अनुवाद से परिचय
- गोपाल प्रधान
सबसे पहले स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी जिंदगी में किताबों का प्रवेश बहुधा अनुवाद के माध्यम से ही होता है। बचपन में विमल मित्र की रचनाओं को जब पढ़ा तो वे अनूदित ही थीं। बाद में जब शरतचंद्र की रचनाओं से परिचय हुआ तो वे भी अनूदित ही थीं। अलबत्ता अंग्रेजी से अनुवाद करने की कहानी थोड़ी देर से शुरू हुई। हाई स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आये तो अंग्रेजी अखबार देखे। भागलपुर के अँखफोड़वा कांड की अरुण सिन्हा की रपटें इंडियन एक्सप्रेस में देखीं और उनका अनुवाद करना शुरू किया बिना किसी प्रयोजन के। उसके बाद माले की क्रांतिकारी राजनीति ने जकड़ लिया। तब उसका एक अंग्रेजी मुखपत्र लिबरेशन पहले छप कर जाता था। साथियों को उसके लेखों का अनुवाद सुनाता था। फिर उत्तर प्रदेश के हिंदी मुखपत्र जनक्रांति के लिए उनका अनुवाद शुरू भी किया। इस काम में हमारे शिक्षक के रूप में रामजतन शर्मा थे। उन्होंने हिंदी की वाक्य रचना में अंग्रेजी वाक्य का बल ले आने का ढब सिखाया। न केवल इतना बल्कि अनेक अनुवादों को दुरुस्त करना भी उनसे ही सीखा। मसलन अंग्रेजी के एक लेख का शीर्षक था- डेड
लेटर्स ऐंड लिविंग सोल। इसका पहले किसी डाकतार विभाग के साथी ने अनुवाद किया था- गलत पते पर डाली गयी चिट्ठियां और जीवित आत्मा। शर्मा जी ने ही बताया कि डाक विभाग में ऐसे ही पत्रों को डेड लेटर्स कहते हैं जिनका पता सही न हो। इस तरह अनुवाद से परिचय शुरू हुआ। फिर तो नागभूषण पटनायक के अंग्रेजी भाषणों के कमल कृष्ण राय के आशु अनुवाद सुने और एकाध बार कुछ लोगों के भाषणों का किया भी।
इस आरम्भिक परिचय को प्रगाढ़ता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने दी। वहां आइसा के पर्चे हिंदी में लिखता और जिनका प्रणय अंग्रेजी में अनुवाद करते। साथ ही जब रामेश्वर प्रसाद सांसद हुए तो कभी कभी उनको भी कुछ संसदीय कागजों का हिंदी अनुवाद सुनाना होता था। उनके सांसद आवास से ही इंडियन पीपुल्स फ़्रंट के मुखपत्र का लेखन होता था। यह काम दीपंकर करते थे। उन लेखों का भी हिंदी संस्करण के लिए अनुवाद करना होता था। इन सभी कामों को अनुवाद का प्रशिक्षण कह सकते हैं। तब तक अनुवादक जैसी किसी चाहत का पता भी नहीं था। इसी प्रशिक्षण की वजह से अनुवाद भी अधिकतर वैचारिक गद्य का किया। जोर इस बात पर देना जरूरी है कि जैसे पत्रकारिता में आयी शुरुआती पीढ़ी ने पत्रकारिता की डिग्री नहीं ली थी और आज भी वह क्षेत्र नवीनता के लिए खुला ही रहता है उसी तरह अनुवाद के क्षेत्र में भी आने के एकाधिक मार्ग हैं। इसमें रुचि का सबसे अधिक योगदान होता है। बहरहाल बाकायदे अनुवाद का काम भी इसी तरह के संयोग का परिणाम था।
