स्वतंत्र्योत्तर भारतीय भाषाओं का सिनेमा और तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य
- नितेश मिश्र
सिनेमा जिसे मनोरंजन का प्रमुख साधन माना जाता रहा है का सृजन भारत में शुरू भले ब्रिटिश साम्राज्य के क्रूर शासन को कुछ देर के लिए भुला देने के लिए हो रहा था, जिससे लोग थोड़ी ही देर ही सही अपने कठिन जीवन से ध्यान हटा आनंद महसूस कर सके। वहीं स्वतंत्र्योत्तर भारतीय सिनेमा मनोरंजन प्रधान होते हुए भी सिर्फ़ गल्प नहीं था। उसका सृजन एक आज़ाद देश और संस्कृति के बीच हो रहा था। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक एमके राघवेंद्र ने अपनी पुस्तक, द पॉलिटिक्स ऑफ हिंदी सिनेमा इन द न्यू मिलेनियम: बॉलीवुड एंड द एंग्लोफोन इंडियन नेशन में इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे हिंदी सिनेमा ने स्वतंत्रता के बाद भारतीयों को खुद को एक राष्ट्र के रूप में देखने में मदद की जो उन्हें एक साथ बांधती है। स्वतंत्रता के बाद के शुरूआती कुछ दशकों की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों जैसे राज कपूर की आवारा (1951), बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953), महबूब खान की मदर इंडिया (1957), और गुरुदत्त की प्यासा (1957) तथा अंदाज़ (1949), नया दौर (1957), और हावड़ा ब्रिज (1958) आधुनिक भारत के आदर्शों से जुड़े द्वंद्व को दर्शाने में सफल रहीं - डॉक्टरों, इंजीनियरों आदि के माध्यम से आधुनिकता का अच्छा पक्ष और जुआरियों, कैबरे डांसरों आदि के व्यंग्यचित्रों के माध्यम से आधुनिकता का बुरा पक्ष दिखाया गया। हिंदी सिनेमा अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच आवाजाही कर रहा था। जबकि स्वदेशी सरकार होने के बावजूद लोग जीवन स्तर में किसी तरह का अंतर चिह्नित नहीं कर पा रहे थे ठीक उसी समय सिनेमा इस दुर्धर्ष परिवर्तन को दर्ज कर रहा था। सिनेमा ने उत्तर-औपनिवेशिक भारत में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को दर्शाने से कभी परहेज नहीं किया, जैसे कि भारत-चीन युद्ध की निराशाजनक वास्तविकता को उजागर करना, 1960 के दशक के मध्य में हरित क्रांति से जुड़ा उत्साह, 1960 के दशक के उत्तरार्ध में इंदिरा गांधी का जबरदस्त उदय, 1970 के दशक में उनकी बढ़ती लोकप्रियता और आपातकाल के 21 काले महीनों के बाद 1977 के आम चुनावों में उनकी करारी हार, 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन जैसे क्षेत्रीय संघर्षों का उदय, और 1990 के दशक के प्रारंभ में पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में आर्थिक उदारीकरण, जिसने वैश्वीकरण के एक नए युग की शुरुआत की। वह मनोरंजन या अच्छेपन की सीमा त्यागकर शीघ्र ही कुछ और भी करने लगा था। वह उस वास्तविकता को रेखांकित कर रहा था जो उस समय अवास्तविक सी जान पड़ती थी। इस अवास्तविक सी जान पड़ती वास्तविकता को कुछ प्रमुख भारतीय फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों की कथावस्तु बनाया है। जिनमें प्रमुख हैं- बंगाली साहित्य और सिनेमा के अद्भुत चितेरे सत्यजित रे, तेलुगु समाज एवं संस्कृति को अपनी फिल्मों की विषयवस्तु बनाने वाले बी.नरसिंग राव, मलयालम जन की आकांक्षाओं और सांस्कृतिक परिवर्तन को रेखांकित करने वाले अडूर गोपालकृष्णन, असमिया भाषी जनता के जीवन के सुख-दुःख को विषयवस्तु बनाने वाले जाह्नू बरूआ और हिंदी क्षेत्र में घट रहे सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन को दर्ज करने वाले सईद अख़्तर मिर्जा।
