शोध आलेख : दस्तावेजी फिल्म ‘कोड़ा राजी’ में चाय बागान का यथार्थ / अर्चना विश्वकर्मा एवं शिप्रा शुक्ला

दस्तावेजी फिल्मकोड़ा राजीमें चाय बागान का यथार्थ
- अर्चना विश्वकर्मा एवं शिप्रा शुक्ला

 

शोध सार : साहित्य, समाज और सिनेमा, ये एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कलम समाज के तकलीफों को बेपर्दा करता है तो कैमरा उस पर प्रकाश डालता है औरबड़े पैमाने पर उसे जनसामान्य के सामने प्रस्तुत करता है। वर्तमान समय में दस्तावेजी सिनेमा सांस्कृतिक अस्मिता को बचाने का सशक्त माध्यम है जिसमें उनकी आवाज़ प्रखर रूप से गूँज उठी है। दस्तावेजी सिनेमा के निर्देशकों ने उन क्षेत्रों, समुदायों पर दृष्टि डाली है जहाँ तक तथाकथित सभ्य लोगों की एक नज़र भी नहीं पड़ती। ऐसे ही निर्देशकों में नाम आता है झारखंड के बिजू टोप्पो जी का जिन्होंने अपने दस्तावेजी फिल्म के जरिए बहुत से अनछुए पहलुओं को उजागर किया है। उनकी  दस्तावेजी फिल्म  ‘कोड़ा राजीचाय बागान तैयार वाले आधार,मजदूरों की दयनीय दशा को दर्शाता है। इस शोध पत्र में दस्तावेजी फिल्म कोड़ा राजी में वर्णित चाय बागान के समाज को, वहाँ की जीवनशैली को, विस्थापन के दर्द को तथा मजदूरों की अवस्था को जाना समझा जाएगा।

 

बीज शब्द : दस्तावेजी फिल्म, विस्थापन, चाय बागान, आदिवासी जीवनशैली, त्रासदी, भूखमरी।

 

मूल आलेख : साहित्य और समाज का घनिष्ठ संबंध होता है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्यकार समाज से ही साहित्य की विषय वस्तु ग्रहण करता है और जन-मानस के सुख-दुख को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त  करता है। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं - “प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है।”1 अंततः कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। साहित्य केविभिन्न विधाओं में जैसे-नाटक , निबंध, उपन्यास, कहानी कविता, आत्मकथा आदि विधा को हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला,नेपाली, सादरी आदि बहुत सी भाषाओं में समाज के विभिन्न तबके पर प्रकाश डाला गया है, उन्हीं बहुत सारे तबके में से हैं चाय बागान समाज जिसे साहित्य की बहुत सारी विधाओं में प्रस्तुत किया गया है साथ ही सिनेमा में भी चाय बागान के यथार्थ को दिखाया गया है। दृश्य माध्यम की एक प्रमुख विधा के रूप में सिनेमा ने आज समाज के हर वर्ग तक अपनी गहरी पहुंँच बनाई है। साहित्य, समाज और सिनेमा एक दूसरे से नाभिनालबद्ध है  यह कहेतो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है और समाज में घटित घटनाओं को ही सिनेमा में दर्शाया जाता है। डॉ हरिश कुमार कहते हैं कि - “साहित्य में जहां साहित्यकार विभिन्न पक्षों से प्रभावित होता हुआ साहित्यिक रचना करता है वहीं सिनेमा निर्देशक उस साहित्यिक कृति को मूल रूप में रखते हुए ऐसा नया रूप देता है कि जिससे वह जीवंत और प्राणवान हो उठती है।”2 अतः साहित्य समाज औरसिनेमा का गहरा संबंध है। सिनेमा के बहुत सारे प्रकारों में से एक है दस्तावेजी सिनेमा। आधुनिक युग में दस्तावेजी सिनेमा को आंदोलन के रूप में देख सकते हैं जो हमें फिल्म जगत की चकाचौंध से परे वास्तविकता से रूबरू कराती है। दस्तावेजी सिनेमा स्क्रिप्टेड नहीं होता और ही इसे सिनेमाघरों में दिखाया जाता है बल्कि दस्तावेजी सिनेमा में किसी क्षेत्र,संस्था, समुदाय, संस्कृति के विषय में प्रमाणिक तथ्य प्रस्तुत किए जाते है, सूचना और शिक्षा इसके केन्द्र बिन्दु  है। प्रमोद मीणा दस्तावेजी सिनेमा के विषय में लिखते हैं -”दस्तावेजी सिनेमा या डॉक्यूमेंट्री संज्ञा में ही तथ्यात्मकता और प्रमाणिकता का अर्थ ध्वनित होता है।”3

