शोध आलेख : हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा की परंपरा और स्वरूप का विकास / डॉ. आशीष कुमार यादव

हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा की परंपरा और स्वरूप का विकास
- डॉ. आशीष कुमार यादव

शोध सार : यह हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा विधा का संक्षिप्त इतिहास है। समाज में जैसे विज्ञान का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है और उसकी महत्ता से लोग रू--रू हो रहे हैं, वैसे ही अब विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ भी इस विधा को महत्व दे रही हैं। इनमें अब इस विधा से संबंधित विभिन्न लेख दिन-प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं। यदि स्वतंत्र भारत’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘धर्मयुग’, ‘जनसत्ता’, ‘हंस’, ‘जनधर्म’, ‘शिविराजैसी पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी विज्ञान कथाओं का प्रकाशन होता है तो सुप्रसिद्ध पत्रिका विज्ञान प्रगतिके प्रत्येक अंक में हिंदी की एक मौलिक विज्ञान कथा अनुदित विज्ञान कथा बराबर प्रकाशित हो रही है। इसके अतिरिक्त विज्ञान कथा’, ‘विज्ञान आपके लिएजैसी पत्रिकाएँ लगातार विज्ञान कथाओं का प्रकाशन कर रही हैं। लेकिन यह बात अब भी सोचनीय है कि जो स्थान पाश्चात्य जगत में विज्ञान कथा कथाकारों का है, वह स्थान अभी भारत देश में नहीं है। इस यात्रा में हमें कई मंजिलों से गुजरना पड़ेगा, तभी हम वह मुकाम प्राप्त कर सकते हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि 21वीं सदी के अंत तक यह मुकाम विज्ञान कथा और कथाकार अवश्य ही प्राप्त कर लेंगे।

बीज शब्द : विज्ञान कथा, अंतरिक्ष, फोटोफोन, इंटरनेट, प्रौद्योगिकी, मोबाइल, प्रतिरोपण, सिंदूरी ग्रह, मृत्युंजयी, हरा मानव, देहदान, रोबोट, टेस्टट्यूब बेबी, मानव क्लोन, ऑपरेसन जेनेसिस, कालजयी यात्रा, कम्प्यूटर की मौत।

मूल आलेख : हिंदी विज्ञान कथाओं को साइंस फैंटेसीऔर साइंस फिक्शनदो वर्गों में बाँटा गया है। यदि दोनों की प्रवृत्तिगत विशेषताओं को देखा जाए तो साइंस फैंटेसीमें कथाकार स्वच्छंद कल्पना करता है, लेकिन इसमें कथाकार विज्ञान के नियमों से सीमाबद्ध नहीं रहता है। साइंस फैंटेसी में कथा वैज्ञानिकता का कलेवर लिए हुई दिखाई पड़ती है, लेकिन उसके सृजन में विज्ञान की कोई निश्चित भूमिका नहीं होती है। इस वर्ग में भविष्यगत कल्पना से युक्त कथानक को अभिपर्याय रूप में संबंधित विज्ञान कथाओं को लिया जाता है। जबकि साइंस फिक्शन में वैज्ञानिक तथ्यों का कथानक में स्वच्छंद प्रयोग नहीं किया जाता है। साइंस फिक्शन में वैज्ञानिक तथ्यों का प्रयोग एक मर्यादित सीमा के भीतर रहकर कथानक को गढ़ा-बुना जाता है। इनके वैज्ञानिक तथ्यों के प्रयोग में वैज्ञानिक विश्वसनीयता बराबर बनी रहती है। इनमें ऐसे ही वैज्ञानिक तथ्यों का प्रयोग करना उचित होगा, जो विज्ञान सत्यसिद्ध कर चुका हो। मंजुलिका लक्ष्मी के अनुसार, "वैज्ञानिक विश्वसनीयता ही इसकी (विज्ञान कथाओं की) रीढ़ होती है।"[1]

            हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा की परंपरा के विकास को मूलतः तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण, स्वतंत्रता के पूर्व की विज्ञान कथाएँ; दूसरा चरण, स्वतंत्रता के बाद की विज्ञान कथाएँ; तीसरा चरण, समकालीन समय की विज्ञान कथाएँ हैं। इसको दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शुरुआती दौर की विज्ञान कथाएँ; दूसरा चरण, विकास के दौर की विज्ञान कथाएँ; तीसरा चरण, विकसित दौर की विज्ञान कथाएँ हैं। हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा की परंपरा का यह विभाजन कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है। हाँ, यह जरूर है कि विज्ञान कथाओं में प्रवृत्तिगत परिवर्तन को देखते हुए और इसकी समृद्ध लम्बी परंपरा को विभिन्न चरणों में विभाजित करके इनका अध्ययन और विश्लेषण करना सरल हो जाता है।

            हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता के पूर्व या शुरुआती दौर की विज्ञान कथाओं पर पाश्चात्य विज्ञान कथाओं का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जिस प्रकार पाश्चात्य देशों के शुरुआती दौर में अंतरिक्ष, ग्रहों, नक्षत्रों आदि से संबंधित विभिन्न विज्ञान कथाएँ लिखी गयीं, उसी प्रकार हिंदी साहित्य में भी विज्ञान कथाएँ लिखी गयीं। इस दौर में मौलिक विज्ञान कथाओं का अभाव रहा है। हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा लेखन की परंपरा की शुरुआत बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से होता है। यदि गौर से देखा जाए तो पं. अम्बिकादत्त व्यास द्वारा संपादित पत्रिका पीयूष प्रवाहमें धारावाहिक के रूप में आश्चर्य वृत्तांत’ (1883 .) हिंदी विज्ञान कथा सर्वप्रथम प्रकाशित होती हैं। कालक्रम की दृष्टि से देखने पर यह हिंदी साहित्य की पहली विज्ञान कथा मालूम पड़ती है, जबकि कुछ विज्ञान कथाकार और आलोचक सुप्रसिद्ध पत्रिका सरस्वतीके भाग-1, संख्या-7 में प्रकाशित बाबू केशव प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा चंद्रलोक की यात्रा’ (1905 .) को हिंदी साहित्य की पहली विज्ञान कथा मानते हैं। यदि दोनों हिंदी विज्ञान कथाओं के कथानकों का विश्लेषण किया जाए तो आश्चर्य वृत्तांतपर जूल्स बर्ने का उपन्यास जर्नी टू सेन्टर ऑफ अर्थका प्रभाव दिखाई पड़ता है। वहीं पर चंद्रलोक की यात्रापर जूल्स बर्ने के उपन्यास फाइव वीक्स इन बैलूनका प्रभाव दिखाई पड़ता है।

