कलाकार रामकुमार के चित्रों की अभिव्यक्ति
- विकास चन्द्र
(चित्र संख्या-1) , बनारस, तैल चित्र, 2002 |
शोध सार : कला-यात्रा एक निरन्तर चलने वाली अविराम अथक अनंत यात्रा है। यहाँ प्रस्थान बिन्दु और पड़ाव या यात्रा की समाप्ति के लिए कोई समय या स्थान विशेष (मंजिल) नहीं है और यात्रा भी कैसी- ’एक आग का दरिया है और डूब के जाना है’। बहते हुए जाएं या तैरते जाएँ‚ इसे परवशता कहें या हमारी स्वीकार्य प्रदत्त नियति-प्रायः भेद करना कठिन होता है। मेरी उपर्युक्त उक्तियाँ मेरे उत्साह और जिज्ञासा को प्रकट करती हुई सी भी लग सकती हैं लेकिन मेरा उद्देश्य ऐसा सोचने/कहने के पीछे उन तत्वों की तरफ इशारा मात्र है‚ जिसे देखते/समझते हुए‚ उनकी उपस्थिति महसूस करते हुए कलाकार को सृजनात्मकता बरकरार रखनी होती है। साकार और निराकार अभिव्यंजना तथा व्यक्त और अव्यक्त संवाद की समझ‚ स्थूल और सूक्ष्म के मध्य की विभाजन रेखा तलाशते हुए - कलाकार अपनी रचना प्रक्रिया जारी रखते हैं। अव्यक्त निराकार और सूक्ष्म के चित्रण। एक अजीब सी उलझन मेरी उक्ति है। वह एक भाव है‚ भावधारा है‚ संवेग है‚ तरंग है‚ गति है या ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। जो कुछ भी है प्रकृति के अवयव हैं और प्रकृति में हर जगह अनुभूति तो है - ज्ञेय नहीं है। वैसी स्थिति में चाक्षुष माध्यम में रंग‚ रेखा और विभिन्न रूपाकारों के संयोजन से‚ कलाकार क्या निरूपित कर रहा है‒ अथवा क्या अभिव्यक्त हो रहा है ׀ यह सब मन को उद्वेलित करने वाले कारक हैं। प्रस्तुत लेख में अमूर्त कलाकृतियों के माध्यम से भारतीय आधुनिक कला को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने वाले अमूर्त कलाकार रामकुमार के कलाकृतियों के बारे में उल्लेख किया गया हैं׀
बीज शब्द : अमूर्त, मूर्त, कलाकृति, वाराणसी, रंग, चित्र׀
मूल आलेख : मूर्धन्य चित्रकार रामकुमार भारत के उन प्रमुख अमूर्त कलाकारों में जाने जाते है जिन्होׄने भारतीय अमूर्त चित्रकला को विश्वस्तर पर नया आयाम दिया। रामकुमार के अमूर्त चित्रों का अंतराल व्यापक है। उनकी कलाकृतियों में आकाशीय या क्षैतिजवत विस्तार निर्बाध नहीं है उन कलाकृतियों में अक्सर कोई रूपाकार हस्तक्षेप करता है। जैसे पहाड़ी के ऊपर-नीचे झांकते हुए कहीं कोई घर दिख जाए, कोई पुराना मंदिर दिख जाए तो वह जिस तरह कुछ अंतराल अनुभव में हस्तक्षेप करता है, उसी तरह रामकुमार के कई रूपाकार एक अनंत लगने वाले अंतराल के बीच दखल देते हैं। चित्रों में अनुभवों को केन्द्रित करते हैं या कई ऐसे केन्द्र बनाते हैं जिनमें कई अनुभव समाहित दिखते हैं। रामकुमार के चित्रों में रास्तों, खण्डहरों, छतों, जल के विस्तार से जुड़े कई चाक्षुष रूप हम देखते हैं तो हमारे भीतर भी कई संवेदनाएं और स्मृतियाँ करवटें लेतीं हैं।(1)
(चित्र संख्या-2) शीर्षकहीन, तैल चित्र 1975
उनके इन्हीं भू-दृश्यों के संदर्भ में विजय शंकर जी (कला समालोचक) कहते हैं- ”जैसे शंख किसी जल प्राणी का अस्थिपंजर है, वैसे ही रामकुमार के भू-दृश्यों में चट्टानों के, कछारों के, भवनों के, गुम्बदो के प्राण परिवर्तित रूप में आँखें मिचमिचाते, कुछ अस्फुट से स्वर में बोलते, कुछ रंगों में ऋतु-फूल-पत्र-गंध बनाते सब मिलकर कुछ ऐसी रचनायें रचते हैं मानों पृथ्वी से असंख्य अदने मनुष्य को उनकी जमीन दिखा रहे हैं। यह एक समय में नदी के दोनों छोरों पर वास करने जैसा अनुभव है”।(2)
