कविता कादंबरी की कुछ कविताएं


कविता कादंबरी की कुछ कविताएं 

(कवयित्री, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के शिक्षा संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इनकी कविताएं कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'अंतिका प्रकाशन' से छपा इनका कविता संग्रह 'हम गुनाहगार और बेशर्म औरतें' खासा चर्चित है।-सम्पादक मंडल)





1. पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ-1

जीवन जीने के नियम हर बार
किताबों से नहीं मिलते

मेरी माँ को ककहरा पढना तक नहीं आता
लेकिन उसे आता है प्रेम करना
विश्वास करना
क्षमा करना 

उसने विपरीत से विपरीत व्यक्ति को देखकर
मुंह नहीं मोड़ा कभी
मन में गांठ नहीं रखी 

उसने अपनी शिकायत करने वालों के पास
चुपके से कान नहीं लगाया
बल्कि वहां से हटकर उन्हें असहज होने से बचा लिया 

लोगों के अनचाहे हिलोर से
उसकी नदी कभी गन्दली नहीं होती 
लोगों की रोड़ से
उसका रास्ता नहीं बदलता

ताज़े नहला धुलाकार खेलने भेजे गए हम लोग
मिट्टी लपेट लौटें,कीचड़ या कोलतार
उसने कभी ऑंखें नहीं तेरेरा 
चाहे कड़ाही चूल्हे पर चढी हो, गाय की सानी करनी हो या अस्पताल खाना पहुँचाना हो 

पैसे जोड़-जोड़कर बनाये गए
नए-नए चादर पर्दों को
खेल-खेल में हमने चूहों सा कुतर  डाला
माँ ने मुस्कान ओठों में दबाते हुए चूड़ियाँ ऊपर चढ़ाते हुए
हमें धमकाने का नाटक भर किया 

मुश्किलें आयीं मगर उसे गुस्सा नहीं आया
उधार  के गेहूँ को पिसवाने जाते वक़्त
रास्ते में गिराकर
खाली बोरे संग डरते और उदास लौटे भाइयों को
माँ ने मुस्कुराकर कहा 'कोई बात नहीं यह तो राजा हरिश्चन्द्र की परीक्षा है'

वह बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में नहीं जानती
पर न अपेक्षा करती है न शिकायत न उपेक्षा 

विविधता, समावेशन और सहिष्णुता उसके लिए क्लिष्ट शब्द हैं
मगर उससे ही सीखा हमने कि 
विचारों की भिन्नता और शिकवे -शिकायतों का मतलब
विरुद्ध होना नहीं होता है 

उसने ग्रन्थ नहीं पढ़े तो
जाति-धर्म की धक्का मुक्की में भी नहीं पड़ी

उसने समाचार पत्र पढ़ने के लिए नहीं बल्कि
सब्जी के छिलके रखने के लिए खोले

टीवी पर चलती राजनितिक बहसों  को सुनते हुए वह सो जाती है 

होंगे किसी चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में तमाम विषकाट अमृत के सूत्र

माँ को नहीं पता उसकी बला से 

मगर उसको आता है
उम्र भर मिली तमाम रुक्षता को
कूट पीस कपड़छन कर
प्रेम में तब्दील कर देना



1. पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ-1

समुद्र की विपुलता पर विस्मित, मोहित
फिसल गए मेरे पाँव
मुझे तैरना नहीं आता था

उफ्फ़! कितना अंतर होता है
समुद्र के सौंदर्य
और उसके भीषण स्वाद में

सतह पर तैरते
किताबों के पन्ने और अखबार
तैरते पुलों का भ्रम देते रहे मगर
पाँव धरते ही डूब गए

नीति के एक पन्ने ने भी
मेरे पाँवों के नीचे
पुल का काम नहीं किया

मेरी नाव हुई बस तुम्हारी पीठ
तुम्हारी रीढ़ मेरे चप्पू

तुम्हारी डोंगी फूलों से भरी थी
उसमें न धर्मग्रन्थ ने, न दर्शन, न साहित्य

मृत्यु के नज़दीक से गुज़र जाने पर
उसकी वीभत्स स्मृतियाँ
वर्षों तक नींदों में हाहाकार करती हैं

मगर

मुझे नींदों में समुद्र की हाहाकार कभी नहीं सुनाई देती
मुझे सुनाई देती है चप्पू चलने की लयबद्ध आवाज़
और मैं उस लय के सहारे गहरी नींद सोती हूँ

