आधुनिक शैली में स्थानिक कला-विधि का प्रयोग कला की दुनिया को और भी सुंदर बनाता है। राजस्थान के दक्षिणी से लगाकर उत्तरी भाग तथा पूर्व से पश्चिम तक के परास में सृजन करने वाले कलाकार, इसी बहर में अपना सृजन कर रहे हैं। चूंकि रेतीले जीवन और जनजातीय संस्कृति की जड़ें यहां बहुत गहरी हैं अतः कला में उसका उद्घाटन सहज रूप से सामने आता है। विषयगत-परंपरा और शैलीगत-आधुनिकता के सुमेल में रची गई कृतियों में, यहां के कलाकारों की निजी पहचान और समय की विसंगतियां स्पष्टतः देखी जा सकती हैं। दृश्य, प्रदृश्य, शिल्प और कथ्य के संदर्भ में कहें तो यहां के अनेक कलाकारों ने ऐसी उल्लेखनीय कृतियों की निर्मितियां की हैं जिन्हें राष्ट्रीय फलक पर स्थान दिया जा सकता है। राजस्थान की संस्कृति में अनुपम वैविध्य है अतः यहां बनने वाली कृतियों में विषय-वस्तु, रंग, तकनीक, माध्यम, भावबोध आदि के अनेक उज्ज्वल पक्ष शुद्ध रूप से देखे जा सकते हैं। यहां का कलाकार आसपास के जनजीवन तथा आदिम प्रतिमानों के प्रति सावचेत हैं। साथ ही आधुनिक संसार की कला विधियों से भी पूर्णतः परिचित है। ऐसे में यहां के युवा कलाकारों द्वारा सृजित की जा रही कृतियों पर बात करना जरूरी हो जाता है।
समकालीन कला में युवा उपस्थिति
- चेतन औदिच्य
राजस्थान के दक्षिणी भाग में छितराए जनजातीय क्षेत्र बांसवाड़ा के अंजाना गांव के एक समकालीन युवा कलाकार हैं मनीष के. भट्ट। उनकी कृतियों ने छोटा ही सही, किंतु 'अंजाना' जैसे अनजाने गांव से लेकर, अमेरिका की लॉस एंजिल्स जैसे बहुचर्चित शहर तक का सफर किया है। वे डिजिटल माध्यम में काम करते हैं। उन्होंने एक्रेलिक रंगों द्वारा कैनवास पर तो काम किया ही है साथ ही ग्राफिक डिजाइन में भी कृतियां बनाई है । अब वे डिजिटल पेंटिंग पर केंद्रित हैं। 1952 में गणितज्ञ जॉन व्हिटनी द्वारा बनाई पहली डिजिटल कृति के बाद से आज तक, इस माध्यम में अनेक चुनौतियां आती रही हैं । इसे यूं भी समझा जा सकता है कि क्रिस्टीज की एक नीलामी में अमेरिकन कलाकार माइक विंकलमैन की कृति 'एवरीडेज द फर्स्ट 5000 डेज़' को पांच करोड़ डॉलर में खरीदा जाता है। यह एक डिजिटल कॉलाज है। इतने पैसे उस कृति के लिए दिए गए हैं जिसका कोई भौतिक अस्तित्व उपलब्ध नहीं है। परंतु इस सच्चाई के पीछे यह सच्चाई भी है कि विंकलमैन ने इसे बनाने में 13 साल लगाए। हर दिन एक-एक छवि पर मेहनत की और 5000 लोगों की छवियों को संयोजित किया। चुनौती यह भी थी कि जेपीजी की इस इमेज को पहली ही नजर में खारिज कर दिया जाता। जिससे कलाकार भी खारिज हो जाता। परंतु कलाकार की एकाग्रता और समर्पण इस कृति को बनाने में था। कला का डिजिटल माध्यम तो एक उपकरण और साधन मात्र था। अतः कृति को प्रसिद्धि मिल ही गई। बीपल नाम से प्रसिद्ध माइक विंकलमैन को आज विश्व के उन तीन जीवित कलाकारों में गिना जाता है जिनकी कृतियां सर्वाधिक मूल्यवान है। अग्रणी डिजिटल कलाकार हेरोल्ड कोहेन की दमदार शुरुआत के बाद आज अनेक कलाकार इस डिजिटल विधा में काम कर रहे हैं। राजस्थान के कलाकारों में मनीष भट्ट का, इस तरह का काम अपना विशेष प्रभाव छोड़ता है। वे फोटो छवियों पर पोर्ट्रेट निर्मिती करते हैं। उसे अपने मानस संवेदन के अनुसार विभिन्न प्रकार के पैटर्न से पुनः संयोजित कर एक नई कृति का रूप देते हैं। उनके पैटर्न भिन्न रंग और भिन्न तान के होते हैं। जो मूल रूपाकार को एक अलग ही छवि में ले आते हैं। इसका गहरा प्रभाव यह होता है कि सर्जित की गई डिजिटल कृति अपने को पूर्णतया नए परिप्रेक्ष्य में उपस्थित करती है। साथ ही उसके पूर्ववर्ती संस्कार जैसे