वास्तव में रामकुमार के चित्रों से दुनिया उभरती है, वह एक भीतरी दुनिया है, जिसे हम शब्दों के मार्फत तो बिल्कुल ही नहीं देख सकते हैं। रामकुमार ने वाराणसी की सोई हुई प्रकृति को जीवंत छन्दात्मकता से भर दिया है। बनारस के चित्र श्रृंखलाओं में गंगा को मुख्य रूप से ठहरे जल के भीतर प्रतिबिम्बित संसार यथार्थ के समानान्तर एक ऐसे संसार की रचना करते है, जो मूर्त से अमूर्त की और अग्रसित होता है। बाह्य रूपाकृति के माध्यम से हम वस्तु से भाव की ओर प्रेषित होता हैं। भाव से तात्पर्य बोध के उस बहुआयामी लोक से है, जहाँ पर भाव के रूप में हम दृश्य के स्थान पर त्रास को उभरता पाते हैं और इस प्रकार बनारस का सम्पूर्ण मिथकीय स्वरूप बनारस श्रृंखला के चित्रों के बीच से मूर्तित होने लगता है।
(चित्र संख्या-3), बनारस, तैल चित्र 1997 (चित्र संख्या4), शीर्षकहीन, तैल चित्र 2005
बनारस का अर्थ भारतीय मनोलोक में पौराणिक दन्तकथाओ द्वारा चित्रित ही नहीं है। उसमें एक ठोस संकेत भी है जो मोक्ष जैसे प्रश्नों से टकराता चलता है। गंगा प्रसाद विमल जैसे विद्वान् के शब्दों – में “आपके चित्रों में एक खास छाप उस उदारता की है जो भारतीय संस्कृति के पूज्यवादी ढाँचे का मेरुदण्ड है। बिना उदारता के मोक्ष जैसे विषय पर सोचा ही नहीं जा सकता है। एक कठमुल्ली उदारता अपने में उस एकतंत्र और स्वायत्त उदारता का वह अनुबोध पैदा ही नहीं कर सकती।(3)
रामकुमार की कलाभाषा अत्यन्त जटिल एवं बहुस्तरीय है, किन्तु अनुभावन के स्तर पर अत्यधिक संवेद्य कह सकते हैं, क्योंकि वह भाषा से अनुदित होकर भाषातीत अनुभव में व्यक्त होती है। संताप व जड़ता के बोध के भीतर अचानक कहीं से कोई स्फूर्त सा संकेत उनके चित्रों से उभरता है जो अर्थो की परिचित प्रतीतियो को तोड़ डालता है। कला का यह विस्मयकारी तथा इन्द्रियातीत अनुभव उनके चित्रों में इस प्रकार घुला है कि प्रत्यक्ष दर्शन के बिना अथवा चाक्षुषपान के बिना आप भावदशा के उस स्तर पर नहीं पहुँच सकते हैं। ऐसा क्यों है? यह एक विचलित करने वाली उहापोह -सी लगती है। पुनः विमल जी (कला समालोचक) के शब्दों में – “असल में रामकुमार ’चुप’ के सर्जक हैं। वे सन्नाटे के संवाद को रूपायित करते हैं और सन्नाटे के संवाद से तय करते हैं लोकोत्तर स्वातन्त्र्य को जिसे मैं उन्मुक्तता मानता हूँ”। (4) कुल मिलाकर कारण कुछ भी थे , परन्तु कला जगत् के लिए यह वरदान ही सिद्ध हुआ । हालांकि 1969 में पुनः उनकी कृति ‘खण्डहर’ में कुछ चिरपरिचित प्रश्न उठे हैं। जैसे कि तत्कालिक घटित घटनाओ से इनका कोई सम्बन्ध है अथवा मनुष्य की चिरकालीन आस्थावादिता, आदर्शवादिता के बिखरे हुए टुकड़े हैं, मानव समाज की समग्रता की भंगुर कामना का अवशेष मात्र । खण्डहर मात्र खण्डहर है या किसी समय ऊँची अट्टालिकाओं या दुर्गों का भग्न इतिहास दोहराते हुए अथवा किसी स्वप्न के भग्नावाशेष व्यक्ति मन की यह सहजता है कि वह किसी भी कलागत् अनुभव को अपने वैयक्तिक अनुभव से जोड़कर कर देखता है।