श्याम बिहारी राय ने मैकमिलन से अवकाश लेने के बाद ग्रंथशिल्पी नामक प्रकाशन खोला था। उनके यहां से अधिकतर वैचारिक लेखन के अनुवाद ही छपते थे। इसके पीछे भी मैकमिलन के अनुभव का ही हाथ था। कुछ दोस्तों को उनके लिए अनुवाद के काम में मुब्तिला देखकर ईर्ष्या भी होती थी। बहरहाल पहली नौकरी ऐसी जगह मिली जिसके बारे में जानकारी बहुत कम थी। उससे पहले दो चार दिन बरेली में अमर उजाला में रहा। तब शाहजहांपुर नामक उस जगह के बारे में एक समाचार देखा था।
नियुक्ति पत्र मिलने के बाद लगा कि वहां रहकर करूंगा क्या तो राय साहब ने रवींद्रनाथ ठाकुर पर एक पतली सी किताब पकड़ा दी थी अनुवाद के लिए। वही पहला औपचारिक अनूदित काम था। राय साहब की सबसे बड़ी खूबी थी कि वे अनुवादक का नाम किताब के मुखपृष्ठ पर ही छापते थे। यह चलन अनुवादों के विदेशी प्रकाशनों तक में नहीं नजर आता। अनुवादक की ऐसी प्रतिष्ठा की वजह से ही उनके प्रकाशन के लिए अनुवाद का काम मेहनताना कम होने के बावजूद बहुतों ने किया। उनकी एक और खूबी का जिक्र जरूरी है। प्रकाश्य पुस्तक का प्रूफ़ उन्होंने कभी अनुवादक से नहीं पढ़वाया। उनका मानना था कि जिसने भी पांडुलिपि तैयार की है वह प्रूफ़ की अशुद्धि कभी नहीं पकड़ सकता क्योंकि उसकी नजर गलत को भी सही पढ़ेगी। हिंदी का कोई भी प्रकाशक इस नीति का पालन नहीं करता इसलिए भी नामचीन प्रकाशकों के प्रकाशन में बोरे भर अशुद्धि मिलना अचरज की बात नहीं। उनकी इन्हीं खूबियों ने ढेर सारे नवोदित लेखकों को आकर्षित किया था और हिंदी के पाठकों को समाज विज्ञान की आला दर्जे की किताबों के अनुवाद पढ़ने को मिले थे। उन्हें अनुवादकों के साथ ही ऐसे अध्यापकों और विद्वानों की टोली भी मिली थी जो बिना किसी पारिश्रमिक के उनको सलाह देते रहते थे। अनुवाद के प्रकाशक से हमेशा ऐसे लोगों का संसर्ग अपेक्षित रहता है जिन्हें अन्य भाषाओं के बेहतरीन लेखन का पता हो। तात्पर्य कि अनुवाद का काम समूचे बौद्धिक माहौल का अंग होता है। बिना इस बौद्धिक माहौल के अनुवाद का कोई असर ही नहीं रहेगा।
रवींद्रनाथ ठाकुर की शिक्षा संबंधी इस किताब और अन्य किताबों के भी अनुवाद के दौरान अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश रखने और देखने की आदत बनी। कहना न होगा कि इस क्षेत्र में फ़ादर कामिल बुल्के का कोश अब भी सर्वोत्तम है। उसमें शब्दार्थ को खास क्रम में रखा गया है जिसके कारण जिस स्तर का प्रतिशब्द इस्तेमाल करना हो उसे चुनना आसान हो जाता है। रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी ‘तोते की शिक्षा’ में जितने वाद्ययंत्रों का जिक्र है उन सबके लिए यथोचित हिंदी प्रतिशब्द इसी कोश में मिल गये अन्यथा बांगला से अंग्रेजी में अनूदित वाद्ययंत्रों का हिंदी अनुवाद प्रचुर मुश्किल होता। साहित्यकार के लिखे काव्य के अतिरिक्त गद्य में भी श्लेष का प्रयोग कभी कभी मिल जाता है। उसके लिए सही प्रतिशब्द खोजना बेहद कठिन होता है। कहीं उन्होंने इसी तरह कामनवेल्थ का इस्तेमाल किया था जिसके मानी ब्रिटिश साम्राज्य की संस्था और साझा संपत्ति दोनों होता था। बहुत पुरानी बात होने से समस्या का समाधान अब याद नहीं लेकिन जाना कि किसी भी साहित्यिक रचना या साहित्यकार के विश्लेषणात्मक गद्य के अनुवाद में ऐसी मुश्किलात पेश आती हैं।