            कुछ लोग पाश्चात्य विज्ञान कथाओं के प्रभाव के कारण इन्हें हिंदी साहित्य की पहली विज्ञान कथा मानने से इनकार करते हैं। मुझे जहां तक प्रतीत होता है कि कोई भी विधा एकाएक उत्पन्न नहीं हो सकती है।

            किसी भी रचना को विभिन्न पड़ावों से गुजरना होगा, तभी वह अपना मौलिक स्वरूप ग्रहण करती है। मात्र पाश्चात्य के प्रभाव के कारण इसे हिंदी की पहली विज्ञान कथा मानने से इनकार करना शायद अतार्किक होगा। इन दोनों विज्ञान कथाओं में भारतीय सामाजिक परिवेश उसकी प्रवृत्तियों का वर्णन मिलता है। यहाँ तक कि इनके पात्र भी भारतीय नामकरण के अनुकूल हैं।

            इन दोनों हिंदी विज्ञान कथाओं के कथानक कालक्रम को यदि ध्यान से देखा जाए तो कालक्रम की दृष्टि से आश्चर्य वृत्तांत’ (1883 .) हिंदी साहित्य की पहली विज्ञान कथा मालूम होती है। लेकिन शिल्प की दृष्टि से चंद्रलोक की यात्राहिंदी साहित्य की पहली विज्ञान कथा प्रतीत होती है। क्योंकि इस कहानी के कथानक की विषय-वस्तु का चुनाव काफी सधा हुआ है और इसमें तत्कालीन समाज पर सूदखोरों का प्रभाव वर्णित किया गया है। इस कहानी की संभाव्यता आज हकीकत का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है।

            हिंदी साहित्य में पहली विज्ञान कथा के विषय में डॉ. राजकुमारी उपाध्याय का मानना है कि "‘चंद्रलोक की यात्राऔर आश्चर्यजनक घंटीको हिंदी की प्रारम्भिक वैज्ञानिक कहानियाँ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये दोनों ही विदेशी साहित्य फ्रांसीसी और अमेरिकन साहित्य से उधार ली गयी हैं।"[2]

            प्रेमवल्लभ जोशी की विज्ञान कथा छाया पुरुष’ 1915 . में प्रकाशित हुई थी। यह प्रकाश के अपवर्तन पर आधारित कहानी है और इसमें रहस्यमयता पूरी तरह विद्यमान है। दो पहाड़ों के बीच बने हुए एक कुंड में ज्यों-ज्यों पानी भरता जाता है, एक मनुष्य की छाया जैसे आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है, लेकिन जैसे-जैसे पानी कम होने लगता है, छाया अदृश्य हो जाती है। गाँव वाले कुंड में भूत का वास समझ कर भय से घबरा उठते हैं। बरकिट साहब गाँव वालों के समक्ष एक प्रयोग करके रहस्य का अनावरण कर देते हैं।

            हिंदी विज्ञान कथा साहित्य की परंपरा को यदि ध्यान से देखा जाए तो शुरुआती दौर (1900 .) से लेकर विकास के दौर (1950 .) तक पाश्चात्य विज्ञान कथाओं से प्रेरित प्रभावित हिंदी में कई विज्ञान कथाएँ लिखी गयी हैं। इसी समय कई पाश्चात्य विज्ञान कथाओं का अनुवाद भी प्रकाशित किया गया था। अनेक वर्षों से रही इस परंपरा को सर्वप्रथम राहुल सांकृत्यायन तोड़ते हैं। पं. राहुल सांकृत्यायन द्वारा बाईसवीं सदी’ 1924 . में एक लघु उपन्यास लिखा गया, जो किताब महल इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में केवल विश्व सरकार और विश्व भाषा की संकल्पना विद्यमान है, बल्कि फोटोफोन (विडियो फोन), मोबाइल, इंटरनेट आदि की संकल्पना भी है। आजकल काफी हद तक उनकी सभी संकल्पनाएँ साकार हो चुकी हैं। यद्यपि पं. राहुल सांकृत्यायन समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे, तथापि उसी के अनुरूप वे अपने इस लघुकाय उपन्यास में 2124 . के समाज का वर्णन करते हैं, यथा "भूमंडल में सभी जगह अब समता का राज्य है। अब मनुष्य बराबर है। स्त्री-पुरुष बराबर हैं। सभी जगह श्रम और भोग का समत्व मूल मंत्र रखा गया है। अब भूमंडल में जमींदार हैं, सेठ-साहूकार हैं, राजा है।, प्रजा, धनी, निर्धन, ऊँच हैं, नीच। सारे भूमंडलवासियों का एक कुटुम्ब है। पृथ्वी की सभी स्थावर जंगम संपत्ति इसी कुटुम्ब की संपत्ति है।"[3]

            इस लघुकाय उपन्यास के पूरे कथानक में भारतीय परिवेश का परिचय मिलता है। इसमें भारत के विज्ञान प्रौद्योगिकी की प्रगति, शिक्षा व्यवस्था, ग्रामीण संस्कृति शहरी संस्कृति का परिचय मिलता है। पं. राहुल सांकृत्यायन अपने इस लघु उपन्यास में तत्कालीन समाज के जीवन के विषय में वर्णन करते हुए लिखते हैं "मनुष्य कुल चार घंटे काम करके ही सारी आवश्यकताओं को प्राप्त कर बाकी बीस घंटे जीवन के अन्य आनंदों के उपभोग में लगाता है।"[4]