(5) वस्तुतः कलाकार भी अपने वैयक्तिक अनुभव को विभिन्न कला माध्यमो द्वारा अभिव्यक्त करना चाहता है। अतः कला कभी- कभी सुरक्षात्मक उपायों की तरह कलाकार द्वारा प्रयुक्त होती है, वह तमाम निजी वेदनाओ , अनुभूतियो को व्यक्तित्व से निचोड़कर अपनी कला में रख देता है। वे भले ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे हों, परन्तु सैद्धान्तिक उत्साह की अपेक्षा मानवतावादी संवेदना से उत्प्रेरित होते रहे हैं। इस प्रकार स्वयं को प्रतीकात्मक चित्रण के एक प्रखर और शैलीकृत मुहावरे को समर्पित कर “त्रासद आधुनिकतावाद“ का एक नया आयाम प्रस्तुत किया।(6) इस प्रकार आत्मा के आन्तरिक निर्वासन का चुनाव कर स्वयं को¨ वह स्थान दिया जहाँ महान प्राकृतिक शक्तियो को प्रतिबिम्बित किया जा सके जिसने उन्हें बचपन से ही वशीभूत कर रखा था। निरन्तर रूपान्तरण की प्रक्रियाओ के प्रति जागरुक उन्हें उस आयाम पर पहुँचते हैं जहाँ वैयक्तिक आत्मा की व्यथा निर्माण और ध्वंस की सार्वभौम लय में परिष्कृत हो जाती है।(7)
90 के दशक की कृतियाँ एक केरल व जापानी इंक चित्रावलियों में विघटनात्मकता अथवा विसंरचना विशेष प्रभाव वाली है। न्यूनीकृत अनुपात की घनिष्ठता स्वयं से आत्मपरिचय का भ्रम उत्पन्न करती है, जैसे कलाकार द्वारा दशको से सावधानीपूर्वक रचा गया संसार उसके लिए अजनबी हो । संयोजन की अपेक्षा संकेतन की इस भाषा के भीतर पुनर्नवीकृत मिलन का आनन्द है। 1990 के दशक के वाराणसी चित्रों में घर की धारणा अब गंगा के अँधेरे में उठती विधवाओ का घर या झोपडी वाले कस्बे रेटिन की छत काली झोपडी की ही, मात्र नहीं रह गयी प्रत्यु शांत समाधि व नीरवता से भरे एक प्रांगण की हो गयी। यह ‘स्पेक्ट्रमी वाराणसी’ था, किन्तु गुंबद, तिरछी छतें, मेहराब, अरुचिकर, असंतोष के डेल्टा में डूबी हुई तैल, एक्रेलिक इत्यादि प्रत्येक रेखांकन में आपने वाराणसी को प्रतिक्षण अपने हृदय में अनुभूत किया है। दशक के उत्तरार्ध में बनाई गई चित्रावृत्तियाँ मकबरे का वास्तुशिल्प, नदी द्वारा निर्मित मंदिर - नगर के वास्तुशिल्प से स्थानान्तरित हुआ है। 1992 तक यह वास्तु शिल्प अपनी समस्त प्रासंगिकता के साथ मुखर हुआ है।(8)
रामकुमार का ‘मृत्यु‘ के प्रति चिन्तनशीलता व काशी का मोक्षदायिनी होना इस तरह के विचारों को समाहित कर अपने कलाकृतियों के माध्यम प्रस्तुत करना उन्हें कला जगत में एक अलग पहचान देता है । मकबरे पर रामकुमार के चिन्तन की जानकारी दिल्ली के लोदी व मुगल शव कक्षों के प्रति आपके अनुराग से भी प्राप्त होती है। एक ठंडे आतंक तथा मानवता के कार्यो के प्रति निरपेक्षण का भाव, मृत्यु की मूल प्रकृति के बारे में सोचने के लिए निरन्तर बाध्य करता है। इस समय उन्होन जिस शहर का आह्वान किया, वह कल्पनात्मक होने के साथ - साथ दिल्ली, वैजेन्टियम, रोम, एलेक्जेन्ड्रिया, वेनिस, मास्को ओर बगदाद जैसे शहरो से प्रेतात्माओ का आह्वान करता प्रतीत होता है।(9) नैरन्तर्य (निरंतर) की अपेक्षा प्रायः विरोधाभास, सांस्कृतिक उत्पादन के किसी क्षेत्र में जीवन शक्ति को परिभाषित करता है। यह आधार ही हमें इस बात को समझने में मददगार होगा कि उत्तर औपनिवेशिक भारत में क्यों बहुत- से कलाकार अपनी वैयक्तिक शैलीयों की स्वायत्तता पर जोर देते हुए अपनी पृष्ठभूमिक संस्कृति की सर्वाधिक गहरी अन्तः प्रेरणा के आलोचनात्मक प्रगटीकरण की और बढ़ रहे थे ।
