अफ़लातून की डायरी (5)
- विष्णु कुमार शर्मा
आखिर कहाँ जा रहे हैं हम?
[11.05.2024]
“जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए”
अफ़लातून को समझ नहीं पड़ा कि दुष्यंत कुमार ने गुलमोहर को अपनी ग़ज़ल के लिए क्यूँ चुना? पलाश से ज़रा दबता रंग है इसका। उतना सुर्ख नहीं। गुलमोहर न तो मजबूत दरख़्त है, न छायादार। बाकायदा धूप छनकर आती है इसमें से। यह न किसी चिड़ि-चरेरू को ठौर दे, न इसके तले कोई पथिक विश्राम पा सकता है। पर दुष्यंत कुमार ने गुलमोहर को चुना तो कोई वाजिब कारण रहा ही होगा। फूलता है तो बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है। उपयोगी होना ही सदा कोई मूल्य तो नहीं। सौन्दर्य व कला भी अपने-आप में मूल्य हैं। लेकिन ये मूल्य उनके लिए हैं जिनका पेट भरा हो और जेब भी। भूखे के लिए तो पूनम का चाँद भी रोटी नज़र आता है। तो साब, इंदौर से ओंकारेश्वर के रास्ते पर इन दिनों गुलमोहर खूब फल-फूल रहे हैं। हाइवे का काम भी चल रहा है। हमारे ड्राईवर सोहेल ने बताया कि इस प्रोजेक्ट को लंबा समय बीत गया, पूरा होने में ही नहीं आ रहा। जल्द पूरा हो जाए तो उज्जैन से ओंकारेश्वर की दूरी तय करने में दो घंटे के समय की बचत हो। अभी चारेक घंटे लग जाते हैं। सोहेल खान बीस-बाईस साल का नौजवान। दाढ़ी तरतीब से कटी हुई, आँखों में काजल, सुतवां बदन। मितभाषी। मैंने बहुत कुरेदा तब थोड़ा खुला। मैं अर्टिगा की अगली सीट पर था। पुरु मेरी गोद में। पुरु की वाचालता पर वह बीच-बीच में मुस्करा उठता। हम तीन दिन की उज्जैन- ओंकारेश्वर यात्रा पर थे। मैं, संगिनी, बेटा पुरु और बिटिया लवी। लवी की ममेरी बहन गब्बू भी इस यात्रा में अपनी बुआ के साथ थी। गब्बू आठवीं कक्षा में आ चुकी है। और इस यात्रा में हमारे परम मित्र हेमंत बाबु भी सपरिवार मल्लब उनकी श्रीमती जी निशा और बिटियाँ जानशीं व प्रांशी भी हमारे सहयात्री थे। जानशीं का नाम उच्चारण दोष से जान्सी और प्रांशी का प्रांसी रह गया है। हमारे यहाँ तालव्य ‘श’ का उच्चारण दंत्य ‘स’ की भांति किया जाता है। इस रूट पर यात्रा का सुझाव भीलवाड़ा से हमारे घुमक्कड़ मित्र सूरज पारीक ने दिया। खास तौर से उन्होंने इंदौर की ‘खाऊ गली’ में जाने का इसरार किया। संयोग से ट्रेन में टिकट भी अवेलेबल थी। रेलवे ने आजकल दूसरे स्टेशन से बोर्डिंग सुविधा और बंद कर दी है। पहले टिकट नहीं मिलने आगे-पीछे से टिकट बुक कर लेते थे या यात्रा के प्लान में कोई बदलाव होता तो कहीं से भी बैठ लेते थे लेकिन अब ये सुविधा छीन ली गयी है। पता नहीं क्या दिक्कत है इन्हें? कौन लोग बैठे हैं पालिसी मेकर? इसी तरह थर्ड एसी में इकोनॉमी नाम से कुछ ट्रेनों में दो-दो डिब्बे बढ़ा दिए हैं लेकिन इन डिब्बों में चद्दर-कंबल नहीं मिलते। किराया थर्ड एसी से मात्र साठ-सत्तर रुपए कम। अरे भई, सत्तर रुपए और ले लो। ये कौनसी इकोनॉमी है जिससे आप देश की इकोनॉमी बढ़ाने में लगे हो? यात्रियों की सुविधा का भी ध्यान रखो ज़रा ! इसी तरह स्लीपर क्लास के डिब्बे कम कर थर्ड एसी डिब्बे बढ़ाए जा रहे हैं ताकि अधिक रेवेन्यू