सत्यजित रे- बीसवीं सदी के विश्व की महानतम फिल्म हस्तियों में एक सत्यजित रे थे। उनके संबंध में प्रसिद्ध जापानी निर्देशक अकिरा कुरोसावा ने कहा था- ‘बिना सत्यजित रे का सिनेमा देखे इस दुनिया में जीवित रहना वैसा ही है जैसे बिना सूरज और चाँद देखे’। उन्होंने अपनी कई फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनाई है, जब साहित्य भी भारतीय समाज के उत्तर औपनिवेशिक चुनौतियाँ से जूझ रहा था। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के दो उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ के आधार पर उन्होंने तीन फिल्में ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपराजिता’ और ‘अपूर संसार’ बनाई। एंडसे लिंडरसन ने लिखा कि ‘पाथेर पांचाली जीवन की एक व्यापक महागाथा है। इसे कई दशकों बाद एक बार फिर से देखना घुटनों धूल में चलकर भारतीय यथार्थ और मानवीय दशा के ह्रदय में उतरना है। विविधता और खुलेपन में भारत की लज्जा नहीं बल्कि गौरव है जिसकी शिक्षा सत्यजित रे ने दी।’ वास्तव में यह फ़िल्म भारतीय समाज का एक नग्न यथार्थ है। जिसे पूरी जीवंतता के साथ पर्दे पर उतारा गया। यह एक गरीब गाँव का संपूर्ण अनुभव है जिसे भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सभी गाँवो का प्रतिनिधि माना जा सकता है। जहाँ ‘पाथेर पांचाली’ में अपू एक बालक है वहीं ‘अपराजितो’ में वह बड़ा हो रहा है और जिज्ञासु है-नए अनुभवों के लिए बेचैन है। यहाँ बड़े होते बेटे और माँ के प्रेम का अंतर्विरोध है। जिसकी उत्तरकथा ‘अपूर संसार’ है। सामाजिक यथार्थ को बिना ग्लैमराइज किए प्रस्तुत कर पाना आज भी भारतीय सिनेमा की चुनौती है। रे के पास वह दृष्टि और कौशल था कि वे स्वतंत्र्योत्तर भारतीय समाज के बदलते परिदृश्य को पर्दे पर उतार सके।
सत्यजीत रे अपनी फ़िल्मों में जिस विरासत को लेकर चल रहे थे वह बंगाल का पुनर्जागरण भी था। राजा राम मोहन राय, केशवचंद्रसेन, रवींद्रनाथ टैगोर ने जिस संस्कृति और दर्शन को प्रतिष्ठित किया था सत्यजीत रे ने उसी विचारधारा को आत्मसात किया और उसे ही अपने सिनेमा में अभिव्यक्त किया। टैगोर के उपन्यास ‘घरे बाइर’ और ‘नष्टनीड’ पर क्रमशः ‘घरे बाइर’ और ‘चारुलता’ का निर्माण किया। जहाँ बदलते सामाजिक दर्शन का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। परशुराम की कहानी पर ‘महापुरुष’, शंकर के उपन्यासों पर क्रमशः ‘सीमाबद्ध' और ‘जनअरण्य‘, सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यासों पर ‘अरण्येर दिनरात्रि‘ और ‘प्रतिद्वंद्वी’ तो इब्सन के नाटक ‘An Enemy Of The People’ पर ‘गणशत्रु’ बनाई। राय के रचना संसार में ‘अरण्येर दिनरात्रि' तत्कालीन जीवन मूल्यों और नई पीढ़ी के युवाओं