शोध आलेख : भारतीय शास्त्रीय चित्रकला में नव-शास्त्रीयता के बीज / संदीप कुमार मेघवाल एवं दिव्या त्रिपाठी

भारतीय शास्त्रीय चित्रकला में नव-शास्त्रीयता के बीज
- संदीप कुमार मेघवाल एवं दिव्या त्रिपाठी

चित्र-1 वायड़ा बंधु की वरली चित्रण

शोध सार : भारतीय संस्कृति में लोकशास्त्रीय कला परंपरा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पारंपरिक एवं लोक शास्त्रीय कलाएं केवल धरोहर ही नहीं बल्कि भारतीय आधुनिक संस्कृति में भी प्रासंगिक है। भारतीय लोक-कलाएं इतनी सादी एवं सरल हैं, कि वे किसी वाद, तकनीक या औद्योगीक विकास में संलयित होकर भी उन्मुक्त पोषित रही हैं, इतिहास में समस्त कलाएं अपने समकाल से आवृत रही हैं। भारतीय शास्त्रीय कलाएं भी समकालीन कलाकारों के सृजन की विषय-वस्तु बनकर अपने अस्तित्व को नया रूप देती रही है। भारतीय लोक शास्त्रीय कला समय अनुसार प्रभावित रही हैं। यह प्रभाव कई परिपेक्ष्य से देखा जा सकता है, रेखा, रंग, ज्यामितिय रूप सरलता, विषय-वस्तु एवं तकनीक द्वारा नए कलेवर में दृष्टिगोचर होता रहा है। इस शोध आलेख में भारतीय लोक शास्त्रीय चित्रकला में आधुनिकता के प्रश्न पर विचार किया हैं। आधुनिक संलयन से लोक शास्त्रीय कला में समकाल के आग्रह से विकसित हुई भारतीय नव-शास्त्रीय चित्र शैली पर ध्यानाकर्षित किया हैं। लोक शास्त्रीय कलाएं सिर्फ गाँव-खेड़े की कला न रह कर, अपना स्थान कला-दीर्घा और सरकारी कला संस्था के माध्यम से सौन्दर्य अभिप्राय बन रही है। इस शोधपत्र में हम ठेट शास्त्रीय चित्रकला के विधि विधान बनाम आधुनिक नव-शास्त्रीय चित्रकला के आवरण पर पुनर्विचार किया हैं।

बीज शब्द : शास्त्रीय, नव-शास्त्रीयता, चित्रकला, लोक-कलाएं, पारंपरिक- कलाएं, गाँव-खेड़े, ज्यामितीय, आदिमकला, धार्मिक-अनुष्ठान, आधुनिकता,।

मूल आलेख : भारत एक समृद्ध संस्कृति वाला देश है। यहाँ कलाएं शास्त्रीय एवं लोक कला की विविध परंपरा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। भारतीय शास्त्रीय एवं लोक-कला मानव संस्कृति की उपज के साथ ही मानव की सौंदर्यात्मक भावनाओं की परिचायक है। यहाँ की लोक-परंपरा में भावनात्मक एवं सौन्दर्यात्मकता का समन्वय है। भारतीय लोक एवं परंपरागत कलाओ का मूल ध्येय एवं सर्जन का उद्देश्य आत्मिक शांति , मांगलिक कार्यों , मान्यताओ , कथाओ , तीज-त्योहारों आदि का मानव समाज के समक्ष सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है।

शास्त्रीय-कला से तात्पर्य हैं, जो हमारे पौराणिक शास्त्रों में दर्ज है, और उसकी पारंपरिक संचरण से हमारे सम्मुख आज भी अभिव्यक्ति हो रही हैं। इसके कई ज्ञात-अज्ञात एवं मौखिक श्रोत है, जैसे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गुफा-चित्र, लघु-चित्र एवं भारत की प्रमुख लोक- पारम्परिक कलाओं से हैं। यह शास्त्रीय कलाएं आज लोककला जो ग्रामीण क्षेत्रों के रीति-रिवाज,धार्मिक-अनुष्ठान एवं परम्पराओ में अभिव्यक्त है। जनसामान्य के अन्तःमन के सौंदर्यवृत्ति से प्रकट रूपों को लोक शास्त्रीय कला के अंतर्गत अभिव्यक्त किया जाता हैं। आज भारत के विभिन्न राज्यों की अपनी-अपनी लोककला है – उत्तरप्रदेश की चौकपुरना , मध्यप्रदेश की भील और गोंडकला ,बिहार की मधुबनी, महाराष्ट्र की वर्ली, उड़ीसा के पटचित्र, बंगाल की कालीघाट क्षेत्र के पटचित्र, आंध्रप्रदेश की कलमकारी, झारखंड की जदोपट चित्रण इत्यादि हैं।