जनरेट किया जा सके। गरीब का तो मरण है भई ! राज्य कोरा राज्य नहीं होता लोककल्याणकारी राज्य होता है। जीएसटी कितना हो ये रघुवंशियों से सीखना चाहिए- “मणि मानिक महँगे किये, सहँगे तृण जल नाज।” स्लीपर क्लास के सस्ते किराए से देशभर में कम बजट में यात्राएँ की जा सकती हैं। बारहवीं कक्षा पास करने के बाद युवाओं को लम्बी यात्राएँ करनी चाहिए। अपने देश को जानने का इससे अच्छा तरीका कोई नहीं। यात्रा मोबाइल पाठशाला है। लेकिन यहाँ तो परीक्षा हुई नहीं कि बच्चों को अगली तैयारी में झोंक दिया जाता है। युवाओं को एक साथ दो-दो डिग्रियाँ कराई जा रही हैं तिस पर प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग अलग से।
पहला दिन ट्रेन में बीता और शाम उज्जैन में। जाते समय जयपुर से टिकट नहीं था सो सवाईमाधोपुर से बैठे। दौसा से सवाईमाधोपुर की 125 किमी की दूरी रोडवेज बस से तय की। बस खचाखच भरी थी। लालसोट में जाकर सीट मिली। बच्चे एकबारगी परेशां। गब्बू एक मायने में अपनी पहली यात्रा पर थी। उसने कभी ऐसी भीड़भाड़ में यात्रा नहीं की थी। लवी को मैं अक्सर अपने साथ घुमाता रहता हूँ ताकि उसे पता रहे कि जीवन हमेशा एसी कम्पार्टमेंट जैसा नहीं होता। सीट तो मिली लेकिन एक दुर्घटना घट गई। सीट के हैंडल का रबर टूटा हुआ था और लोहे की पत्ती निकली हुई थी। जैसे ही मैं बैठने लगा कि लोहे की पत्ती में अटककर पीछे से जींस चरर्र... करती हुई अंगरेजी के ‘एल’ वर्णक्रम में फट गई। मैंने जाँघ पर रुमाल बाँधकर पैंट और सब्र दोनों को बाँधा। सवाईमाधोपुर उतरे। पास ही एक दुकान से पायजामा खरीदा और पहना। जींस वहीं छूट गई। रणथम्भौर नेशनल टाइगर पार्क के कारण सवाईमाधोपुर की विश्वस्तरीय पहचान है। लेकिन थर्ड एसी टिकटधारक हमारा दल जब उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय की ओर बढ़ा तो दिल धक् से रह गया। एक दस बाई पंद्रह का कमरा जिसमें दरवाजा नदारद था। एक लोहे की थ्री सीटर कुर्सी और एक कोने में एक बड़ी से डाइनिंग टेबल जैसी मेज। अटैच लेटबाथ भी नहीं। वाशरूम के लिए हम सब बाहर स्थित सामान्य शौचालय में गए। वहाँ पुरुषों का तो कोई शुल्क नहीं लिया लेकिन महिलाएँ जाने लगीं तो बाहर बैठा आदमी बोला कि पाँच रुपए प्रति व्यक्ति लगेंगे। तभी एक व्यक्ति ने ध्यान दिलाया कि जहाँ शौचालय की रेट लिस्ट लगी है उसे उन लोगों ने कपड़े व थैला टाँगकर ढक रखा है। “आप लोग स्टेशन मास्टर को शिकायत क्यूँ नहीं करते, टॉयलेट जाना तो निःशुल्क है।” हालाँकि मुझे भी पता था कि केवल लघुशंका जाने का कोई शुल्क नहीं लेकिन हमने पैसे दे दिए। यात्रा की शुरुआत में ही हम कोई किचकिच नहीं चाहते थे। हमने रेवदर से दौसा लौटती बेर आबूरोड स्टेशन के शानदार उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय में बहुत बार प्रतीक्षा की है। इसलिए हमारे लिए रणथम्भौर जैसी पॉपुलर साइट के नजदीकी रेलवे स्टेशन पर ये सब देखना शॉकिंग था। खैर हमें डेढ़ घंटा बिताना था। बड़ी मेज पर आसीन हो हम सबने घर से लाया खाना- पराठे, कैरी का अचार, लिसोड़े व टिंडे की सब्जी