को समझने का पहला प्रयास है। ‘प्रतिद्वंद्वी‘ एक आदर्शवादी युवक की कहानी है जहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के कई दशकों बाद बेरोजगार युवक का आक्रोश है। रे की ‘कलकत्ता त्रयी’ में भ्रष्ट समाज में सामाजिक चेतना की मृत्यु तो आख़िरी त्रयी(गणशत्रु, शाखा प्रशाखा, आगंतुक) जिसे विष्णु खरे लगभग आत्मकथात्मक कहते हैं में मानव सभ्यता और संस्कृति के प्रति एक विकट चिंता दिखाई देती है। सुरंजन गांगुली के शब्दो में, “कलकत्ता त्रयी(फ़िल्में)... नए शहरी भारत के नैतिक और आध्यात्मिक पतन का वर्णन करती हैं। नेहरू के लिए, यह शहर, भारत के भविष्य और आधुनिकता के विकास के लिए खड़ा था। ‘त्रयी’ उस सपने के टूटने एवं संपूर्ण सांस्कृतिक लोकाचार की मृत्यु दिखाती है।”
वस्तुतः सत्यजित रे का सिने संसार स्वतंत्र्योत्तर भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिंतन का दस्तावेज है। जहाँ मानव जीवन और उसके विविध आयामों पर विस्तृत चर्चा हुई है।
बी. नरसिंग राव- तेलुगु सिनेमा के ‘रेनेसाँ मैन’ कहे जाने वाले बी. नरसिंग राव ने अपनी फ़िल्मों के माध्यम से तेलुगु समाज एवं संस्कृति में एक नयी चेतना भरी। उनकी फ़िल्मों में तेलुगु लोक जीवन की समस्याएं सम्पूर्ण जीवंतता के साथ अभिव्यक्ति हुई है। बंधुआ मजदूरी, जातीय एवं सामंती शोषण, निज़ाम शासन के अत्याचार(रज़ाकार) आदि उनकी फ़िल्मों के प्रमुख विषय रहे हैं। गौतम घोष द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘मां भूमि’, जिसके लेखन में बी. नरसिंग राव ने सहयोग किया, उसकी कथावस्तु चालीस के दशक के तेलांगना किसान विद्रोह से जुड़ी है। स्वयं नरसिंग राव के शब्दों में, “मां भूमि सामंतवाद के सभी रूपों के खिलाफ किसान आंदोलन के बारे में थी; जिसमें जमींदारी प्रथा, वेट्टि चाकरी(बंधुआ मजदूरी) और भूमि का मुद्दा मुख्य रूप से शामिल थे लेकिन साथ ही यह फ़िल्म संसार के उन सभी अन्यायों के खिलाफ़ थी जो इस ग्रह पर लगभग हर धर्म, संस्कृति और हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में मौजूद है।” राव ने अपनी फ़िल्मों में उन सामाजिक संस्थानों को कठघरे में खड़ा किया जिनका संबंध तेलांगना के सामंती अतीत से रहा है। शोषितों के प्रति गहरी सहानुभूति राव की कलाकृति में हर जगह व्याप्त है। मां भूमि से लेकर दासी तक उनकी हर फ़िल्म मानवीय रिश्तों, अन्यायों और सामंती उत्पीड़न का चित्रण करती हैं। जहाँ राव ने मां भूमि में सामंतवाद के बेलगाम उत्पीड़न को दर्शया वहीं ‘माटी मानुशुलु’ में श्रमिकों के पलायन एवं उनके शहरी शोषण का चित्रण एवं ‘रंगुला कला’ में एक कलाकार के आत्मसंघर्ष का चित्रण किया जिसने पूँजीवादी व्यवस्था के समक्ष आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया था। अपनी फ़िल्मों में राव ने सामान्य जन के जीवन संघर्षों का चित्रण बिना किसी नाटकीयता के साथ किया। बी. नरसिंग राव अपने सिनेमा के बारे में कहते हैं, “सभी फ़िल्में इस उद्देश्य के साथ बनाई गयी हैं कि हाशिये के लोगों के जीवन बोध में परिवर्तन आये।” वस्तुतः राव ने अपनी प्रतिबद्धता और सिनेमा के माध्यम से तेलुगु समाज एवं संस्कृति को निरंतर समृद्ध किया।
