शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में नवाचार के विविध पक्ष / रक्षा गीता

हिन्दी सिनेमा में नवाचार के विविध पक्ष
- रक्षा गीता

शोध सार : अपने आरंभिक समय से ही सिनेमा विशेषकर हिंदी सिनेमा फ़ॉर्मूलाबद्ध रहा है यानी फिल्मों में जब कोई एक स्टोरी, हीरो-हीरोइन,चरित्र नायक-नायिका हिट हो जाया करते, निर्माता निर्देशक बार-बार उन्हें दोहराते रहते। ये स्टीरियोटाइप छवियाँ दर्शकों को भी लुभाती थी, वे मानाने को तैयार नहीं कि नायक ढिशुम-ढिशुम न करे या जिस कलाकार ने एक बार बहन की भूमिका निभा ली, दर्शक उसे नायिका यानी हीरोइन के रूप में कभी स्वीकार नहीं करेंगे, फिल्म का सुखांत, विवाह की शहनाई के साथ अंत यही मुख्य था। निर्माता जोखिम नहीं उठाना चाहते थे क्योंकि फ़िल्मों के फ्लॉप होने का ठप्पा यानी करियर खत्म ! लेकिन समय के साथ-साथ नए निर्देशकों ने जोखिम उठाना शुरू किया दर्शकों के मनोरंजन की भूख भी नए स्वाद की माँग करने लगी। आज लगभग एक शतक से अधिक समय पूरे कर चुका हिन्दी सिनेमा आज तकनीक और दर्शक केन्द्रित बन रहा है, सिनेमा के विकल्पों ने, तौर तरीकों ने बड़े-बड़े बैनरों को विवश किया कि वे अब दर्शकों को मूर्ख न समझे, जैसे कि कहा जाता था कि फ़िल्म देखने के लिए दिमाग घर पर रख कर जाओ! इस शोध आलेख में सिनेमा में हो रहे नवाचारों के विविध पक्षों को दिखाया गया है।

बीज शब्द : हिन्दी सिनेमा ,तकनीकी बदलाव, कहानी (कंटेंट), प्रेम और विवाह, राजनीति, खंडित नायकत्व, हाशिये का समाज, स्त्री अस्मिता।