का आस्वादन किया। लिसोड़ा गूदेदार फल है जिसे उबालकर और फिर इसकी गुठली निकालकर कैरी की खटाई डालकर सब्जी बनाई जाती है। इसका रायता भी बनाया जाता है। इसकी तासीर बहुत ठंडी होती है। यह गर्मियों में दिल व दिमाग दोनों को ठंडा रखता है। लंबे समय तक रखने के लिए इसका अचार (गुठली सहित) भी बनाकर रखा जा सकता है। सवाईमाधोपुर से हम रणथम्भौर सुपरफास्ट एक्सप्रेस (जोधपुर-इंदौर) में सवार हुए और शाम सात बजे उज्जैन स्टेशन पर उतरे। जैसे ही हम स्टेशन से बाहर निकले तोतों के कलरव ने हमारा स्वागत किया। हजारों की संख्या में तोते। आसमान तोतों से भरा, पेड़ों पर लदे-फंदे तोतें। इतनी बड़ी संख्या में तोते देखने का मेरा जीवन में पहला अवसर था। बाहर निकलकर हमने एक ई-रिक्शा किया। उसने मंदिर से नजदीक एक होटल पर छोड़ा। कमरे देखे, मौलभाव किया। अंत में बाईस सौ रुपए में दो कमरे तय हुए। सौदा जम गया तो सामान रखकर हाथ-मुँह धोया और मंदिर चल पड़े। हम चाहते थे कि आज ही यदि महाकाल के दर्शन हो जाएँ तो कल का दिन ओंकारेश्वर के लिए सुरक्षित रहे। परसों वापिसी है। हेमंत ने अपने साढू को फोन लगाया। उन्होंने एक गार्ड के नंबर दिए। गार्ड ने वहाँ अवंतिका द्वार पर उपस्थित गार्ड से बात कराने को कहा। बात हुई, हमें प्रवेश मिल गया। अवंतिका द्वार उज्जैन के स्थानीय लोगों के लिए है। जिगजैग रेलिंग से होते हुए हम आगे पहुँचे, दर्शन किए और बाहर। “अब महाकाल लोक देखा जाए।” उज्जैन महाकाल मंदिर के कॉरिडोर का विस्तार किया गया है इससे भारी भीड़ का मैनेजमेंट आसान हो गया है। इस नए कॉरिडोर का नाम ही महाकाल लोक है। इसमें शिव विभिन्न मुद्राओं में बहुत सुंदर मूर्तियाँ व उनके जीवन प्रसंगों की वाल पेंटिंग्स बनाई गई हैं। अधिकांश तीर्थयात्री यहाँ फोटोग्राफी में व्यस्त थे। हमने भी कुछ चित्र उतारे। बाहर निकलने लगे तो वहीं ‘भारत माता मंदिर’ के पीछे सात्विक भोजनालय नाम से रेस्टोरेंट था। ढाई घंटे की घुमाई के बाद अब भूख भी चमक उठी थी। एक सौ बीस रुपए की थाली जिसमें दाल, चावल, कढ़ी, चपाती और एक सूखी सब्जी। हमने हाथ धोए, थालियाँ ली। एक दस-ग्यारह साल का लड़का थालियों में खाना डाल रहा था। उसके हाथ बड़े तेजी से चल रहे थे। एक साथ दो हाथों से दो सब्जियाँ परोसने का उसका कौशल और ग़जब की फुर्ती। मैंने गब्बू और लवी का ध्यान उस ओर दिलाया। मुफ़लिसी हमें ताकत देती है। जब हमारे पास खोने को कुछ नहीं और पाने को पूरा जहान हो तो हम खुलकर खेलते हैं। विश्व प्रसिद्ध नृत्यांगना इजाडोरा डंकन ने भी अपनी आत्मकथा में कहा- गरीबी उनके जीवन में ईश्वर का उपहार बनकर आई... भोजन सच में सात्विक था, बिलकुल घर जैसा। चपातियाँ जरूर अधसिकी-सी थीं। चावल बढ़िया था। मैं यूँ चावल कम खाता हूँ लेकिन बाहर सफर में यदि चपाती ठीक न मिलें तो चावल से काम चला लेता हूँ।
होटल पहुँचे। काउंटर पर बैठे लड़के अनिल पंवार से हेमंत ने सहज जिज्ञासा से बातचीत शुरू की- “अनिल, एक बात बताओ यार, ये महाकाल के आसपास तो अधिकतर लोग मुस्लिम हैं। त्योहार वगैरह पर ये कोई परेशानी पैदा नहीं करते?”