            विज्ञान कथा की इस परंपरा में डॉ. नवल बिहारी मिश्र और यमुनादत्त वैष्णव अशोकका इस क्षेत्र में आना इस विधा के लिए नव-जीवन की प्राप्ति के समान था। इन्होंने अपने प्रतिभा द्वारा विज्ञान कथा को मौलिक आधुनिक स्वरूप प्रदान किया है। इन दोनों के विज्ञान की पृष्ठभूमि और उसका अध्ययन विज्ञान कथा के रचनाकारों के रचना संसार पर कथा की सृष्टि पर विस्मयकारी प्रभाव डालती है। डॉ. नवल बिहारी मिश्र के बहुमूल्य योगदान के विषय में डॉ. बाल फोंडके कहते हैं कि "डॉ. नवल बिहारी मिश्र ने विशुद्ध विज्ञान कथाओं की रचना की और हिंदी विज्ञान कथा के सही स्वरूप की प्राण-प्रतिष्ठा की। भाषा, शिल्प, कथानक और विज्ञान की आत्मा के कारण इनकी कहानियाँ वास्तविक विज्ञान कथाएँ हैं।"[5]

            यदि हिंदी विज्ञान कथा के वास्तविक स्वरूप प्रदान करने के लिए डॉ. नवल बिहारी मिश्र को याद किया जाता है तो यमुनादत्त वैष्णव अशोकको हिंदी विज्ञान कथाओं के भारतीयकरण के लिए याद किया जाता है। इन्होंने विज्ञान कथाओं को भारतीय परिवेश देशकाल, वातावरण के अनुरूप ढाला है। डॉ. अरविंद मिश्र इनके योगदान की चर्चा करते हुए कहते हैं  - "यदि भावी विज्ञान कथा के स्वरूप निर्धारण में डॉ. नवल बिहारी मिश्र का अमूल्य योगदान है तो यमुनादत्त वैष्णव अशोकने इसे देशज स्वरूप प्रदान किया।"[6]

            डॉ. नवल बिहारी मिश्र का उपन्यास अपराध का पुरस्कार’ 1962 . में प्रकाशित हुआ था। इनकी प्रमुख हिंदी विज्ञान कथाएँ अधूरा आविष्कार’, ‘आकाश का रास्ता’, ‘हत्या का उद्देश्यइनकी कथा संग्रहों में संकलित हैं। सरस्वती’, ‘विज्ञान लोकऔर त्रिपथगामें प्रकाशित 15 हिंदी विज्ञान कथाएँ अधूरा आविष्कारमें संकलित हैं - अधूरा आविष्कार’, ‘मंगल ग्रह की पहली यात्रा’, ‘भूत और प्रेत’, ‘हिमसमाधि’, ‘पथभ्रष्ट’, ‘अपराध और अपराधी’, ‘अस्पष्ट सीमा’, ‘काल-भ्रंश’, ‘दूसरी दुनिया’, ‘बेटी का ब्याह’, ‘चौथी पीढ़ी’, ‘पुनर्जन्म’, ‘सफर का साथी’, ‘ऊँची उड़ान’, ‘शुक्र ग्रह की यात्राआदि।

            हिंदी विज्ञान कथाओं को भारतीय स्वरूप प्रदान करने वाले यमुनादत्त वैष्णव अशोककी पहली पुरस्कृत विज्ञान कथा वैज्ञानिक की पत्नी’ (1937 .) है। अशोकजी की विज्ञान कथाएँ हंस’, ‘माया’, ‘विशाल भारत’, ‘सरस्वतीआदि पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। आँखों के प्रतिरोपण पर आधारित उपन्यास चक्षुदान (1949 .), कृत्रिम गेहूँ बनाने के प्रयोग पर आधारित उपन्यास है अन्न का आविष्कार’ (1956 .) अपराधी वैज्ञानिक (1968 .), ‘हिम सुंदरी’ (1971 .), ‘नियोगिता नारी’ (1987 .) इनके प्रमुख हिंदी वैज्ञानिक उपन्यास हैं। अशोक जी विज्ञान के विद्यार्थी थे। अतः वैज्ञानिक भावभूमि पर उन्होंने अपनी कथाओं का ताना-बाना बुना। भावी विज्ञान की संभावनाओं की तलाश करते हुए भी इनकी कृतियों में कुमाऊँ का आंचलिक परिवेश सर्वत्र विद्यमान है। अशोक जी की हिंदी विज्ञान कथाओं के पाँच संग्रह प्रकाशित हैं - अस्थिपंजर’ (1947 .) शैल गाथा’ (1998 .), ‘भेड़ और मनुष्य’ (1956 .), ‘अप्सरा का सम्मोहन’ (1967 .) श्रेष्ठ वैज्ञानिक कहानियाँ’ (1948 .) इनके इस नवीनतम संग्रह में इनकी 17 विज्ञान कथाएँ संकलित हैं - वैवाहिक कम्प्यूटर’, ‘परजीवी कीड़ा’, ‘एलर्जी’, ‘अनूप सिंह की खोपड़ी’, ‘दुराग्रह’, ‘चोर दलदल’, ‘बनकटिया का भयंकर भूत’, ‘प्रतिभा का पलायन’, ‘रोगाणु व्यवसायी’, ‘विषदंत’, ‘दुरानुभूति’, ‘निर्मल आकाश की काली घटा’, ‘आवश्यकता है व्यवहार कुशल की’, ‘तथाकथित’, ‘लूला अंतर्मन’, ‘मशीन का निर्णय’, ‘वत्सकामा का कटराआदि।

            हिंदी साहित्य के विज्ञान कथा विधा को सुविकसित करने में डॉ. नवल बिहारी मिश्र और यमुनादत्त वैष्णव अशोकका महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने विज्ञान कथा विधा को वास्तविक स्वरूप प्रदान करके इसकी परंपरा को अपनी मौलिक रचनाओं द्वारा समृद्ध बनाने का कार्य किया है। यमुनादत्त वैष्णव अशोकने हिंदी विज्ञान कथाओं को जहाँ देशज स्वरूप प्रदान किया है, वहीं डॉ. नवल बिहारी मिश्र ने विज्ञान कथाओं का सही मार्गदर्शन प्रदान करके सही दशा दिशा प्रदान किया है। इनके योगदान को देखते हुए हिंदी साहित्य की विज्ञान कथा की विधा सदैव ऋणी रहेगी।