अदूर गोपालकृष्णन- अदूर को भारतीय सिनेमा में सत्यजित रे का उत्तराधिकारी माना जाता है। इनका सिने संसार मुख्यतः “केरल के शहरी एवं ग्रामीण सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराओं की उठापटक” से जुड़ा है। उनकी फ़िल्में केरल संस्कृति से गहराई तक जुड़ी हुई हैं। लेकिन उनकी फ़िल्मों के ‘केरल’ में कोई यूटोपियन समृद्धि नहीं बल्कि सत्ता संघर्ष, अस्मिता और आदर्शों की खोज, मानवीय संबंधों के विविध आयाम आदि सभी ‘अवास्तविक सी जान पड़ती वास्तविकता’ के साथ व्यक्त हुए हैं। प्रसिद्ध फ़िल्मकार श्याम बेनेगल के शब्दों में, “अदूर की फ़िल्में मानवीय स्थितियों पर गहन चिंतन है। उनके पास मानव अस्तित्त्व और उनके जीवन की जटिलताओं में गहराई से उतरने की असाधारण क्षमता है।” अदूर की ताकत उनके सिद्धांत और उनमें उनका दृढ़ विश्वास है। भारतीय जन की आकांक्षाओं में हो रहे परिवर्तन के गवाह वे शुरू से ही रहे। लोगों के आज़ादी से जुड़े सपनों का धीरे-धीरे टूटना, पार्टियों में विभाजन, आर्थिक संकट और आपातकाल से जूझ रहा देश आदि उनकी चिंता के प्रमुख विषय हैं। उनकी फ़िल्में भाषा, संस्कृति और भौगोलिक सीमाओं को पार कर पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती हैं। सत्तर के दशकों में जब केरल एक बुरे आर्थिक संकट से जूझ रहा था और भारतीय इतिहास आपातकाल से, तब अपनी फ़िल्मों के माध्यम से उन्होने मलयालम जन की सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन को प्रकट किया। उनकी स्वयंवरम् और कोडियेट्टम इन्हीं दौर की फ़िल्में हैं। एलिप्पाथायम में जहाँ एक आदमी के चूहे जैसी ज़िदगी जीने की कहानी है और सामंती शोषण के जाल में स्त्रियों की स्थितियों पर चिंतन है वहीं मुखामुखम् में केरल के तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य की रोचक कथा है। विधेयन, कथापुरुषन, निड़लकुत्तु उनकी ऐसी ही फ़िल्में हैं जहाँ वे समाज के विविध आयामों, शोषण के अनेक रूपों और मानुषिक संबंधों के लगभग सभी रूपों पर विचार करते हैं। नालू पेन्नुंगल पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में संघर्षरत चार स्त्रियों की चार कहानी है। ये फ़िल्म शिवशंकर पिल्लई की प्रसिद्ध कहानियों पर आधारित हैं। इसी तरह ओरू पेन्नम रंदानुम भी चार अलग कहानियों की एक फ़िल्म है जो एक स्वर में समाज में घट रहे तमाम आपराधिक प्रसंगों को उजागर करती हैं। अदूर एक गांधीवादी विचारक हैं और उनकी फ़िल्में इसका प्रमाण हैं। वास्तव में उनका सिने संसार स्वतंत्र्योत्तर भारतीय समाज का जीवंत दस्तावेज है।
जाह्नू बरुआ- इन्होंने अपने सिनेमा के माध्यम से उस भाषा के लोगों के जीवन संघर्षों की अभिव्यक्ति की जिन्हें मुख्यधारा सिनेमा में उपेक्षित समझा जाता रहा। उनकी फ़िल्में असमिया जन-जीवन और संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई पड़ती है। उनकी चिंताएं असमिया ग्रामीण लोक जीवन एवं संस्कृति से जुड़ती हैं। ‘अपरूपा’ से शुरू हुआ उनका सफर जो असम के औपनिवेशक काल की कथा है तथा जिसमें स्त्री मनोविज्ञान एवं त्रिकोणीय