“नहीं सर, इनकी सारी रोजीरोटी महाकाल से ही चलती है, ये क्यूँ परेशानी पैदा करेंगे। ये सब दुकानें, होटल वगैरह इनके ही हैं। हमारे होटल का मालिक भी मुस्लिम ही है।... साब, एक बात कहूँ? हर आदमी शांति से जीना चाहता है. और वैसे अच्छे-बुरे लोग सब समाज, सब जाति, सब धर्मों में होते हैं।”
“हाँ, वो तो है। फिर वे यहाँ बैठते क्यूँ नहीं?”
“वे बैठेंगे तो आप जैसे लोग नहीं आएँगे न ! टोपी और दाढ़ी देखकर ही आगे बढ़ जाएँगे। “महाजनो येन गतः स पन्थाः” सो, हम भी आजकल कपड़ों से ही आदमी को पहचानते हैं. इसलिए हम लोगों को बैठाते हैं। वे तो रात को एक-डेढ़ बजे आते हैं, हिसाब लेते हैं और चले जाते हैं।... वैसे आप क्या करते हैं सर?”
“हम लोग तो टीचर हैं।”
“यही तो बात है सर, हम लोगों का ध्यान बस नौकरियों पर है, ये लोग बिजनेस में ध्यान देते हैं। बिजनेस में बहुत पैसा है। दूसरे आप रिटायरमेंट के बाद अपने बच्चों को क्या देंगे, बताओ? आप अपनी नौकरी अपने बच्चों को नहीं दे सकते लेकिन इस होटल मालिक के बेटे को कोई दूसरा धंधा ढूँढने की कोई जरूरत नहीं होगी। स्मार्ट लोग बिजनेस करते हैं सर।”
अनिल की बातों से हम हतप्रभ थे। हमने अनिल को अगले दिन ओंकारेश्वर के लिए टैक्सी बुक कराने को कहा। उसने एक लड़का बुला दिया। अड़तीस सौ रुपए माँगे उसने। हमने डन कर दिया। बाहर टैक्सी बुकिंग शॉप्स वाले तियालीस सौ से पैंतालिस सौ रुपए माँग रहे थे।
अगले दिन सुबह चार बजे मेरी नींद खुल गई। मैं फ्रेश होकर मंदिर चला गया। लाइन में नहीं लगा। बाहर अहाते में तकरीबन पचास लोग बैठे थे, मैं भी वहीं जाकर बैठा गया। स्क्रीन पर भस्म आरती श्रृंगार चल रहा था। कोई एक घंटे मैं वहाँ बैठा। मुझे मंदिर जाना और वहाँ बैठना अच्छा लगता है लेकिन भीड़ और धक्कामुक्की से मन डरा रहता है। और तब विग्रह के दर्शन की लालसा भी चली जाती है। मेरा ऐसा मानना है कि मंदिर अपने भीतर सकारात्मक ऊर्जा के संचय का स्रोत हैं, दर्शन न भी हो तो क्या? वहाँ कंपाउंड में हलकी-हलकी हवा चल रही थी। मन को अच्छा लग रहा था। सहज ही बाबा तुलसी की पंक्तियाँ भीतर से उठी और होंठों तक आई. मैं बुदबुदाने लगा-
दानि को चारि पदारथ को, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको।।
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालच जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो न हीं पति पारबतीको।।
बाबा कह रहे हैं- चारों पुरुषार्थों का दाता, तीनों लोकों का सिरमौर, पार्वती का यह भोला पति केवल भाव का भूखा है। बस भाव चाहिए शुद्ध। और मेरे पास भाव के अतिरिक्त पूजन-अर्चन को कुछ है भी नहीं। मैं तो नहा-धोकर भी नहीं आया हूँ। और इस अवढरदानी को मैं आख़िर दे भी क्या दे सकता हूँ जो स्वयं तिहुँ पुर का स्वामी है?