मूल आलेख : सिनेमा मनोरंजन का तकनीकी माध्यम है। एक समय था कि फ़ॉर्मूला फ़िल्में फैशन की तरह लोकप्रिय हुआ करती थी। धार्मिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक, सामाजिक फ़िल्में, स्टीरियोटाइप चरित्र और कलाकार होने के बावजूद ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ के लिए फैन्स लंबी कतारों में लगकर ब्लैक में टिकट लिया करतें थे। हाल ही में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित सलीम जावेद के संघर्षों और सफलता की कहानी कहती डॉक्यूमेंट्री ‘एंग्री यंग मेन’ (Amazon Prime पर उपलब्ध ) में एक फ़िल्म दर्शक कह रहा है कि ‘शोले की ब्लैक टिकट बेचकर कई लोगों ने घर बना लिए थे’1 यानि लोकप्रियता का ये आलम था कि लोग दो तीन गुना दामों पर टिकट खरीदा करते थे। शुद्ध मनोरंजन से भरपूर इन व्यवसायिक फ़िल्मों में लगभग एक जैसी कहानी, कलाकार, माँ के हाथ की खीर, बहन की शादी अन्यथा बलात्कार फिर बदला, नायिका की ख़ूबसूरती और नज़ाकत मिलेगी। जो स्त्री-चरित्र समाज के विपरीत आचरण करे वो खलनायिका, समाज भेदभाव छुआछूत से परे विभाजन कहीं दिखाई भी देगा तो धार्मिक या जातिगत न होकर वर्ग के आधार यानी अमीर-गरीब हुआ करता था। ख़ूबसूरत गाँव, भोलेभाले चरित्र मन मोह लिया करते थे। प्रेम, प्रेमगीत परदे पर आकर्षक लगते और विवाह के साथ सुखद अंत। समानांतर सिनेमा के आग़ाज़ के साथ सफेद पर्दे के रंगीन रुपहले सपने यथार्थ की स्याह जमीन पर उतरने लगे थे। समाज, राजनीति, आर्थिक-तंत्र, तकनीक आदि के विकास के साथ-साथ सिनेमा और दर्शकों का आस्वाद भी तीव्र गति से बदला। ओटीटी प्लेटफोर्म और सोशल मीडिया ने भी दर्शको की रूचि को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बड़े परदे से आज सिनेमा मुट्ठी (मोबइल) में कैद हो चुका है, कोई फार्मूला,बड़ा बैनर या स्टार अब सफलता की गारंटी नहीं बन सकता। नित नये कंटेंट और तकनीक की खोज में बड़े-बड़े बैनर, कलाकार बुरी तरह फ्लॉप किये जाने लगे हैं जबकि नई प्रतिभाएँ कम बजट में हर विषय पर फ़िल्म बनाने लगी, पसंद भी की जाने लगी हैं। 83, जयेश भाई जोरदार, सम्राट, पृथ्वीराज, बच्चन पांडे, धाकड़, सूर्यवंशम आदि को दर्शकों ने नकार दिया। कोरोना पहले ही बहुत उथल-पुथल कर चुका था, ओटीटी केंद्र में आया तो दर्शक दक्षिण भारतीय व क्षेत्रीय सिनेमा से परिचित हुए, जहाँ उन्हें बेहतर कंटेंट मिला। इस समय 95 से ज्यादा ओटीपी प्लेटफार्म हैं। तिसपर बॉयकाट बॉलीवुड ने भी परम्परागत सिनेमा की कमर ही तोड़ दी। तथाकथित राष्ट्रवादी फ़िल्में बनाने का दबाव भी निर्माताओं पर रहा लेकिन सफलता हाथ न आई। सबके दिलों पर राज करने वाले ‘खान-तिकड़ी’ का बहिष्कार मासूम ‘लाल सिंह चढ्ढा’ को झेलना पड़ा, जो इस बात का भी संकेत है कि दर्शक कुछ नया देखना चाहता है। दर्शक अपने समय, रुचि और सुविधा को भी प्राथमिकता देतें हैं, सिनेमाई मनोरंजन हमेशा महँगा शौक रहा है इसलिए जब एक महीने के सब्स्क्रिब्शन पर मनचाहे समय पर विविध भाषाओँ और देशों का सिनेमा देखने को मिलेगा तो सिनेमा प्रेमी 2-3 घंटे के लिए 5-7 घंटे और अतिरिक्त रुपया ख़राब करना नहीं चाहते।

