा वर्ग भेद एवं समाज में अपने स्तर का बोध प्रदर्शित करने के लिए होता था। मारवाड़ में पुरुष हाथों में कड़े, कुंडल, भुजबंध, अंगूठी, गले में हार (माला) पहनने के शौकीन थे।2 इसके अलावा पुरुष मुरकी, तोड़ा, करनौला, कड़ा, कंठा तथा पैरों में बाजर एवं कड़ा पहनते थे। मारवाड़ में स्त्रियों के आभूषण कड़ा, कंकण, नोगरी, चांट, चूड़ी, गजरा, पीपल पत्ता, फूल झुमका, झेला, लटकन, बोर, रखड़ी, टिकड़ा, तुलसी, हालरो, बीटी, दायना, नूपुर, पायल, नाथ, चोप, चूनी तथा करधनी इत्यादि थे। पैरों के आभूषण नेवरी, पायल, पगपान, बिछिया, पायजेब घुंघरू इत्यादि थे। कुलीन वर्ग की स्त्रियां, राजकुमारियां, महारानियां आदि सोने, चांदी, रत्न और मोती जड़ित आभूषण पहनती थी। जन सामान्य वर्ग की स्त्रियां तांबा, पीतल, चांदी और रूपा (चांदी तथा सीसे का मिश्रण) आदि के बने हुए आभूषणों का प्रयोग करती थी। गहनों में घुंघरू लूंब लगाए जाते थे तथा मोती, लाल पन्ना आदि पिरोए जाते थे।3

वेशभूषा और आभूषणों में समन्वय : मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद राजपूताना के पुरुषों एवं महिलाओं द्वारा विभिन्न प्रकार की पहने जाने वाली वेशभूषा की डिजाइनों का पता 15वीं एवं 16वीं शताब्दी के तत्कालीन साहित्य कला के अध्ययन से चलता है। उस युग के सामाजिक जीवन की जानकारी में स्त्रियों तथा पुरुषों की वेशभूषा का मुख्य स्थान था। मारवाड़ी वेशभूषा में स्त्रियां साधारणतया घाघरा, कांचली तथा ओढ़नी का प्रयोग करती थी। पुरुष धोती तथा अंगरखी पहनते और पगड़ी बांधते थे। मुगल वस्त्रानुराग के लिए प्रसिद्ध थे। उच्च वर्ग रेशमी तथा जरी के बहुमूल्य वस्त्र पहनते थे। मुगलों में दरबार की शान बहुमूल्य वस्त्र एवं रत्न जनित आभूषण धारण करने के लिए बाध्य करती थी। अबुल फजल के अनुसार बादशाह अकबर को प्रतिवर्ष एक सहस्त्र वेशभूषाएं बनवानी पड़ती थी जो प्राय: राज सभा में आने वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियों में वितरित की जाती थी। हिंदुओं ने मुसलमानों की वेशभूषा और शिष्टाचार को अपना लिया। वेशभूषा पर आभूषणों का उपयोग हिंदू-मुसलमान दोनों करने लगे।4 मुगल प्रभाव से प्रेरित होकर मारवाड़ के कुलीन वर्ग की स्त्रियों ने घाघरा, ओढ़नी एवं कांचली (जरी रत्न युक्त) का प्रयोग प्रारंभ किया। स्त्रियां अपनी वेशभूषा पर मोती, सोने चांदी की बेलबूटे एवं सितारों का प्रयोग करने लगी। मुगलों से अभिप्रेरित होकर हिंदू स्त्रियों की वेशभूषा, उसकी डिजाइन एवं मौलिकता में परिवर्तन हुए।5 राजपूतों के हरम में रहने वाली दासियां भी लंबा कुर्ता, सलवार पायजामें का प्रयोग करती थी जो नितांत मुगलों के हरम से ही प्रभावित था।