इसके बाद उन्होंने जो दूसरी किताब अनुवाद के लिए भेजी वह आर्नल्ड हाउजर की कला का इतिहास दर्शन थी। उसके अनुवाद ने सबसे अधिक समय लिया। इसके लिए कला की शब्दावली से परिचय आवश्यक था। तब एक कला अध्यापक से किताबें लेकर पढ़ीं ताकि कला की हिंदी शब्दावली सीख सकूं। वह किताब किसी मराठी सज्जन की लिखी थी। उसी में प्रकाश-छाया चित्रण की तकनीक के बारे में पता चला। कला संबंधी इस तरह की पारिभाषिक शब्दावली की तरह ही जब आप किसी क्षेत्र विशेष की किताब का अनुवाद करते हैं तो उस क्षेत्र की विशिष्ट शब्दावली से परिचय बहुत जरूरी होता है। पाठक की सुविधा के लिए ऐसी अनूदित किताबों के अंत में शब्द सूची देने की वकालत की जाती है लेकिन कभी नंद किशोर आचार्य ने तर्क दिया था कि अंग्रेजी अनुवादों में तो ऐसी सूची नहीं होती तबसे इस बात का कायल हूं कि अनुवाद को पढ़ते हुए अन्य किसी भी सहायता की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उस किताब के साथ समस्या थी कि वह भी मूल जर्मन से अंग्रेजी में अनूदित थी। किताब में तमाम यूरोपीय भाषाओं के उद्धरण मूल भाषा में जस का तस रहने दिये गये थे। इतालवी, फ़्रांसिसी, स्पेनी और पुर्तगाली भाषाओं के वाक्यों और कहावतों का हिंदी अनुवाद टेढ़ी खीर थी। इसमें मदद मिली फ़्रंचेस्का ओरसिनी से। उन्हें ऐसे सभी वाक्यांश सही उच्चारण और अर्थ हेतु लिख भेजे। कमाल कि उस विदुषी ने सब लिखकर और समझाकर वापस डाक से भेजा। उनके कागजात तो सुरक्षित नहीं हैं लेकिन संग्रहणीय थे। इतालवी नामों में ञ की ध्वनि अब भी जिंदा है। हिंदी टंकण में भी उसकी सुविधा मुश्किल से उपलब्ध है फिर भी कोशिश करके सही नाम लिखे। इस तरह डेढ़ साल अनुवाद और छह माह सुधार के बाद उसकी पांडुलिपि तैयार हुई थी।
संयोग से उन्हीं दिनों पुराने मित्र आलोक श्रीवास्तव पधारे। उनके पास वर्जीनिया वुल्फ़ की ए रूम आफ़ वन’स ओन थी। अनुवाद के लिए उन्होंने मुझे सौंपी। रचना साहित्यिक थी इसलिए उसके सिलसिले में अलग किस्म की मुश्किलें आयीं। उनके समाधान में जनेवि के दोस्तों से बहुत मदद मिली। वर्जीनिया की शैली सबसे बड़ी समस्या थी। एक जगह उन्होंने देहाती अंग्रेजी का टुकड़ा किसी के पत्र से दिया है। उसे शायद ही वैसी हिंदी में अनूदित कर सका हूंगा जो आम हिंदी से अलग हो। इसी तरह एक जगह मर्दाना भाषा के उदाहरण दिये गये हैं। उसका भी सही रूपांतर हो सका हो इसकी उम्मीद कम ही है। ‘बीज बोने’ और ‘झंडा गाड़ने’ जैसी क्रियाओं के सहारे मर्दाना व्यापकता की अभिव्यक्ति थी। स्त्री की वाक्य रचना शैली की विशेषताओं को उन्होंने स्त्री की जीवन शैली से जोड़ा है और इसे बताने के लिए ढेरों शैलीगत प्रयोग किये हैं। दिक्कत थी कि हिंदी अनुवाद को पाठक के लिए बोधगम्य बनाना था इसलिए स्वाभाविक तौर पर शैली में अनुस्यूत विषयवस्तु का सही रूपांतर न हो सका होगा। इन सब चीजों का जिक्र महज साहित्यिक रचनाओं के अनुवाद की दिक्कतों की जानकारी के लिए किया गया है।