भारतीय परंपरागत शास्त्रीय चित्रकलाओ में मूलतः अजंता, एलोरा और लघु चित्रों का योगदान प्रमुख रहा हैं। इनके विषयवस्तु, तकनीक और माध्यम में भारतीयता की झलक स्पष्ट दिखायी पड़ती है। परंपरागत लोक शास्त्रीय कलाओ की विषयवस्तु पौराणिक, धार्मिक तथा लोकजीवन से संबंधित होती है। लोक-कला परंपरागत कलाओं का प्रतिबिंब है, जो अपनी सरल, सहज अभिव्यक्ति के साथ जन-सामान्य के समक्ष नए रूपों में प्रस्तुत होती है। लोक-कलाएं प्रेरणा- स्रोत बनकर मार्ग-दर्शक की भूमिका निभा रही है। यह कहना गलत नहीं होगा, कि आधुनिक कलाएं, शास्त्रीय-कलाओं से प्रेरित हो रही है। आज भी उसी प्रेरणा से आधुनिक कला नए रूप और तकनीक से लोक संप्रवाह का अन्वेषक रही है।

पाश्चात्य चित्रकला में भी शास्त्रीय-कलाओ ने पूर्व आधुनिक चित्रकारों को प्रभावित किया, जैसे नवशास्त्रीयतावाद के कलाकारों ने “चित्रकला में ग्रीक कला को आदर्श के रूप में सम्मुख रख कर नई चित्र कला शैली को जन्म दिया, प्रसिद्ध फ्रेंच चित्रकर जॉब डेविड ने किया जिसको नवशास्त्रीयतवाद नाम से प्रसिद्धि मिली” (1)। इस शैली के अधिकतर चित्रों के विषय ग्रीक पुराणों या रोमन कथाओं से लिए गए हैं एवं उस काल की पृष्टभूमि पर अंकित किए गए हैं उत्तर आधुनिक में अफ्रीका की आदिवासी-कला ने पिकासो को प्रभावित किया, पॉल गाउगिन ने तहीतीय कला से प्रेरणा ली, “ हेनरी-मातीस ने अपने जीवन काल में पर्शियन कला, इस्लामिक कला, बाईजेन्टाइन प्रतिमा चित्रों से प्रेरणा ली” (2) तथा प्रभावित होकर, नए वादों के उदय में अपना योगदान दिया जो क्रमशः घनवाद, प्रतीकवाद और फाववाद है।

आधुनिक परिप्रेक्ष से भारतीय लोक शास्त्रीय चित्रकलाओ पर ध्यान मूल रूप से 19वी शताब्दी के समय में दृष्टिगत होता है। इससे पहले इस चित्रकला लोक अनुष्ठान की पर्याय मात्र थी लोक शास्त्रीय कलाओ की ओर ध्यान देने का उद्देश्य तत्कालीन परिवेश में विद्यमान विचारधाराओ के कारण हुआ। यद्यपि स्वतंत्रता आंदोलन के समय में उपस्थित विचारधारा स्वदेशी अपनाओं के कारण ही मुख्यतः भारतीय परंपरागत कला और लोक शास्त्रीय कलाओं का अस्तित्व सामान्य जनों के समक्ष नए रूपों में प्रस्तुत किया गया। इस समय ई. वी. हैवेल और अबनीन्द्रनाथ टैगोर के प्रयत्नों से भारतीय शास्त्रीय चित्र एवं विषय-वस्तुओ का प्रयोग कलाकारों के कृतियों में हुआ। इनके विचार वेदों की ओर लौटो थे। इससे भारतीय शास्त्रीय चित्र परंपरा का आधुनिक दृष्टि से सृजन हुआ। सर्वप्रथम यामिनी रॉय के कृतियों में लोक-कला के दर्शन होते है, ये बंगाल के कालीघाट चित्रों से प्रभावित थे, इनके विषय-वस्तु दैनिक-जीवन से संबंधित थे। इसी क्रम में जानी-मानी महिला कलाकार “अमृता शेरगिल, पहाड़ी शैली की बसोहली लोक-कला से प्रभावित हुई”(3) नारायण श्री बेंद्रे की नारी आकृतिया बसोहली लोक-परंपरा से प्रेरित मानी जाती है। मध्यप्रदेश के S. H. रज़ा के कृतियों में ज्यामितीय आकार लोकतत्व की ही देन है। M. F. हुसैन के चित्रों में आड़ी-तिरछी रेखाए भी लोक-कला के रेखाओ जैसी प्रतीत होती है। तमिलनाडु के प्रसिद्ध चित्रकार K.C.S. पनिक्कर के चित्रों में उपस्थित तांत्रिक भाव में लोक-कलाओ की रंग और रेखाओ के दर्शन होते है। महाराष्ट्र की महिला चित्रकार बी. प्रभा के चित्रों में उपस्थित नारी आकृतिया भी लोक-कलाओ से प्रभावित प्रतीत होती है। समकालीन कला में लोक-कलाओ की बात की जाए तो हम जे स्वामीनाथन को कैसे भूल सकते है, इनके द्वारा स्थापित “भारत- भवन के रूपांकन (आदिवासी कला संग्रहालय) एक मात्र ऐसा स्थान है, जहां आधुनिक कलाकृतिया तथा लोक-कलाकृतिया एक साथ संग्रहीत तथा प्रदर्शित की जाती है”(4) इसका पूरा श्रेय जे. स्वामीनाथन को जाता है। इन्होंने आदिवासी कलाकारों के चित्रकर्म को ख्याति दिलाने के लिए ही आदिवासी म्यूजियम में आदिवासी कलाकारों के चित्रण कार्यों को प्रदर्शित कराया, जिससे उनकी कला को सम्पूर्ण दुनिया देख सके।