उच्च वर्ग मुगलों के सम्पर्क से चूड़ीदार पायजामा, शेरवानी सेहरा पहनने लगे और पगड़ी को चमकीला बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबंदी, धुगधुगी, गोसपेच, पछेवाड़ी तथा लटकन आदि का प्रयोग करने लगे। यह पगड़ियां प्रायः तजेब डोरिया की होती थी। 'मोरठे' की पगड़ियां विवाहोत्सव में, लहरिया पगड़ी सावन में, 'मदील' (पगड़ी जिसके किनारे सोने या चांदी के तारों से बने बेल-बूटों से सजे हो) दशहरे के अवसर पर तथा फूल पत्ती वाली पगड़ी होली पर बांधी जाती थी। मारवाड़ में इसका प्रयोग केवल धूप से सिर की रक्षा करना था, वरन यह व्यक्ति की सामाजिक एवं धार्मिक भावना के साथ मान सम्मान का भी प्रतीक रही है। मुगलों के सम्पर्क से बेल-बूटेदार कपड़े, छपे हुए रेशम, मखमल का प्रयोग बढ़ गया। मुस्लिम प्रभाव से पटका हिंदू विवाह के अवसर पर कमरबंद के रूप में दूल्हे के कमर पर बंधने लगा। लूंगी और रुमाल का प्रयोग बढ़ा।

मुगलों की भांति मारवाड़ के राजा-महाराजाओं की वेशभूषा, सोने की जरी तथा रत्नजड़ित मीनाकारी आदि का प्रचलन संस्कृतिक समन्वय का प्रतीक है।6 मारवाड़ के राजपूत शासकों द्वारा मुगल दरबार में जाने पर मुगल शासकों द्वारा उनके सम्मान में कीमती पोशाक एवं उपहार भेंट किये जाते थे।7

मुगल प्रभाव से प्रेरित होकर कशीदाकारी, सलमे सितारे जड़े एवं ऊंची एड़ी वाले जूतों का प्रचलन मारवाड़ के कुलीन वर्ग एवं राजा महाराजाओं में खूब बढ़ा। मारवाड़ के शासक एवं उच्च वर्ग के लोग अपनी जूतियां पर कशीदाकारी, सलमे सितारे का प्रयोग मुगलों के जूतों की भांति करने लगे।8

मध्यकालीन राजस्थान में बने हुए कई मंदिरों की तक्षण कला तथा चित्रों से और साहित्यिक ग्रंथों से आभूषणों की जानकारी मिलती है। मारवाड़ में स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। उच्च वर्ग के लोग कानों में कुंडल, हाथों में कड़े, भुजबन्ध, अंगूठी, गले मे हार, तुलसी, झालरों और कमर में करधनी पहनते थे। निम्न श्रेणी के लोग चांदी और पीतल के आभूषण पहनते थे। राजाओं में सोने, हीरे, रत्न जड़ित और मोतियों से बने हुए आभूषणों का प्रचलन था। मुगलों के सम्पर्क में आने से पूर्व मारवाड़ की स्त्रियों में सामान्यतः बोरिया, सुरलिया, गलपट्टा, सांकली, रीमझेल (पायल), कंगन, चूड़ी, भूटना, खांचा, पतिसूलिया, कानों की बालियों का प्रचलन था। मुगलों के सम्पर्क से उनके आभूषणों में सोने, चाँदी, पीतल और कांस्य के बने हुए जड़ाऊ आभूषणों का प्रचलन बढ़ गया तथा माणक, मोती, पन्ना, हीरा, मूंगा, गोमेदक, नीलम एवं फिरोजा आदि बहुमूल्य नगीनों का प्रयोग कर आभूषणों को आकर्षक और सुंदर बनाया गया।9

पगपान, हथपान, नाक की लौंग, फूलपत्ती, गले की हसमेल, बाजूबन्द, हीरे की जड़ित अंगूठी, पन्ने-माणक के बने हुए आभूषणों का प्रचलन बढ़ा। केंचुली (अंगिया) और ओढ़नी पर चाँदी की जरी का प्रयोग बढ़ गया। मुसलमानों में हिन्दुओं की तरह आभूषण के प्रति आकर्षण बढ़ने एवं उन पर मीनाकारी, माणक रत्नों के प्रयोग से दोनों जातियों में सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ावा मिला।

भोजन में समन्वय : मारवाड़ के निवासी शाकाहारी और माँसाहारी दोनों थे। यहाँ के जनसाधारण का मुख्य भोजन राबड़ी, सागरो, रोटी, घाट आदि थे। भोजन में मुख्यत: शुद्धता एवं निर्मलता पर बल दिया जाता था। मारवाड़ में जल की कमी के कारण सांगरी, काचर, फली, फोग, झारियां-करेल तथा बाजरा की बहुतायत से भोजन में इनका प्रयोग होता था। मुगलों के सम्पर्क से विशेषकर कुलीन घरानों और साधारण वर्ग के सामान्य रुखे- सूखे भोजन का स्थान मुगलों के बहुमूल्य, विशिष्ट एवं स्वादिष्ट भोजन ने ले लिया। शरीर की स्वच्छता के स्थान पर भोजन की स्वच्छता पर विशेष बल दिया गया।10

