साक्षात्कार : कागज़ और कलम का रिश्ता, जो रोशनाई से रोशन है / (हरिशंकर बालोठिया से सुरेश चंद्र जाँगिड़ की बातचीत)

कागज़ और कलम का रिश्ता, जो रोशनाई से रोशन है
(हरिशंकर बालोठिया से सुरेश चंद्र जाँगिड़ की बातचीत)

हरिशंकर बालोठिया

(हरिशंकर बालोठिया सुलेखन के क्षेत्र में पिछले पाँच दशकों से एक जाना पहचाना नाम है। मात्र सुलेखन ही नहीं रेखांकन, चित्रांकन और कला के व्यावहारिक पक्ष से जुड़े विविध माध्यमों में इन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से कलाकारों, कला विद्यार्थियों तथा कला रसिकों को आकर्षित किया है, लेकिन उनकी असली पहचान एक सुलेखकार के रूप में ही है। इन्होंने हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू समेत अनेक भाषाओं के लिए अक्षर संयोजन तैयार किए हैं। वर्तमान में वह जयपुर में रहकर युवा पीढ़ी को सुलेखन का महत्व और इसकी बारीकियां सिखा-समझा रहे हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के चित्रकला विभाग में सहायक आचार्य डॉ. सुरेश चंद्र जाँगिड़ ने राजस्थान में सुलेखन की परंपरा, विकास, वर्तमान परिदृश्य और चित्रकला से इसके संबंध पर व्यापक चर्चा की है। यहाँ प्रस्तुत साक्षात्कार उसी बातचीत का एक अंश है।)

राजस्थान के मंदिरों, रजवाड़ों और महाजनों के आश्रय में किए गए सुलेखन कार्य को आप किस प्रकार देखते हैं?

मंदिरों के लिए रजवाड़ों और महाजनों द्वारा धार्मिक ग्रंथों का लेखन करवाया गया। ये ग्रंथ चित्रित भी करवाए गए, इस प्रकार सुलेखन और चित्रकला साथ-साथ चलती रही है। मेवाड़ शैली में चित्रित आर्ष रामायण इसका एक उदाहरण है। इसी प्रकार अन्य चित्र शैलियों में भी ग्रंथ चित्रण और भित्तिचित्रण का कार्य हुआ है। इनके अतिरिक्त महाजनों ने अपने व्यापार के लेखा-जोखा से संबंधित दस्तावेजों को भी लिपिबद्ध करवाया था। इस कार्य के लिए अलग से व्यक्ति नियुक्त किए जाते थे। अधिकतर ये कायस्थ समाज के लोग होते थे। इन्हीं में से कुछ लोगों को चित्रों में लिखने के लिए भी कार्य दिया जाता था।

उस समय की लिखावट कुछ अलग प्रकार की दिखाई पड़ती है। क्या इस पर कोई विशेष प्रभाव रहा है अथवा यह लिखने वाले की ही अपनी शैली रही होगी?

वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग लिखावट होती है, परंतु अक्षरों की मूलभूत बनावट का हमेशा से ही ध्यान रखा जाता रहा है। फिर भी छापाखाने के आ जाने से अक्षरों की बनावट में कुछ परिवर्तन ज़रूर दिखाई पड़ता है। सुलिपिकारों ने छापे के अक्षरों को देखकर अपने अक्षरों की बनावट में थोड़ा परिवर्तन करना शुरू कर दिया। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि ये छापे पूरे देश में दो जगह से बनकर आते थे- पहला बंगाल से और दूसरा मुंबई से। स्वाभाविक रूप से बंगाल में बने छापों पर बांग्ला अक्षरों का प्रभाव था, वहीं दूसरी ओर मुंबई में बने छापों पर मराठी देवनागरी का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसके साथ-साथ रेखांकन पर ओडिशा का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है, क्योंकि उस समय ओडिशा से कुछ कलाकारों को बुलाकर रेखांकन का कार्य करवाया गया था। बाद में यही प्रभाव अख़बारों में छपने वाले विज्ञापनों में भी साफ़ तौर पर दिखाई पड़ता है। मंदिरों में जो ग्रंथों की प्रतियां बनवाई गईं, उसमें एक व्यक्ति बोलता था और दस लोग उसको लिखते थे। लिखने की भाषा संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश भी होती थी। ऐसे में लिखने वाले को आवश्यक नहीं है कि सभी भाषाओं का ज्ञान हो तथा उसके लिखने की गति भी समान हो, इसी कारण किसी-किसी ग्रंथ में भी कुछ अलग शब्द दिखाई पड़ते हैं।