वर्तमान में कार्यरत बहुत से आधुनिक एवं समकालीन कलाकारों की प्रेरणा लोक शास्त्रीय कलाएं रही है। लोक-तत्वों का प्रयोग समकालीन कलाकारों द्वारा अपने चित्रों में अनूठे तरीकों से किया जाता है। इस प्रकार हमे नवीन शैली के दर्शन होते है, नई शैली में लोक-तत्वों, विषय-वस्तुओ तथा तकनीकों का आधुनिकता के साथ समन्वय से लोक-कलाओ के नवीन स्वरूपों का निर्माण किया जा रहा है। वर्तमान समय में लोक-कलाए सिर्फ गाँव-खेड़े की कला नहीं हैं, ये अब अपना अस्तित्व कला-दीर्घाओ, सरकारी संस्थाओ और कला आयोजन देश-विदेश में प्रदर्शनों से समकालीन कला परिदृश्य के समांतर खड़ी हैं। विभिन्न लोक शास्त्रीय कलाओ में कार्यरत प्रमुख कलाकारों को सरकार द्वारा सम्मानित भी किया जा रहा हैं। ये कलाकार भारत के गौरव को बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे है, तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अपने कृतियों द्वारा आकर्षण का केंद्र बने है।

वर्तमान समय में भारत सरकार द्वारा लोक शास्त्रीय कलाओ को संरक्षित तथा बढ़ावा देने के लिए बहुत से हस्तनिर्मित उद्योग तथा हस्तकला केंद्रों की स्थापना की जा रही है। इन पहल के परिणाम स्वरूप लोक-कलाओ में कार्यरत कलाकारों को प्रोत्साहन मिल रहा है, जिससे वे अपनी कलाओ को लोक-जन के समक्ष बिना किसी बाधा के प्रस्तुत कर रहे हैं।

भारतीय आजादी के आंदोलन के दौरान अवनीन्द्रनाथ टैगोर के सानिध्य में भारतीय पुनर्जागरण चित्रों की ओर रुख हुआ, जो भारतीय आधुनिक चित्रकला कहलाता हैं। लेकिन इसके इतर भारतीय शास्त्रीय चित्र परंपरा का अपना सांस्कृतिक अस्तित्व हैं। जैसे लोक आदिम चित्र, लघु चित्रण शैलीया शास्त्र एवं पारंपरिक मानकों पर सृजनशील हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस शास्त्रीय कला में भी कालांतर में परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इस विषय पर ध्यानकर्षित हेतु कुछ भारतीय शास्त्र बद्ध कलाकारों के सृजन का विश्लेषण किया हैं। इस कलात्मक शोध विश्लेषण में भारत की शास्त्रीय कला जैसे गोंड जनजाति कला मध्य प्रदेश, फड़ चित्रण राजस्थान, मधुबनी चित्रण बिहार, वर्ली जनजाति कला महाराष्ट्र, राजस्थान की लघु चित्र एवं भील चित्रण शास्त्रीय परंपरा में पुनर्मूल्यांकन किया हैं।

