शोध आलेख : कथेतर के शिखर-पुरूष : कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ / डॉ. राजकुमार व्‍यास

कथेतर के शिखर-पुरूष : कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

 - डॉराजकुमार व्यास

फोटो : गूगल साभार 

शोध सार : इक्कीसवीं सदी को कथेतर गद्य की सदी कहा गयाहै। प्रबुद्ध लोकतांत्रिक समाज में कथेतर साहित् की केन्द्रीय भूमिका है। लोकमत के निर्माण का महती दायित् भी कथेतर विधाएँ पूरा कर रहीं हैं। भारतीय स्वाधीनता से पूर्व ही हिन्दी के कथेतर साहित् की रूपरेखा तय हो गई थी। हिन्दी गद्य की तरह ही कथेतर साहित् को भी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं से बहुत सहारा मिला। समाचार लेखन और प्रकाशन की प्रक्रिया से ही कथेतरकी एक अनोखी की विधा विकसित हुई- रिपोर्ताज। गद्यकारों ने हिन्दी के विकास,प्रचार-प्रसार और उसके रूपाकार को नियत करने में बहुत परिश्रम किया। प्रस्तुत आलेख में कथेतर साहित् के नामचीन लेखक कन्हैयालाल मिश्रप्रभाकरके अवदान का रिपोर्ताज विधा के संदर्भ में आंकलन किया गया है। समय,स्थान और कार्य की अन्विति को प्रभाकर जी ने पूरी निष्ठा से निभाया है और अपनी कृतियों को उन्होंने स्वयं की रूचि और विवेक के निकष अनेक बार मूल्यांकित किया है। यहाँक्षण बोले, कण मुस्कायेमें संकलित चुनीदारिपोर्ताजोंका विवेचन प्रस्तुत है।  

बीज शब् : कथेतर, गद्य-विधाएँसमाचार संकलन, समाचार लेखन,वर्णनात्मकता,सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन

मूल आलेख : हिंदी की गद्य विधाओं का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। ये साहित् की नयी विधाएँ हैं और पत्र- पत्रिकाओं के बढ़ते चलन ने गद्य की विधाओं को तेजी से लोकप्रिय बनाया है। गद्य के भीतर कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, यात्रावृत्त, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी लेखन, साक्षात्कार, पत्र- साहित् आदि विधाएं आती हैं। कहानी, उपन्यास, नाटक आदि को हम कथात्मक गद्य में रख सकते हैं क्योंकि इनके मूल में कोई ना कोई कहानी होती है। इसका पुट काल्पनिक होता है, भले ही वह यथार्थ से प्रेरित क्यों ना हो। लेखक इनमें अपनी बात सीधे तौर पर नहीं कहकर कहानी के माध्यम से कहता है। इसके विपरीत यात्रावृत्त,जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि को कथात्मक गद्य में नहीं रख सकते क्योंकि इनमें लेखकों का उद्देश् कथा कहना नहीं होता। उनकी विषय- वस्तु जीवन के यथार्थ और अपने भोगे हुए पर आधारित होती है। वो किसी घटना को आधार बनाकर अपनी बात को पाठकों के सामने रखते हैं। कहानियों से परे के इस साहित् को कथेतर गद्य कहा जाता है। प्रस्तुत आलेख में कथेतर की विधा रिपोर्ताज के आधार पर प्रसिद्ध लेखक कन्हैयालाल मिश्रप्रभाकरके रचनात्मक अवदान का विवेचन किया गया है।