मुगलों के सम्पर्क से मारवाड़ में मावे की खीर, खुरासानी, खिचडी़ लापसी, गुगरी, कचौड़ी, पुलाव, जलेबी, मुरब्बा, भूनी हुई वस्तुऐं एवं सूखे मेवे, कबाब आदि का प्रयोग हिन्दू परिवारों (समृद्ध एवं जनसाधारण) में बढ़ गया। हिन्दुओं के काचरी, सांगरी फलियों की सब्जी, शीरा (हलुआ), लापसी, बाजरे की रोटी का प्रचलन मुगलों में बढ़ा। मुगल शासक चावलों के शौकीन थे। चावलों से बने पकवान यखनी, कोरमा, मीठा पुलाव, मुजफ्फर शोला, मुजफ्फर पुलाव, इमली पुलाव, तड़ी, मुंतजन पुलाव, जरदा पुलाव, सोया पुलाव, मच्छी पुलाव, दमपुख़्त पुलाव, कूकू पुलाव, बिरयानी, तीतर पुलाव, कोफ्ता पुलाव, खुश्का पुलाव, गुलजार पुलाव, नूर पुलाव, अनारदाना पुलाव, मोती पुलाव तथा मौला पुलाव आदि थे। मुगलों के भोजन में प्रचलित चावल से बने विभिन्न पकवानों को मारवाड़ के शासकों ने भी आत्मसात किया।11

मुगल खट्टे आचारों और मुरब्बे के शौकीन थे। अचार, खटाई तथा मसालों का प्रयोग कर अपने भोजन को और भी स्वादिष्ट बना दिया करते थे।12 आम, नींबू, गाजर, लहसुन, प्याज, कैरी का अचार राजस्थान के शासकों ने मुगलों से अपने भोजन में सम्मिलित किया। मुगलों के संपर्क से भोजन में बालूशाही, गुलाब जामुन, बर्फी, कलाकंद आदि नवीन मिठाइयों का प्रचलन बढ़ा।

मुगल मुख्यत: माँसाहारी थे तथा तैलीय विभिन्न मसालों से युक्त स्वादिष्ट भोजन का प्रयोग करते थे। मुगलों के सम्पर्क से बकरी, मछली, भेड़, तीतर, बटेर, हिरण, शिकारयुक्त चिड़ियो के माँस का राजपूत राजाओं निम्न वर्ग में प्रचलन बढ़ गया।

मुगलों द्वारा बुखारा और समरकंद से लाए सूखे मेवों में बादाम, पिस्ता, चिरौंजी एवं मखानें इत्यादि प्रयुक्त किए जाते थे जिससे राजस्थान के राजपूतों में मिठाइयों में सूखे मेवों का प्रचलन बढ़ा।

मुगलों के संपर्क से हिंदुओं में भोजन के पश्चात सुपारी और इलाइची खाने का प्रचलन बढ़ा। भांग, शराब और अफीम का प्रचलन मारवाड़ के महाराजाओं में ही नहीं बल्कि जनसाधारण में भी बढ़ गया। दुर्लभ फल, अद्भुत उबले हुए पदार्थ, पाक शास्त्र कला के अनुसार बनाए गए स्वादिष्ट रुचिकर भोजन जिनका विकास ईरान के समाज में हुआ था, मुगलों के समय भारत आए और शीघ्र ही हिंदू और मुसलमानों में लोकप्रिय हो गए। राजपूत शासकों ने खाद्य पदार्थों को देसी खाद्य पदार्थों से जोड़कर नए खाद्य उत्पादों को प्रचलित किया। भोजन के इन अनूठे प्रयोग से हिन्दू-मुसलमानों के मध्य सामाजिक सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ावा मिला।13