किसी भी भाषा को लिखने में लिपि महत्वपूर्ण अवयव होती है। लिपि के अनेक रूप हमें दिखाई पड़ते हैं, इनके बारे में भी थोड़ा प्रकाश डालिए।

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उस समय अधिकांश कार्यालयों का कार्य उर्दू और फ़ारसी में हुआ करता था, इसी कारण अक्षरों पर कुछ प्रभाव उसका भी दिखाई पड़ता है। अंग्रेजों के आने से रोमन लिपि से भी परिचय हुआ, उसका प्रभाव भी पड़ा और रोमन अक्षरों की बनावट को समझा गया। हाथ से उसे बनाने का प्रयास किया गया। ऐसे समय में गांधीजी ने अंग्रेज़ी और गुजराती दोनों भाषाओं में बहुत कार्य करवाया। प्राचीन ग्रंथों में प्रयुक्त भाषा अधिकतर संस्कृत और पाली या प्राकृत रही है, जिनको लिखने के लिए ज़्यादातर देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया गया। मूल रूप से ब्राह्मी लिपि से शारदा, डोगरी और टाँकरी लिपि का विकास देखने को मिलता है। कश्मीर में जो शारदा लिपि आयी उसी से आगे चलकर देवनागरी और गुरुमुखी लिपियाँ विकसित हुई थी। इसी तरह शारदा लिपि पर बंगाली प्रभाव आने से बंगाल, नेपाल और भूटान की लिपियाँ विकसित हुई। पूर्वोत्तर में बंगाली, उड़िया और आसामी भाषा की लिपियों में काफ़ी समानता दिखाई पड़ती है। ब्राह्मी से ही दक्षिण भारतीय भाषाओं तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ की लिपियाँ निकली है।

इसी तरह एक घुमावदार लिपी मोढ़ी लिपि है, जिसका उपयोग महाजन अपने व्यापार का विवरण बहियों में लिखने के लिए किया करते थे। व्यापार का विवरण मात्रा में अधिक होने के कारण शीघ्रता से लिखना पड़ता था, इसलिए यह एक प्रकार से द्रुत लिपि के समान है, जिसे केवल उसका जानकार ही पढ़ सकता है। लिपि के एक और प्रयोग के रूप में पंचांग और ताबीज़ भी देखे जा सकते हैं। ये दोनों ही रूप पढ़े-लिखे लोगों और सामान्य लोगों के बीच की कड़ी के समान हैं। आज राजस्थान में टोंक स्थित अरबी फ़ारसी शोध संस्थान अच्छा कार्य कर रहा है। इन दोनों भाषाओं की लिपी के अतिरिक्त वहाँ पर देवनागरी में भी कार्य करने वाले सुलिपिकार नियुक्त रहे हैं। मेरा भी कई बार वहाँ जाना हुआ है। वे समय-समय पर कार्यशालाएं आयोजित कराते हैं तथा बाहर से भी विशेषज्ञों को बुलाते हैं। वैसे भी राजस्थान में जब सुलिपि की बात होती है, तो प्रमुख केंद्रों के रूप में नागौर, अजमेर, अलवर और टोंक का नाम आता है।

अलग-अलग प्रकार की लिपियों को लिखने का ज्ञान आपको कैसे हुआ, इसके बारे में थोड़ा बताइए।