रिपोर्ताज समाचार पत्रों की समाचार संकलन,लेखन,प्रकाशन और प्रसारण की पक्रिया से संबंद्ध विधा है।"यह फ्रेंच भाषा का शब्द है अंग्रेजी का 'रिपोर्ट' शब्द इसका पर्याय है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय युद्ध की घटनाओं का जो 'रिपोर्ट' या विवरण कुशल पत्रकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये, उनसे 'रिपोर्ताज' शैली की एक साहित्यिक विधा प्रचलित हुई। यह विधा समाचार-पत्रों की देन है। इनमें लेखक की तीव्र भावना का रंग एवं भाषा में विलक्षण प्रभावोत्पादकता रहती है। हिन्दी में इस शैली के कम ही लेखक प्रसिद्ध हुए हैं।"[1]रिपोर्ताज-लेखन मेंसामान् तौर पर प्रकाशित समाचार से कुछ अलग तीव्र भावना और भाषा की विलक्षणता का प्रभाव अभीप्सि है। सूचना संकलन के साथ उसकी प्रस्तुति बहुत महत्वपूर्ण है और मुद्रित माध्यमों में तो पाठक के दृष्टिकोण से समाचार लेखन का चलन भी है।"रिपोर्ताज एक अत्याधुनिक गद्य-विधा है। रिपोर्ट से अभिप्राय है किसी विषय का यथातथ्य विवरण। रिपोर्ताज का सूत्रपात टिप्पणीयुक्त विवरणों से हुआ 'है। रिपोर्ट के साहित्यिक और कलात्मक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं। इसके प्रमुख गुण हैं-तथ्यात्मकता, घटना-प्रधानता, कथात्मकता, वास्तविकता, सहृदयता।"[2] कथेतर गद्य के रचनाकारों ने कलात्मकता को सर्वोपरि युक्ति स्वीकार किया है और कलात्मकता ने ही रिपोर्ताज को एक समृद्ध विधा बनाया है।"हिंदी के कुछ गण्यमान्य समाचार-पत्रों में संसदीय कार्यकलापों, विशिष्ट सम्मेलनों, युद्धों, बाढ़ या दुर्भिक्ष जैसी विपत्तियों आदि का जो हृदयस्पर्शी विवरण देखने में आता है, वह रिपोर्ताज साहित्य का ही एक रूप है। संघर्ष के क्षणों को तत्काल, शब्दों में प्रस्तुत करना ही 'रिपोर्ताज' है। सहसा घटित होने वाली महत्त्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है।"[3]हिन्दी के आरंभिक दौर में पत्रकारों और साहित्यकारों में एक साथ उसके गद्य को समृद्ध करने का कार्य किया और समय के साथ पत्रकार और साहित्यकार का दायित् एक ही रचनाकार में केन्द्रित होता चला गया।