संस्कार और मनोरंजन के साधनों में समन्वय : हिन्दू धर्म में संस्कारों का बहुत महत्त्व था। बच्चे के गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन संस्कारों की श्रेणी से सम्बद्ध था। हिन्दुओं मे जातकर्म, चूडा़कर्म, विवाह, उपनयन एवं अंत्येष्टि आदि मुख्य रीति-रिवाज थे। मुस्लिम समाज में प्रचलित 'अकीका' और 'बिस्मिल्लाह' हिंदुओं के 'मुंडन' और 'विद्यारंभ' संस्कारों के प्रतिरूप थे। राजपूतों में मुगलों के संपर्क से पूर्व अनेक कुप्रथाओं का प्रचलन था। दहेज प्रथा हिंदू और मुसलमानों में समान रूप से व्याप्त थी। जनसाधारण में गरीब पिता के लिए विवाह के अवसर पर दहेज दिए जाने की प्रथा अधिक विकट थी। मुगल शासकों ने इस प्रथा को रोकने हेतु भरसक कदम उठाए, जिसके परिणाम स्वरूप मारवाड़ शासकों ने दहेज प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया।14

मध्यकालीन राजस्थान में विवाह एक महत्वपूर्ण एवं पवित्र संस्कार था जो अपनी जाति में ही किया जाता था। हिंदुओं में मुख्यतः एकल विवाह प्रचलित था जो अग्नि के चारों ओर सात फेरे लगाकर पूर्ण होता था जबकि मुसलमानों में विवाह की रस्म हिंदुओं के विपरीत थी। मुसलमान कुरान शरीफ को आधार मानकर निकाह पढ़कर विवाह की रस्म पूर्ण करते थे। लड़के का पिता लड़की के पिता को मेहर स्वरूप निश्चित राशि प्रदान करता था। मुस्लिम संपर्क से हिंदुओं तथा मुसलमानों के वैवाहिक रीति रिवाज तथा रस्में एक-दूसरे से प्रभावित हुई। हिंदुओं के विवाह में अचकन और सेहरा का प्रयोग होने लगा

मुगलों में बहु विवाह प्रथा सुल्तानों, अमीरों, सामंतों तक सीमित नहीं थी अपितु निम्न स्तर तक प्रचलित रही।15 मुगलों के प्रभाव से हिंदुओं में दहेज में दासियां भी दी जाने लगी। इससे स्त्री भोग विलास की वस्तु समझी गई।16

राजपूतों की राजनीतिक स्थिति मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध बनाने से सुदृढ़ हुई। मारवाड़ शासक मोटाराजा उदयसिंह ने अपनी पुत्री जोधाबाई का विवाह अकबर के पुत्र सलीम के साथ किया। वैवाहिक संबंधों द्वारा राजपूतों की राजनीतिक स्थिति के साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ हुई। सांस्कृतिक समन्वय से ही राजपूतों ने केवल ढ़ाल एवं तलवार बनकर मुगल साम्राज्य की रक्षा की वरन् उसके विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई‌।17 मुगलों के संपर्क से मारवाड़ के शासकों, दरबारियों में आचरण, शिष्टाचार एवं अभिवादन के तौर-तरीकों में बदलाव आया, जिसका प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गो पर पड़ा।

मुसलमानों ने हिंदुओं की नजर लगने से उतारने की प्रथा अपनाई। वे भी शगुन में विश्वास करने लगे। हिंदुओं के समान मुसलमान भी मृत्युभोज करने लगे, खैरात बांटने लगे, एवं पीरों की कब्रों पर मिठाइयां तथा पुष्प चढ़ाने लगे।18

इस्लाम के अनुसार मुसलमानों में धार्मिक समानता थी, परंतु हिंदुओं के संपर्क के पश्चात वे भी जाति-पाती ऊंच-नीच के भेदभाव से कदापि मुक्त ना रह सके। उनमें जातीय संकीर्णता बढ़ती गई तथा आर्थिक असमानता के आधार पर भी समाज पूर्णतया विभाजित हुआ। यद्यपि मुस्लिम समाज के प्रारूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ लेकिन आंतरिक बाह्य परिवर्तनों के साथ समाज का विकास हुआ।

डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार "मुसलमानों के संपर्क का महत्वपूर्ण प्रभाव भारतीय युद्ध प्रणाली पर पड़ा। मुगल युद्ध प्रणाली ने 16वीं शताब्दी में भारतीय राजनैतिक स्थिति में क्रांति उत्पन्न कर दी।" मुसलमानों द्वारा आग्नेयास्त्रों (तोपों) के प्रयोग ने एक नवीन युद्ध प्रणाली तुलुगमा को जन्म दिया जिसके परिणाम स्वरूप राजपूतों की युद्ध व्यवस्था में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