इसकी शुरुआत मेरे पिताजी से हुई। वे रेलवे में नौकरी करते थे, लेकिन उनकी हस्तलिपि बहुत सुंदर थी। मेरे चाचा की हस्तलिपि भी बहुत सुंदर थी। उन्हीं को देखकर मैंने भी सुंदर अक्षर लिखने का प्रयास किया। उस समय मनोरंजन के लिए लोक नाट्य हुआ करते थे, जिन्हें ‘ख्याल’ कहा जाता था। इनके लिए पूरी कथा को एक स्क्रॉल के रूप में लिखा जाता था, जिन्हें देशी भाषा में ‘ओळ्या’ कहा जाता था। यह एक तरफ़ से खुलता रहता था और दूसरी तरफ़ सिमटता जाता था। कार्यक्रम से एक महीने पहले से ही इसका अभ्यास किया जाता था। मेरे पिताजी इसके लिए कथा लिखा करते थे। यह चिकने सादेपाठे के काग़ज़ पर निब और स्याही से ही लिखा जाता था। मैंने भी इन्हें लिखने का प्रयास किया था। इसके अतिरिक्त मेरे पड़ोस में एक मंदिर था, उस मंदिर से कचरे में फेंके जाने वाले काग़ज़ों को मैंने देखा, तो वे किसी संस्कृत ग्रंथ के पृष्ठ थे। मैं उन्हें संभाल कर रखता और उसमें लिखे अक्षरों को देखकर सुलेखन का अभ्यास करता गया। इसके अलावा अपनी कृषि विज्ञान की पढ़ाई के दौरान मुझे फसलों के नाम की तख्तियाँ बनाने का कार्य भी करने को मिला। इससे भी मेरी लिखावट में और परिष्कार आया। न्यायालयों में भी उर्दू और अंग्रेज़ी का कार्य अधिक होने के कारण सारे दस्तावेज़ उर्दू और अंग्रेज़ी में ही लिखे जाते थे। इनको लिखने का कार्य अधिवक्ताओं के मुंशी किया करते थे, जो अधिकांशतः कायस्थ समाज से होते थे। इसके अतिरिक्त सामान्य रूप से भी सन् 1960 तक रुपयों के लेन-देन को बही में लिखने का कार्य किया जाता था और ख़त लिखने का भी प्रचलन था। उसकी एक निर्धारित भाषा होती थी, जैसे ‘श्री जोग लिखी फ़लाना-फ़लाना से फ़लाना-फ़लाना को................’ तो इस प्रकार लिखने का कार्य मैंने भी किया है। टोंक के अरबी फ़ारसी शोध संस्थान में उर्दू और फ़ारसी दोनों ही भाषाओं की लिपियों पर काम होता आया है। मूल रूप से देखें तो दोनों की लिपियों में चलन का अंतर है। उर्दू का जो चलन है वो तिरछा चलते हुए नीचे जाता है, जबकि फ़ारसी में सीधी लाइन में चलते हुए कलम ऊपर उठती है। इसी तरह देवनागरी में 45 डिग्री पर कलम को रखते हुए अक्षर बनाए जाते हैं। 1972 में शादी हो जाने के कारण परिवार की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मैंने इसी कार्य को अपना रोज़गार बनाया तथा अलग-अलग तरह के कार्य करते हुए मैंने अनेक प्रकार की लिपियां सीखी।

उस समय लिखने के लिए कौनसे उपकरणों का प्रयोग किया जाता था, इसके तकनीकी पक्ष के बारे में बताइए।

पहले लिखने के लिए बेंत की कलम का उपयोग किया जाता था। बेंत भी एक प्रकार का बाँस ही है, लेकिन इसकी पालियां लंबी होती हैं, लगभग चार-चार फिट की। बेंत के अलावा विशिष्ट प्रयोजनों हेतु अनार और सेब की क़लम का उपयोग भी किया जाता था। स्थानीय रूप से तो कठोर सरकंडे की क़लम बनायी जाती थी, क्योंकि यह आसानी से उपलब्ध होता था। इसे 45 डिग्री पर तिरछा काटकर क़लम की नोक का आकार दिया जाता था। कठोर होने के कारण स्याही में डुबोने पर भी इसका आकार सही बना रहता था। इसके बाद अंग्रेज़ी निब आने लगे। उस समय बाज़ार में लगभग सौ तरह के अलग-अलग निब उपलब्ध थे। रेखांकन के लिए अलग प्रकार का, देवनागरी लिखने के लिए अलग प्रकार का और रोमन लिखने के लिए अलग प्रकार का। ‘कर्सिव’ लिखने के लिए ‘जी’ का निब बहुत प्रसिद्ध था। ये निब अधिकतर इंग्लैंड में बने होते थे, कुछ निब फ़्रान्स और जर्मनी से भी आते थे। शुरुआत में ये ताम्बे के बनते थे, बाद में पीतल और स्टील के भी आने लगे। ताम्बे और पीतल के निब अपने लचीलेपन के लिए जाने जाते थे और स्टील के बने निब कठोर होते थे। मेरे पिताजी लिखने के लिए धातु के निब को पहले मोमबत्ती में तपाते थे, फिर पानी में डुबोकर ‘पाण’ लगाते थे, जिससे वह और कठोर हो जाता था। लिखने के लिए सादा पाठा कागज़ का प्रयोग होता था। यह थोड़ा चिकनाई लिए होता था, इसे ‘मैप-लिथो’ कहा जाता था। यह बात 1930-1940 के आस पास की है। उस समय तीन या चार रंगों की स्याही से लिखा जाता था। इस प्रकार के लिखे हुए लोक-नाट्य मैंने बचपन में देखे हैं और उनकी लिखावट देखकर लिखने का अभ्यास भी किया है। जयपुर के घाटगेट इलाक़े में रैगरों की कोठी, ब्रह्मपुरी में भट्ट लोग तीज़ के अवसर पर इन्हीं लोकनाट्यों पर आधारित गोपीचंद और भर्तृहरि का तमाशा कराते थे, जिसमें मंचन और गायन हुआ करता था।

वर्तमान समय के सुलेखन को आप किस प्रकार से देखते हैं?