रामकुमार को चित्रों में इस प्रकार का नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता है। चित्रकार के रूप में बौद्धिक आध्यात्मिक संकट से जूझते हुए भी आप निहित सौन्दर्यरक तथा शौलीपरक पूर्वाग्रह के साथ कला का ऐसा व्यापक मापदण्ड प्रस्तुत करते हैं जो उस समय की तत्कालीन राष्ट्रीय आधुनिकता को भलीभाँति प्रगट करता है। इस संदर्भ में रामकुमार रंगों के चित्रकार कहे जाते हैं। फिर भी उनके कभी- कभी कैनवास पर कितने कम रंग होते हैं। कभी- कभी तो एक ही रंग होता है जिसके भीतर कई रंग निवास करते हैं या एक रंग का आभास होते हैं। जो दरअसल, कई रंगों का ही एक रूप है। रामकुमार कभी- कभी सफेद रंग में ही सभी रंगों को ही उपलब्ध कर लेते हैं
(चित्र संख्या-5), अमूर्त भू-दृश्य, कागज पर एक्रेलिक, 2001
(चित्र संख्या-6), मठ लद्दाक, तैल चित्र, 2005
जैसे अपनी ही कक्षा में सूर्य के प्रकाश में सभी रंगों का प्रकाश समाहित रहता है या इसके उलट स्कूली कक्षाओं में प्रकाश के सात रंगों के चक्के को तेजी से घुमाने पर सिर्फ सफेद रंग दिखाई देता है, इसी तरह रामकुमार की एकरंगी मोनोक्रोमेटिक कृतियाँ अपनी सतह पर ही एकरंगी है और हम जानते हैं कि सतहें सिर्फ एक संसार का प्रवेश द्वार होती हैं। प्रकाश और रंग के प्राथमिक विज्ञान पर आधारित इस अवबोध की खूबी यह है कि वह उस प्राथमिकता को उतना ही जल्दी लांघ जाता है।(10)
रंगों का उनकी तस्वीरों में बहुत महत्व है। अपनी प्रारम्भ की तस्वीरों में वे चटक रंगों का प्रयोग नहीं करते थे। परन्तु 60 के दशक के बाद अपने चित्रों में चटक रंगों का प्रयोग करने लगे। इनमें कुछ रंग ऐसे भी हैं जो पहले नहीं दिखते थे। मसलन लाल, हरा आदि। चित्रों के रंगों में बदलाव के संदर्भ में उन्होंने कहा है कि- ‘‘बदले हुए रंग किन्हीं चीजों के प्रतीक नहीं हैं। मैं समझता हूँ कि लाल रंग भी उदास हो सकता है। अगर हम उदास रंगों की ही बात कर रहे हैं: वे प्रसन्न रंग ही तो नहीं लगते। ये रंग लाल, हरा आदि मेरे यहाँ अनायास ही आएं”। (11) ठीक वैसे ही जैसे एक समय अकृतियों की जगह अमूर्तता ने ले ली थी। रामकुमार प्रायः एक्रेलिक रंगों में काम करते हैं। वैसे उन्होंने प्रारम्भ में तैल रंगों में काम किया था। परन्तु एक्रेलिक की आभाएं अब उन्हें तैल रंगों की बनिस्पत ज्यादा पसंद था। वे प्रायः शुरू से कैनवास पर चाकू से रंग लगाते रहे हैं। यह आकस्मिक नहीं था। दरअसल इस तरह रंग लगाने से रामकुमार अपने अनुभवों को छील-तराश कर उन्हें कैनवास पर रखते हैं।(12)