तकनीकी बदलाव -

मलयालम फिल्म ‘सिनेमा बंदी’ (नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध) ने दिखाया कि सिनेमा किसी की बपौती नहीं अब हर कोई सिनेमा बना सकता है। तकनीक ने मोबाइल से फ़िल्म बनाना संभव कर दिया है। मोबाइल के एक विज्ञापन में निर्देशक अनुराग कश्यप कहते हैं “स्क्रीन सही तो सीन सही” निर्माता निर्देशक विशाल भारद्वाज मोबाइल से शोर्ट फ़िल्म “फुर्सत”2 बनाकर यूट्यूब पर रिलीज़ भी किया हैं, एक फ़िल्म ‘अनवांटेड’ जिसे फ़िल्मी पोलिटिक्स के चलते रिलीज़ न होने दिया गया, वह भी यूट्यूब पर रिलीज़ हुई3 पाकिस्तानी फिल्म ‘जिन्दगी तमाशा’ को पाकिस्तान में बैन कर दिया गया तो उसके निर्माता निर्देशक ने सरमद सुल्तान खूसत इसे यूट्यूब पर रिलीज़ किया यानी फ़िल्म निर्माण, रिलीज़ और देखने के तरीके बदल रहे हैं। ओटीटी से पूर्व तक रेडियो, टीवी चैनल्स आदि से सिनेमाघरों पर कभी संकट नहीं आया पर आज मनोरंजन मुट्ठी में कैद हो चुका है, मनोरंजन दर्शक की सुविधा और रूचि के अनुसार उपलब्ध है। सिनेमाघर ओटीटी से प्रतिस्पर्धा करने में लगभग नाकाम हो चुकें हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार5 PVR Inox 50 स्क्रीन बंद करने जा रही है महाराष्ट्र में 80% सिंगल स्क्रीन थिएटर पहले ही बंद हो चुके हैं, कोविड काल के बाद 2.4 करोड़ लोगों ने थियटर जाना बंद कर दिया है, आज सिनेमाघरों की संख्या 24000 से घटकर 5000 तक रह गई है हालाँकि पठान व ग़दर की लोकप्रियता और कमाई ने सिनेमाघरों में उम्मीद जगाई है। जबकि 2019 तक सुपर 30, वार, उरी, कबीर सिंह, हाउसफुल-4, मिशन मंगल ,दबंग -3, स्टूडेंट्स ऑफ़ द इयर ने बिसनेस अच्छा किया था क्योंकि दर्शकों के पास अधिक विकल्प नहीं थे लेकिन आज हैं। ओटीटी की वेबसीरीज़ और फ़िल्मों में नई प्रतिभाओं को खुले दिल से स्वीकार किया जा रहा है दर्शकों ने इन्हें हाथोंहाथ लिया, स्टार संस्कृति को धक्का लगा है जो जरूरी भी था। आज सिनेमा निर्माण में मेकअप आर्टिस्ट,स्क्रिप्ट राइटर,और परदे के पीछे के कई काम AI करने लगी है। हाल ही में हॉलीवुड ने AI के खिलाफ प्रदर्शन भी किया6।

कहानी (कंटेंट) -

वैसे तो 2000 से पूर्व ही हिन्दी सिनेमा में कहानी के केंद्र में ‘आम लोग’ आने लगे थे लेकिन आज ओटीटी प्लेटफार्म ने परम्परागत बॉलीवुड को ओवरटेक कर लिया है उसने “जरा हट के” नहीं बल्क़ि अनोखे नए कंटेंट जनता को घर बैठे उपलब्ध करवाए। 2020 में कोरोना के कारण दिग्गज अभिनेता अमिताभ बच्चन की ‘गुलाबो सिताबो’7 नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई फिर ‘बॉयकाट बॉलीवुड’ के ट्रेंड के चलते अलिया भट्ट की ‘डार्लिंग्स’ जो सिनेमाघर के लिए बनी थी, नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ किया गया क्योंकि फरवरी में रिलीज़ ‘गंगुबाई काठियावाड़ी’ एक सशक्त फिल्म होकर भी ज्यादा न चली। वेबसीरिज़ ‘लीला’8 जो धार्मिक कट्टरतावाद की भयानक तस्वीर प्रस्तुत करती है, राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रतिकूल होने के कारण सिनेमाघर पर आ ही नहीं सकती थी इसलिए ओटीटी पर आती है। सार्थक या कला सिनेमा के भीतर भरपूर मनोरंजन, कम पैसा, अधिक सुविधा, मनपसंद विकल्प व मनोरंजन की गारंटी हो तो दर्शक सिनेमाघर क्यों जाएगा? ओटीटी (2008) से पूर्व ही नयी-नयी प्रतिभाएं अपने दम पर कम बजट में बेहतरीन फ़िल्में बनाना आरम्भ कर चुकी थी, हालाँकि बड़े बैनर और कलाकारों का आकर्षण बरकरार था ग़दर, कोई मिल गया, थ्री इडियट्स, युवा, बंटी और बबली, धूम, लगे रहो मुन्ना भाई, कभी अलविदा न कहना, फ़ना, विवाह, डॉन, जोधा अकबर, गजनी आदि से लेकर बजरंगी भाईजान तक अगर माने तो फ़िल्में 500 करोड़ क्लब तक पहुँच रहीं थी लेकिन साथ ही पिंजर, कोर्पोरेट, फैशन, जोगर्स पार्क, ब्लैक, माय ब्रदर निखिल, देव-डी, गुलाल, धोबी घाट,कैरी, हरी भरी, हासिल, ओय लक्की लक्की ओये, मैं मेरी पत्नी और वो, द ब्लू अम्ब्रेला, बिल्लू, पीपली लाइव और 2022 में ‘वध’ जैसे छोटे बजट की फ़िल्में पसंद की जाती रही और मुनाफा भी कमा रही थी। कंटेंट की विविधता ने करण जौहर जैसे निर्माता को भी ‘माय नाम इस खान’ जैसे गंभीर विषय पर फ़िल्म बनाने के लिए प्रेरित किया क्योंकि उनका ही कथन है- आज आप दर्शकों को बेवकूफ़ नहीं बना सकतें । आज लापता लेडीज़ और धक् धक् जैसी स्त्री शक्तिकरण की फ़िल्में या दलित चेतना की कटहल, दहाड़ जैसी वेब सीरीज़ विमर्शों का नया फलक तैयार कर रहीं है जो किसी भी साहित्यिक कृति से ज्यादा प्रभावोत्पादक हैं। यूट्यूब की लघु फ़िल्में ऑस्कर नोमिनेटिड हो रहीं है, चंपारण मटन9,यस सर10 जैसी फिल्मों ने कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीत रही है।