            पाश्चात्य विज्ञान कथा साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों को हिंदी में अनुवाद करके पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में डॉ. नवल बिहारी मिश्र का महत्वपूर्ण योगदान है। वे विज्ञान की पृष्ठभूमि से संबंधित थे। अतः विज्ञान की नयी-नयी जानकारी से बराबर अवगत रहते थे। अतः अनुदित विज्ञान कथाओं को पाठकों तक पहुँचाने में आपने बहुत उल्लेखनीय कार्य किया है। इंडियन प्रेस इलाहाबाद से किशोर सिरीज की 17 विज्ञान कथाएँ प्रकाशित हुई हैं। इनमें निम्नलिखित कृतियाँ उल्लेखनीय रूप से सम्मिलित हैं। सूर्यकांत साह ने जूल्स बर्ने की विज्ञान कथा 'From the Earth to Moon' का अनुवाद 1865 . में चंद्रलोक की यात्रानाम से किया था। जूल्स बर्ने ने इस उपन्यास में गन क्लबकी रचना की थी, जिसका नायक प्रेसीडेंट नार्विकेन है। एक दिन प्रेसीडेंट नार्विकेन कहता है "एक विशेष प्रकार की तोप का निर्माण करके क्या चंद्रमा पर गोला फेंकना संभव नहीं है?.... मैंने इस प्रश्न के सभी पहलुओं पर गौर किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यदि कोई गोला 12,000 गज प्रति सेकेंड की प्रारम्भिक गति से चंद्रमा की तरफ लक्ष्य करके छोड़ा जाएगा तो वह अवश्य वहाँ पहुँचेगा।"[7]

            डॉ. संपूर्णानंद एवं आचार्य चतुरसेन शास्त्री (1891-1960 .) ने विज्ञान कथा क्षेत्र में प्रवेश कर विविध हिंदी विज्ञान कथाएँ हिंदी पाठकों को उपलब्ध करायीं। अतः हिंदी साहित्य के विज्ञान कथा की परंपरा इनकी हमेशा ऋणी रहेगी। डॉ. संपूर्णानंद ने अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर लघु उपन्यास पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल’ (1953 .) लिखा। इन्होंने अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर पृथ्वी से दूर ग्रहों एवं पिंडों पर भारतीयता की छाप छोड़ी है और वहाँ पर अपने ज्ञान के आधार पर प्राचीन संस्कृति के विम्बों को ढूँढा है। डॉ. संपूर्णानंद 1953 . में लिखते हैं "साइंस फिक्शन (वैज्ञानिक कहानी) लिखने का अभी चलन नहीं है और यह बड़ी कमी है..... इससे वाङ्मय की एक त्रुटि दूर होगी और रोचक भाषा में विज्ञान के गंभीर तत्वों से परिचय होगा।"[8]

            इसी प्रकार डॉ. संपूर्णानंद विज्ञान गल्प की सीमाएँ जानते थे और इसके लेखन में क्या-क्या कठिनाइयाँ हैं, वे उनको भी इंगित करते हैं "ऐसे वाङ्मय की रचना के मार्ग में कई गहन कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। विज्ञान की गूढ़ बातों को किस्सा कहानी के ढंग पर कहना सुखकर नहीं होता है और यदि उनकी विशद व्याख्या की जाय तो वह विज्ञान की पाठ्य पुस्तक का रूप ले लेता है। इससे उद्देश्य की हानि होती है। हिंदी में लिखने वालों को एक और विपत्ति का सामना करना होगा। पाश्चात्य देशों में साधारण जनता का सामान्य ज्ञान बढ़ा हुआ है। हमारे यहाँ अच्छे पढ़े-लिखे व्यक्ति भी विज्ञान के प्रारम्भिक ज्ञान तक से बहुधा वंचित रहते हैं।"[9]

            आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित वैज्ञानिक उपन्यास खग्रासउनकी प्रखर प्रतिभा का प्रमाण है। इसके कथानक में विज्ञानपर अत्यधिक जोर दिया गया है, जिससे कथानक एकपक्षीय नजर आता है। इसके बावजूद इन्होंने तत्कालीन समाज की विभिन्न घटनाओं को समेटते हुए वैज्ञानिक प्रगति को दर्शाया है। हिंदी विज्ञान कथा की परंपरा में इस वैज्ञानिक उपन्यास का महत्वपूर्ण योगदान है।

            हिंदी साहित्य की विधा विज्ञान कथा की इस समृद्ध परंपरा में डॉ. ओमप्रकाश शर्मा ने कई वैज्ञानिक उपन्यासों का सृजन किया है, यथा - मंगल यात्रा’ (1959 .), ‘युग मानव’ (1981 .), ‘जीवन और मानव’, ‘गाँधीयुग पुराणआदि। इनके वैज्ञानिक उपन्यासों में पाश्चात्य विज्ञान कथा का प्रभाव दिखाई पड़ता है। लेकिन इसमें निहित भारतीय तत्वों का सम्मिश्रण इनकी अपनी विशेषताएँ हैं। इनके वैज्ञानिक उपन्यास पौराणिक संकल्पनाओं से गुथे हुए हैं। डॉ. ओमप्रकाश शर्मा की वैज्ञानिक दृष्टि का मूल्यांकन करते हुए शुकदेव प्रसाद का कहना है "विज्ञान कथाकार का यह भी दायित्व है कि विज्ञान के भावी खतरों से लोक मानस को आगाह भी करता चले। इस काम को डॉ. शर्मा ने बखूबी के साथ किया है।"[10]