मारवाड़ के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में मनोरंजन का विशिष्ट स्थान था। शतरंज शाही अभिरुचि से संबंधित होने और विपक्षी को कूटनीतिक चालों से पराजित करने की भावना से खेलने के कारण विचारकों तथा राजनीति में रुचि लेने वालों के द्वारा अत्यधिक खेला जाता था। मनूची की मान्यता है कि बादशाह और अमीर इस खेल द्वारा रण स्थल का प्रबंध भी सीखते थे।19 हिंदू शासकों में भी शतरंज मुगल बादशाहों की भांति मनोरंजन का साधन बना। ताश के भी तरह तरह के खेल खेले जाते थे। ताश का खेल भारत में बाबर ने चलाया था, जो कि मुसलमानों से हिंदुओं में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ।20 गजीफा ताश की तरह का खेल था जिसमें निर्णय तुरूप से ही होता था। शतरंज, ताश गजीफा आदि खेल घरों और महलों में रहते हुए खेले जाते थे। इन खेलों मे धन, स्त्री, घोड़ा आदि को दांव पर लगाया जाता था। राजपरिवार के अंत:पुर में विशेष कर इन खेलों का प्रचलन था। पतंगबाजी का विकास मुगल काल में ही हुआ। जोधपुर में आखातीज पर पतंगबाजी का आयोजन किया जाता था।21

शौर्य प्रदर्शन के खेल कुश्ती, तैराकी, रथ दौड़, शिकार खेलना, हिंसक पशुओं की लड़ाईयां इत्यादि थे। मुगलों के संपर्क से ऊंट युद्ध, मेंढ़ा युद्ध,22 हाथियों की लड़ाई, सूअर, चीता तथा शेरों की लड़ाई में जोधपुर के महाराजा रूचि लेने लगे। जन-साधारण के मनोरंजन के साधन नृत्य, झूलना, रास, गदरी, भांड़, नटों के खेल थे। पशुओं की लड़ाई मुख्यत: सार्वजनिक रूप से मनोरंजन का साधन था।

त्योहारों में गणगौर, होली, दीपावली, दशहरा आदि धार्मिक पर्व धूमधाम से मनाने के साथ ही मनोरंजन के साधन भी थे। मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के रक्षाबंधन, विजयदशमी, तथा होली इत्यादि त्योहारों को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। मुसलमानों द्वारा भारत में मकबरों की पूजा की जाती थी जो भारत में पीरों की पूजा का ही दूसरा रूप था। हिंदुओं के दैनिक स्नान की प्रथा और धार्मिक कृत्य करने से पूर्व शरीर को शुद्ध एवं पवित्र करने की प्रणाली को मुसलमानों ने भी ग्रहण किया।23 मुगलों के सम्पर्क से मारवाड़ में पतंगबाजी, कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई, नाच-गान और नृत्य सार्वजनिक जीवन में मनोरंजन के साधन बन गए।

साहित्य, भाषा तथा कला में समन्वय : मारवाड़ में मध्य युग की शिक्षा के विकास का मापदंड साहित्य-सृजन था। साहित्य एवं भाषा पर मुगलों के संपर्क का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। उस युग में फारसी, उर्दू भाषा के साथ हिन्दी, संस्कृत, देशज भाषा- बंगला, गुजराती, मराठी, कन्नड, राजस्थानी आदि में मौलिक ग्रंथों एवं साहित्यों की रचना की गई। इस समय मारवाड़ में संस्कृत एवं डींगल भाषा में स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की गई। मारवाड़ के शासक कवियों के आश्रयदाता तथा स्वयं बड़े विद्वान थे। उनके समय ऐतिहासिक साहित्य, काव्य साहित्य, संगीत आदि मौलिक रचनाऐं रचित हुई। राजस्थान के शासकों के समय प्रारंभ में सृजित साहित्य की भाषा संस्कृत थी। मुगलों के समय संस्कृत के अनेक पौराणिक ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद हुआ जिनमें महाभारत (रज्मनामा), पंचतंत्र (कलीला-दमीना), रामायण, अथर्ववेद, लीलावती आदि प्रमुख ग्रंथ थे। मुगल दरबार में अनेक हिन्दू साहित्यकार थे - जगन्नाथ, वंशीधर, हरिनारायण मिश्र, रघुनाथ आदि। मुगलों के सम्पर्क से फारसी भाषा में भी साहित्य का सृजन हुआ। मुसलमानों के आगमन के पश्चात् राजस्थानी समाज में इतिहास लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया गया।24 मुगलों के वैवाहिक संपर्कों ने मारवाड़ में फारसी-जुबान--अदब के पल्लवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुगलों के प्रभाव से मारवाड़ के राजा महाराजाओं की दरबारी भाषा एवं बहियों में फारसी शब्दों का प्रयोग होने लगा। समय-समय पर जारी आदेशों की भाषा शाही फरमानों से प्रेरित रही। उस युग के साहित्य में विलास, ऐश्वर्य, श्रृंगारिकता के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के मेलमिलाप के साहित्य का वर्णन मिलता है, जिनसे हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के करीब आए।25