 

दस्तावेजी फिल्म में निर्देशक  के रूप में बीजू टोप्पो कानाम महत्वपूर्ण है। झारखंड के छोटे से गाँव से जुड़े बिजू टोप्पो की ख्याति आज अंतरराष्ट्रीय स्तर तक है। उन्होंने पचास से भी अधिक दस्तावेजी फिल्म बनाई है जिसमें मुख्य रूप सेशहीद जो अनजान रहे’(1986), ‘कोड़ा राजी’ (2005), ‘सोनागाछी पिंजरा’ (2011), हंट, ‘नाची से बाची’ (2017) प्रसिद्ध है। निर्देशक बिजू टोप्पो जी ने बातचीत के दौरान बताया कि उनके इतने सारे दस्तावेजी फिल्म में उन्हेंकोड़ा राजीसबसे प्रिय है। कोड़ा राजी को नौवीं मुंबई अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव मेंबेस्ट नेशनल  डॉक्यूमेंट्रीमें  द्वितीय स्थान मिला था। कोड़ा राजी के विषय में आलोचक मनोज कुमार सिंह लिखते हैं कि, “कोड़ा राजी वृत्तिचित्र के माध्यम से बीजू टोप्पो जोर आजमाइश और दबाव के जरिए हुए झारखण्ड के आदिवासियों के विस्थापन को आसाम के चाय बागान तक ले जाते हैं। आसाम के बागानों में ले जाए गए दलित आदिवासी आज भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।”4 कोड़ा राजी कुंँडुख़ भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है कोड़ने या रोपने के लिए दूसरे क्षेत्र, राज (राज्य)जाना। असम औरभूटान (वर्तमान पश्चिम बंगालके‌‌ चाय बागानों में चाय बागान उत्पादन हेतु लोगों को झारखंड और अन्य जगहों से ले जाया जाता था इसलिए चाय बागान क्षेत्र को लोग कोड़ा राजी कहते थे और आज भी इस क्षेत्र के लोग अपने गाँव समाज से बाहर कमाने जाते हैं तो उसे कोड़ा कमाने जा रहे हैं ही कहते हैं। 2005 में बनी दस्तावेजी फिल्मकोड़ा राजीमें चाय बागान के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का खुलासा किया है।

 

1834 में राबर्ट ब्रूस और उनके साथियों ने मिलकर चीन से उन्नत चाय के बीज और कुछ चीनी मजदूरों को भी लाकर असम के चबुआ में नर्सरी की और इस तरह 1836 में देश का पहला चाय बागान जयपुर बागान तैयार हुआ। चाय की खेती के लिए कुछ कारीगर और चाय की खेती के विषय में जानकार श्रमिक चीन से ही लाया गया और साथ ही असम के ही कुछ जनजाति को भी शामिल किया गया।  धीरे धीरे चाय से होने वाले मुनाफे को बढ़ाने के लिए असम, पश्चिम बंगाल में चाय उत्पादन क्षेत्र को बढ़ाया गया असम औरबंगाल उन दिनों घने जंगलों से भरा था वर्षा बहुत अधिक होती थी अतः कई तरह के कीड़े मकोड़े और बिमारियां उन इलाकों में आम थी। चीनी मजदूर यहाँ के मौसम को झेलने में असमर्थ हो गए ऐसे में अंग्रेजों को अपना व्यापार बढ़ाने के लिए सस्ते और मेहनती मजदूरों की जरूरत थी इसलिए उन्होंने बाहर से कुल्ली (मजदूर) लाना शुरू किया। चाय बागान केकुल्ली के रूप में ऐसे लोगों को चुना गया जो गरीब, दरिद्र , मेहनती और निम्न जाति के थे भूखमरी और महामारी से जिनका परिवार जूझ रहा था आदिवासी क्षेत्रों में जब अंग्रेजों ने पैर जमाने की कोशिश की तब उन्हें कई विद्रोह का सामना करना पड़ा था, पहाड़ीया विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, सिपाही विद्रोह, विश्व उलगुलान तथा जतरा भगत के टाना आंदोलन तक लम्बी लड़ाई चली इस दौरान अंग्रेजों, जमींदारों, महाजनों के शोषण और अत्याचार ने बड़ी संख्या में आदिवासीयों कोचाय बागान जाने के लिए मजबूरकिया जो इनके लोकगीत में भी सुनने को मिलती हैं इस फिल्म में उसे मार्मिक रूप से दर्शाया गया है