फोटो, छवि आदि पीछे से झांकते रहते हैं। डिजिटल में इस तरह, परत पर परत का रूपांकन मौलिक काम के रूप में सामने आता है। स्थानीयता उनकी कृतियों की एक और विशेषता है। क्योंकि मनीष भट्ट जनजातीय क्षेत्र में पले बढ़े हैं ऐसे में वहां के जनजीवन की अनेक छवियां उनके मन मस्तिष्क में समाई हुई है। वे समकालीन कला के अनुशासन में उन्हीं छवियों को अपनी कृतियों में स्थान देते हैं। अनेक आदिम रूपों के बिंब उनकी रंग योजना में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। वे रूप को लाकर उसे अरूप में रूपांतरित करते हैं। इस हेतु अनेक वर्तुल, लंबवत और क्षेततीजीय स्टॉक्स का प्रयोग करते हुए चित्र की जमीन तोड़ते हैं। यह बहुत जोखिम भरा काम है। खासकर डिजिटल माध्यम में जोखिम भरा इसलिए है कि इस तकनीक का प्रयोग यदि सधे हुए अभ्यास से नहीं किया जाए तो चित्र को विद्रूप होने में देर नहीं लगती। ऐसे में सृजन का अर्थ ही गौण हो जाता है। मनीष भट्ट अपनी सृजनात्मक सूझ से अपनी कृति को विद्रूप होने से बचा ले जाते हैं। उदाहरण के लिए मनीष भट्ट की एक डिजिटल कृति 'इनोसेंट मैन आफ्टर वार-02' देखी जा सकती है। इस कृति में एक युवा व्यक्ति का चेहरा है जो सीधा हमारी आंखों में झांक रहा है। चेहरे के कपाल से नीचे के भाग को अलग-अलग पांच हिस्सों में क्षैतीजीय प्रकार से विभाजित कर रखा है। प्रमुख रूप से इस भाग को स्याह और लाल रंग विभाजित करता है। आंखें पीत आभा में ऐसी कातर दृष्टि से हमारी ओर देख रही हैं जिनमें मानो युद्ध की विभीषिका के साथ, पूरे विश्व की पीड़ा समा गई हो। चित्र के चक्रीय और वर्गीय मोटिव्ज सार्वभौम के प्रतीक के रूप में सामने आते हैं। कलाकार ने उन मोटिव्ज को चेहरे और पार्श्व भाग में इस तरह रचा है कि वे मनुष्यता के सभी द्वंद्वों को एक ही ठौर पर अभिव्यक्त कर सकें । इस तरह यह पेंटिंग न केवल एक कलात्मक वस्तु है, अपितु वैश्विक चेतना और समय की विडंबनाओं की भी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है।
दुनिया के कला जगत को बणी-ठणी जैसी महान कृति देने वाला शहर किशनगढ़ अपनी किशनगढ़ी शैली के लिए विश्व-ख्यात रहा है। यहीं के युवा कलाकार हैं महेश कुमावत जिन्होंने समकालीन कला में परंपरा से हटकर अपनी निजी पहचान बनाई है। वे वॉश शैली और जल रंगों में काम करते हैं। अपने सहज व्यवहार से मित्रों में लोकप्रिय महेश निरंतर कृतियां सृजित करने वाले रचनाकार हैं। यह कहना जरूरी होगा कि उनकी वाश शैली में बनाई गई दो कृतियों ने भारत भर में प्रसिद्धि पाई है। महाकवि कालिदास के ग्रंथ कुमारसंभवम् और मालविकाग्निमित्र के संदर्भों को लेकर बनाई गई उनकी कृतियां उल्लेखनीय है।
कालिदास की नाट्य कृति मालविकाग्निमित्र का कथानक विदिशा के शुंग सम्राट अग्निमित्र और उनकी परिचारिका मालविका की प्रेम कहानी पर आधारित है। अग्निमित्र, शुंग वंश के दूसरे राजा थे. उनके पिता पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ को मारकर शुंग वंश की स्थापना की थी। इस नाटक का कथानक अनेक रोचक घटनाक्रमों से भरा है। किंतु कला कि दृष्टि से यह आख्यान महत्वपूर्ण हो जाता है कि अग्निमित्र विदर्भ जाते हैं और वहां के राजा माधवसेन के महल में मालविका का चित्र देखते हैं और उससे उन्हें प्रेम हो जाता है। चित्र को लेकर दिया गया यह संदर्भ हमें कला की प्राचीन परंपरा से जोड़ता है। महेश कुमावत इन्हीं संदर्भों के साथ आधुनिक तरीके से पेंटिंग करते हैं। उनकी तकनीकी और रंग विधि में नयापन ही नहीं बल्कि एक निजता भी है जिसका होना कलाकार के लिए आवश्यक है।