मेरी आँखों से नहीं बहता समुद्र का ख़ारा पानी
बहता है तुम्हारे श्रमस्वेद का नमक

तुम्हारी पीठ वह स्थान है प्यार
जहाँ हुआ है मेरा पुनर्जन्म

मैंने अपनी स्मृतियों में पुराने घरों के लिखे पते मिटा दिए हैं

तुम्हारी पीठ पर
आदिम चुम्बनों से लिखा है मैंने अपना पता

तुम्हारी पीठ ही मेरा आदि स्थान है


3.चोर की दाढ़ी में तिनका-1

चोरों ने संतों की देखा देखी
बढ़ा ली हैं दाढियाँ

वो दिन भर प्रवचन करते हैं
प्रहसन करते हैं

और रात में चुपके से उतरते हैं
किसानों के खलिहानों में

पैरों की आहटों  से डरकर
वो पुआलों के पहाड़ों  में छुप जाते हैं 

उनकी दाढ़ी में तिनके हैं
जिनपर उँगलियाँ उठाने पर 
वह पहाड़ों में संन्यास की बात करते हैं


4.चोर की दाढ़ी में तिनका -2

शहर में रंग-बिरंगी चिड़ियाँ 
ठूंठ पेड़ पर लाखों चिड़ियाँ 

उसी पेड़ पर कई घोसले
उनमें उनके अंडे बच्चे

चुग्गे लेने जाती चिड़ियाँ
जोड़ बटोर के खाती चिड़ियाँ

उन चिड़ियों को हुक्म हुआ है

एक ही रंग में चोंच रंगाएँ 
एक सफ़े में आयें जायें 
एक ही धुन पर पंख फैलाएं 
एक टेर में गायें चिड़ियाँ

वरना आरी चल जाएगी
और लाठियाँ बल खाएंगी
बिखरेँगे सब शाद घोसले

यह सब सुनकर भौचक चिड़ियाँ 
ठूठतंत्र में औचक चिड़ियाँ

तिनका तिनका लेख रही हैं 
चोर की दाढ़ी देख रही हैं


5. गर्भगृह का देवता

गंध,धूप,धुआं,सीलन

उमस से उकताकर
बीमार होकर मर जाने के भय से
वह बाहर निकल आया है

परिक्रमण पथ के स्तंभों पर बनी मांसल देहों के बीच अपनी तस्वीरें खोज रहा है!

नहीं मिल रही तो!

नाखूनों से खरोंचकर 
उनपर अपना चिन्ह अंकित करना चाहता है!

अकुलाहट में

घुप्प अंधेरे में
इस देह की भीत के भीतर बार-बार हाथ लगा रहा है

खोज रहा है
प्रेम की विविध भंगिमाओं के चित्र
अंक में भींच लेने की इच्छाओं का चिन्ह!

उसके व्याकुल हाथों से लगकर
ताखे की भुक्क-भुक्क करती आखिरी ढिबरी भी गिरकर फूट गई है
 
उसकी भूख नैवेद्य भरे थालों से कम नहीं होती
उसकी अकुलाहट नहीं दबती अपराध क्षमा की स्तुतियों से

यथा
"देव! कुछ चेहरे परिक्रमण पथ के स्तंभों पर शोभा नहीं देते।
प्रभु! सभी दीपक भीतों पर नहीं रखे जाते।।"

वो कहता है कि
"देवता होने और कैदी होने में 
आस्था भर का ही फर्क़ है"

"मुझे मुक्त करो देवी"

"मुक्त करो"

"मुक्त करो"

6. प्रेम 

छोटा सा भी फूल खिला तो तुम्हें दिखाया
छोटी चिड़िया घर आयी ये बात बताई

मरे हुए पौधों की फुनगी हरी हुई है
परित्यक्त पौधा जो मैं घर ले आई
 
उसमें आयी कोपल ये तुमसे कहना था
इस उछाह में जादूगर बाहें गहना था
 
इंद्रधनुष आधा था आधा पास तुम्हारे
धौल जमाकर पीठ, तुम्हारी जेब टटोली

कुतर रहे हैं दिल चूहे बस तुम्हें बताया
चाट गए हैं दीमक मेरा पढा-गुना सब

नए प्रेम की दस्तक बस तुमसे साझा की
तुम्हें दिखाया अपनी रीढ़ का कोमल हिस्सा

तुम्हें दिखाए खिले पीठ पर नील फूल सब
खुली पीठ को पीछे करके छड़ी थमाई

बैठ दरकती ग़ज़ल पर मैं डूबी उतराई
जो भी बंदिश धुन ले डूबी तुम्हें सुनाई

गर चमकी जो आंख तुम्हारी चेहरा रौशन
कहीं नमी जो आकर बैठी दिल ये टूटा

फर्क़ यही है नहीं गुलाबी चिट्ठी डाली
फर्क़ यही है नहीं कहा कि प्रेम बहुत है

आसमान का अंतर्देशीय हाथ में थामें
नदी समंदर तुम तक भेजूं नामाबार कर

मगर सुना है देस तुम्हारे धुँध बहुत है
नियम तोड़कर नदी बहे तब तुम तक पहुंचें  



डॉ.कविता सिंह,  सहायक आचार्य
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
ई मेल : singhkavita.bhu@gmail.comसम्पर्क : 7258810514


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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