फिर मैं उठ गया। बाहर आकर एक दुकान पर चाय पी और होटल लौट आया। यूपी का एक परिवार वहाँ चाय पी रहा था। मैंने बात छेड़ी तो पता चला कि वे कल ओंकारेश्वर जाकर लौट आए हैं। बोले- “जहाँ तक जा सकें चप्पल-जूते पहनकर जाएँ। भयंकर तपन हैं। पैर जल जाएँगे। परिवार व बच्चे साथ हो तो वीआईपी दर्शन ही करना।” राजनीति पर कुछ चर्चा हुई। राजस्थान के हाल जाने, यूपी के बताए। संतोष व्यक्त किया। होटल पहुँच कर मैंने सबको जगाया। सब तैयार हुए। नीचे आए तो प्रांशी महारानी होटल के काउंटर पर जा बिराजी। पीला कुर्ता और धोती पहने थीं। ऊपर से चश्मा पहना और आदेश जारी किया– अंतल फोतो (अंकल फोटो)... मैंने उसके फोटो लिए। कुछ फोटो पुरु के साथ खिंचवाए। लवी उसे गोद में लेना चाहती थी और वह स्वतन्त्र विचरना चाहती थी। वह थोड़ी से चिड़चिड़ाई तभी उसकी मम्मी ने कहा- “जीजी से कट्टा हो जाओ”। अँगूठे का नाखून आगे के दाँतों से कट से कर उसने मुँह मोड़ा तो सब देखते रह गए और सब ठठाकर हँसे। “फिर से करना ज़रा” और फिर कई बार उसने हुँहss कर मुँह बनाया। फिर हम सबने नाश्ता किया और साढ़े आठ बजे ओंकारेश्वर को रवाना हो गए। ज्यों-ज्यों दिन चढ़ने लगा तपन पढ़ने लगी। हमने शीशे चढ़ा लिए और सोहेल को कहा कि एसी चला दे। लवी और पुरु ने बारी-बारी से दो-दो बार उल्टियाँ की। ओंकारेश्वर से करीब चार-पाँच किमी पहले सोहेल ने कृष्णा प्रसादम् नाम के रेस्टोरेंट पर गाड़ी रोकी। वहाँ काफी भीड़ थी। पता चला वहाँ थाली सिस्टम भी है। एक सौ पिचासी रुपए की थाली। हमने सोहेल सहित आठ थाली के कूपन ले लिए। अगले काउंटर पर पहुँचे तो पता चला कि इस समय आंध्रा वालों का कोई उत्सव चल रहा है। अधिकांश यात्री भी वही से हैं तो आज थाली में आंध्रा स्पेशल है। हेमंत बोला- “कोई बात नहीं, चलो कुछ नया ट्राई किया जाए।” मैंने सहमति जताई। थाली में रसम, चावल, वेज बिरयानी, मूँग दाल-खीरा-हरी मिर्च का सलाद, मूँग दाल की ही खीर, पत्ता गोभी-चना दाल की सूखी सब्जी, सोया बड़ी युक्त अरहर की दाल, चपाती और छाछ। खूब वैरायटी हो गई ये तो। कुल-मिलाकर भोजन में प्रोटीन का मामला जबरदस्त है।
भोजन छककर हम गंतव्य की ओर बढ़े। सोहेल ने पार्किंग में गाड़ी खड़ी की। हमने सौ रुपए में एक ऑटो किया। मेरा पहले से ही मन था कि भीड़ में दर्शन के लिए नहीं लगना है लेकिन हेमंत अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाहता था सो वह बोला कि देख तो लो एक बार। नर्मदा पर बना पुल पारकर हम उस तरफ पहुँचे। दूर से ही लम्बी कतार दिख रही थी। फिर भी लाइन में लगे। लौट रहे यात्रियों से हेमंत ने पूछताछ की तो कुछ बोले-
“पंडो ने बेवकूफ बना दिया। पाँच सौ रुपए में वीआईपी दर्शन का कहकर आगे ले जाकर लाइन में लगा दिया। चार घंटे से लाइन में लगे रहे। अब जाकर दर्शन हुए हैं।”
“भईया, दो घंटे से लाइन में लगे हैं। दर्शन की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, सो थक-हारकर लौट आए।”