 

जमीदारी परिया हाथी घोड़ो रहचा

आलारिन चलो -चलो बाचार रे

बेस हुआ रे जमीदारी भाईया

धोतियां संभाइर हरा जोताए रे

धोतियां संभाइर पटा माराय |”5

 

(अर्थात जमींदारी समय में हाथी घोड़ा था आदमियों को बागान की ओर चलो चलो कहा अच्छा ही हुआ अब धोती सम्हाल के हल जोतना पड़ेगा, पटा मारना पड़ेगा)

 

कुल्ली लाने के लिए सरदार टोली का गठनहुआ जिन्हें अड़काटी या दलाल भी कहा जाता था। ऐसे लोगों को सरदार बनाया जाता जो चालाक चतुर थे जिन्हें स्थानीय भाषा का ज्ञान था कंपनी के लोगों ने  ‘टी  डिस्ट्रिक्ट लेबर एसोशिएशन’  के नाम से देश भर के भिन्न-भिन्न जगह जाकर 'डिपू घर' का निर्माण किया अर्थात् ऐसा स्थान जहाँ लोगों को  इकट्ठा करके चाय बागान में काम करने का फायदा और सुविधा का प्रलोभन दिया जाता। लोहरदगा, गुमला,राँची, हजारीबाग आदि कई जगहों में मजदूर सप्लाई के लिए डिपू घर बनाया गया। इस दस्तावेज़ी फिल्म में लोहारदागा और हजारीबाग के डिपू घर को दिखाया गया है। लोगों कोबहला फुसलाकर चाय बागान की ओर खींचने का काम सरदार टोली का ही था। डिपू घर में अधिकांश कुल्ली जमा हो जाने के बाद उन्हें रेल में बंद करके असम और भूटान के चाय बागानों में भेड़-बकरियों की तरह ले जाया जाता था उनके लोकगीतों में भी यह देखने को मिलती हैं उपर्युक्त भाव से ध्वनित पंक्तियां दृष्टव्य हैं -

 

असम राजी कादर

भूटान राजी कादर

जनम जुग पर ओर कमाल रे

जनम जुग पर ओर कमाल |”6

 

(अर्थात् असम भूटान जा रहे हैं जीवन में कभी फिर वापस लौटेंगे या नहीं )

अपनेमूल स्थान को छोड़कर लोगों ने रोजगार की तलाश में चाय बागान की ओर प्रस्थान तो किया पर उन्हें बहुत सारे कष्टों का सामना करना पड़ा। चाय बागान की ओर निकलेआधे लोग तो जाते समय प्रतिकूल मौसम की मारसे, भूख और रोग के कारण रास्ते में ही मरगए लेकिन जाने का क्रम रूका नहीं। बाद के दिनों में झुंड से झुंड लोग कोड़ा राजी पलायन कर गए

 

हरे रेला काली

पटरी पटरी रेल काली रे

रेला तिम ऐते दुरबिन्ती ऐरे

चाय बगान हरियारो ऐथ्री रे

कोंहा कोंहा पन्न पेंदा

चाय बगान हरियार

लेदेम लेदा अतेखान तोखेय रे ”7

 

(अर्थात, पटरी से रेलगाड़ी जा रही है / रेल से उतरकर दुरबिन से देखने पर चाय बागान हरा-भरा दिखाई देता है / बड़े बड़े पेड़ों के नीचे चाय की हरी-हरी कोमल पत्तियां तोड़ेंगे)

 

गंतव्य में पहुंचनेकेबाद भी उनके लिएउचित व्यवस्था नहीं थी, खाना कम मिलता था औरकाम ज्यादा करना पड़ता था।  उनपर अत्यधिक शोषण और अत्याचार  होता था भागनेकी कोशिश करने पर भी दर्दनाक सज़ा दी जाती थी उनके ऊपर मालिकों का ही हक था एक तरह से  वे लोग गुलामी की जिंदगी ही जी रहे थे आलोचक ननी भट्टाचार्य लिखते हैं कि -”एक कप चाय लाखों मजदूरों के खून और पसीने से भरा हुआ है।”8

 