कलाकार महेश कुमावत की कृति |
मालविकाग्निमित्र विषय पर बनाए चित्र पर चर्चा करें तो यह वाश शैली में ऊष्म रंगों की प्रधानता वाला एक आकर्षक चित्र है। अनेक आकृतियां इस चित्र को संपन्न करती है। अंतराल को प्राचीन मेहराब से विभाजित करके इसमें, नर्तक, वादक, प्रेक्षक सहित राजसी व्यक्तियों का चित्रण किया गया है। विशेष बात यह है कि चित्र में नर्तकी को केंद्र बनाया गया है। राजपुरुष किनारे के अथवा नैपथ्य रूप में दीख पड़ते हैं। चित्र में राजपुरुष अथवा देवजन की उपस्थिति के बावजूद नर्तकी को प्रमुखता देना महत्वपूर्ण बात है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कलाकार के लिए 'कला' प्रथम है, बाकी सब उसके अनुषंगी। यह चित्र विमर्श के एक नये द्वार को खोलता है। इस चित्र की सबसे बड़ी विशेषता स्पेस डिवीजन और छाया प्रकाश के साथ रंगों का उष्ण-नम छितराव है। रंगों की तान का एक-दूसरे में उन्मिलन और रेखाओं की लयात्मक वक्रता उत्कृष्ट स्वरूप में सर्जित की गई है।
वाश तकनीक के अलावा महेश कुमावत द्वारा सहज जलरंग पद्धति से बनाए गए चित्र भी उल्लेखनीय है। बल्कि कहा जाए कि उनके जलरंग चित्र ही अधिक पसंद किए जाते हैं। इसका कारण यह है कि महेश किसी भी स्थल या ऑब्जेक्ट का चित्रण करने से पहले उसके घनत्व को गहराई से समझ लेते हैं। स्थल या वस्तु के प्रकाश के साथ तादात्म्य को वे भली-भांति निरखने परखने के उपरांत ही, अपना चित्र बनाना आरंभ करते हैं। चूंकि रंग प्रकाश का गुण हैं ऐसे में उनका रंग लगाने का सलीका बहुत महीन होता है। वे दृश्य को दृश्य के पार देखकर उकेरते हैं। सामने दिख रहे दृश्य का विधायक तत्व चुनना उन्हें आता है, यही कारण है कि चाहे बकरियों का चित्रण हो या मेहराब का वे उसे बहुत आकर्षक बना देते हैं।
जलरंगों को साधना आसान नहीं है, उसका एक कारण तो यह है कि कागज़ पर रंग बिछाने के बाद उसमें संशोधन की गुंजाइश बहुत कम रहती है। दूसरी यह कि रंग लगाने के दौरान कलाकार को इसका विज्ञ होना होता है कि रंग की गहराई या हल्केपन का चित्र की प्रभाविता पर कितना असर पड़ेगा। अर्थात फलक पर रंग के आने से पहले ही कलाकार को मन ही मन यह तय कर लेना होता है कि सतह पर कैसा दिखना चाहिए। रंग का कितना दाब रखना है और पानी का कितना तारल्य कलाकार को इसका अभ्यस्त हो जाना पड़ता है। महेश कुमावत इन अर्थों में बहुत अच्छे चित्र रचते हैं। उनके चित्रों की विषयवस्तु हमारे आसपास की दुनिया होती है। जिनमें पेड़, घर, सड़क, पहाड़, आदमी, औरत, चेहरे, छाया और बड़े भवन से लगाकर छोटी झोंपड़ी तक बहुत कुछ शामिल रहते हैं। साईकिल खींचता आदमी हो या मंदिर की सीढ़ियां। सभी कुछ एक सुंदर सृष्टि रचते हैं। कहा जाए कि अपने आसपास को कला की तमीज के साथ पेश करना महेश कुमावत की मौलिकता है।
पाब्लो पिकासो द्वारा मिश्रित माध्यम में 1912 में बनाई कृति 'स्टिल लाइफ विद चेअर कैनिंग' चर्चित रही थी। इसके बाद देखते हैं तो आज विश्व के हर कोने में अनगिनत कलाकार मिश्रित माध्यम में काम कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि यह माध्यम कलाकार की पहुंच, सृजन के अतिरिक्त आयामों तक बनाता है। उसे संभावनाओं की अधिशेष ज़मीन उपलब्ध कराता है। उसके संवैद्य तंतुओं के लिए मनमाफिक वस्तु उपयोग की अनुमति देता है। ऐसे में कलाकार इस माध्यम की ओर सहज ही आकर्षित होते हैं। विश्व के अनेक युवा कलाकार इस माध्यम में काम कर रहे हैं और अपनी कला के लिए चर्चित हैं। कैसैंड्रा डिआस थ्रेड पेंटिंग करती हैं, तो भारत की पूजा मेतकर की फलों, सब्जियों और छिलकों के प्रयोग वाली कृतियां हजारों लोगों द्वारा पसंद की जाती है। चीन के युवा कलाकार ज़िनान वू के मिश्रित माध्यम के शिल्प दुनिया भर में खासी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। सर्बिया के कलाकार इवान कोसी बच्चों के रीसायकल खिलौनों को एक पोट्रेट के स्वरूप में पुनर्संयोजित करते हैं। उनकी मिश्रित माध्यम की कृतियां कला जगत में बहुत सराही जाती हैं।