आज के समय में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। तकनीकी रूप से भी कंप्यूटर के आ जाने से नए-नए तरीक़े के अक्षर बनाना बहुत आसान हो गया है। इसके अलावा उपकरणों में तमाम तरह की निब, ब्रुश, ब्रुश-पैन वग़ैरह आ गए हैं। जितनी अधिक सुविधाएँ हुई हैं, उतना ही रियाज़ घट गया है। किसी भी कला में रियाज़ का सबसे अधिक महत्व होता है। पुराने समय में सुलेखन सीखने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता था। सिखाने वाला खोजना होता था, उपकरण और काग़ज़ की भी तलाश करनी पड़ती थी। आज के समय में सिखाने वाले संस्थान भी हैं और सामग्री भी आसानी से उपलब्ध है। और तो और यू-ट्यूब पर वीडियो के माध्यम से भी सीख सकते हैं। ख़ैर, 2004 के बाद से राजस्थान पत्रिका ने सुलेखन सिखाने के लिए मुझे आमंत्रित किया था। ग्रीष्मकालीन इन कक्षाओं में पच्चीस-तीस छात्र-छात्राएँ आया करते थे। प्रारंभ में मैंने उन्हें अक्षरों की बुनियादी बनावट के बारे में बताया, फिर सुलेखन के बारे में बताया। इसी तरह की कक्षाएं बाद में जवाहर कला केंद्र, रवींद्र मंच और राजस्थान ललित कला अकादमी ने भी आयोजित की। वैसे इन सभी प्रयासों से युवा पीढ़ी में सुलेखन के प्रति जागरूकता तो आयी है लेकिन उन्हें अपने स्तर पर भी प्रयास करने की ज़रूरत है। अब तो विश्वविद्यालयों में व्यावहारिक कला के अंतर्गत सुलेखन का अध्यापन भी करवाया जा रहा है। लेकिन विद्यार्थियों का ध्यान टाइपोग्राफी पर ज़्यादा रहता है, क्योंकि उन्हें लगता है कम्प्यूटर से ही सारा काम हो जाएगा। परंतु मूलभूत जानकारी न होने पर वे लिपि के मर्म को नहीं समझ पाएंगे।

नागौर और बाड़मेर में तो अब भी विद्यार्थियों को फाउंटेन पेन से लिखना सिखाया जाता है। अभी भी वे फाउंटेन पेन और स्याही से ही लिखते हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं की लिपि बहुत सुंदर लिखते हैं। क्योंकि वे बॉल पेन का प्रयोग नहीं करते हैं। बॉल पेन सरकता है, इससे काग़ज़ और क़लम का मेल नहीं होता। मैं सुलेखन का जो पहला अध्याय सिखाता हूँ, उसमें यही बताता हूँ कि "सुलेखन, काग़ज़ और क़लम का रिश्ता है और स्याही उसको रोशन करती है, उजागर करती है। जो भाव आपके अंदर है, उसको रोशनी देने का काम स्याही करती है, इसलिए स्याही को रोशनाई कहते हैं।" यही वह गुण है, जो हाथ से लिखे सुलेखन को मशीन या कंप्यूटर से छपे लेख से अलग करता है। सच्चे मायने में मनुष्य के जीवन का स्पंदन हाथ से लिखे सुलेख में ही महसूस किया जा सकता है। भावों के अंतर से ही सुलेखन में एक लिपि होते हुए भी विविधता प्राप्त की जा सकती है। उदाहरण के लिए उर्दू के लेखन में तुलुथ, कुफ़ी, कुबेश, नश्त और तालीक जैसी लिखावट की विविधता प्राप्त हुई है। यह सुलेखन का कलात्मक पक्ष है। वर्तमान में सुलेखन के लिए वसली कागज़ का प्रयोग किया जा रहा है। मैं भी लिखने के लिए वसली, कपड़ा और कैनवास का प्रयोग करता हूँ। कैनवास पर ब्रुश से स्याही का प्रयोग भी करता हूँ और एक्रेलिक रंग का भी। चूंकि एक्रेलिक रंग गाढ़ा होता है, इसलिए उसका घोल बनाकर दो-तीन घंटे के लिए छोड़ना पड़ता है। जब वह तैयार हो जाता है, तो उसे स्याही के समान प्रयोग में लिया जा सकता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है की एक विशेष प्रकार की लिखाई के लिए ब्रुश उपयुक्त नहीं रहती है, ऐसी स्थिति में मैं ख़ुद बाँस की टहनी से क़लम बनाता हूँ, तब जाकर मनचाही लिखाई हो पाती है। मैं ऐसा इसलिए कर पाता हूँ क्योंकि अक्षर की बनावट के साथ-साथ उसके भाव को भी महसूस करना चाहता हूँ। सुलेखन में मात्र कलात्मकता होना ही उसकी श्रेष्ठता नहीं है, बल्कि सर्वप्रथम तो वह सुपाठ्य होना चाहिए।