वेंकट रमन श्याम -मध्यप्रदेश गोंड चित्रकार –

वेंकट रमन श्याम 7 वर्ष की आयु से ही चित्रकारी करते आ रहे है। यह मध्य प्रदेश की गोंड जनजाति के कलाकार हैं। इनके चाचा जनगढ़ श्याम ने इन्हे चित्रकारी करने के लिए प्रोत्साहित किया तथा वेंकट श्याम के आरंभिक शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात भोपाल आने को कहा। इनकी पहली पेंटिंग “देवी खेरो माई” की थी, ये वो देवी है, जो बुरी आत्माओं से गाँव की रक्षा करती है। समकालीन कलाकार जे स्वामीनाथन द्वारा भी इन्हें बहुत प्रोत्साहना मिली। वेंकट श्याम ने संस्कृति विशिष्ट चित्रकारी से लेकर अत्यधिक अमूर्त विषयों तक सभी कुछ चित्रित किया। “उनका मानना है की किसी भी कलाकार को परंपरा की मान्यता रखने वाली विषय-वस्तुओं में अवश्य ही एक नवीनता लानी चाहिए” (5)। (चित्र संख्या-2)

अपने तीन से चार दशकों के कलात्मक सफर के दौरान अपनी कला-कृतियों में आधुनिक तथा परंपरागत शैलीगत प्रभावों, दोनों को एकीकृत किया है। वेंकट श्याम ने भारत तथा कई यूरोपीय देशों की विस्तृत यात्रा की है, जहां उनकी कृतियों को प्रदर्शित किया गया है। वर्ष 2002 में इन्हें मध्यप्रदेश सरकार द्वारा राज्य हस्तशिल्प पुरस्कार से सम्मानित किया गया। (चित्र संख्या-2) जनगढ़ श्याम की कृति में श्वेत श्याम रंगों का प्रयोग किया गया है, जबकि चित्र संख्या-3 वेंकट श्याम की कृति में रंगों का प्रयोग किया गया हैं। जनगढ़ श्याम के चित्र की विषय-वस्तु पारंपरिक गोंड चित्र (पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे आदि), जबकि वेंकट श्याम के चित्र की विषय-वस्तु पारंपरिक गोंड चित्र से भिन्न है, इनके चित्रों में धरती माता को अमूर्त रूप में तथा साथ में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पहाड़ और नदी चित्रित किया हैं। जनगढ़ श्याम के चित्रों में गोंड चित्र के शास्त्रीय परंपरा के दर्शन होते हैं, तथा वेंकट श्याम के चित्रों में गोंड शास्त्रीय परंपरा के विषय-वस्तु के साथ अमूर्त विषय के संयोजन से इनके चित्रों में नव-शास्त्रीयता की झलक दिखाई देती हैं। इनकी कला में शास्त्रीय कला के तत्वों का प्रयोग हैं, लेकिन शास्त्र शुद्धता के अभाव से जाक डेविड के नवशास्त्रीय प्रयोग की तरह इस नए विधि-विधान युक्त कला को नव शास्त्रीय गोंड कला कहा जा सकता हैं।

 
चित्र संख्या-2,जंनगढ़ श्याम                             चित्र संख्या-3, वेंकट श्याम

कल्याण जोशी, राजस्थान के फड़ चित्रकार –

कल्याण जी बताते हैं “कि फड़ चित्रकला भीलवाड़ा, राजस्थान की लोक शैली है, जिसमें पाबूजी और देवनारायण की कथाओं के अनुसार पारंपरिक और प्राचीन रंगों से चित्रकारी की जाती है”(6)। कल्याण जोशी बचपन से ही फड़ चित्रकारी करते आ रहे है। उन्होंने यह काम अपने पिता जी पद्म श्री श्रीलाल जोशी पारंपरिक तरीके से सीखा और “वे कहते है, कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम उनके परिवार में सदियों से चल आ रहा है”(6.1)। कल्याण जी की प्रारम्भिक शिक्षा भीलवाड़ा में हुई। फिर आगे की पढ़ाई के लिए बड़ोदरा के ललित कला संकाय चले गए। वहाँ के गुरुजनों की सलाह से वह अपना काम ( फड़ चित्रकारी ) करने का फैसला किया और वह भीलवाड़ा लौट आए। तब से ले कर आज तक वे फड़-चित्रण के साथ नई कहानियाँ बनाकर प्रयोग करते आ रहे, इन नई कहानियों और नई पेंटिंग के ज़रिये उन्होंने इस कला जगत में अपनी एक नई पहचान बनायी। उनका मानना है फड़ चित्रों का प्रयोग हमेशा संदेश देने के लिए किया जाता है। आज भी वे अपने काम के ज़रिये लोगों को किसी खास मुद्दे पर जागरूक करने का प्रयास करते है।