मनुष्य की स्वानुभूति की अभिव्यक्ति कला है। मानव के अंतर्मन में व्याप्त भावों, संवेदनाओं को प्रत्यक्षीभूत करने हेतु उसके हाथों से जो सृजित हुआ, उससे कला के विविध रूप निःसृत हुए। मुगलों के सम्पर्क ने मारवाड़ की स्थापत्य कला, नृत्यकला, मूर्तिकला संगीत कला, तथा चित्रकला को पूर्ण रूप से प्रभावित किया। उक्त कलाओं में हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों का समन्वय दिखाई देता है। मुगल सम्पर्क से हिन्दू भवन निर्माण शैली में अधिक विस्तार, विशालता एवं चौड़ाई की विशिष्टता सम्मिलित हुई। स्थापत्य कला की सबसे बड़ी विशेषता में नवीन इंडो-इस्लामिक या हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का सम्मिश्रण दिखाई देता है। हिंदुओं के भवनों एवं मंदिरों में सपाट दरवाजे, छोटे आंगन, छोटे प्रस्तर स्तंभों, तोड़ो पर आधारित छज्जों के स्थान पर मेहराब दार दरवाजे, गुंबदाकार छतें, सजावट युक्त छज्जें, जाली झरोखों की फूल पत्तियां, छोटी बुर्जियों, ज्यामितीय संरचना पर मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देता है। मारवाड़ के फूल महल में राजपूत पद्धति की प्रधानता दृष्टव्य है, परंतु सजावट एवं साम्यता उत्पन्न करने में यहां मुगल शैली को अपनाया गया है। मंदिरों मे कमल, तोते एवं मोर का अंकन हिन्दू पद्धति से तथा तारे, कुंज, द्वार की बनावट में मुगल शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जोधपुर के घनश्याम मंदिर में अलंकार एवं बाहरी ढांचे में मुगल शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। सोजत, जालौर सिवाना के दुर्ग में बने छज्जे, झरोखे, प्रस्तर पर नक्काशी, दीवारों की मजबूती चौड़ाई, विशाल प्रवेश द्वार का निर्माण, महलों में रोशनी की व्यवस्था, भवनों में कंक्रीट तथा चूने का प्रयोग पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। नागौर दुर्ग में बना बड़ा कक्ष दिल्ली के दीवाने--आम की भांति बना हुआ है। इसकी बाईं ओर बने शीशमहल के भित्ति चित्र पर मुगल प्रभाव परिलक्षित है। मारवाड़ की बावड़ियों की घुमावदार सीढ़ियों, मोटी दीवारों अर्धचंद्राकार जालियों पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। मुसलमानों का अनुकरण कर मारवाड़ के शासकों ने अपनी समाधियां एवं छतरियां बनवाई।26 मारवाड़ के महलों एवं भवनों पर स्पष्ट रूप से कटोरे दार मेहराब, कांच की पच्चीकारी, बैठक, प्लास्टर की रंगाई आदि मुगल शैली के प्रभाव के प्रतीक हैं।27

मुगलों की प्रेरणा से अनेक रागों का जन्म हुआ, जिनमें तराना, ठुमरी, कव्वाली तथा गजल आदि प्रमुख राग थे। परिणाम स्वरूप मारवाड़ में ये राग गान-पद्धति का भेद मिटाकर एक हो गए और आगे चलकर इन्हीं रागों से भारतीय राष्ट्रीय संगीत का विकास हुआ।28 मुग़ल संगीत की भांति मारवाड़ में गुणीजन खाना, तालिमखाना, नक्कार खाना आदि संगीत विभाग स्थापित किए गए एवं कलाकारों के वर्ग यथा- सितारिया, जल तरंग वादक, वीणा, ख्याल, कत्थक, तबला, सितार, पखावज आदि बन गए।