पत्रकार की साहित्यिक पहचान और प्रस्तुति का चरम उसका रिपोर्ताज लेखन है। आलोच् रचनाकार प्रभाकरजी ने पत्रकार और साहित्यकार, दोनों ही दायित्वों का बखूबी निर्वहन किया है। लेखन के प्रति उनकी अगाध निष्ठा ने ही उन्हें कथेतर के विशिष् लेखकों में स्थान दिलाया है। "प्रभाकरजी रिपोर्ताज किया के विश्वसाहित्य में सबसे पहले उद्गाता और जनक है। रिपोर्ताज को उन्होंने अपने ढंग से विकसित किया और स्वतंत्र सत्ता की अधिकारिणी विधा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया|"[4] महायुद्ध के दौर मेंआंखों देखा हालशब्दबद्ध कर समाचार पत्रों में भेजा जाता रहा और उसे ही कालांतार में रिपोर्ताज विधा कहा गया। प्रभाकर जी ने समाचार संकलन और प्रकाशन में आंखों देखा हालकी शैली का बहुत पहले ही शुरु कर दिया था। "द्वितीय विश्वयुद्ध सितम्बर, 1939 से अगस्त, 1945 तक चलता रहा था, किन्तु प्रभाकरजी ने तो 1926 में ही रिपोर्ताज लिखे, बिना किसी विधात्मक नामकरण के अतः हम कह सकते हैं कि प्रभाकरजी रिपोर्ताज विधा के विश्वसाहित्य में सबसे पहले उद्गाता और जनक हैं। रिपोर्ताज को उन्होंने अपने ढंग से विकसित किया और स्वतंत्र सत्ता की अधिकारिणी विधा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया।"[5]इस सम्बन्ध में स्वयं प्रभाकरजी का कहना है- "कुछ लोग कहते हैं कि पत्रकार कला में रिपोर्ताज का आविष्कार रूस में हुआ और वहीं से यह भारत में आया। निश्चय ही यह उस देश में अपने स्वतंत्र रूप में पनपा होगा, हिन्दी को उसका श्रेय लेने की आवश्यकता नहीं, पर हिन्दी में यह स्वतंत्र रूप में पनपा है और उस पर किसी का किसी तरह का भी ऋण नहीं "[6] हिन्दी के लोकवृत् में रिपोर्ताज की व्यापक स्वीकृति ही इसे हिन्दी की स्वतंत्र विधा सिद्ध करती है और भाषा और साहित् सहज ही अपना स्थान प्राप् करत हैं उसमें सायास श्रेय लेने के प्रयत् आवश्यक भी नहीं हैं। वीरपाल वर्मा इस सम्बन्ध में लिखते हैं-"हिन्दी रिपोर्ताज के जन्म से ही वे (प्रभाकरजी) रिपोर्ताज लिखते चले रहे हैं और इतना ही क्यों, हिन्दी रिपोर्ताज के एक तरह से वे जन्मदाता ही कहे जायें, तो अत्युक्ति होगी।"[7] अपने लेखन की निरंतरता के साथ प्रभाकरजी ने इस विधा को लगातार मुख्यधारा में बनाए रखा। उनकी देख-रेख में इस विधा ने अंकुरण से आगे का मार्ग तय किया औरपुष्पित और पल्लवित होती रही।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हिन्दी-सेवियों में सहज ही विनम्रता रही और वे अपने कार्य और योगदान का श्रेय लेने के लिए बहुत उत्सुक दिखाई नहीं देते। रिपोर्ताज लेखन के संबंध में प्रभाकरजी व्यवहार और मान्यता कुछ ऐसी ही रही। वे रचनाकार के तौर पर स्वयं को पीछे रखते हैं और विधा की पहचान के सवाल पर हिन्दी भाषा और भारत देश के स्वाधीन और संप्रभु अस्तित् की रक्षा करते हैं। उनके विचार दृष्टव् हैं - - "कुछ लोग कहते हैं कि पत्रकार कला में रिपोर्ताज का आविष्कार रूस में हुआ और वहीं से यह भारत में आया निश्चय ही यह उस देश में अपने स्वतंत्र रूप में पनपा होगा, हिन्दी को उसका श्रेय लेने की आवश्यकता नहीं, पर हिन्दी में यह स्वतंत्र रूप में पनपा है और उस पर किसी का किसी तरह का भी ऋण नहीं।