“भैया, बच्चों के साथ तो बिलकुल मत जाओ। परेशां हो जाओगे। महाकाल के इत्ती बढ़िया व्यवस्था थी और यहाँ तो हाल बेहाल हैं। बड़े दुष्ट पंडे हैं। खुद कूलर के आगे मटरगस्ती कर रहे हैं और जनता परेशान है। ये नहीं कि लोग इतनी दूर से आए हैं तो पानी ही पिला दें। लाइन का सिस्टम ठीक करा दें कि जल्दी से भगवान के दर्शन हो जाएँ।”
हमारे साथ की धर्मपरायण स्त्रियों को जल्द ही समझ आ गया था। बोली कि यहीं से हाथ जोड़कर चलते हैं। हेमंत की स्कीम कामयाब रही वर्ना जीवनभर उलाहना देती रहती कि वहाँ ले जाकर भी दर्शन नहीं कराए।
पुल से लौटकर ममलेश्वर महादेव के गए। स्त्रियों के आग्रह पर बिल्वपत्र, पुष्प, प्रसाद आदि लिया। भवन के स्ट्रक्चर से ही पता चल गया कि काफी प्राचीन मंदिर है। कोई पुनर्निर्माण नहीं हुआ यहाँ। मूल ज्योतिर्लिंग भी यही है लेकिन नाम ओंकारेश्वर का पुज गया। गर्भगृह के बाहर स्थित अन्य छोटे गोखे/मंदिरों की मूर्तियाँ खंडित थी। ज़ाहिर है आक्रान्ताओं ने यहाँ आक्रमण किया होगा। यहाँ भी दक्षिण भारतीय यात्री बड़ी संख्या में थे। दर्शन कर हम बाहर निकले। लवी और पुरु का मन था कि नर्मदा में स्नान किया जाए या नौका विहार कराया जाए लेकिन गर्मी को देखते हुए हमने दोनों कार्यक्रम रद्द किए। पानी भी ऊपर से काला-मटमैला सा नजर आ रहा था। नौका विहार जितना कोई लम्बा फेर भी नहीं था। सो हमने गन्ने का ज्यूस पिया और ऑटोरिक्शा लेकर कार-पार्किंग की तरफ चले आए। गाड़ी के एसी ने कूलिंग शुरू की तो जानशीं, लवी और गब्बू तीनों ने गाढ़ी नींद निकाली। पुरु और प्रांशी भी सो गए तो उनके माता-पिता ने राहत की साँस ली। अब हमें इंदौर लौटना था। आधी दूरी यूँ भी कम हो जाने से सब मानसिक तौर पर राहत महसूस कर रहे थे। यूँ लौटते समय हमेशा रास्ता छोटा भी लगता है। सो अब इतनी परेशानी महसूस नहीं हो रही थी। कुछ बच्चे सो गए इसलिए भी। आधे रस्ते बाद मौसम बदलने लगा। हम इंदौर से तीसेक किमी की दूरी पर थे कि बूँदाबाँदी शुरू हो गई। मौसम खुशनुमा हुआ तो हमने खिड़कियाँ खोल ली। खिड़कियाँ खुली रहे तो बाहर की हवा की आवाजाही से ताज़गी बनी रहती है- फिर चाहे गाड़ी हो या दिल-दिमाग या देश-संस्कृति। लेकिन जो कुछ अपना श्रेष्ठ है उसे बाहर की हवा से बचाए रखने के लिए जड़ें मजबूत रहनी चाहिए नहीं तो समूल उखड़ते देर नहीं लगती। मैं स्वयं का अवलोकन करता हूँ तो पाता हूँ कि अपने परिवेश से मैं कितना कम वाकिफ़ हूँ? परले साल लल्लनटॉप के ‘गेस्ट इन द न्यूज रूम’ में पुष्पेश पंत को सुना तो दंग रह गया। आप जेएनयू में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकर प्रोफ़ेसर हैं और इनकी प्रसिद्धि है खानपान को लेकर। वहीं आप उनसे पान की किस्मों को लेकर बात करें या इत्रों की, अद्भुत हैं वे। किस शहर की किस गली में कौनसा इत्र मिलता है? पान की कौनसी किस्म कहाँ की है, क्या स्वाद है? किसी व्यंजन पर बात करें तो वे आपको उसके पूरे भूगोल, इतिहास, अर्थव्यवस्था... सबसे परिचित करा देंगे। विनम्रता के साथ ज्ञान की यही गहराई और विस्तार भारत की पहचान रहा है। और आज हम ज्ञान के कितने सीमित अर्थों में सिकुड़ कर रह गए हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था नहीं बताती कि गौरैया को क्या-क्या खाना पसंद है? हम तरबूज और खरबूजों की किस्में