प्रेम और विवाह -

‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का प्रेमी विवाह करके ही नायिका को अपने साथ ले जाना चाहता है ‘विवाह’ फिल्म को नेशनल अवार्ड मिलता है, दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है, हम दिल दे चुके सनम, कहो ना प्यार है, मोहब्बतें, इन सभी फिल्मों में प्रेम और विवाह परंपरागत अंदाज में हैं ,जिसमे वैवाहिक संस्कार अपने ताम-झाम के साथ चित्रित होते हैं। हम आपके हैं कौन? पारिवारिक संरचना के आधुनिक मापदंड प्रस्तुत करती है यह फिल्म गांव की पृष्ठभूमि पर बनी ‘नदिया के पार’ फिल्म का रीमेक है । आज विवाह संस्था बिखरने के कगार पर है उस पर पुनर्विचार हो रहें हैं। 2012 में आई ‘कॉकटेल’ फ़िल्म ने लिविंग रिलेशनशिप को संजीदगी से प्रस्तुत किया है तो साथ ही विवाह के साइड इफेक्ट भी बता रही है। ‘की और का’ जैसी फ़िल्में आपको दिखाती हैं कि स्त्री बाहर मोर्चा संभाल रही है तो पुरुष घर संभाल रहा है, पति-पत्नी की स्टीरियोटाइप छवि तोड़ने की कोशिश है।‘मिनी’ जो सरोगेसी के गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर बनी है जिसमें नायिका फ़िल्मों में काम करने की खातिर सरोगेट मदर बनती है लेकिन माँ बनने के बाद आगे नहीं बढ़ पाती, ये फ़िल्में पितृसत्ता पर सीधे आघात करती हैं । ‘लव आजकल’ के प्रेमीयुगल विवाह की परवाह नहीं करते, दिल टूटने पर वे रोने-धोने वाले नहीं है, दिल पर पत्थर रखकर ब्रेकअप करते है फिर नए सिरे से माइंड मेकअप कर लेते है, उनके लिए अपना भविष्य (तमाशा,जब तक है जान,मेरी प्यारी बिंदु ) ज्यादा महत्वपूर्ण है। ‘बधाई हो’ में दो व्यस्क बेटो की माँ जब गर्भवती होती है तो उसे तिरस्कार झेलना पड़ता है हालाँकि बाद में उन्हें अपनाना टैबू तोड़ना ही है जो सकारात्मक है, शादी टूट जाने पर क्वीन की नायिका अकेले हनीमून पर निकल जाती है। हाल ही में श्रद्धा नामक लड़की ने एकल विवाह किया और सुर्ख़ियों में रही जिसे बाज़ार और फ़िल्मों प्रभाव ही कहा जायेगा। विकी डोनर सरोगेसी और एडॉप्शन जैसे अत्याधुनिक विषय को हमारे सामने रखती है। पीकू बाप-बेटी के अनोखे रिश्ते की कहानी है, पिता रूढ़िवादी समाज से लड़ता है, भय से बेटी की शादी नहीं करना चाहता, घंटो टॉयलेट में बैठ कर मोशन नहीं हो पाना इस बात का भी प्रतीक है कि तमाम सड़ी-गली रूढ़ियों को हम भीतर दबाये बैठे है, चाह कर भी उनसे निज़ात नहीं पा रहे, वास्तव में हिन्दी सिनेमा आज तमाम तरह की रूढ़ियों को तोड़ रहा है और अपने समय की माँग के अनुकूल दर्शकों की नब्ज़ को पकड़ पा रहा है। दम लगा के हईशा, बरेली की बर्फी, मुल्क, आर्टिकल 15, बनारस ये फिल्में छोटे शहरों के बड़े सपनों की कहानी कहती है। नेटफ्लिक्स की वेब सीरिजों ने इस बदलाव को अत्यंत विस्तार और यथार्थवादी नज़रिए से दिखाया ‘सेक्रेड गेम्स’ घुल, क्राइम, लीला आदि में महिलाओं के प्रति हिंसा, राजनीति, हिंसा, धर्म, सांप्रदायिकता आदि बदलते परिदृश्य को बहुत ही बारीकी से दिखाती है।