            डॉ. ओमप्रकाश शर्मा के सभी वैज्ञानिक उपन्यासों में मंगल यात्रा’ (1959 .) सर्वाधिक प्रसिद्ध है, क्योंकि इस उपन्यास में उन्होंने विज्ञान के प्रभाव दुष्प्रभाव दोनों पक्षों की चर्चा बखूबी के साथ की है। डॉ. रामधारी सिंह दिनकरइस वैज्ञानिक उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं "लेखक ने वैज्ञानिक कल्पनाओं के आधार पर एक ऐसी कथा की सृष्टि की है, जिससे विज्ञान के गुण और उसके खतरे जनता की समझ में आसानी से जायेंगे।... ‘मंगल यात्राहिंदी उपन्यासों में एक नये क्षितिज का निर्माण करती है।"[11]

            1960 के दशक में अन्य प्रसिद्ध हिंदी विज्ञान कथाकारों के साथ रमेश वर्मा का नाम भी उभर कर सामने आया है। इन्होंने अति कुशलता से विज्ञान के विकसित हो रहे फलक को देखा और समझा है और उसे अपने हिंदी विज्ञान कथाओं के कथानक का आधार बना कर उसे विज्ञान कथा के स्वरूप में ढाला भी है। इन्होंने सिंदूरी ग्रह की यात्रा’ (1961 .)आदि वैज्ञानिक उपन्यास लिखे। इसी दशक में डॉ. दत्त शर्मा के संपादकीय कला एवं उनके विज्ञान कथाओं से सभी रू--रू हुए। इनकी प्रमुख विज्ञान कथाएँ प्रयोगशाला में उगते प्राण’, ‘हरा मानव’, (1981 .) तथा हँसोड़ जीन’ (1989 .) हैं।

            1970 का दशक हिंदी विज्ञान कथा की परंपरा के लिए कई मायने में महत्वपूर्ण रहा था। इस दशक में गुणात्मक रूप में और उसी के अनुपात में मात्रात्मक रूप में खूब विज्ञान कथाएँ लिखी गयीं। इस दशक में जहाँ पर इस परंपरा में कई प्रतिभावान लेखक उभरे, वहीं इन विज्ञान कथाकारों ने अपनी विज्ञान कथाओं द्वारा कई नयी प्रवृत्तियों को इस समृद्ध परंपरा को प्रदान किया। इनमें कैलाश साह, देवेन्द्र मेवाड़ी, शुकदेव प्रसाद आदि प्रतिनिधि हिंदी विज्ञान कथाकार हैं।

            कैलाश साह (1939-1978 .) एक प्रतिभासंपन्न हिंदी विज्ञान कथाकार हैं। आपने डॉ. नवल बिहारी मिश्र की परंपरा को आगे बढ़ाया है। आपके कई नये विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आपकी विज्ञान कथाओं में वैज्ञानिक प्रगति, मानवीय संवेदनाओं के प्रति झुकाव, सुदूर भविष्य की संभावित वैज्ञानिकी, भाषा, शिल्प, शैली के स्तर पर नये मुकाम गढ़ती नजर आती है। आपकी लेखनी का चमत्कार विज्ञान कथा संग्रह मृत्युंजयी’ (1975 .) में देखने को मिलता है। इसमें आपकी प्रसिद्ध विज्ञान कथा मृत्युंजयीके अलावा पूर्वजों की खोज’, ‘टोनी’, ‘असफल विश्वामित्र’, ‘सर्वोच्च मानव’, ‘मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया’, ‘मशीनों का मसीहा’, ‘जहाज का पंछीआदि विज्ञान कथाएँ संकलित हैं। अपने इस संग्रह में विज्ञान कथा के उद्देश्य के विषय में आपने कहा है कि "इससे हमारा जन मानस विज्ञान और उसकी संभावनाओं से परिचित होता है... विज्ञान की समझ से अंधविश्वास दूर होते हैं... विज्ञान कथाएँ संभावित भविष्य की ओर संकेत करती हैं और आदमी को भविष्य के गर्भ में छुपे शॉक से भी बचाती हैं।"[12]

            विज्ञान कथा लेखन के प्रमुख स्तम्भकारों में देवेन्द्र मेवाड़ी (1975 .) भी एक हैं। आपने इसी दशक में विज्ञान कथा लेखन के क्षेत्र में प्रवेश किया और आज भी आप उसी ऊर्जा, श्रद्धा और कड़ी मेहनत से लेखन कार्य में व्यस्त हैं। देवेन्द्र मेवाड़ी का लघु उपन्यास सभ्यता की खोज’, (1979 .) बुद्धिमान मशीनों पर ज्यादा निर्भरता के दुष्प्रभाव की ओर संकेत करती है। देवेन्द्र मेवाड़ी के दो हिंदी विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं भविष्य’ (1994 .) तथा कोख’ (1998 .) भविष्यकथा संग्रह में आपकी छह विज्ञान कथाएँ सम्मिलित हैं - सभ्यता की खोज’, ‘एक और युद्ध’, ‘डॉ. गजानन का आविष्कार’, ‘गुडबॉय मि. खन्ना’, ‘खेम एंथनी की डायरीतथा भविष्य इसी प्रकार कोखविज्ञान कथा संग्रह में सात विज्ञान कथाएँ संकलित हैं। कोख’, ‘अलौकिक प्रेम’, ‘दिल्ली मेरी दिल्ली’, ‘पिता’, ‘चूहे’, ‘अतीत में एक दिनऔर अंतिम प्रवचन कोखविज्ञान कथा में सामाजिक परिस्थितियों में परखनली शिशु तकनीक पर आधारित कथा है। इससे उत्पन्न कई कानूनी पेचीदगियों को मेवाड़ी जी ने सफलतापूर्वक उजागर किया है। इसी प्रकार आपने दिल्ली, मेरी दिल्लीमें दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर अपनी लेखनी चलायी है।