इसके अलावा उन्होंने कई विषयों जैसे- चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा वोट पाने के लिए राज्य सरकार की मदद करना, पानी बचाने का संदेश देने के लिए चित्र बनाना और फड़ चित्रों में कई आधुनिक प्रयोग भी किए है। कल्याण जी कहते है –“कि कोविड के समय में भी उन्होंने फड़ पेंटिंग बनाई जिसके माध्यम से उन्होंने लोगों को सावधानी बरतने का संदेश दिया”(7)। उन्होंने इस बीमारी के शुरूआत से लेकर इसके विकराल रूप लेने तक की पूरी कहानी को अपने चित्रों में दर्शाया और लोगों को जागरूक किया। इनके चित्रों में लोक शास्त्रीय कला की परंपराओं के साथ आधुनिकता का अंतःप्रवाह देख सकते है। (चित्र संख्या-4) श्री लाल जोशी की कृतियां पारंपरिक फड़ चित्रकला की प्रतिनिधित्व करती है, साथ ही इनके चित्र में पौराणिक शास्त्रीय कथाओं के दर्शन प्राप्त होते हैं, जबकि (चित्र संख्या-5), कल्याण जोशी के चित्र में पौराणिक कथा के किसी एक भाग की ही प्रस्तुति देखने को मिलती है। इनके चित्र नई-नई आधुनिक कहानियाँ, संदेशों और किसी मुद्दों पर जागरूकता के विषयों पर भी हैं। यही प्रयोग शास्त्रीय परंपरा के अलावा नवशास्त्रीयता रूप दिखाई देते हैं, क्योंकि जिस प्रतिमान के लिए यह शास्त्रीय चित्र परंपरा बनी थी, जैसे धार्मिक अनुष्ठान हेतु वह विषय-वस्तु समय काल में बदली है। यही नवशास्त्रीय फड़ चित्रण के बीज हैं।

 
चित्र संख्या-4, श्री लाल जोशी                  चित्र संख्या-5, कल्याण जोशी

दुलारी देवी, बिहार की मधुबनी चित्रकार -

दुलारी देवी मधुबनी लोक-कला की महिला चित्रकार है। इनका आरंभिक जीवन कष्टमय व्यतीत हुआ। ख्याति प्राप्त कलाकार महासुन्दरी देवी के कलाकर्म से प्रभावित होकर उन्होंने अपने घर के आँगन को लीपकर उस पर चित्र बनाने की शुरुआत की। “कुछ महीने पश्चात जब भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय ने महासुन्दरी देवी के घर मिथिला पेंटिंग का एक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया, तब महासुन्दरी देवी ने दुलारी देवी को प्रशिक्षित किया”(8)। दुलारी देवी को मिथिला कला के कचनी और भरनी दोनों ही शैलियों में चित्र बनाने में महारत हासिल हैं। इनके चित्रों में उनके परिवेश, समाज, रीति-रिवाज और माहौल आदि का पता चलता है। उन्होंने मछुआरा समाज के जीवन, संस्कारों और उत्सवों पर भी चित्र बनाए। खेतों में काम करने वाले किसान, मजदूर, गरीबों का दुख-दर्द , बाढ़ की विभीषिका जैसे सामान्य विषयों को अपने चित्रों में स्थान दिया। दुलारी देवी ने बैंगलोर के अनेक शिक्षण संस्थानों और सरकारी, गैर-सरकारी भवनों की दीवारों पर चित्रण किए, साथ ही देश के विभिन्न राज्यों- तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में आयोजित मिथिला चित्रकला की कार्यशालाओं में हिस्सा लिया। मिथिला कला में विशिष्ट योगदान के लिए दुलारी देवी को अनेक सम्मान प्राप्त हुए है। (चित्र संख्या-6) महासुन्दरी देवी के चित्र में मिथिला कला की परंपरा दृष्टिगत होती हैं और मिथिला कला में देवी-देवता के चित्र और पौराणिक विषयों पर आधारित चित्र बनाए जाते हैं। (चित्र संख्या-7) दुलारी देवी के चित्र में दैनिक-जीवन की घटनाओं के कई दृश्यों को साथ ही आधुनिक विषयों में गाड़ी तथा नाव को भी चित्रित किया गया है,इसलिए इनके चित्रों में मिथिला कला परंपरा से हट कर नव शास्त्रीय मिथिला कला परंपरा के दर्शन होते हैं।