थेतर गद्य के रचनाकारों को 21वीं शताब्दी में जो भाषाबोध हासिल हुआ, उसमें 20वीं शताब्दी के रचनाकारों की तपस्या शामिल है। यह उन्हीं रचनाकारों के सतत प्रयासों की फलश्रुति है। आचार्य शिवपूजन सहाय रचनाकारों के अवदान को बहुत ही श्रद्धाभाव के साथ रेखांकित करते हैं- "साधारणतः लोकहितकर कार्य के लिए आत्मोत्सर्ग करने को बलिदान कहते हैं। जो मनुष्य लोककल्याण की शुभ भावना से प्रेरित होकर अपना जीवन-विसर्जन कर देता है वह बलिदानी वीर कहा जाता है। किन्तु केवल जीवन-विसर्जन ही बलिदान नहीं है। प्राणदान के समान रक्तदान का भी महत्त्व है। लोकसेवा अथवा लोकोपकार में अहर्निश मनोयोगपूर्वक तत्पर रहकर जो अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग लोकं मंगल के लिए करता है और इस प्रकार अपने शरीर के रक्त की एक-एक बूंद जनता जनार्दन को सहर्ष अर्पित कर देता है वह भी बलिदानी वीर ही है-वह चाहे युद्धवीर हो, धर्मवीर हो या कर्मवीर इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी बलिदानी कर्मवीरों की परम्परा मिलती है।"[8] प्रभाकरजी बलिदानियों की इसी परम्परा के आधिकारिक लेखन हैं। रिपोर्ताज की तात्कालिकता का निर्वाह भी उन्होंने किया है तो उनके लेखन में समय और परम्परा का बोध भी उपस्थित है। "एक दिन मैं उभरते हुए भारत का दर्शन करने के लिए घर से निकल पड़ा और घूमते-घूमते भारत के सीमाक्षेत्रों में जा पहुँचा पर्वतहीपर्वत, वन ही वन- एक से एक सुन्दर दृश्य देखकर मन भाव-विभोर हो उठा और मैं सोचने लगा, हमारा यह भारत कितना महान् है। और इसकी ये सीमाएँ कितनी महत्त्वपूर्ण हैं कि इसकी भूमि के हर कण में इतिहास की एक--एक कड़ी समायी हुई है। ये ही सीमाएँ हैं, जिन्हें लाँघकर विदेशी आक्रान्ता हमारे देश में घुसे और ये ही सीमाएँ हैं, जिन्हें लाँघकर हमारे भिक्षु और प्रचारक राष्ट्र की महान् संस्कृति का सन्देश दूसरे देशों में ले गये। दूसरे देशों को जहाँ अपने आक्रमणों पर गर्व है, वहाँ भारत को अपने निष्क्रमणों का गौरव प्राप्त है। ओह, कितना महान् है हमारे , देश का इतिहास! "[9] इस गद्यांश में राष्ट्रबोध के उपकरण के रूप में सीमांचल का वर्णन है। सीमाक्षेत्रों के वर्णन में रचनाकार अपने इतिहासबोध को भी व्यक् करता है और सामान्यत: प्रचलित तथ् को भी अनोखे अंदाज में प्रस्तुत करता है। वर्तमान का चित्र होते हुए भी यह पाठक को परम्परा से जोड़कर रखता है। वे अपनी लेखनी से उत्साह जगाने का प्रयत् भी करते हैं।"देश का एक यह वर्ग है, जो अनुभव करता है कि 15 अगस्त 1947 को उसका सब कुछ छिन गया है।देश का एक वह वर्ग है, जो धरती की धूल में लोटा हुआ है और स्वतन्त्रता का प्रकाश जिस तक अभी पहुँच ही नहीं पाया।" वे जानते थे कि स्वाधीनता के बाद का समय राष्ट्र-निर्माण का समय है और यही समय श्रम और समय के विशिष् नियोजन का भी है। उनकी लेखनी नियोजन के लिए प्रेरित कर रही है।

पत्रकार का जीवन और समयबोध साथ-साथ चलते हैं,घटनाचक्र के केन्द्र में रहकर यथोचित का अंकन उसकी सबसे बड़ी परीक्षा है। प्रभाकरजी इस परीक्षा का महत् समझते हैं और अपने समय को संबोधित भी करते हैं - "एकहैहमारेसमाजकाआकाश, दूसरा धरती। इस धरती पर इधर स्वतन्त्रता का सूर्य निकला, उधर साम्प्रदायिकता की बाढ़ आयी। इसी बाढ़ के साथ महँगाई और अभाव का कूड़ा-कचरा भी बह आया, जो दिमाग़ों पर इस तरह छा गया है कि धरती आज की दलदल में इस तरह घिर गयी कि कल के स्वर्णकलश को देख ही सके! "[10] स्वाधीनता और साम्प्रदायिकता को एक ही समय संबोधित कर वे साधारण जनता से भी करने योग् कर्म की आशा रखते हैं।