इसी क्रम में राजस्थान की कलाकार कुमुदनी भरावा के काम को रखा जा सकता है। उनकी कृतियों को देखने पर लगता है कि वहां हमारे आसपास की दुनिया रची गई है। कैनवास, रंग, बोर्ड, पेपरमेशी आदि माध्यमों द्वारा वे कलाकृति सृजित करती हैं। उनका मुख्य प्रतीक 'चप्पल' है। एक अथवा अनेक चप्पल । एक ही फलक पर चप्पल जैसी सामान्य वस्तु को वे मोहक रूप में प्रस्तुत करती हैं। पेपरमेशी का सधा हुआ रूप यहां देखा जा सकता है। चप्पलों वाली पेंटिंग इमिटेशन के रास्ते इमोशन की यात्रा करती है, जिसमें आकारों का सादृश्य पीछे छूट जाता है और उससे जुड़ी तमाम विसंगतियां और संगतिया मानस में कौंध जाती हैं। उनकी एक कृति है जिसमें चप्पलों के घेरे के मध्य में रखी हुई सूखी रोटी रखी है। यह एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें त्रिआयामी चप्पलों के घेरे बनाए गए हैं। घेरे में रखी चप्पलें आम आदमी की चप्पले हैं। रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी हुई उनकी वर्तुल स्थिति इतनी प्रभावी है कि एक ही नजर में जीवन की तमाम ऐठन वहां दीख जाती है। पूरा चित्र सफेद रंग में है और इसके ठीक बीच में भूरे रंग की रोटी हमारी तरफ ताकती है गोल रोटी मानो रोटी ही नहीं, पूरी धरती का यथार्थ सामने ले आती है। दुनिया के हर मनुष्य का जीवन चक्र वहां दिखाई देता है। सिकी हुई इस रोटी के काले धूसर धब्बे हमारी जिंदगी के अच्छे-बुरे संघर्षों की प्रतिध्वनि देते हैं। यह रोटी किसी एक घर में बनने वाली रोटी नहीं है, बल्कि मलयाली अप्पम, गुजराती थेपला, मेवाड़ी रोटा, मालवी रोटला, तुनकी, खमीरी- सभी का प्रतिनिधित्व करती है।
आम आदमी की तमाम जद्दोजहद की धुरी के रूप में सामने आती है। इस कृति के कैनवास सतह पर रोटी और चप्पलों के पीछे से निहारती काले रंग की मानव आकृतियां हैं। वे स्त्रैण हैं, क्योंकि उन्हीं से वास्ता सबसे ज्यादा रोटी का है। वे इस चित्र में इस रूप में भी दिखाई पड़ती हैं कि रोटी के सारे घर्षण के पीछे उन्ही का संबल है। मौन और अनचीह्ना। कुमुदिनी भरावा एक महिला कलाकार होने के नाते अपने वर्ग को प्रमुखता से अपनी कृतियों में स्थान देती हैं। उनकी स्त्री आकृतियां अपनी मौज में तो सामने आती ही हैं साथ ही अनेक प्रकार की प्रश्नाकुलताओं को भी समक्ष करती हैं। उनके जीवन से जुड़ी घरेलू वस्तुओं जैसे बेलन, चकला, धागा जुराबे आदि की उपस्थिति भी वहां सबल रूप से हुई है। कथ्य के साथ उनकी शैली की विशेषता भी कृति को महत्वपूर्ण बनाती है। धवल रंगों वाली कृतियां देखकर तो बरबस कोस्टोरिका के प्रसिद्ध कलाकार ओले रेंबार की याद आती है, जो परत दर परत सफेद कागज बिछाकर कृतियां बनाते हैं।