बाटमोर की समाजशास्त्र का अनुवाद करते हुए हेगेल की थोड़ी जटिल दार्शनिक धारणाओं से निपटना पड़ा था। इसी तरह एंथनी ब्रेवेर के प्रसंग में अर्थशास्त्र की जटिलताओं को सुलझाने में उस विद्या के सिलचर स्थित अध्यापकों ने मदद की थी। इस किताब के हिंदी अनुवाद का सुझाव अमर फ़ारूकी का था और उन्होंने इसके हिंदी अनुवाद की भूमिका भी लिखी थी। मुशीरुल हसन की किताब में इस्लाम से जुड़ी खास तरह की शब्दावली थी जिसके सिलसिले में असम विश्वविद्यालय सिलचर के ही अध्यापकों ने सहायता की। बाटमोर की किताब में संदर्भ सूची स्वतंत्र लेख की शक्ल में थी। तबसे इस सूची के निर्माण में किसी मानक स्वरूप से तौबा कर लिया। एक संदर्भ ब्रिटिश पुस्तकालय का कमांड नंबर था उसका मतलब भारतीय प्रबंधन संस्थान कलकत्ता के एक अध्यापक ने स्पष्ट किया।
इतने अनुवादों के हो जाने के बाद इसके अध्यापन का भी विश्वास पैदा हुआ इसलिए वर्धा में अनुवाद में कभी कभी अध्यापन भी करने लगा। इस क्रम में अनुवाद की सामाजिक भूमिका समझ आयी और हिंदी के आरम्भिक लेखकों के अनुवादों की जरूरत भी स्पष्ट हुई। अनुवाद किसी भी स्थिर संस्कृति में हलचल पैदा करने का माध्यम बन जाते हैं। हमारे अपने देश में अंग्रेजों के आगमन के साथ अनुवादों की जो बाढ़ नजर आती है उसका इस नजरिये से गहन अध्ययन करने की जरूरत है। ये अनुवाद एकतरफ़ा नहीं थे। हिंदी के लेखक अगर अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे तो अंग्रेज भी प्रचुर मात्रा में हिंदी और उर्दू से अनुवाद कर रहे थे। इससे पहले यह काम मुस्लिम विद्वानों ने भी किया था। पूरी दुनिया में इस्लाम का प्रसार होने से अरबी में लगभग समूची दुनिया के ज्ञान का अनुवाद हुआ था। इन अनुवादों की मार्फत ही यूरोप को यूनानी ज्ञान की थाती का पता चला था और यूरोपीय पुनर्जागरण की हवा बही थी। यूरोपीय पुनर्जागरण के इतिहास में इस्लाम के इस योगदान को याद रखा जाना आज के इस्लाम विरोधी वातावरण में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
इसके बाद एक साल तक बेरोजगारी की थी जिस समय इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में कृषि और इतिहास की अध्ययन सामग्री का अनुवाद किया। इतिहास का अनुवाद हाथ से लिखता था, कृषि का अनुवाद तो सीधे टंकक को बोल देता था। तब इतिहास के एक अध्यापक ने अनुवाद के सिलसिले में बहुत मार्के की बात बतायी थी। उनका कहना था कि आम तौर पर एग्रेरियन सोसाइटी का अनुवाद कृषक समाज कर दिया जाता है जबकि उस समाज में जमींदार भी होते थे। तबसे इसका अनुवाद कृषि समाज ही करता हूं।
इस बेरोजगारी के खात्मे के बाद असम के सिल्चर पहुंचा। विश्वविद्यालय और नगर का परिवेश बांगला की सलेटी बोली से बना था। वहां रहते हुए