परम्परा से प्राप् संस्कृत के सुभाषित और नीति शास्त्र के साथ ही भक्तिऔर रीतिकाल की नीति कविता भी लोकजीवन में गहरे तक पैठी हुई थी। ऐसे में सरस गद्य में रचे गए नीति-कथन पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुए - "आदमी के चेहरे पर एक मुख है। मुख में वाणी है, जो हृदय और मस्तिष्क के भावों को भाषा का माध्यम देती है, पर इस वाणी के अतिरिक्त भी मनुष्य के चेहरे की एक वाणी है, जो बिना भाषा के बोलती है। मनुष्य को देखते ही हमपर, एक छाप पड़ती है। उसे हमारी भीतरी आँखें देखतीहैंऔर मन के कान सुनते हैं, यह बिना भाषा की खामोश वाणी है।"[11] इसी क्रम में दृष्टव् है - "हम इतिहास को पढ़ते हैं, पर उससे कुछ भी सीखते नहीं। यही कारण है कि वह अपने को बार-बार दोहराता है। राजपूतों का शासन समाप्त हुआ और मुग़लों का आरम्भ, मुग़लों का अध्याय समाप्त हुआ और अँग्रेज़ों का आरम्भ।" भारतीय नवजागरण के दौर में लोकमानस को सामाजिक सुधार आंदोलन के साथ ही स्वाधीनता संग्राम से जोड़े रखने का कार्य पत्र-पत्रिकाओं ने किया। मिश्रजी यहाँ क्रांति के पथ पर चल पड़ी जनता को विश्वास दिला रहें हैं कि समय की धारा में एक के बाद एक शासक आते हैं और उसी धारा में विलीन हो जाते हैं। हमें इतिहास से सीखने की आवश्यकता है कि लोक-कल्याणकारी शासक और उसकी स्मृति जनता के हृदय में सदैव-सदैव के लिए अंकित हो जाता है। "आजयही चल रहा है, पर कौन जानता है यह कितना लम्बा है ? इतिहास के सभी अध्याय अपने वर्तमान में अखण्ड, अटल और सर्वांगपूर्ण दीखते हैं, पर समय का प्रभाव इस अभिमान को मिथ्या प्रमाणित कर देता है। वर्तमान कितना मोहक है कि हमें भविष्य की ओर देखने ही नहीं देता।"[12] वे वर्तमान के मोहजाल से मुक् होकर भविष् की योजनाओं और लक्ष्यों के प्रति प्रेरित करते हैं।

रिपोर्ताज की विषयवस्तु की तरह ही उसका शिल् भी लोकरूचि का बहुत ख्याल रखनेवाला होना चाहिए। प्रभाकरजी कथेतर गद्य की सरस शैली के बड़े शिल्पकार थे इसलिए वे लोकमानस में सहज विद्यमान भाव-भंगिमाओं और प्रतीकों का उपयोग अपनी अभिव्यक्ति में करते थे। रामकथा और रामराज् के तात्कालिक संदर्भों के मध् यह गद्यांश उल्लेखनीय है- "राम का यह कार्य बड़ा था। इतना बड़ा कि इसने उन्हें हमारी भावना में महामानव बना दिया, पर यह बड़ा कार्य उनके साथ बिखर गया और राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के उत्तराधिकारियों ने अपनी-अपनी राजधानी अलग-अलग बना ली। राम का राज्य बिखर गया छोटे-छोटे राज्यों में बँटकर जीना शायद इस देश की भूमि का ही स्वभाव है। जो जरा शक्तिशाली हुआ, उसी ने अपना छोटा-सा राज्य बना लिया। सूबेदारों और मन्त्रियों की बगावतों से हमारा इतिहास भरा है और सफल डाकुओं को राजा कहने में भी हमारा इतिहास कभी नहीं चूका, पर आस्तिकता की भाषा में इस देश पर भगवान् की यह बड़ी कृपा रही कि इसे देशव्यापी भावनात्मक एकता की स्थापना का पोषण करनेवाले सन्त-आचार्य सदा प्राप्त होते रहे। नैमिषारण्य के ऋषि सूत, दक्षिण के शंकराचार्य और तुलसीदास के कार्यों पर हम गहराई से नज़र डालें, तो ऑंखें फटी रह जाती हैं।"[13] विकट समय में सांस्कृतिक वातावरण को बनाए रखने में वीतरागी महात्माओं की बड़ी भूमिका है, आचार्य शिवपूजन सहाय राष्ट्र निर्माण में जिस बलिदान की बात करते हैं, कन्हैयालाल मिश्र भी यहाँ उसी तन्मयता और आत्मोत्सर्ग की याद दिला रहे हैं। एक और उदाहरण इस स्थापना की संस्तुति करता है - "पुण्यात्मा सन्तों की जय कि उनके कारण विध्वंसों की इन अनगिनत होलियों के बीच भारत की एकता नहीं जली। यूरोप में धर्म एक, नस्ल एक, विचार एक, रहन-सहन एक, लिपि एक, केवल भाषा का भेद और यूरोप अनेक राज्यों में बँट गया, उसके टुकड़े हो गये, पर भारत में धर्म अनेक, भाषाएँ अनेक, रहन-सहन ही नहीं, भोजन पद्धतियाँ भी अनेक, विभेद ही विभेद, फिर भी भारत एक होकर जीता रहा, उसमें एकता की आकांक्षा जीवित जागृत रही, वह सदा चक्रवर्तित्व के लिए आकुल-उत्सुक रहा।"[14] मिश्रजी ने साम्प्रदायिकता के निर्मम समय और उसके परिणामों को भी देखा। यहाँ आंत्यतिक एकता के स्रोतों की ओर संकेत कर वे उन्हें और अधिक शक्तिशाली बनाने की आकांक्षा व्यक् कर रहे हैं।