पेंसिल वाला के नाम से चर्चित युवा कलाकार कृष्णा कुंद्रा एक अलहदा मिजाज के कलाकार हैं। सोशल मीडिया और कला आयोजनों में सक्रियता से उनकी ऊर्जा का अंदाजा लगाया जा सकता है। वे मूलतः लोकोन्मुख कलाकार हैं। उनकी कृतियां अपने आसपास और अपनी जड़ों के मोटिव्स उठाती हैं। और उसी की बदौलत उनकी एक अलग पहचान बनी है। कृष्ण कुंद्रा मुख्य रूप से रेखाओं पर काम करते हैं। रेखाओं के सहारे ही वे रंगों को नियोजित करते हैं। उनके चित्रों की प्रमुखता रंग नहीं बल्कि रेखाएं हैं। उनके चित्रों में रंगों की तान हो अथवा छाया प्रकाश, उनमें रेखाएं ही नाचती हैं। वे देशज जनजीवन और उसकी भंगिमा को पड़कर रेखाओं में संयोजित करते हैं। ठेठ देहात का आदमी हो अथवा मेट्रो सिटी की महिला; घोड़ा हो या पत्थर उसे रेखाओं की आवृत्ति में गूंथते हैं। चित्र की यह गूंथ और बुनावट ऐसी है मानो रेखाओं ने कोई मधुर स्वर लहरियां छेड़ी हो । रेखाओं पर बहुत सारे कलाकारों ने काम किया है कहा जाए कि रेखाओं की ताकत की बदौलत ही मकबूल फिदा हुसैन कला के विश्व-पटल पर आ पाए, छा पाए। मन, मस्तिष्क और मांसपेशियों के गहन संतुलन से ही सधी हुई रेखाएं फलक पर आ पाती हैं। कृष्ण कुंद्रा लंबे समय से रेखाओं पर काम कर रहे हैं। रेखाएं ही उनके चित्रों की आत्मा है। वे रेखाओं को अदब देने के लिए ही उनके आसपास रंगों को बिछाते हैं अन्यथा अनेक चित्र केवल रेखाओं के सहारे ही जीवंत बन पड़े हैं।
बिना किसी कला मुहावरे के जाल में उलझे, वे सीधे सपाट दृश्य को उठाते हैं और कैनवास पर बना देते हैं। किंतु विशेषता यह है की वे उसमें लावण्य और कलात्मक सौंदर्य को अपने अभ्यास तथा कला संवेदन से पूरीत करते हैं। मूलत राजस्थान से नाता होने के कारण उनके चित्रों में राजस्थान के देहाती आदमी और गांव की औरत को प्रमुखता से स्थान दिया गया है। उनके चित्रों में विषयों का वैविध्य है। प्रकृति की छठा, विभिन्न पशु और अलग-अलग स्थानों की मानवाकृतियां उन्होंने बहुत मनोयोग से बनाई हैं। रंगों को वह अपने तरीके से चित्र में बढ़ते हैं। गहरी सपोर्ट से बहते हुए उनके रंग अंतराल में विलीन हो जाते हैं। रंगों की बहुत पतली और ताजा परत उनके चित्रों की विशेषता कही जाएगी। बहुत वाइब्रेंट और तीखे रंगों को लेकर वे पतली परत बिछाते हैं, इसका असर यह होता है कि चित्र अपने अधूरे आकार में भी पूर्णता की प्रतीति कराता है। साथ ही चित्र इतना आकर्षक हो जाता है कि कोई सामान्य दर्शक भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
कलाकार कृष्ण कृष्णा कुंद्रा का चित्र सृजन |
उन्होंने बड़े-बड़े कैनवास पर राजस्थानी पगड़ी पहने आदमी की अनेक कृतियां बनाई है। पूरा कैनवस ही आधे अधूरे चेहरे से पैरोट दिया गया है। और बहुत सारा स्थान खाली छोड़ दिया गया है जो पूरित आकृति के विलोम में खड़ा ना होकर उसका सहयोगी होकर सामने आता है। कृष्ण कुंद्रा यहां होने और नहीं होने के बीच एक कलाकार की कला को उपस्थित कर देते हैं। और यही इल्यूजन या मायाजाल उनके चित्र कीविशेषता बन जाता है जिसके सामने दर्शक देर तक खड़ा रहने को मजबूर होता है।
डॉ. जगदीश प्रसाद मीणा राजस्थान के उन संजीदा कलाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने विश्व कला की विभिन्न धाराओं से प्रेरित होकर अपनी निजी शैली विकसित करने में अपने आप को नियोजित कर रखा हैं। उनकी कला में फ्रेंच मोंताज विधि का अध्यारोपण, पॉप आर्ट का ऑप्टिकल भ्रम और घनवादी ज्यामितीय कोणों का नया संस्करण मिलता है। पहली नज़र में उनके चित्र भारतीय जनजीवन और यहां के मनुष्यों की देह-यष्टि के साथ में अतिआधुनिक छवियों का दमदार रूपायन है। विश्व में ऐसे बहुत कम कलाकार हुए हैं जिन्होंने अपनी कृति में आकारों को अनियंत्रित हिलावट दी है। अर्थात पेंटिंग को देखने वाले दर्शक का पेंटिंग के रूप आकारों पर नियंत्रण नहीं रहता। आकार अपनी गतिकी में इस तरह निबद्ध होते हैं कि देखने वाला इस भ्रम में रह जाता है कि रूपाकार को यहां से पकड़े, वहां से पकड़े। हंगेरियन – फ्रेंच कलाकार विक्टर वासरेली पहले आधुनिक कलाकार थे जिन्होंने महसूस किया कि