1857 की एक स्थानीय गाथा मिली। उसका नागरी लिप्यंतर और काव्यानुवाद संपन्न किया। पूर्वोत्तर की भाषाओं की कविताओं के एक पतले से संग्रह का भी काव्यानुवाद किया। इसके पहले वर्जीनिया वुल्फ़ ने कुछ कविताओं के उद्धरण दिये थे तो उनका भी काव्यानुवाद किया था जिसके सिलसिले में कभी एक मित्र ने कहा कि मूल और अनुवाद में छंद समान हैं। इग्नू के अनुवाद में भी एकाध काव्य पंक्तियों के अनुवाद किये थे। इसी अनुभवजनित साहस के बल पर उपरोक्त अनुवाद भी कर सका। अनुवादों में काव्यानुवाद सबसे अधिक जटिल होता है और अनुवादक से पूरी रचनात्मकता की मांग करता है। यह बहुत जरूरी होता है लेकिन सबसे टेढ़ा भी है। इस तरह के प्रयासों की निर्मम समीक्षा से ही अनुवाद की गुणवत्ता हासिल हो सकती है इसलिए यह अत्यंत जिम्मेदारी का काम हो गया है। इससे पाठकों के बीच अनुवादों की चर्चा भी होगी अन्यथा अनुवाद के काम में हाथ लगाने वालों की कमी हमेशा बनी रहेगी।
कभी अनुवाद के बारे में गम्भीरता से लिखना शुरू किया था। उसे भी इसी लेख का हिस्सा बना लेना उचित लगा। आगे वही दिया जाता है- किसी पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जाना अनुवाद कहलाता है। इसमें ‘पाठ’ और ‘भाषा’ के अर्थ को फैलाए बिना अनुवाद के विस्तार को समझना मुश्किल है। शाब्दिक तौर पर ‘अनुवाद’ का मतलब ‘दूसरी बार कहना’ है। अनुवाद की व्याप्ति को इसके आधार पर ही ग्रहण किया जा सकता है। यह दूसरी बार कहना भाषांतर हो सकता है जिसे आम तौर पर अनुवाद कहा जाता है, भाष्य हो सकता है और रूपांतर भी हो सकता है। अनुवाद का यदि सबसे सीमित अर्थ भाषांतर भी मानें तो इसके लिए दोनों भाषाओं (यानी स्रोत और लक्ष्य भाषा) का ज्ञान न्यूनतम आवश्यकता है लेकिन न्यूनतम ही। वैसे भी भाषा केवल व्याकरण नहीं होती। भाषा के माध्यम से समाज अपने इतिहास और संस्कृति की अभिव्यक्ति करता है। इसीलिए अनुवाद कभी एकदम नासमझ और भोला कर्म नहीं होता। उसके जरिए बहुमुखी कार्यभार पूरे किये जाते हैं। देश की आजादी की लड़ाई के समय अंग्रेजी से हिंदी में होने वाले अनुवादों का जिक्र बहुतेरा हुआ है। इसके साथ ही भारतीय भाषाओं के बीच संवाद बनाने में भी अनुवाद की भूमिका को याद रखना चाहिए। प्रगतिशील आंदोलन को अनुवाद की यही समृद्ध विरासत मिली थी जिसकी वजह से उसके कवियों में भी अनुवाद की क्षमता अक्सर नजर आती है। नागार्जुन की बांगला कविताओं का एक संग्रह तो है ही, उन्होंने कालिदास और विद्यापति की रचनाओं के अनुवाद भी किये। निराला ने भी आनंदमठ के अतिरिक्त रामकृष्ण वचनामृत का अनुवाद किया था। प्रेमचंद के हिंदी लेखन में न केवल उर्दू की रवानी है बल्कि उन्होंने सरशार की आजादकथा के साथ तालस्ताय की कहानियों के भी अनुवाद किये थे। उनके अनुवादों में जवाहरलाल नेहरू के पिता के पत्र पुत्री के नाम को भी नहीं भूलना