राजनीति और प्रशासन से तो पत्रकारों का रोज-रोज की मुलाकात होती है। कहीं सहज क्षण होते हैं तो कभी बहुत असहज और बहुत ही असहनीय। दोनों ही स्थितियों में पाठक समुदाय के लिए मिश्रजी सहज सामग्री सहेज ही लेते हैं - "सरकार तेज़ी से क्यों नहीं चलती, इस बारे में नेहरू के भीतर की धारणा कुछ यों है कि भारत की परिस्थिति और परम्परा को देखकर यही उचित और हितकर है कि हम अहिंसात्मक क्रान्ति के द्वारा देश को प्रगति के लम्बे रास्ते ले चलें और हिंसात्मक दबाव के द्वारा, जो जल्दी मुमकिन है, उसे अपनायें। संक्षेप में वे असन्तोष में भी सन्तुष्ट हैं कि आज जो होना है, हो रहा है, कल जो होनेवाला है, कल होगा।"[15] भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल और गरम दल की सियासत को इन पंक्तियों के माध्यम से लोकचित् में स्थापित कर दिया है।

सामाजिक जीवन की विविध दशाएँ भी उनकी लेखनी व्यक् करती हैं - "हमारे समाज में जो ऊँचा है, सम्मान्य है, उसने अपने को प्रकृति से पृथक् कर लिया है। उसके भीतर अवकाश नहीं, व्यस्तता है। उसने स्नेह, ममता, दया, बन्धुत्व और सौहार्द के स्थान में पश्चिम से उधार लेकर टैक्ट और - धन-लिप्सा को अपने में समा लिया है और उसकी दशा उस वृक्ष-जैसी है, जिसे सफाई के साथ बीच से आरे द्वारा चीरकर मूल से सम्बन्ध- -विच्छिन्न दिया गया है, पर ऊपर से जो मूल के साथ मिला ज्यों का त्यों खड़ा है।"[16] इसी तरह विचार और व्यवहार में भाषा के संदर्भ को भी वे व्यक् करते हैं - "कितनी विचित्र बात है कि भाषा, जो मनुष्य को मनुष्य के पास लाती है, मनुष्य-मनुष्य की एकता का वाहन बनती है, मनुष्य को मनुष्य से खूँख़्वार भेड़ियों की तरह लड़ा रही थी; क्योंकि वह सहयोग की राह भूल, संघर्ष के पथ जा चढ़ी थी पनपती देश-वल्लरी के लिए यह स्थिति भयावह थी और राष्ट्र की बौद्धिकता चिन्तित थी कि क्या राष्ट्र की पन्द्रह भाषाओं के बीच स्वस्थ सम्पर्क का कोई मंच नहीं हो सकता, जहाँ सब समान अधिकार और समान दायित्व के साथ बैठें, मिलें और देखें कि वास्तविक परिस्थितियाँ भावात्मक हैं, अभावात्मक नहीं, संयोगात्मक हैं, वियोगात्मक नहीं, सम्पर्कात्मक हैं, संघर्षात्मक नहीं; संक्षेप में संगठनात्मक हैं, विघटनात्मक नहीं।"[17] प्रभाकर जी के शिल् का वैशिष्ट्य इन पंक्तियों की नाद-योजना से समझा जा सकता है जो अंत्यानुप्रास की एक श्रृंख्ला सजा देती हैं। अपनी रचनाओं में वे हमेशा सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण की बात करते हैं"राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति है-राष्ट्र-चेतना इसी का लोकप्रिय नाम है भारतीय संस्कृति। संस्कृति ही मूल जीवन-स्रोत है। राष्ट्र के ह्रासकाल में जब जन-जीवन का सम्पर्क इस मूल स्रोत से टूट चला और यों जाति के सर्वनाश का भय चारों ओर छाया, तो राष्ट्र के कर्णधारों, सन्तों ने जन-जीवन को उसे मूल स्रोत के साथ अन्ध-श्रद्धा के सूत्र से बाँध दिया। यह अन्ध-श्रद्धा अन्धी - श्रद्धा भी रही और अन्धों की श्रद्धा भी। यह एक प्रकार की विष- चिकित्सा थी- इसमें ख़तरा था, पर यह अनिवार्य थी, क्योंकि और कोई औषध उस दिन हमारे पास ही थी, जो प्रभावशाली हो।"[18] मूल्-चेतना के प्रति उनका भावबोध अनेक स्थानों पर ह्रासकाल की व्यथा को व्यक् करता है तो कभी वर्तमान के संघर्ष को तो कभी आगत भविष् की सुखद और अनुकूल स्थितियों को। इन सब के बीच भी लगातार कर्मशील होने को ही श्रेयस्कर समझते हैं और यही संदेश भी देते हैं।