नहीं पहचानते। इधर देशी खीरा सब्जी-मंडी से लुप्तप्राय है। हम सब्जी वाले से उसकी डिमांड भी नहीं करते। सब्जी वाले किसान नहीं बल्कि व्यापारी हैं। भयंकर पेस्टीसाइड युक्त पॉलीहाउस के चमकीले-हरे चाइनीज खीरे हमारे फ्रीज़ की शोभा और शरीर की कोशिकाओं में कैंसर बढ़ा रहे हैं; और हम बिलकुल बेखबर हैं। हम नहीं जानते कौनसी सब्जी किस मौसम में आती है? क्योंकि कोल्ड-स्टोरेज से बारह महीने आपूर्ति हो रही है। चौलाई ले आने पर पत्नी और बच्चे मुँह बनाते हैं कि क्या उठा लाए? आलू के बिना तीसरे टाइम आप कोई सब्जी घर में नहीं बना सकते और पनीर के बिना बर्थडे-एनिवर्सरी-शादी का कोई स्टैण्डर्ड मेंटेन नहीं होता। बेमौसम की महँगी सब्जियाँ और फल खरीदने में हम अपना स्टैण्डर्ड समझते हैं। हम अपने आसपास के पेड़ों, फूलों, फलों, सब्जियों... से लगभग अपरिचित हैं। रहन-सहन, खानपान, वेशभूषा, पर्व-उत्सव, मकान-दुकान, शिक्षा, उपचार-विधि... सबमें एकरूपता लाना बाजार का लक्ष्य है। और हम उस लक्ष्य की पूर्ति के साधन बनते जा रहे हैं। पढ़ाई का सीधा संबंध बस पैकेज से रहा गया है। न हम ठहर रहे हैं, न सोच रहे हैं- आखिर कहाँ जा रहे हैं हम? स्थानीयता को बचाए रखना हमारी साझी जिम्मेवारी भी है और जरुरत भी। बहुलता इस देश की मिट्टी में रही है। तथाकथित धर्म, राजनीति और बाजार की ताकतें इस विविधता का नष्ट कर एकरूपता की ओर ले जाने की कोशिशों में लगी हैं और काफ़ी हद तक कामयाब भी हो रही हैं। धर्म के नाम पर दुनियाभर में जितने भी धर्म प्रचलित हैं दरअसल वे पंथ/मजहब/रिलीजन हैं, धर्म नहीं। धर्म तो पूरी दुनिया का एक ही है। मेरी दृष्टि में धर्म वह है जो मनुष्य के मनोविकारों यथा- काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि का शमन करे। जो हममें सत्य, प्रेम और करुणा जैसे सार्वभौम मानवीय मूल्यों को जगाए। हमें अपने शरीर और समाज के बंधनों से मुक्त करें। फिर आज जिसे हम हिन्दू धर्म कह रहे हैं उसमें भी हमेशा अनेक मार्ग, विधियाँ या गुरु-परम्पराएँ रही हैं। साधना की विविध विधियाँ प्रचलित रही हैं। तंत्र-शास्त्र और उसकी साधना-विधियाँ आज लुप्तप्राय हैं। कुछ वर्षों में उनका नामलेवा भी न बचेगा। सनातन धर्म का मर्म ‘वेदांत’ पिछले दो हजार सालों से उपेक्षित है। सनातन धर्म, वेद, राष्ट्र, राम... इस समय सबसे अधिक उछाले जाने वाले शब्द हैं जो ज्यादा इस्तेमाल से घिसने लगे हैं और इनका मुलम्मा छूटने लगा है। क्या ये अपनी चमक और अर्थवत्ता भी खोए जा रहे हैं? पता नहीं लेकिन हमें सोचना तो होगा। मंदिरों में लगातार विस्तृत किये जा रहे कॉरिडोर भी छोटे पड़ने लगे हैं। हर आदमी मंदिरों की ओर दौड़ रहा है। क्या हम भी उसी तंत्र का हिस्सा बनने गए थे? मेरी तो कतई इच्छा नहीं होती है मंदिर में जाने की खासकर तब जब वे भीड़ से भरे हों। मैं अपने शहर में भी पञ्च-महादेवों- नीलकंठ, गुप्तेश्वर, बैजनाथ, सहजनाथ, सोमनाथ तथा कृष्ण मंदिर- गिरिराज धरण, श्याम मंदिर; रघुनाथ जी, भौमिया जी मंदिर आदि में त्योहार-पर्व-मेला आदि की भीड़ में जाने से हमेशा बचता हूँ। वे ही भगवान हैं. कल कर लेंगे दर्शन; कहाँ जाएँगे? मेरे तई मंदिर मौन के लिए हैं, मेडिटेशन के लिए हैं और धन्यवाद ज्ञापन के लिए हैं- दर्शन और प्रदर्शन के लिए नहीं। और हो ये ही रहा है। फिर हम लोग भी गए ही। क्यों? जाने के कुछ कारण थे, जैसे- पहला, साल में एक बार पत्नियों को बाहर घुमाने ले जाने की रस्म पूरी करनी थी। दूसरा, कम समय में यह यात्रा संपन्न हो जाने वाली थी और टिकट उपलब्ध थे। तीसरा, मित्रवर हेमंत का पिछले दो वर्षों से महाकाल जाने का प्रस्ताव पेंडिंग था। वह सोशल मीडिया पर महाकाल लोक की रील्स से गहरा प्रभावित था। कुछ राजभक्ति भी थी। वैसे मेरा इस प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाने का मूल कारण भाई माणिक के सौजन्य से यह था कि बच्चों के दिल-दिमाग में यात्रा की स्मृतियाँ रहें और इस बहाने अपने पिता की याद। दूसरा कारण जो मैं ज्यादा खुद जरूरी समझता हूँ वह यह कि बाहर जाने से बच्चे सीखते हैं। यात्रा की अनुकूलताएँ-प्रतिकूलताएँ, नई जगह, नए लोग, नया खानपान, नई भाषा और सबसे ज्यादा अपने देश की बहुलता को चीन्हते हैं।
सोहेल ने इंदौर रेलवे स्टेशन के नजदीक एक होटल पर छोड़ा। रात वहाँ रुके। बच्चों का सात्विक खाना खाने का मन बिलकुल नहीं था सो एक रेस्तरां में वही प्रचलित भोजन पनीर, दाल तड़का, तंदूरी रोटी आदि आदि आदि खाया। ऊपर से आइसक्रीम भी। अगले दिन सबके पेट खराब हुए सो हुए। सुबह छह बजे ट्रेन पकड़ी और शाम तकरीबन पाँच बजे जयपुर उतरे। दौसा तक की यात्रा फिर बस से। घर पहुँचते-पहुँचते वही आठ बज गए। मम्मी ने खिचड़ी व दाल-रोटी बना रखी थी। वो खुश थीं कि हमने दो ज्योतिर्लिंग की तथाकथित धार्मिक यात्रा पूरी की थी। और अंततः मैं इसलिए खुश था कि सब खुश थे।
नोट : महाकाल लोक निश्चित रूप से शानदार बना है। ओंकारेश्वर की यात्रा बारिश के दिनों में की जानी चाहिए, गर्मियों में बिलकुल भी नहीं। बारिश के दिनों में इंदौर से ओंकारेश्वर का रास्ता बहुत मनोरम हो जाता है।
विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी, स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान
vishu.upadhyai@gmail.com, 9887414614
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-53, जुलाई-सितम्बर, 2024 UGC Care Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन : चन्द्रदीप सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
यात्री बहुत कम होते हैं जो यात्रा के बाहरी पक्ष को भी पूरी डिटेल से पकड़ते हैं। सहयात्रियों, स्थानीय लोगों, टेक्सी ड्राइवरों, होटल वालों से लेकर चाय की थड़ी वालों तक से जी जोड़ते हैं। साथ ही सफर के संग- संग सोचते-विचारते , आगाह करते भी चलते हैं। इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य से लेकर मिठाई-सिठाई आदि सब से मिलापते चलते हैं। विष्णु भाई आप ऐसे ही जातरू हैं। मुझे लग रहा था उज्जैन में महाकाल से मुखातिब होते हुए आपको मेघदूत के कालिदास याद आएँगे पर आपने कवितावली के तुलसी बाबा को सुमिर कर आगे बढ़ लिए।कोई नहीं , एक अदद सफरनामे के लिए बधाई!
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