चाहिए। स्वाधीनता आंदोलन के समय हिंदी की जो भी पत्रिका निकली उसके साथ बंगाल का प्रसंग किसी न किसी तरह जुड़ा रहता है। आरम्भिक हिंदी कहानियों में से एक की लेखिका का नाम ही बंगमहिला था। ‘सरस्वती’ की छपाई प्रेस के मालिक का नाम चिंतामणि घोष था। उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविताओं के संग्रह भी छापे थे। हिंदी लेखकों पर कभी नकल का आरोप लगा तो बांगला साहित्य के अनुकरण का ही लगा। उस समय बंगाल न केवल आजादी के आंदोलन का अगुआ था बल्कि रचनात्मक चेतना का भी नेतृत्व कर रहा था। याद दिलाने की जरूरत नहीं होगी कि ‘देश की बात’ नामक पुस्तक का लेखन मूल रूप से बांगला में ही हुआ था। इसका लेखन बंगाल में पीढ़ियों से रहने वाले एक मराठी ने किया था तो इसका हिंदी अनुवाद भी बनारस निवासी एक मराठी ने ही किया था। इस प्रसंग से स्वाधीनता आंदोलन के समय के संवाद का स्तर उजागर होता है। इस संवाद के दौरान सभी भारतीय भाषाओं में साहित्यिक और वैचारिक समृद्धि आयी थी।
इस सिलसिले में सबसे पहली बात यह है कि अनुवादक जब अनुवाद के लिए किसी रचना का चुनाव करता है तो उसके पीछे अनेक कारण होते हैं। उन कारकों की पड़ताल से अनुवादक की रुचि के निर्माण का पता चलता है। इसमें पहला विभाजन ज्ञानपरक लेखन और रचनात्मक लेखन के बीच होता है। किसी की रुचि साहित्यिक रचना के अनुवाद में होती है तो किसी की ज्ञानपरक लेखन के अनुवाद में। इसी रुचि के हिसाब से अनुवादक उस पाठ का चुनाव करता है जिसका उसे अनुवाद करना होता है। दोनों ही तरह के लेखन के अनुवाद की जरूरत अनुवादक को तभी महसूस होती है जब उसे अपनी भाषा में इस लेखन का अभाव प्रतीत होता है।
इसके बाद कहना है कि अनुवादक अपनी भाषा में जब दूसरी भाषा से कुछ ले आता है तो उसके आने से ऐसा रासायनिक बदलाव शुरू होता है जिससे उस भाषा का अपना लेखन भी अनूदित रचना के अनुवाद से प्रभावित होकर बदलने लगता है। इस तरह अनुवादक बहुधा सामाजिक बदलाव का अचेत वाहक तो हमेशा ही लेकिन कभी सचेत वाहक भी बन जाता है। अनुवादक की निजी रुचि और पहल के साथ उसकी यह व्यापक भूमिका भी अभिन्न रूप से जुड़ी रहती है। इसी कारण अनुवाद का काम कभी केवल निजी नहीं रहता। न चाहते हुए भी वह सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने लगता है। कई बार सरकारें भी इसमें रुचि लेती हैं और उन्हें ऐसा जिम्मेदारी के साथ करना भी चाहिए। यह कर्म व्यापक शिक्षण का भी अनिवार्य अंग होता है जो किसी भी सरकार का दायित्व होना चाहिए। हमारे देश के संविधान में नागरिकों के कर्तव्य के साथ ही सरकारों के दायित्व का उल्लेख भी अकारण नहीं हुआ है।
ऐसा व्यापक सांस्थानिक प्रयोग