1947 के देश विभाजन के दौर की पलायन की त्रासद घटना से तो लोग अवगत हैं लेकिन उससे भी कई वर्ष पूर्व चाय बागान की ओर पलायन करने वाले कुल्लीयों की भयावह स्थिति से अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं आज भी उनकी स्थितियां कुछ खास परिवर्तित नहीं हुई है। औपनिवेशिक काल में अफ्रीका, एशिया, अमेरिका और लैटिन अमेरिका के मूल निवासियों को अपने स्थान से विस्थापित कर दास बनाया गया था उन्हीं दासों जैसी स्थिति कुछ कुछ चाय बागान मजदूरों की आज भी है, कंपनी द्वारा जो घर मिलता है उसपर उनका मालिकाना हक नहीं है वे वापस लौट जाए इसलिए उन्हें खेती करने के लिए थोड़ी सी जमीन मिली थी इसपर भी उनको आजतक रैयती हक नहीं मिल सका है। बागान के लोग अपने को जड़ों से उखड़ा हुआ महसूस कर रहे हैं और उनकी पहचान चाय बागान कुल्ली के रूप में बन गई है। अपनी भूमि से ही वे लोग कट गए है। बिजू टोप्पो ने कहा कि - "यह दुखद है, ये लोग खुश नहीं हैंयह सुनिश्चित नहीं हैं कि उन्हें अपने मूल स्थानों पर वापस जाना चाहिए या नहीं। आदिवासी असुरक्षित हैं और उन्हें नहीं पता कि उन्हें स्वीकार किया जाएगा या नहीं, क्योंकि वे इतने लंबे समय से अपने रिश्तेदारों को झारखंड में छोड़कर दूर रह रहे हैं।”9 अपनी भूमि से ही वे लोग कट गए हैं गीत में उनकी पीड़ा इस तरह अभिव्यक्त हुई है -

असम भोटांग बरेचन राजी दुनिया अम्बरा

जन्म जुड़ा किर्रोन का माला रे

जियदागा सुचाई राजी दुनिया किर्रोन

अक्कून होले एड़पा पाली मंजा रे |”10

 

(अर्थात - असम भूटान आए देश दुनिया छूट गया/ जीवन भर वापस जा पाऊंगी या नहीं/ मन तो चाहता है कि देश लौटूंगी/ लेकिन अब तो यही घर द्वार हो गया है)

 

चाय बागान मजदूर घर का घाट का होकर रह गए हैं। असम में तो आदिवासी लोगों को शेड्यूल ट्राईब का दर्जा नहीं मिला है जिसके कारण वे सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं उन्हें टी ट्राईब या चाय जनगोष्ठी कहा जाता है। उनकी अहमियत मात्र वोट बैंक होकर रह गई है। चाय बागान से कई सारे नेता भी निकले लेकिन उनकी समस्याओं के समाधान की ओर किसी की नज़र नहीं पहुँच सकी। चाय बागान के लोग शिक्षा के लिए अभी भी उतने जागरूक नहीं है वहाँ लोगों की ऐसी मानसिकता बनी हुई है कि बच्चों की उच्च शिक्षा में पैसे क्यों बर्बाद करें उन्हें तो बाद में बागान में ही काम करना है अतः बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो रहा है वे आगे बढ़ ही नहीं पा रहे। अभी भी चाय बागानों में बी. . पास लोगों की संख्या बहुत कम है। चाय बागान में काम करने आए मजदूर समुदाय के लोग आज कुछ कुछ क्लर्क के पोस्ट पर हैं लेकिन मैनेजर या बड़े ओहदे पर नहीं।

 

भारत से चाय पत्ती का निर्यात से सालाना करोड़ों रूपए की आमदनी होती है लेकिन फिर भी बहुत सारे बागान बंद हो रहे हैं। मजदूरों को कम वेतन देना पड़े इसलिए कुछ जगहों पर : महिने काम होता है और : महिने काम बंद कर दिया जाता है। बागान बंद होने पर मजदूरों को अत्यधिक परेशानियों से जुझना पड़ता है। बागान के आस-पास ऐसे कुछ संसाधन भी नहीं है जिससे उन्हें रोजगार मिल सके। निर्देशक बिजू टोप्पो ने  बंद चाय बागान के कुछ स्थानीय लोगों का साक्षात्कार भी लिया है जिसे इस दस्तावेजी फिल्म में दर्शाया गया है  मजदूर बताते हैं कि - बंद बागान में मजदूर बिना वेतन के बहुत दिनों से फैक्ट्री की रखवाली कर रहे हैं। कंपनी के सामान को बचा रहे हैं। बागान कब खुलेगी, कब उनकी समस्याएं सुलझेगी इसकी कोई खबर नहीं है।

 

बहुत सारे लोग बिना खाना, उपचार के मर गए। अस्पताल में दवा नहीं रहता, ही डॉक्टर रहते हैं। बंद बागान में राशन, बिजली, पानी की भी दिक्कत है। बागान बीच में खुलता भी है तो उन्हें वेतन आधी मिलती है ऐसे में वे लोग घर की चींजों को बेच बेचकर खाना जुटा पाते हैं।

 

चाय बागान में मजदूर संघ की राजनीति भी चलती रहती है। समय-समय पर वहाँ जो नीतियां होती है उनमें प्रबंधन और राजनीतिक सांठगांठ से कई बार स्थानीय लोगों की मुक्ति नहीं हो पाती है। ऐसे मामलों को लेकर कभी-कभी विवाद या हिंसक घटना हो जाती है। इसका एक उदहारण है-दलगांव की घटना, जिसमें 19 चाय बागान मजदूर मारे गए थे। वरिष्ठ पुलिस अधिकारीचयन मुखर्जीने बयान देते हुए कहा कि, ”कम से कम 500 लोगों ने सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन के एक अधिकारी के घर पर धावा बोल दिया। हमलावरों ने अधिकारी के घर के अलावा नजदीक के तीन और घर कोजला दिया, आगजनी के बाद वहाँ आपसी संघर्ष भी हुआ और दोनों तरफ से गोलियां भी चली। उन्होंने बताया कि श्रमिकों के बीच झगड़ा बागान में होने वाली भर्तियों को लेकर था।”11

 

अतः निर्देशक बिजू टोप्पो जी ने चाय बागान के मजदूरों के विस्थापन के दर्द,संघर्ष, दीनहीनता, बेरोजगारी और उनकी वास्तविक दशा को बड़े ही बेबाकी से दिखाया है उन्होंने साक्षात्कार में कहा भी कि , चाय बागान की समस्या ही उनकी कोड़ा राजी बनाने की मूल प्रेरणा रही। 2005 में बनी दस्तावेजी सिनेमा कोड़ा राजी में चाय बागान की जो भयावह स्थिति को दर्शाया गया हैपर इतने वर्षों के बाद भी चाय बागान की स्थिति बदली नहीं है। आजडिजिटल इंडियाबनाने की होड़ तेजी से बनी हुई है लेकिन उसी इंडिया के किसी कोने में स्थित चाय बागान में बिजली और नेटवर्क जैसी समस्या का लोग सामना कर रहे हैं।

 

 

संदर्भ :


  1. रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, आगरा साहित्य सरोवर2008, पृष्ठ संख्या-15
  2. डॉ हरिश कुमार, सिनेमा और साहित्य, दिल्ली संजय प्रकाशन,2018.पृष्ठ संख्या-11
  3. गौरीनाथ, हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन, गाजियाबाद,2019, पृष्ठ संख्या-103
  4. मनोज कुमार सिंह,भूमण्डलीकरण के दौर में दस्तावेजी सिनेमा.हिन्दी सिनेमा: दलित आदिवासी विमर्श..प्रमोद मीणा.दिल्ली अनन्य प्रकाशन-2016, पृष्ठ संख्या-106.
  5. कोड़ा राजी. निदेशक.बिजू टोप्पो. देखा 10/01/2024. (प्रात: 6 बजे) https://youtu.be/BxhKqSFXAv8?si=eA9F53xAsQJxQbW7
  6. वही
  7. वही
  8. ननी भट्टाचार्य, चाय बगीचा मजदूर आन्दोलन का इतिहास और चाय मजदूरों की समस्याएं, डुआर्स चाय बागान वर्कर्स यूनियन (कालचीनी), जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल, 1973, पृष्ठ संख्या-5.
  9. फिल्म फोकस ऑन माइग्रेशन मिसरी - ग्लोबल अवॉर्ड फॉर गार्डन डॉक्यूमेंट्री टेलीग्राफ इंडिया. देखा 20/08/24 (सुबह 8:30 बजे) https://www.telegraphindia.com/west-bengal/film-focus-on-migration-misery-global-award-for-garden-documentary/cid/1077396.
  10. कोड़ा राजी.निदेशक.बिजू टोप्पो .देखा  10/01/2024.( प्रात: 6 बजे) https://youtu.be/BxhKqSFXAv8?si=eA9F53xAsQJxQbW7
  11. बी.बी.सी हिन्दी -पश्चिम बंगाल में 21 को जिंदा जलाया. देखा 12/9/24 (सुबह 5 बजे). https://www.bbc.com/hindi/regionalnews/story/2003/11/printable/031106_west_bengal_arson

 

 

अर्चना विश्वकर्मा
शोधार्थी, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर- 784028
archubiswa123@gmail.com
 
शिप्रा शुक्ला
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर- 784028
shiprajji@gmail.com
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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