            1980 के दशक में कई अतिमहत्वपूर्ण विज्ञान कथाकारों का इस परंपरा में आगमन हुआ था। इनमें डॉ. अरविंद, डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय, हरीश गोयल आदि हैं। आप तीनों इस दशक के प्रतिनिधि विज्ञान कथाकार हैं। आपने केवल गुणात्मक प्रचुर मात्र में विभिन्न विज्ञान कथाएँ लिखीं, बल्कि काफी लम्बे समय से रही विज्ञान कथा की परंपरा को विविध आयामी बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आप सबने विज्ञान कथाओं की मूलभूत संवेदनाओं को नये स्वरूप प्रदान करने के साथ उनकी भाषा, शिल्प, शैली में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। हिंदी साहित्य की विज्ञान कथा की परंपरा आप तीनों प्रमुख विज्ञान कथाकारों का आजीवन ऋणी रहेगी।

            डॉ. अरविंद मिश्र हिंदी साहित्य के इस विधा के संदर्भ में गंभीर व्यक्तित्व के धनी हैं। मुझे यह अनुशासन गंभीरता उनके निजी जीवन की प्रतिक्रिया प्रतीत होती है। डॉ. अरविंद मिश्र का हिंदी विज्ञान कथा में योगदान बहुआयामी है। आपने कई हिंदी विज्ञान कथाएँ लिखने के साथ-साथ आपके विभिन्न पत्रिकाओं में इस विधा पर लगातार लेख प्रकाशित होते रहे हैं। इसके साथ ही साथ विज्ञान कथा आलोचक के रूप में भी आपकी भूमिका इस हिंदी विज्ञान कथा परंपरा में महत्वपूर्ण रही है। विज्ञान कथाओं के प्रचार-प्रसार में आपकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। डॉ. मिश्र की पहली विज्ञान कथा गुरु दक्षिणा’ (1985 .) प्रकाशित होती है, जिसमें अन्य ग्रह के रोबोट शोधार्थी को भी मानवीय संवेदनाओं से युक्त दिखाया गया है। डॉ. अरविंद मिश्र का एक और क्रौंच वध’ (1998 . में) प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में कुल बारह कहानियाँ - गुरुदक्षिणा’, ‘धर्मपुत्र’, ‘देहदान’, ‘सम्मोहन’, ‘राज करेगा रोबोट’, ‘अछूत’, ‘अनुबन्ध’, ‘अंतरिक्ष में कोकिला’, ‘अंतिम दृश्य’, ‘ऑपरेशन कामदामन’, ‘एक और क्रौंच वधसंकलित हैं। भाषा पर अनुशासन के धनी डॉ. अरविंद मिश्र के विज्ञान कथाओं में मानवीय संवेदनाएँ अहम् भूमिका का निर्वहन करती हैं। धर्मयुगमें प्रकाशित एक और क्रौंच वधपशु-पक्षियों के प्रति मानवीय संवेदना जागृत करने में सफल रही है। यह अत्यंत मार्मिक कथा है। ऑपरेशन कामदामनव्यवहार विज्ञान पर आधारित कथा है। कथा का नायक कामेश्वर यह पता लगाने की कोशिश करता है कि क्या कामेच्छा को दबाने पर सर्जना में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. अरविंद मिश्र देश की एकमात्र हिंदी विज्ञान कथाओं की संस्था भारतीय विज्ञान कथा लेखक समितिके पूर्व सचिव भी रह चुके हैं। आपने हिंदी के विभिन्न नवगठित विज्ञान कथाकारों को एक मंच भी प्रदान किया है।

            1990 के दशक में डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय प्रतिनिधि विज्ञान कथाकारों में से एक हैं। आप फैजाबाद में कैंसर शोध संस्थान के पूर्व निदेशक रह चुके हैं। आपने विभिन्न विज्ञान कथा संग्रहों का सृजन किया है। हिंदी विज्ञान कथा साहित्य विधा आपकी सदैव ऋणी रहेगी और वह केवल आपके इस विधा में सृजनात्मक योगदान के लिए ही नहीं, बल्कि आपके लगन कठोर मेहनत द्वारा सितम्बर 1996 . में हिंदी विज्ञान कथाकारों की पहली समिति भारतीय विज्ञान कथा समितिगठित करने के लिए भी ऋणी रहेगी कि आपने इस विधा को और समृद्ध गतिशील बनाया है। आपकी हिंदी विज्ञान कथाओं में ऐतिहासिकता, वैज्ञानिकता, विभिन्न वैज्ञानिक तथ्यों से युक्त है तथा सहज प्रवाहमयी भाषा शिल्प, शैली की दृष्टि से सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने का प्रयास, पाश्चात्य संस्कृति समाज का दृश्य, उत्कृष्ट दिखाई पड़ती है।

            डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय द्वारा रचित वैज्ञानिक लघुकथाएँका प्रकाशन 1989 . में किया गया था। इस संग्रह में चौंतीस लघुकथाएँ संग्रहित हैं। ये लघु कथाएँ पाठक को पर्यावरण, प्रदूषण, स्वास्थ्य, अंधविश्वासों, पुरा मान्यताओं पर सहज भाषा में सूचनाएँ प्रदान करती हैं। इस संग्रह की कुछ लघुकथाएँ कृत्रिम वर्षा, कार्बन डेंटिग, स्वेच्छा मृत्यु, टेस्ट ट्यूब बेबी आदि भविष्य के घटनाक्रमों पर प्रकाश डालती हैं।

            आपकी आधुनिक विज्ञान कथाएँविज्ञान कथा संग्रह 1991 . में प्रकाशित होती है, जिसमें सोलह विज्ञान कथाएँ संग्रहित हैं। इनमें लगभग सभी विज्ञान कथाओं का परिवेश पाश्चात्य समाज से जुड़ा हुआ है। प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार हरीश गोयल इन कथाओं के विषय में कहते हैं "सभी कथाओं में नये विषय लिए गये हैं। ये विषय अब तक अछूते रहे थे। विज्ञान कथाओं में इनका पहली बार प्रयोग हुआ है। इन कथाओं में बड़े रहस्यमय ढंग से कई प्रकार की गुत्थियाँ उजागर होती हैं, जिससे इन कथाओं में गहरी संवेदनाएँ होती हैं।"[13]