 
      चित्र संख्या-6, महासुन्दरी देवी                                             चित्र संख्या-7, दुलारी देवी

मयूर और तुषार, वायड़ा बंधु, महाराष्ट्र के वर्ली कलाकार –

“वर्ली एक जनजातीय हैं, जो भारत के महाराष्ट्र में निवास करती है। इनके द्वारा बनाए चित्र वर्ली चित्रण कहलाते हैं”। महाराष्ट्र के गंजड़ गाँव से आए युगल कलाकार को वयड़ा बंधु (मयूर और तुषार) के नाम से जाना जाता है, जो सामुदायिक जीवन की अपनी यादों और अवलोकनों को अपनी कला में बड़े उत्साह से उकेरते रहे है। “ग्रामीण जीवन के तेजी से बढ़ते औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का मुकाबला करने के लिए ‘जंगल प्रोजेक्ट’ के हिस्से के रूप में हरित पहलों के बारे में जागरूकता फैलाने का कार्य बहुत ही कुशलतापूर्वक कर रहे है”(9)।

इनका कार्य और वर्ली कलाकारों से भिन्न है, क्योंकि इनके चित्र में वर्ली के तत्वों के साथ विषय-वस्तु में सामाजिक मुद्दा, दैनिक-जीवन और शहरों की ऊंची-ऊंची इमारतों आदि का चित्रण हुआ है। इनके चित्रों में आधुनिकता सिर्फ कल्पना से नहीं, बल्कि आस-पास की वास्तविकता और अनुभवों से पैदा होती है। वयड़ा बंधुओं ने दुनिया भर में स्मारकीय भित्ति-चित्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज किया हैं। इनके चित्रों में लोक और समकालीन कला के बीच की सीमाओं को तोड़कर आगे की ओर अग्रसर हो रहे है। (चित्र संख्या-8), पद्मश्री जिव्या सोमा मशे के चित्र में वर्ली के शास्त्रीय परंपरा के विषय (ऋतुए, शादी, उत्सव, जन्मोत्सव और धार्मिकता) पर आधारित हैं, जबकि (चित्र संख्या-9) में वयड़ा बंधु के चित्र विषय में आधुनिकता को वर्ली के आकृतियों के माध्यम से अपने कृति में चित्रित किया है। वायदा बंधु ने वर्ली परंपरा के विषय-वस्तु से हटकर नए एवं समकालीन विषयों को अपने चित्रों में सम्मिलित किया हैं। वयड़ा बंधु के चित्रों में नवशास्त्रीय वर्ली चित्रकला के दर्शन होते हैं। क्योंकि वर्ली चित्रण परंपरा शास्त्रीय दर्शन के मूल विचार से दूर है।

  
          चित्र संख्या-8, जिव्या सोमा मशे                                                     चित्र संख्या-9, वयड़ा बंधु

वीरेंद्र बन्नू जी, राजस्थान के लघु चित्रकार -

वीरेंद्र बन्नू जी का परिवार सात पीढ़ियों से जयपुर ढूँढार में लघु चित्रकला का काम करता आ रहा है। इनके प्रारम्भिक चित्रों में लघु चित्र के विषय-वस्तु दृष्टिगत होते थे, परंतु अभी के कार्यों में आधुनिक विषयों को दिखाया गया है। इनके चित्र भारत के कई व्यक्तिगत एवं सरकारी संस्थानों में प्रदर्शित हुए है। इनके नाम से “वीरेंद्र जी बन्नू स्कूल” भी है, जिसमे महत्वाकांक्षी कलाकारों को लघु चित्रकला की शिक्षा दी जाती है। आज भी इनके कृतियों में प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है। इनके चित्रों की नायिकाओं के आभूषणों पर बहुत ही बारीकी से काम किया जाता है। इनके चित्रों में शास्त्रीय विषय-वस्तु के साथ आधुनिक उपकरणों को भी शामिल किया गया है। (चित्र संख्या-10), बन्नू जी के चित्र में लघु चित्र परंपरा के विषय-वस्तु पर बने हैं तथा इनके चित्र में शिव जी के साथ पार्वती जी को चित्रित किया गया हैं। बन्नू जी के कृतियों में लघु चित्र परंपरा के शास्त्रीय रूप को देखा जा सकता हैं। इनके बेटे वीरेंद्र बन्नू के चित्र (चित्र संख्या-11) में स्त्री आकृति के साथ अत्याधुनिक उपकरणों को भी चित्रित किया गया हैं। वीरेंद्र बन्नू के चित्रों में लघु चित्रों के शास्त्रीय परंपरा के साथ नव शास्त्रीय लघु चित्र विषयो को एक साथ प्रस्तुत किया गया हैं। इसलिए हम वीरेंद्र बन्नू के चित्र को नव शास्त्रीय लघु चित्र परंपरा कह सकते है।