गतिज कला में हिलना-डुलना ज़रूरी नहीं है। कृति पर निगाहों का विचलन उन्हीं की देन कहा जाएगा। जगदीश प्रसाद उसी धारा के समानांतर अपनी धारा बनाते हैं और इन अर्थों में उनसे अलग है कि वासरेली की कला की केंद्रीय विषयवस्तु ज्यामिति थी जबकि जगदीश प्रसाद का केंद्र-बिंदु मनुष्य जीवन और उससे जुड़े संदर्भ हैं। वे अपनी पेंटिंग मैं आंखों पर आंखें लाते हैं और त्वचा पर त्वचा। वे सर्वथा नया मनुष्य गढ़ते हैं। ऐसा मनुष्य जो मित्र से गलबहियां कर ठेठ देसी अंदाज में ठहाके लगता है, बतियाता है। अपने ही प्रतिरूपों की उपस्थिति में ख़ुद को निज रूप में उघाड़ता है। वहां जीवन के विविध रंग है। कैनवस लोगों से भरा हुआ है। कोई एकांकी नहीं है। कैनवस पर मनुष्य के अंतर्संबंधों का एक जाल सा बुना गया है जिससे सामाज विज्ञान और आंतरिक मनोभावों की अनेकानेक खिड़कियां खुलती हैं। संबंधों की वांगी में उसे चित्र का उल्लेख करना जरूरी है जिसमें एक व्यक्ति घोड़ा बना हुआ है और उसकी पीठ पर एक बच्चा बैठा हुआ है। तकनीक और शैली के स्तर पर इस चित्र की अभिव्यंजना अति आधुनिक है लेकिन कथ्य के दायरे में जब इस चित्र को देखा जाता है तो एक ऐसे मध्यम वर्गीय आदमी और परिवार की छवि उभरती है की मन आह्लादित हो जाता है। कैनवस पर एक्रेलिक रंगों से बनाई गई इस पेंटिंग में परिवेश की चिंता, भविष्य का तनाव, समय की डगमगाहट और एक आम आदमी द्वारा की जा रही बच्चे के संग खेल की चुहल जैसा विरोधाभास इसे अलग स्तर प्रदान करती है। चित्र देखिए कि एक आदमी घुटनों के बल झुक कर आज के आधुनिक बच्चे को बैठाए हुए है। बच्चे को आधुनिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि वह पिता या और किसी रिश्तेदार की पीठ पर आनन्द लेने बैठा है किंतु बच्चे की पीठ पर तीन परतों वाला मोटा स्कूल बेग टंगा है। वस्तुतः हमारे समाज पर एक कलाकार द्वारा किया गया बहुत बड़ा व्यंग्य है और जिसके अनेक भीतरी अर्थ हैं। इस बच्चे के दो मुख हैं जो विपरीत दिशा में बने हुए हैं। यही आज के समाज की वास्तविकता है। चित्र में एक और बच्चा है जो घोड़ा बने आदमी के पास खड़ा है। उसका एक हाथ घोड़ा बने आदमी के मुंह पर रखा हुआ है। आसपास बच्चों के खिलौने, छितराए हुए बनाए गए हैं। चित्र का परिवेश किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार के सामान्य कक्ष का है जिसकी दीवारें हल्के गुलाबी रंग की हैं। असल में नेपथ्य के लिए चित्र में लगाया गया यह गुलाबी रंग तमाम विसंगतियों में भी मनुष्य की आंतरिक प्रसन्नता का प्रतीक बन कर सामने आता है। दौहरे-दौहरे चेहरे और तिहरी चौहरी आंखें इस चित्र का भी वैशिष्ट्य है जो डॉ जगदीश प्रसाद की शैलीगत विशेषता है। रंगों के बरताव पर कहा जाएगा कि वे बहुत सूझ से आकारों को रंग देते हैं। उनकी अधिकांश मानवाकृतियां नीले रंग से सनी है। बहुत सारे चित्रों में उनकी देह महीन रोयों (बालों) से सनी जिसमें नीली तान के बारीक स्टॉक्स लगे है। आकृतियों की बनावट में देह और चेहरों की मांसलता आम आदमी का प्रतीरूप लेकर उपस्थित होते हैं। इस तरह डॉ जगदीश प्रसाद ने अपनी पेंटिंग में जो वैविध्य दिया है वह उनकी कलात्मक संपन्नता को अभिव्यक्त करता है।