राजनीति -

70-80 के दशक में एक अनरोमांटिक, क्रोधी, एंग्री यंग मेन का प्रवेश होता है जो सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था से अकेले जूझता है लेकिन इस आक्रामक विद्रोही की तरफ़ से ध्यान भटकाने के लिए ही संभवत: राजनेताओं ने पाकिस्तान को शत्रु रूप में प्रचारित प्रसारित करना आरम्भ किया, हर छोटी-बड़ी घटना का जिम्मेदार पाकिस्तान को माना जाने लगा, जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दे चालाकी से दरकिनार कर दिए गये। रोमांस पुन: केंद्र में आया। देश भक्ति की फ़िल्में पाकिस्तान को ललकार रही थी ग़दर, मिशन कश्मीर, रोजा,सरफ़रोश, बॉर्डर, लक्ष्य, गदर, उरी,सर्जिकल स्ट्राइक,परमाणु, मिशन मंगल, आदि फ़िल्में आम जनता को उत्तेजित करती हैं। आतंकवादी चरित्र मुस्लिम के रूप में गढ़े जाने लगे। पहले का राष्ट्रवाद अंग्रेजों के विरुद्ध था, अब किसके विरुद्ध करेंगे? क्रिकेट में भी देशभक्ति/राष्ट्रवाद आ गया लगान फ़िल्म इसी क्रिकेट को भुनाती है, यहाँ राष्ट्रवाद औपनिवेशिक ताकतों के विरुद्ध किसानों का विद्रोह है जो 90 के बाद आये उदारीकरण के विरोध में था, जिसकी विकृति आज चरम पर है। पूँजीवाद के कारण किसानों और आदिवासियों की क्या दुर्दशा हो रही है हम सब वाकिफ हैं लेकिन चारों ओर सांप्रदायिकता की आग ने मूल समस्याओं को राख़ कर दिया है, लाल सिंह चड्डा की बात कोई नहीं सुनना चाहता लेकिन गदर-2 में सभी शामिल हैं। राष्ट्रवाद की संकल्पना ने भारतीय विविधता में एकता पर प्रहार किया है सिनेमा जाने अनजाने इसे पोषित करता रहा जिसके उदाहरण कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरीस, तान्हा जी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, ताशकंद फाइल्स मणिकर्णिका आदि हैं। आज उग्र राष्ट्रवाद एक हिट फार्मूला बन गया है जो सरकार के अनुकूल भी है, जो विडंबना पूर्ण है