प्रेम की अद्भुत कथा संरचना मिलती है ‘हलधीया चोराये बऊधान खाय’ से होता हुआ जो कि होमेन बारगोहेन् के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है तथा जिसमें एक किसान का अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष, सरकारी भ्रष्टाचार, बालश्रम और साथ ही ग्रामीण परिवार का जीवन संघर्ष चित्रित हुआ है ‘भोगा खिरिकी’ तक जाता है। सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार उनकी फ़िल्मों के प्रमुख विषय रहे हैं। चाहे वह ‘बनानी’ हो या ‘बंधन’ सभी में ब्यूराक्रसी और उनके शोषक चरित्र को दर्शाया है। फिरिग्तिं, सागरले बहुदूर उनकी अन्य चर्चित फ़िल्में हैं। जाह्नू द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ बड़े रोचक ढंग से देश से गायब हो रहे गांधीवादी आदर्शों की त्रासद अभिव्यक्ति करती है। फ़िल्म का बूढ़ा नायक आख़िरी दृश्य में कहता है, “...क्योंकि तुम्हारी आज की दुनिया में जिसके दिल में गांधी है उससे सबको खतरा है...”। जाह्नू बरुआ की फ़िल्मों में व्याप्त यह चिंता हमें उद्धेलित भी करती है और प्रभावित भी करती है। उनकी फ़िल्मों में प्रकट त्रासद अभिव्यक्तियां तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिंतन की अभिव्यक्तियां हैं।
सईद अख़्तर मिर्ज़ा- हिंदी प्रदेश में शुरू से ही फ़िल्में बनती रहीं हैं। जहाँ कई फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों के माध्यम से स्वतंत्र्योत्तर भारत के गतिशील समाज और संस्कृति को समझा-समझाया है। मिर्ज़ा इन फ़िल्मकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। घासीराम कोतवाल, अरविंद देसाई की अजीब दास्तां, अल्बर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है, मोहन जोशी हाज़िर हो, सलीम लंगड़े पे मत रो और नसीम उनकी प्रमुख फ़िल्में हैं। अपनी फ़िल्मों में उन्होने समाज से लोप होते हुए मूल्यों, आदर्शों और सामान्य जन की दैनिक चिंताओं की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। घासीराम कोतवाल विजय तेंदुलकर की प्रसिद्ध रचना पर आधारित है। जिसमें पुलिसिया तंत्र, भ्रष्टाचार और स्त्री शोषण का कथा कही गयी है। भारत की अल्पसंख्यक आबादी का जैसा चित्रण उनकी फ़िल्मों में मिलता है अन्यत्र कहीं विरल है। जहाँ अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है में ईसाई अल्पसंख्यक आबादी के शहरी जीवन चर्या एवं संघर्ष की कहानी है वहीं सलीम लंगड़े पे मत रो में मुस्लिम आबादी का जीवन एवं उनके रोजमर्रा की समस्याओं की अभिव्यक्ति की गई है। सलीम अपराधों में लिप्त एक युवा है जिसका ध्यान धीरे-धीरे शिक्षा, सहिष्णुता और अहिंसा की तरफ जाता है। मिर्ज़ा की आख़िरी फ़िल्म नसीम एक काव्यात्मक त्रासदी मालूम पड़ती है। वास्तव में मिर्ज़ा की फ़िल्मों में हमें जो चिंता दिखाई पड़ती है वह स्वतंत्र्योत्तर भारतीय समाज की मूल चिंता है। जिसका प्रमाण उनका समूचा सिने संसार है।