संगीत से नृत्य कला का विकास हुआ तथा नृत्य की अनेक शैलियां एवं घराने विकसित हुए जैसे- जयपुर घराना, जोधपुर घराना इत्यादि। मुगल शासकों के दरबारियों एवं बेगमों के नाच गान के प्रति बढ़ते आकर्षण का प्रभाव मारवाड़ के शासकों, दरबारियों एवं महारानियों पर भी पड़ा। मुगल सम्राटों के समय पत्थर, हाथी दांत तथा धातु की बनी हुई मूर्तियों को प्रोत्साहन दिया गया। मुगलों की प्रेरणा से मारवाड़ में पत्थर, हाथी दांत और धातुओं से तलाशी हुई मूर्तियां बनाई जाने लगी थी।29

चित्रकला में हिंदू एवं इरानी शैली का समन्वय दिखाई देता है। ईरानी प्रभाव हिंदुओं की पौराणिक कथाओं की चित्रकारी के आभूषणों एवं वेशभूषा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। मारवाड़ शासकों के समय चित्रकला का अद्भुत विकास हुआ। मुगल हरम की भांति दरबार, वृक्ष, लता, पुष्प, युद्धों, पशु पक्षी और दरबार के व्यक्तियों एवं घटनाओं के सजीव चित्र बनाए गए। नायक भेद, भागवत एवं गीत-गोविंद, प्रारंभिक ग्राम्य जीवन, राधा कृष्ण लीलाओं, बारहमासा, रामायण एवं महाभारत की घटनाओं का समुचित चित्रण, विभिन्न वस्तुओं की प्राकृतिक छटा एवं पौराणिक कथाओं का सजीव चित्रण किया गया। मोटाराजा उदयसिंह (1583-1595 .) के शासनकाल में बनाए गए चित्रों में 'भागवत पुराण' एवं 'ढोला-मारू' के चित्र पर प्रमुख हैं। भागवत पुराण में कृष्ण अर्जुन की आकृतियां स्थानीय शैली में हैं जबकि वेशभूषा मुगलों जैसी है गोपिकाओं के चित्रण में वेशभूषा मारवाड़ी जबकि उनके आभूषण मुगलों के समान हैं।मुगल चित्रकला के प्रभाव से राजपूत चित्रकला में आखेट, मदिरापान, स्त्री एवं नाच रंग आदि भौतिकवादी तत्वों का समावेश हुआ।30

निष्कर्ष :- मारवाड़ में हिंदू मुसलमानों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय मोटाराजा उदयसिंह के समय से ही दृष्टिगोचर होते हैं। हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच संपर्क से एक मिली जुली परंपरा का आरंभ हुआ। हिंदू एवं मुसलमानों के लंबे समय तक साथ रहने के कारण सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र यथा- भोजन, आभूषण, वेशभूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, विवाह आदि परंपराओं के अतिरिक्त स्थापत्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला एवं नृत्य कला आदि में देखने को मिलता है। मुगल काल में इस समन्वयवाद का दरबारी जीवन से भी घनिष्ठ संबंध रहा। अकबर द्वारा मारवाड़ शासकों के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति अपनाने और वैवाहिक संबंधों की स्थापना से शासक वर्ग के जीवन में भी समन्वय आया तथा मुगल दरबार के रीति-रिवाज पर राजपूत परंपरा का प्रभाव पड़ा और मुगल परंपराओं ने राजपूतों के दरबारी जीवन को भी प्रभावित किया।