उदयपुर के कलाकार हैं चित्रसेन। वे भी मिश्रित माध्यम से कृतियां निर्मित करते हैं। किंतु उनके चित्रों में मिश्रित माध्यम एक्रेलिक रंगों का सहयोगी बनकर आता है। पहली नजर में देखने पर उनके चित्र एक्रेलिक पेंटिंग के रूप में ही दिखाई देते हैं। किंतु तकनीक और शैली का बारीक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि वे फ्रेस्को शैली में नवीन अनुप्रयोग की प्रभावी शबीहें बनाते हैं। फ्रेस्को नहीं है किंतु फ्रेस्को का इमेजिनेरी इंपैक्ट वहां स्पष्ट दिखाई देता है। राजस्थान में आलागीला और आलासूखा विधि से पारंपरिक भित्ति चित्र लगातार बनते रहे हैं, चित्रसेन ने उसी विधा के मनो प्रभाव की तह में जाकर समकालीन परिप्रेक्ष्य में अपनी निजी शैली की कृतियां रची है। उनके आकार और रंग मेवाड़ के सामान्य जनजीवन से आते हैं। पशुओं और मानवीय आकृतियां स्थानीय परिवेश में होते हुए भी एक फैंटेसी का आकाश बनाते हैं। उनके आकारों में मेवाड़ कलम की रेखाओं को नवीन भंगिमा दी गई है। वे अपने में ही अपने रंगों के साथ गुली-मिली है। रंगों की चटकता और रूप का लावण्य एकमेक होकर मनभावन कृति की सृष्टि करते हैं। चित्रसेन का कहना है कि, "मैं मेवाड़ के पुराने घरों-दरीचों में बने फ्रेस्को चित्रों को देखते हुए बड़ा हुआ हूं। उनका प्रभाव मेरे मन मस्तिष्क पर पड़ा है।
अतः कंटप्रओरई स्टाइल में काम करने के बावजूद मेरे चित्रों मैं उन्हीं का इंपैक्ट है।" इस बात से समझ आता है कि कलाकार की अपने परिवेश और संस्कृति के प्रति दृष्टि कितनी गहरी है। दृष्टि की व्यापकता के कारण ही वे जितनी सुंदर कृतियां यथार्थ स्वरूप की आकारिकता में रचते हैं उतनी ही प्रभावी कृतियां अमूर्त शैली में भी बनाते हैं। एक ही पेंटिंग पर अनेक प्रकार के पोत का प्रयोग करते हुए अंततः छाया प्रकाश की छींटेदार रंगत उनके चित्रों सौंदर्य है। उनकी एक कृति 'व्योम विहान' उल्लेखनीय कृति है। इस चित्र में एक महिला आकाश में उड़ रही है और एक तितली उसका पीछा कर रही है। महिला के हाथ में कोई मंजूषा है जिसे वह सामने की ओर दोनों हाथों से पकड़े हुए हैं। किंतु वह पीछे मुड़कर तितली को देख रही है। उसका पीछे मुड़ कर देखना अत्यंत आकर्षक है। सरल रेखाओं में चित्र एक स्वप्निल दुनिया की रचना करता है। पूरे चित्र में दो ही आकार हैं, महिला और तितली इसके सिवा कैनवस का पूरा अंतराल महीन धब्बेदार रंगीन पोत से भरा है। आकार और अंतराल मिलकर बहुत धीमा परंतु गहरा असर दर्शक पर छोड़ते हैं।
शहनाज मंसूरी सागवाड़ा डूंगरपुर की युवा कलाकार हैं उनके चित्र लड़कपन की सुनहरी स्मृतियों के स्वप्नमय दस्तावेज़ जैसे हैं। बाल सुलभ चित्रांकन उनकी पेंटिंग की प्रमुख विशेषता है। द्विआयामी रूपाकारों को पैटर्न वाले टेक्स्चर्स से सजाया गया है। आंगिक रेखाओं में चपलता है जो बरबस हमें हमारे ही बचपन की ओर खींच ले जाती है। उनके चित्रों में गंभीरता भी है किंतु वह ओढ़ी हुई गंभीरता नहीं है अपितु सहज जिज्ञासा से निपजी गंभीरता है। सपाट अथवा पोतदार अवकाश पर आकृतियों की प्रधानता है। ये आकृतियां बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सभी की हैं। साथ ही मानव आकृतियों के साथ बनाए गए बिल्ली, तितली, मेंढक, चिड़िया आदि जीव जंतु मनुष्य के अटूट सहचर के रूप में वहां दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः मनुष्य उन्हीं के साथ अपनी सोच में डूबा हुआ है अथवा कहें, उन्हीं के साथ किसी क्रियाकलाप में रत है। ये कृतियां गहरे संवेदन की सृष्टि करती हैं। उनकी देह का सौंदर्य भी मानवीय सुंदरता के मानक से इतर, भिन्न तरह का आंगिक सौंदर्य है। यह कलाकार की निजता और बोध के वैषम्य का सौंदर्य है। यहीं पर कलाकार की शैलीगत पहचान का परिचय मिलता है। शहनाज मंसूरी की रंग योजना में प्रफुल्लता का संपुट है। प्राथमिक और द्वितीयक दोनों तरह के रंगों का प्रयोग किया गया है। किसी एक ही रंग से लगाव वहां नहीं है। बरता गया प्रत्येक रंग अपने परिवेश और चरित्र की विशेषता प्रकट करता है।