समकालीन कला में भी कुछ कलाकारों ने सुलेखन अथवा अक्षरों का प्रयोग किया है। इस बारे में आपका क्या विचार है?

समकालीन कला तो इतनी व्यापक है कि उसमें सुलेखन को आधार बनाकर ही कलाकृतियों का निर्माण किया जा रहा है। मुंबई के अच्युत पल्लव इसी प्रकार का कार्य करते हैं। राजस्थान में भी कुछ चित्रकार ऐसे हैं, जिन्होंने अपने चित्रों में अक्षरांकन का प्रयोग किया है। यह प्रयोग दो प्रकार का माना जा सकता है। पहले प्रकार के प्रयोग में अक्षरों का अंकन किया जाता है तथा दूसरे प्रकार के प्रयोग में अक्षरों का छापा लिया जा सकता है या छपे हुए अक्षरों को चिपकाया जा सकता है। अक्षरों के अंकन का प्रयोग चित्रकार रामेश्वर सिंह द्वारा किया गया है। उन्होंने अपने चित्रों में फड़ चित्रकला के आकारों को संयोजित करते हुए पृष्ठभूमि में उसी चित्र के संबंध में अपने विचार अंकित किए हैं। यह एक प्रकार का सुलेखन ही है, जो चित्र बनाते समय के मनोभावों को चित्र में दिखाता है।

सुरेश चंद्र जाँगिड़

दूसरे प्रकार की प्रयोग में पुराने पोस्ट कार्ड, क्षतिग्रस्त पांडुलिपियों के टुकड़े इत्यादि को चित्र में चिपकाने का कार्य जोधपुर के मेहर अली अब्बासी और जयपुर के विनय शर्मा ने किया है। इन्होंने अपने चित्रों में इतिहास के प्रभाव को दर्शाने के लिए सुलेखन विशेष रूप से प्राचीन सुलेखन का प्रयोग किया है। वैसे इस प्रकार के प्रयोग में सुलेखन महत्वपूर्ण न होकर चित्रकला के अन्य तत्त्व अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं, फिर भी किसी न किसी रूप में सुलेखन दिखाई अवश्य पड़ता है। उद्देश्य जो भी हो, मैं तो यही चाहता हूँ कि सुलेखन कि यह कला कैसे भी हो आगामी पीढियों तक पहुँचनी चाहिए। और आगामी पीढ़ियों की यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वे इस कला को पहचाने तथा और आगे बढ़ाने का प्रयास करें।

धन्यवाद।

सुरेश चंद्र जाँगिड़
सहायक आचार्य, चित्रकला विभाग, दृश्य कला संकाय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005

(हरिशंकर बालोठिया से डॉ. सुरेश चंद्र जाँगिड़ की यह बातचीत (साक्षात्कार) डॉ. सुरेश चंद्र जाँगिड़ के ‘राजस्थान के परंपरागत सुलिपिकार और उनका समकालीन चित्रकला पर प्रभाव’ विषय पर किये गये शोधकार्य का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इस शोध कार्य हेतु वित्तीय सहायता के लिए लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के सीड-ग्रांट प्रोजेक्ट का आभार ज्ञापित करता है। यह साक्षात्कार जून, 2023 के दौरान लिया गया था। साक्षात्कारकर्ता की अनुमति के बिना इसका कहीं अन्यत्र उपयोग (प्रकाशन) वर्जित है।)

दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देता हुआ यह साक्षात्कार एक पूरी परंपरा के माध्यम से सुलेखन की महत्ता को वर्तमान समय से जोड़ कर देखने की दृष्टि देता है। बधाई

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