 
                                    चित्र संख्या-10, बन्नू जी                                                 चित्र संख्या-11, वीरेंद्र बन्नू

भूरी बाई, मध्यप्रदेश की भील जनजातीय चित्रकार-

भूरी बाई भील मध्य प्रदेश की समुदाय से आती हैं, यह भीलों की प्राचीन कला “पिथौरा कला” की महिला चित्रकार है। यह पिथौरा चित्रण करने वाली अपने समुदाय की पहली महिला हैं और साथ ही वह पहली कलाकार है, जिन्होंने कैनवास और कागज़ पर पिथौरा चित्रकारी की और प्राकृतिक रंगों के स्थान पर एक्रिलिक रंगों का प्रयोग किया। भूरी बाई के चित्रों में शास्त्रीयता के साथ-साथ नव-शास्त्रीयता भी दिखती है। इनके चित्रों में पेड़-पौधे, पक्षी, घास, कच्चे-घर, जानवर आदि को तो बनती ही है, साथ ही वह हवाई-जहाज, ट्रेन, टीवी, कार, बस आदि भी बनाती है। भूरी बाई शुरुआती दौर में चित्रकारी मन के सुकून के लिए करती थी बाद में जे स्वामीनाथन के दिशा निर्देशन पर वह चित्रकारी करने लगी। (चित्र संख्या-12) लड़ो बाई के चित्र में भील की प्रारम्भिक स्वरूप का दर्शन होता हैं, जिसमें पेड़-पौधों के साथ पशु-पक्षी बने हैं जो भील की शास्त्रीय परंपरा को दर्शाती हैं। (चित्र संख्या-13) भूरी बाई के चित्र में पेड़-पौधों, पशु-पक्षी के साथ हवाई जहाज को भी बनाया गया हैं, इनके चित्र में भील चित्र परंपरा के साथ समकालीन विषयों को भी अपने चित्रों में स्थान दिया, इसके फलस्वरूप हमे भील परंपरा के नवीन स्वरूप के आग्रह को देखा जा सकता हैं। इसलिए इनके चित्रों को हम नव शास्त्रीय भील परंपरा के अंतर्गत रख सकते हैं।

  
 चित्र संख्या- 12, भूरी बाई                                                चित्र संख्या-13, लाड़ो बाई

निष्कर्ष : भारतीय लोक-कलाओं का अस्तित्व आदिकाल से हैं, इसका विकसित रूप आज हम वर्तमान समय में देख रहे हैं, इनकी भावनाएं और सौन्दर्य अब एक नए आयाम के साथ लोक-जन के समक्ष प्रस्तुत हैं। परंपरा और आधुनिकता का संगम लोक शास्त्रीय कलाओं के रूप-आकारों के साथ आधुनिक विषय-वस्तुओं का प्रयोग कलाकारों द्वारा किया जा रहा है। यह समय काल अनुसार संभव है वैश्वीकरण के दौर में सभी प्रगतिशील होना भी चाहिए सभी का अधिकार है तभी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार संभव होगा। लेकिन शास्त्रशुद्ध कलाओं में नव विधि-विधान से उसकी शुद्धता पीछे छूट जाती हैं। इस पर भी हमे विचार कर संरक्षित करना चाहिए। क्योंकि हम कला के मूल सत्य से कोसों दूर चले जाते हैं। उपर्युक्त तथ्यों से यह बात सिद्ध होती है, कि आज विश्व कला जगत में भारत की लोक तथा परंपरागत कलाओ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विभिन्न राज्यों की विशिष्ट लोक-कलाओं के माध्यम से भारतीय समकालीन कलाकार सम्पूर्ण विश्व में भारत का नाम उज्वल कर रहे है, और भारतीय कला को सम्मान दिला रहे है। समकालीन कलाकार पश्चिमी कला को त्यागकर अपनी गौरवशाली लोक शास्त्रीय कला को अपनाकर नए-नए प्रयोगों द्वारा नवीन शैली का निर्माण कर रहे है। भारतीय लोक शास्त्रीय कलाओं का परंपरागत और आधुनिकता के साथ अनूठा संलयन दृष्टिगत हो रहा हैं। इस शोध-पत्र का उद्देश्य लोक-कलाओं में आधुनिकता और समकालीन का संप्रवाह पर विश्लेषण करते हुए नवशास्त्रीय शैली की स्थापना की है।