यह तो स्पष्ट ही है कि स्वतंत्र्योत्तर भारत में कई राजनीतिक और सामाजिक घटनाएं लगातार घट रहीं थीं। जिनका चित्त पहले स्वतंत्र होने के ख़याल से प्रसन्न हो उठता था स्वतंत्रता के बाद वह दिन-रात कचोटने लगा था। रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत ज़रूरत भी लोगों के लिए सिर्फ ख़याल भर रह जा रही थी। जहाँ साहित्य में मोहभंग की यह स्थिति साहित्यिक परिणति पाती है वहीं सिनेमा में दृश्यात्मक और स्वंतत्र्योत्तर भारतीय सिनेमा में हम इन्हीं चुनौतियों की एक सफल अभिव्यक्ति पाते हैं।
सन्दर्भ :
- सत्यजीत रे की सभी फ़िल्में
- बी. नरसिंग राव की सभी फ़िल्में
- अदूर गोपालकृष्णन की सभी फ़िल्में
- जाह्नू बरुआ की सभी फ़िल्में
- सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फ़िल्में
- https://www.theindianpanorama.news/festival/75-years-of-indian-cinema-post-independence-the-past-present-and-a-sneak-peek-into-future/
- Firoze Rangoonwalla, Indian Cinema, Clarion Books 1983
- Rochono Mazumdar, Art Cinema and India’s Forgotten Futures, Columbia University Press New York 2021
- Deep Focus: A Film Quarterly, Vol. VIII, 1997
- Rituparna Sengupta, Why It is time to revisit the films of Saeed Akhtar Mirza (https://cafedissensusblog.com/2017/09/18/why-it-is-time-to-revisit-the-films-of-saeed-akhtar-mirza-the-leftist-sufi/)
- Simi Varghese, Remapping the Visual Contours: An Enquiry into the Film Narratives of Adoor Gopalkrishnan, ARSS Vol.8 No.S1, 2019, pp.96-100
- Reclaiming Identity; Representation of ‘Telangana-Ness’ in Contemporary Art and Cinema, Nirmala Biluka
- https://www-deccanchronicle-com.cdn.ampproject.org/v/s/www.deccanchronicle.com/amp/entertainment/tollywood/180323/the-renaissance-man-who-created-a-rainbow-of-realistic-cinema.html?amp_gsa=1&_js_v=a9&usqp=mq331AQIUAKwASCAAgM%3D#amp_tf=From%20%251%24s&aoh=16895982954900&referrer=https%3A%2F%2Fwww.google.com&share=https%3A%2F%2Fwww.deccanchronicle.com%2Fentertainment%2Ftollywood%2F180323%2Fthe-renaissance-man-who-created-a-rainbow-of-realistic-cinema.html
- https://www.indiatoday.in/magazine/society-and-the-arts/films/story/19890615-award-winning-b-narasinga-rao-brings-quality-to-telugu-cinema-816201-1989-06-14
- https://frontline-thehindu-com.cdn.ampproject.org/v/s/frontline.thehindu.com/cover-story/critical-insider-satyajit-rays-cinematic-trilogies/article36985862.ece/amp/?amp_gsa=1&_js_v=a9&usqp=mq331AQIUAKwASCAAgM%3D#amp_tf=From%20%251%24s&aoh=16895679101990&referrer=https%3A%2F%2Fwww.google.com&share=https%3A%2F%2Ffrontline.thehindu.com%2Fcover-story%2Fcritical-insider-satyajit-rays-cinematic-trilogies%2Farticle36985862.ece
- https://shorturl.at/Purhi
- https://shorturl.at/1V1he
नितेश मिश्र
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय
nitu427mishra@gmail.com, 8934023575
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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