बतौर चित्रकार व¨ कला के तीर्थयात्री हैं। 40 के दशक के उत्तरार्ध, ‘शिल्पी चक्र’ की बैठक¨ में हिस्सा लेते हुए उन्होंने अपनी यात्रा प्रारम्भ की तथा विभिन्न पड़ावों से होते हुए आज भी चलायमान है। रामकुमार की नवीनतम् कृतियाँ एक अन्य तरह के सामन्जस्य को¨ भी सत्यापित करती हैं। चूँकि सौन्दर्यपरक अनुभव, अन्ततः निर्वाण की अपेक्षा संसार के क्षेत्र के होते हैं। इसे मात्र संरचना की गम्भीरता से प्रकट नहीं किया जा सकता है। विषयासक्ति की ओर¨ बढ़ना; अपने आपको¨ सबसे कठिन तपस्या में प्रवेश कराना है। अपनी संवेदनशीलता के एक छोटे से हिस्से से अभिप्रेरित रामकुमार ने प्रायः “संरचनाओं के परीक्षक“ के रूप में व्यवहार किया है। साथ ही साथ आप अपनी संवेदनशीलता के दूसरे और रोमांटिक छो¨र से प्रद्वेलित करने की ओर भी प्रवृत्त होते हैं। रामकुमार की कृतियों को हम कई तरह से समझ सकते हैं, रंगों के एक बहुत संवेदनशील संसार की तरह जो किसी चित्रकार का बुनियादी काम होता है, एक ऐसे अमूर्तन की तरह जो किसी मूर्त अनुभव की ही स्मृति है, संगीत संरचनाओं की तरह जिनमें हल्के से स्थान परिवर्तन से या सीमित स्वरों से कितने ही वैविध्यपूर्ण राग निर्मित होते हैं और अन्ततः एक काव्यात्मक कृति की तरह जिसे सभी तरह की कलाओं का उद्देश्य माना गया है।(13)
निष्कर्ष : कलाकार रामकुमार अपने चित्रों में जिस तरह से रूपायित होते है या होना चाहता है , पीछे की पंक्तियों के माध्यम से मैंने प्रकाश डालने की भरकस चेष्टा की है ׀ अभिव्यक्ति के स्तर पर सृजनात्मक के स्त्रोतों, कारको एवं उनके मनोवैज्ञानिक पक्षों को शब्दों में ठीक तरह से उकेर पाना प्राय असम्भव जैसा ही है, फिर भी विभिन्न कोणों से प्रकाश डालने की चेष्टा रही है ׀
संदर्भ :
- प्रयाग शुक्ल, “वाराणसी और मेरे चित्र”, क कला संपदा एवं वैचारिकी, जुलाई-अगस्त 2003, अंक-5, नई दिल्ली, नवचेतन प्रिंट्स, प्रकाशन अनुराधा, पृ॰ सं॰ 12.
- विजय शंकर, “सफेद-की व्यथा”, ‘क’ कला संपदा एवं वैचारिकी, जुलाई-अगस्त 2003, अंक-5, नई दिल्ली, नवचेतन प्रिंट्स, प्रकाशन अनुराधा, पृ॰ सं॰ 03.
- गंगा प्रसाद विमल, क कला संपदा एवं वैचारिकी, जुलाई-अगस्त 2003, अंक-5, नई दिल्ली, नवचेतन प्रिंट्स, प्रकाशन अनुराधा, पृ॰ सं॰ 14.
- वही, 15
- Ramkumar,” Exhibition Catalogue”, Vadehra Art Gallery, New Delhi, 14-28 June, 2007, Pp. 11.
- रंजीत होस्कोटे, “आत्मा के निर्वासन को चुनते रामकुमार’’, क कला संपदा एवं वैचारिकी, जुलाई-अगस्त 2003, अंक-5, नई दिल्ली, नवचेतन प्रिंट्स, प्रकाशन अनुराधा, पृ॰ सं॰ 04.
- वही, 07
- वही, 08
- मंगलेश डबराल, “रामकुमार के स्पंदन” , कलादीर्घा, लखनउ, अप्रैल 2003, पृ॰ सं॰ 10.
- प्रयाग शुक्ल, “लाल रंग भी उदास हो सकता है”, कला विनोद, संपादक अशोक वाजपेयी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ॰ सं॰ 67.
- रंजीत होस्कोटे, “आत्मा के निर्वासन को चुनते रामकुमार’’, क कला संपदा एवं वैचारिकी, जुलाई-अगस्त 2003, अंक-5, नई दिल्ली, नवचेतन प्रिंट्स, प्रकाशन अनुराधा, पृ॰ सं॰ 13.
- मंगलेश डबराल, रामकुमार के स्पंदन, “कलादीर्घा, लखनऊ‘‘, अप्रैल 2003, पृ॰ सं॰ 12
विकास चन्द्र,
सहायक आचार्य, चित्रकला, इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़
दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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