जब हम जड़ों की ओर देखने की बात करते हैं तो बरबस जनजातीय संस्कृति की ओर ध्यान जाता है। दिलीप डामोर इसी जनजातीय संस्कृति से निकलकर आने वाले युवा कलाकार हैं। वे ग्रामीण और आदिवासी जनजीवन को अपने कैनवास पर रचते हैं। जीवन व्यवहार से जुड़ी तमाम चीजों को अपनी कृति में स्थान देते हैं। इसमें पशु, किसान, सोहरी, घंटी, झाडू, घट्टी, मटका, फूल, पेड़ आदि आदि वस्तुएं शामिल हैं। इन्हें वे बहुत मोहक रूप में हमारे सामने लाते हैं। मनुष्य के व्यवहार का हिस्सा रही ये वस्तुएं जब चित्र फलक पर आती हैं तो जीवन से उनका तादात्म्य स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उनके चित्रों का मूल कलेवर आदिम यथार्थ का पुरागामी फेंटेसी रूप है, अर्थात वहां यथार्थ भी है और फेंटेसी भी। यथार्थ इस रूप में कि उनके बनाए सभी आकार जाने पहचाने आकार हैं, मनुष्य, पशु, वस्तुएं आदि सभी। किंतु इन आकारों के अनुपातिक संतुलन को भंग करके जब प्रस्तुत किया जाता है तब वे फैंटेसी का आभास देते हैं। एक और महीन बाद इस संदर्भ में यह है कि वे बाल-कला के चित्र नहीं हैं, क्योंकि आकारों की रेखाओं में सिरजी लयात्मकता एक परिपक्व प्रवाह का प्रतिनिधित्व करती हैं। आड़ी- टेढ़ी होने के बावजूद वे सधे हुए हाथों से रची हुई प्रतीत होती हैं। ऐसे में अथ-बिंबो के रूप में होते हुए भी वे परिपक्वता और प्रभावोत्पादकता में विशिष्ट असर छोड़ते हैं। दिलीप डामोर के चित्रों में प्रकृति और उससे मानवीय रिश्तों की गहरी पड़ताल है। प्रकृति और मनुष्य के अन्योन्याश्रित संबंध को वे विभिन्न प्रकार से व्यक्त करते हैं। आदमी के सिर पर रखी हुई पर्वत श्रंखला। जंगली पशु पर बैठी लड़की का वायवीय चुंबन । बैलों की जोड़ी के साथ पति-पत्नी का दृश्य आदि ऐसे चित्र हैं जहां प्रकृति से एकाकार मनुष्य का कार्य-व्यवहार उत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित हो रहा है। इन चित्रों में उन्हीं रंगों का प्रयोग है जो प्रकृति में प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। चित्र का संयोजन एक समृद्ध परिदृश्य को सामने रखता है, जहां पेड़, पक्षी, टापरी, खेत आदि एक दूसरे के पूरक बनकर चित्र को परिपूर्ण करते हैं। कुल मिलाकर दिलीप डामोर अपनी ही शैली के चितेरे हैं। वे न केवल अपने परिवेश के प्रति सजग हैं अपितु परिवेश की भाविष्यिक विकृति के प्रति भी सावधान हैं। विसंगतियों के बीच उर्वर आशा का संचार करते उनके चित्र नया मुकाम हासिल करेंगे, ऐसा लगता है।
यशपाल बरांडा जनजातीय संस्कृति में पूरी तरह आसक्त खेरवाड़ा क्षेत्र के एक युवा कलाकार हैं। आदिवासी कला के सरलतम रूप-आकारों को वह पेंटिंग में स्थान देते हैं। क्षेत्र में प्रचलित लोक कथानकों के सहारे वे चित्र में अपनी कहानी कहते हैं, जिसमें केंद्रीय विषय के साथ अनुषंगी रूप में अनेक-अनेक रूपों और प्रतीकों का संसार रूपायित होता है।
उपर्युक्त वर्णित दक्षिण राजस्थान के कलाकारों के अलावा भी कई युवा कलाकार हैं जो निरंतर काम कर रहे हैं। हिम्मत गायरी, दीपिका माली, रितेश जोशी, सुरेंद्र सिंह चूंडावत, तस्लीम जमाल, विजेंद्र सिंह देवड़ा, इति कच्छावा, अमित सोलंकी, किशोर तीरगर, ज्वाला प्रसाद कलोसिया सुनील नीमावत आदि ऐसे नाम है जो निरंतर काम कर रहे हैं। उनके काम में सहज ही राजस्थान की कला के नए सोपान देखे जा सकते हैं।
चेतन औदिच्य,
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दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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