            हिंदी विज्ञान कथा को अपने श्रम, सृजन एवं विलक्षण मेधा से सिंचित करने वाले लेखकों में हरीश गोयल का नाम भी खूब प्रसिद्ध है। इनका विज्ञान कथा संसार व्यापक है। इन्होंने कई हिंदी वैज्ञानिक उपन्यास और विज्ञान कथा संग्रहों का सृजन किया है। हरीश गोयल नवीनतम वैज्ञानिक खोजों एवं तकनीकी प्रगतियों पर सूक्ष्म नजर रखते हुए उसे अपने कथानक का आधार बनाते हैं।

            हरीश गोयल के कुल 11 विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं - तीसरी आँख’ (1989 .), ‘अजनवी’ (2000 .), ‘मानव क्लोन तथा तृतीय विश्वयुद्ध’ (2000 .), ‘सभ्यता की खोज’ (2003 .), ‘पाँचवाँ आयाम’ (2004 .), ‘कायांतरण’ (2004 .), ‘भविष्य की विलक्षण आँखें’ (2004 .), ‘ऑपरेशन जेनेसिस’ (2004 .), ‘रहस्यमयी ट्राइएंगल’ (2004 .) रहस्यमयी खेती’ (2004 .), ‘ऑपरेशन मार्स’ (2004 .)

            ‘कायांतरणवुल्फ मैन पर आधारित कथा है। ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट का उपयोग कर व्यक्ति जेनेटिक दवा पीकर भेड़िये में बदल जाता है तथा शहर में दहशत फैलाता है। किराये की कोखपरखनली शिशु पर आधारित कथा है। ममत्वमें बुद्धि जीन का बच्चे पर असर को बताया गया है। यह एक अत्यंत मार्मिक कथा है। विपाशनअपराध विज्ञान पर आधारित कथा है। कथा एन्काउंटरमें अंतरिक्ष यात्री जीवन की खोज करने के लिए एरिस्कार्टस यान में आगे बढ़ रहे होते हैं कि उनका सामना आक्रांताओं से होता है।

            समकालीन विज्ञान कथा साहित्य को गौर से देखने पर हम पाते हैं कि 1990 के दशक के प्रतिनिधि हिंदी विज्ञान कथाकार आज भी पूरी श्रद्धा, समर्पण और निष्ठा के साथ हिंदी साहित्य के इस विधा को निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही इनसे प्रेरित होकर नये-नये प्रतिभावान विज्ञान कथाकार भी इस लेखन विधा की परंपरा में उभर रहे हैं, जो इस विधा के लिए शुभ संकेत है। ये नये विज्ञान कथाकार कथानक के विषय-वस्तु में, उसके शिल्प, शैली, भाषा, विज्ञान कथा के मानवीय संवेदनाओं, समाज की समस्याओं आदि से संबंधित विभिन्न प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। इन नये प्रतिभावान विज्ञान कथाकारों में जीशान हैदर जैदी, मनीष मोहन गोरे, जाकिर अली रजनीश, अमित कुमार, डॉ. कल्पना कुलश्रेष्ठ आदि हैं। इनके योगदान की चर्चा क्रमवार करना उचित होगा।

            जाकिर अली रजनीश का एक विज्ञान कथा संग्रह निर्णयप्रकाशित हुआ है। शीर्षक कथा निर्णयमें पुत्र की इच्छा रखने वाले दंपत्तियों के लिए एक वैक्सीन की कल्पना की गयी है। कथा में स्त्री के एक्स गुणसूत्र को वाई गुणसूत्र से पृथक कर पुत्र प्राप्ति को आधार बनाया गया है। उनकी जरूरत’ (1995), ‘विस्फोट’ (1995), ‘चश्मदीद गवाह’ (1997) ‘एक कहानीकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। रजनीश की एक कहानी टाइम मशीनपर आधारित है। विस्फोटअदृश्यता तथा जरूरत’ ‘रोबोटिक्सपर आधारित है।

            जाकिर अली रजनीश का एक वैज्ञानिक उपन्यास गिनीपिग’ 1998 . में प्रकाशित हुआ था। गिनीपिगमें मानव संवेदनाओं के मूल में घटित हो रहे जैव रासायनिक समीकरणों की पड़ताल की गयी है। लेकिन यह प्रथम वैज्ञानिक उपन्यास नहीं है। इससे पूर्व 1984 . में हरीश गोयल का कालजयी यात्रा’ (1984 .) उपन्यास प्रकाशित हुआ है और इससे भी पहले कई वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गये हैं। राहुल सांकृत्यायन का बाईसवीं सदीप्रथम वैज्ञानिक लघु उपन्यास माना जाता है। जाकिर अली रजनीश की कई बाल विज्ञान कथाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। उनमें से प्रमुख हैं - सपनों का राजा’, ‘अकरम और रोबोटतथा मैं स्कूल जाऊँगी 1998 . में आपकी प्रतिनिधि विज्ञान कथाएँप्रकाशित हुई हैं।

            जीशान हैदर जैदी की सिलिकोन मैनएक ऐसे एलियन का नाम है, जो भाव शून्य है: केवल है एक भावना बोर होने की। कम्प्यूटर की मौतमें एक कम्प्यूटर कंपनी से निकाला गया व्यक्ति प्रतिशोध लेता है। कार का चक्करमें आपसी प्रतिस्पर्द्धा के चलते दो कंपनियाँ आपस में भिड़ जाती हैं। अनजान पड़ौसीमें एक इनसान एलियन के साथ अपनी भावनाओं का सौदा कर लेता है। बौना मामलामें चिंपाजी माँ से पैदा हुआ मानव पुत्र अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर पूरी प्रयोगशाला को नष्ट कर देता है। वैज्ञानिक राजकुमारीमें आयु घटाने की मशीन जब काम करना बंद कर देती है और युवा राजकुमारी बूढ़ी हो जाती है तो उसका पति उसे प्यार का यकीन दिलाता है।