1917 की रूसी क्रांति के बाद स्थापित शासन ने किया था। सोवियत संघ की समाप्ति के बाद उसके इस प्रयास के दस्तावेजी निशान भी खोजने कठिन हो गये हैं। उसकी विरासत राजकीय तौर पर किसी को न मिलने से उस महान प्रयास के इतिहास का लेखन बहुत जरूरी होते हुए भी लगभग असम्भव हो चला है। प्रगति प्रकाशन से छपी अनूदित किताबों ने बहुत लम्बे समय तक हिंदी के दूर दराज रहने वाले पाठकों को श्रेष्ठ साहित्य मुहैया कराया था। हिंदी में रामविलास शर्मा ने मार्क्स की पूंजी के दूसरे खंड का हिंदी अनुवाद किया था। जब उसका संपादन हुआ तो रामविलास जी को भाषा में बहुतेरे बदलाव दिखे जिनके बारे में उन्होंने लिखित आपत्ति भी दर्ज करायी थी। आपत्ति संबंधी वह पत्र अब कहीं नहीं है। अकेले इसी उदाहरण से इन अनुवादों के साथ जुड़ी विस्तृत प्रक्रिया को समझा जा सकता है। न केवल इन अनुवादों का गहन संपादन होता था बल्कि इनकी बिक्री का भी विशाल और अत्यंत लोकप्रिय तंत्र था जिसके जरिये यह अनूदित, रचनात्मक और वैचारिक, साहित्य सामान्य पाठकों तक बेहद सस्ती कीमत पर पहुंचता था। इससे ही प्रेरणा लेकर भारत सरकार ने भी एकाधिक संस्थान इस काम के लिए बनाये। इनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से इमानुएल कांट के शुद्ध बुद्धि मीमांसा का सीधे जर्मन से हिंदी अनुवाद हुआ था।
दुनिया के बहुत सारे देश अब भी अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों के वैश्विक प्रसार हेतु अनुवाद को प्रोत्साहित करते हैं। बहुतेरे लैटिन अमेरिकी देश और आइसलैंड जैसे छोटे देश इस क्षेत्र में प्रयासरत रहते हैं। अनुवाद संबंधी इस उत्साह के लिए दूसरी भाषाओं के साहित्य और लेखन के प्रति सम्मान का भाव बेहद आवश्यक है। फिलहाल जिस तरह के संकीर्ण राष्ट्रवाद का चतुर्दिक उभार हुआ है उसमें दुनिया के पैमाने पर इस तरह के प्रयास की आशा व्यर्थ ही होती नजर आती है।
हमारे जैसे बहुभाषी देश के लिए तो यह उदारता देश की एकता के लिए भी जरूरी है। राष्ट्रीय महानता का झूठा गुरूर अनिवार्य तौर पर भाषाई श्रेष्ठताबोध की ओर ले जायेगा जिसकी परिणति अवश्य ही अनुवाद कर्म के क्रमिक क्षरण और एकताकारी संपर्कों के टूट जाने में होगी। बहुभाषी देश में अनुवाद कितना जरूरी है इसका पता हमें चुनावी समर में अच्छी तरह से चलता है। इस प्रक्रिया में हमें अपने देश की भाषाई भिन्नता का साक्षात्कार भी होता है। इसी समर में इस भिन्नता का आदर और अनादर करने वाले भी साफ नजर आते हैं। यह भाषाई भिन्नता केवल दक्षिण भारतीय राज्यों के ही प्रसंग में नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर भारतीय प्रांतों के मामले में भी प्रत्यक्ष है। अपने देश को ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले लोग नादानी में अपनी भाषा को भी ऐसा ही समझने लगते हैं। आखिरकार यह श्रेष्ठताबोध भाषा से होकर संस्कृति, खानपान और पहनावे के मामले में भी फैल जाता है और भिन्नता के प्रति असहिष्णुता का वातावरण पैदा करता है। अनुवाद इस संकीर्णता का शमन करने में मदद तो करता ही है, अलग अलग भाषा के बोलने वालों में ऐसी घनिष्ठ पारस्परिकता पैदा करता है जिसमें वे