लोक-कला की परंपरा में रेखा और रंग की निरन्तरता प्रतिबिंबित होती है, वर्तमान समय में कलाकारों द्वारा इन आकारों की सुंदरता से भली-भाँति परिचित हैं। इन आकारों का नए रूपों के साथ संलयन से नवीन शैली का निर्माण हो रहा है। हमे अपनी लोक-कलाओ के प्रति उदार भावना रखनी चाहिए क्योंकि इन्ही में हमारी परंपरा और संस्कृति विद्यमान है। लोक शास्त्रीय कला में आधुनिकता एवं समकालीन विषयों पर सैकड़ों शोध कार्य दिखाई देते है। लेकिन लोक शास्त्रीय कला में नवशास्त्रीय विषय पर अभी तक ध्यान नहीं गया हैं। आधुनिक एवं समकालीन शब्द प्रयोग भारतीय पुनर्जागरण आधुनिक कला के लिए ठीक है। लेकिन शास्त्रीयकला में आधुनिकता का प्रयोग करना सटीक नहीं हैं। क्योंकि आधुनिक और शास्त्रीय कला में शाब्दिक भेद कैसे करेगे इसलिए शास्त्रीय कला में समय काल के परिवर्तन को नवशास्त्रीय कला से संबोधित करना उचित हैं। इस शोध पत्र में भारतीय नवशास्त्रीय चित्रकला की स्थापना का निष्कर्ष निकाला है।

संदर्भ :
  1. समकालीन कला में लोक कला का प्रभाव, निधि (शोधार्थी), मेरठ ISSN NO- 0976-7444
  2. लोक कला बनाम आधुनिक कला :लोक तत्वों के अविरल प्रवाह के परिप्रेक्ष्य में -असिस्टेंट प्रोफेसर, संगीत गुप्ता, चित्रकला विभाग, M H PG, कॉलेज, मुर्दाबाद P:ISSN NO- 2321290X
  3. भारतीय लोक कला- प्राचीन परंपरा से आज तक – मुश्ताक अली, ISSN NO- 2347-2944
  4. प्रमोद शेखावत: भारतीय चित्रकला ,शिक्षादीप प्रकाशन, 2015, पेज संख्या-80, 81
  5. वासुदेव शरण अग्रवाल: कला और संस्कृति, साहित्य भवन, 2006, पेज संख्या-201, 204
  6. श्याम सुंदर दुबे: लोक परंपरा, पहचान एवं प्रवाह, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2011, पेज संख्या- 53, 56
  7. विनय कुमार: समकालीन लोककला, विजया प्रकाशन, 2018
  8. डॉ. ममता सिंह: दृश्यकला और लोककला के मूल तत्व एवं सिद्धांत, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, 2015
  9. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
  10. Feminism in India https://feminisminindia.com/
  11. डॉ श्याम बिहारी अग्रवाल: कलागुरु अभिनंदन ग्रंथ, 2024
  12. डॉ रीता प्रताप: भारत की लोक कला, अतिशय कलित जयपुर, 2012
  13. कृष्णदेव उपाध्याय: लोक संस्कृति की रूपरेखा, लोक भारती प्रकाशन, 2014, पेज संख्या- 29, 30
  14. समकालीन कला अंक,15-16, ज्योतिष जोशी

संदर्भ चित्र :
  1. https://images.app.goo.gl/RdH99AjdMYhYirAs7
  2. https://images.app.goo.gl/stN4ecfWkn1EVbn3A
  3. https://www.instagram.com/p/C52VQV9o6qt/?igsh=MTM0ZmZuOHBnOXlpdQ==
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संदीप कुमार मेघवाल
सहायक आचार्य, दृश्यकला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
sandeepart01@gmail.com, 9024443502

दिव्या त्रिपाठी
शोधार्थी, दृश्यकला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
divya.net16@gmail.com


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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