            डॉ. कल्पना कुलश्रेष्ठ ने रोबोट, पारलौकिक जीवन और मानव संबंधी विषयों पर हिंदी विज्ञान कथाओं का सृजन किया है। उनकी विरासत’ (1995), ‘राबी’ (1996), ‘अपराधी’ (1997), और उस सदी की बात’ (1997) उल्लेखनीय हिंदी विज्ञान कथाएँ हैं। अपराधीमें नायिका शुभद्रा का मस्तिष्क एक दुर्घटना में पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाता है, लेकिन अन्य अंग ठीक तरह से कार्य कर रहे थे। चिकित्सीय दृष्टि से उसे मृत माना जा चुका था। लेकिन प्रयोगशाला में तैयार किये गये न्यूगेन रासायनिक संकेतों के स्थान पर क्षीण विद्युत संकेत भेजकर कृत्रिम मस्तिष्क को शुभद्रा के मस्तिष्क के स्थान पर प्रत्यारोपित किया गया और शरीर की तंत्रिका कोशिका से जोड़ दिया गया। इसी प्रकार संभावितहिंदी विज्ञान कथा अंतरिक्ष पर आधारित कथा है।

            डॉ. कल्पना कुलश्रेष्ठ ने उस सदी के बाद में’ 21वीं सदी के परमाणुविक जैविक युद्ध के बाद विनष्ट सभ्यता, जो 26वीं सदी में विकास का स्तर पाती है, की कल्पना की है। इस सदी में सब कुछ कम्प्यूटर संचालित है। ऐसे समाज में विकलांगता को कोई स्थान नहीं अर्थात् ऐसे लोगों के लिए कोई दया या करुणा जैसी मानवीय संवेदना नहीं है। मनुष्य एक बुद्धिमान रोबोट मात्र बनकर रह जाता है। विरासत’ ‘हिमीकरणपर केन्द्रित विज्ञान कथा है। राजशेखर भूसनूर मठ ने शवों के रहस्यमें भी कृत्रिम मस्तिष्क के प्रत्यारोपण की परिकल्पना की है।

            एक विज्ञान कथाकार को मन से साहित्यकार होना अनिवार्य है। तभी वह विज्ञान जैसे विषयों में संवेदनाएँ पिरो सकता है। साथ ही एक विज्ञान कथाकार के लिए विज्ञान के विषयों की मूलभूत जानकारी भी आवश्यक है। उसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में हो रही नित नयी खोजों से वाकिफ होना चाहिए। तभी वह भविष्य की सार्थक कल्पना कर सकता है।

निष्कर्ष : यह हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा विधा का संक्षिप्त इतिहास है। समाज में जैसे-जैसे विज्ञान का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है और उसकी महत्ता से लोग रू--रू हो रहे हैं, वैसे-वैसे अब विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ भी इस विधा को महत्त्व दे रही हैं। इनमें अब इस विधा से संबंधित विभिन्न लेख दिन-प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं। यदि स्वतंत्र भारत’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘धर्मयुग’, ‘जनसत्ता’, ‘हंस’, ‘शिविराजैसी पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी विज्ञानकथाओं का प्रकाशन होता है तो सुप्रसिद्ध पत्रिका विज्ञान प्रगतिके प्रत्येक अंक में हिंदी के मौलिक विज्ञान कथा अनूदित विज्ञान कथा बराबर प्रकाशित हो रही है। इसके अतिरिक्त विज्ञानकथा’, ‘विज्ञान आपके लिएजैसी पत्रिकाएँ लगातार विज्ञानकथाओं का प्रकाशन कर रही हैं। लेकिन यह बात अब भी सोचनीय है कि जो स्थान पाश्चात्य जगत् में विज्ञान कथा कथाकारों का है, वह स्थान अभी भारत देश में नहीं है। इस यात्रा में हमें कई मंजिलों से गुजरना पड़ेगा, तभी हम वह मुकाम प्राप्त कर सकते हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि इक्कीसवीं सदी के अंत तक यह मुकाम विज्ञान कथा और कथाकार अवश्य ही प्राप्त कर लेंगे।

संदर्भ
[1] पं. शिवगोपाल मिश्र (संपादक), भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन (लेख), विज्ञान (पत्रिका), प्रकाशक: विज्ञान परिषद प्रयाग, प्रयाग, अंक: 1989, पृष्ठ 32
[2] अजय सिंह, हिंदी साहित्य में विज्ञान कथा (शोध-प्रबंध), सन् 2002, पृष्ठ 28
[3] राहुल सांकृत्यायन, ‘बाईसवीं सदीप्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, प्रयाग, संस्करण: 2012, पृष्ठ 73 (भारतीय विज्ञान कथाएं में संग्रहित), सम्पादक: शुकदेव प्रसाद
[4] वही, पृष्ठ 74
[5] गोपाल प्रसाद मिश्र (संपादक), विज्ञान (पत्रिका), अंक: मई 2000, पृष्ठ 4, प्रकाशक: प्रयाग विज्ञान परिषद, प्रयाग
[6] वही, पृष्ठ 5
[7] सूर्यकांत साह (अनुवादक), चंद्रलोक की यात्रा, प्रकाशक: इंडियन प्रेस इलाहाबाद, संस्करण: 1961, पृष्ठ 5
[8] गोपाल प्रसाद मिश्र (संपादक), विज्ञान (पत्रिका), अंक: मई 2000, पृष्ठ 4, प्रकाशक: प्रयाग विज्ञान परिषद, प्रयाग
[9] शुकदेव प्रसाद (संपादक), विश्व विज्ञान कथाएँ, प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण: 2012, पृष्ठ 22
[10] शुकदेव प्रसाद (संपादक), भारतीय विज्ञान कथाएँ, प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण: 2012, पृष्ठ 25
[11] वही, पृष्ठ 25
[12] कैलाश साह, मृत्युंजयी (विज्ञान कथा संग्रह की भूमिका), प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण: 1976, पृष्ठ 15
[13] डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय (संपादक), विज्ञान कथा, (त्रैमासिक पत्रिका), प्रकाशक: भारतीय विज्ञान समिति, फैजाबाद, अंक: सितम्बर-नवम्बर 2016 ., पृष्ठ
29


डॉ. आशीष कुमार यादव
पोस्ट डॉक्टोरल फैलो स्कॉलर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद् (ICSSR), शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
asheeshdu8@gmail.com, 9818813985

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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