संदर्भ -
1. महेंद्र, पुरोहित, राजस्थान की पाग एवं पगड़ियां, अप्रकाशित शोध ग्रंथ
2. डॉ दशरथ, शर्मा, राजस्थान थ्रू दी एजेज, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर,1966, पृष्ठ संख्या- 37,462,465
3. करणी दान, सूरज प्रकाश, संपादक- जिन विजय मुनि, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1961, पृष्ठ संख्या- 32
4. डॉ. प्रेम ऐंग्रिस, मारवाड़ का सामाजिक आर्थिक जीवन, उषा पब्लिशिंग हाउस, जोधपुर,1991, पृष्ठ संख्या- 118
5. पेमाराम, डॉ. बी.एल. गुप्ता, मध्यकालीन भारतीय इतिहास, जयपुर पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, 2018, पृष्ठ संख्या- 523-524
6. जी.एच. ओझा, राजपूताने का इतिहास (भाग-1), वैदिक यंत्रालय, अजमेर,1927, पृष्ठ संख्या-23
7. विलियम फोस्टर, अली ट्रैवल्स इन इंडिया, मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिशर्स, दिल्ली, 2017, पृष्ठ संख्या-308
8. बी.एन. लूणिया, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2003, पृष्ठ संख्या-315
9. जे.एल. मेहता, मिडाइवल इंडियन सोसायटी एंड कल्चर, स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ संख्या-211
10. डॉ. करणी सिंह, दी रिलेशंस ऑफ हाउस ऑफ बीकानेर विद सेंट्रल पावर्स, मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 1974,पृष्ठ संख्या,-38-39
11. के.एम. मिश्रा, उत्तरी भारत में मुस्लिम समाज, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर 1974, पृष्ठ संख्या-57
12. के.एम. अशरफ, लाइफ एंड कंडीशन ऑफ पीपुल ऑफ हिंदुस्तान, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2000, पृष्ठ संख्या- 182
13. पी.एन. चौपड़ा, सोसायटी एंड कल्चर इन मुगल एज, अगम कला प्रकाशन, 2019, नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या-7
14. पी.एन. चौपड़ा, बी.एन.पुरी, एम.एन. दास, भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास, मैकमिलन पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 1974, पृष्ठ संख्या-30-31
15. बी.एन. लूणिया, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2003, पृष्ठ संख्या 281-282, 316-317
16. जे.एन. रस्तोगी, एस.एन. शर्मा, भारतीय धर्म एवं संस्कृति, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2018, पृष्ठ संख्या-160-161
17. जे.एन. रस्तोगी, एस.एन. शर्मा, भारतीय धर्म एवं संस्कृति, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2018, पृष्ठ संख्या-160
18. एस.एल. नागौरी, दिल्ली सल्तनत, श्री सरस्वती सदन, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ संख्या-195- 196
19. के.एम. मिश्रा, उत्तरी भारत में मुस्लिम समाज, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1974, पृष्ठ संख्या-94-95
20. के.एम. अशरफ, लाइफ एंड कंडीशन ऑफ पीपुल ऑफ हिंदुस्तान, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2000, पृष्ठ संख्या-199
21.के.एम. मिश्रा, उत्तरी भारत में मुस्लिम समाज, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1974, पृष्ठ संख्या-75-77
22. डॉ. गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का सांस्कृतिक विकास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 1989, पृष्ठ संख्या-91
23. हरफूल सिंह आर्य, मध्यकालीन समाज, धर्म, कला एवं वास्तुकला, रिसर्च पब्लिकेशंस, जयपुर, 2011, पृष्ठ संख्या-22
24. डॉ. के.एल. खुराना, मिडिवल इंडिया (1000-1761 A.D.), लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2017, पृष्ठ संख्या- 275-276
25. जी.एच. ओझा, बीकानेर राज्य का इतिहास, (भाग-1), राजस्थान ग्रंथागार, जोधपुर, 2013, पृष्ठ संख्या-202, 285-287
26. .एल. श्रीवास्तव, मिडिवल इंडियन कल्चर, यूनिवर्सल पब्लिकेशंस, नोएडा, 1964, पृष्ठ संख्या- 173
27. डॉ. जयसिंह नीरज, राजस्थान की सांस्कृतिक परंपरा, साहित्य सरोवर, जयपुर, 2018, पृष्ठ संख्या-41-57
28. जे.एन. रस्तोगी, एस.एन.शर्मा, भारतीय धर्म एवं संस्कृति, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2018, पृष्ठ संख्या-176
29. डॉ. के.एल. खुराना, मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2020, पृष्ठ संख्या-216-217
30. जी.एच. ओझा, राजपूताने का इतिहास (भाग-1), वैदिक यंत्रालय, अजमेर, 1927, पृष्ठ संख्या-38
 
ममतेश अग्रवाल
शोधार्थी, इतिहास विभाग, आई.आई.एस. (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी), जयपुर, राजस्थान
 
डॉ. शरद राठौड़
आचार्य, इतिहास विभाग, आई.आई.एस. (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी), जयपुर


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

Post a Comment

और नया पुराने