कथेतर गद्य को कन्हैयालाल मिश्रप्रभाकरने अपने विशिष् लेखन से समृद्ध किया है। रिपोर्ताज लेखन में जो घटित हो रहा है, उसी की रपट होती है। प्रभाकरजी ने अपने युगबोध से घटितको समय-बिंदू से बढ़ा कर समयावधि तक विस्तृत कर दिया है। इसीलिए उनके रिपोर्ताज प्रकारांतर से समय का अतिक्रमण करते हुए जान पड़ते हैं। भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन की छाया में उनका यह प्रयोग प्रभावी भी है और आश्वयक भी। स्मृति एक ही समय में विगत और वर्तमान दोनों का प्रतिनिधित् करती है। प्रभाकर पठन-पाठन व्यसन और पठन-कौशल दोनों को बहुत बारीकी से जानते समझते थे। इसी के आधार पर उन्होनें अपने कथेतर गद्य से अपेक्षित संदेश को सहजता के साथ निरंतर प्रेषित किया। समय,स्थान और कार्य की अन्विति ने उनकी रचनाओं को कालजयी बनाया और रचनाओं की जययात्रा ने कथेतर के शिखर उनका स्थान निश्चित किया।

 

संदर्भ :
 [1]बाबू गुलाबराय,हिन्दी साहित्यका संक्षिप्त इतिहास,पृ.163,विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 1955
[2]वीणा अग्रवाल, गद्य-गाथा, (संपादक) पृ.31-32,अरुणोदय प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2007, आवृत्ति-2010
[3]वही,पृ.31-32,
[4]कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकरकी साहित् साधना, डॉ० ओमप्रकाश नायर, विकास प्रकाशन,कानपुर, संस्करण-2000,पृ.141
[5]वही ,पृ०141
[6]वही ,पृ०141
[7]वही ,पृ०141
[8]शिवपूजन सहाय,हिंदी भाषा और साहित्य, पृ०135,सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड,नई दिल्ली
[9]कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर’,क्षण बोले कण मुसकाये, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, छठा संस्करण: 2011, पृ०18
[10]वही, पृ०28
[11]वहीपृ०32
[12]वहीपृ०41
[13]वही,, पृ०56
[14]वहीपृ०57
[15]वहीपृ०113
[16]वही, पृ०122
[17]वहीपृ०133
[18]वही,, पृ०163-164

 

डॉ. राजकुमार व्यास
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,  मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान।
  

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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