खंडित नायकत्व -

पहले दर्शक सीधे-सादे हुआ करते थे नायक के पौरुषत्व से कुछ पल जुड़ कर कटु यथार्थ भूल जाते थे लेकिन आज का दर्शक नायकों का महिमामंडन नहीं पचा पाते, कैसे कोई अकेला 10 गोली लगने के बाद भी 10 गुंडों को पीट लेता है, वो हिरोइन को छेड़ता था नायिका भी खुश होती थी जबकि अन्य कोई हो तो वो खलनायक बन जाता है। बासु चटर्जी ने मध्यवर्गीय व्यक्ति को नायकत्व प्रदान किया ,हालाँकि ‘डर’ और ‘बाजीगर’ से ग्रे शेड वाले खंडित नायक का स्वरुप तैयार हो रहा था, आदर्श छवि लुप्त हो रही थी जो कंटेंट के बदलाव का ही परिणाम था। 2001 में ‘लगान’ का किसान ‘पीपली लाइव’ 2010 तक आते-आते ज़मीन से बेदख़ल हो मज़दूर के रूप में परिवर्तित हो गया तो भी पसंद किया गया उसके साथ दर्शक की हमदर्दी थी इसी तरह कहानी, कॉर्पोरेट, फैशन, माय ब्रदर निखिल,ट्रैफिक सिग्नल, लंच बॉक्स,रंग दे बसंत,आमिर,उड़दा पंजाब, गुलाल, इश्किया,डेढ़ इश्किया, मैं और मिसेज़ खन्ना,जैसी फ़िल्में फिल्मों में नायक की जगह ‘चरित्र’ ने ले ली है जो पूरी फिल्म को अपने कंधे पर उठाकर चलता है। आज एक फ़िल्म से सभी को खुश करना आसान नहीं क्योंकि मनोरंजन के विकल्प बहुत हैं, ये फ़िल्में भले ही ज्यादा ना कमाई करें लेकिन इनका बजट भी कम होता है जैसे नसीरुद्दीन शाह की वेडनेसडे, शाहिद आदि। जबकि बड़े बैनर की फिल्मों का आधा बजट तो नायक-नायिकाओं को पहले ही दे दिया जाता है और फिल्म फ्लॉप होने पर नायक को फर्क नहीं पड़ता जुगजुग जियो, शमशेरा, लाल सिंह चढ्ढा, शाबाश मिट्ठू, रॉकेट्री, हीरोपंती’ को दर्शक नहीं मिलते जबकि दर्शक‘धोनी अनटोल्ड स्टोरी’ जो पहले देखी सुनी न हो उसे देखने में दिलचस्पी रखतें हैं इस तरह की फ़िल्मों में आउटसाइडर सुशांत सिंह की लोकप्रियता बॉलीवुड से बर्दाश्त नहीं हुई परिणाम आपके सामने है लेकिन सुशांत सिंह की आत्महत्या भी नेपोटिज्म और बॉयकाट बॉलीवुड के प्रमुख कारणों में है। आज का चरित्र नायक समाज के किसी भी वर्ग का हो सकता है वह कमज़ोर अनाकर्षक बॉडी वाला हो सकता है राजपाल यादव, राजकुमार राव, इरफ़ान खान, पंकज त्रिपाठी, विजय वर्मा जैसे कलाकारों के लाखों फैन है ये नए कंटेंट के साथ न्याय करतें है निर्माता निर्देशक भी जोखिम उठातें हैं।

हाशिये का समाज -

कला सिनेमा या न्यू वेव सिनेमा ने हाशिये के समाज को केंद्र में लाने का प्रयास किया था लेकिन ये सिलसिला ज्यादा नहीं चल पाया ये फ़िल्में समारोहों की शोभा बढ़ाती रही पर दर्शक नहीं जुटा पाई पर लगान फिल्म का ‘कचरा’ से व्यावसायिक सिनेमा में हाशिए के लोगों की दक्षता को समझने का कोशिश की गई है। कचरा का बॉल स्पिन करना उसकी दक्षता अस्पृश्य जातियों के विशेषताओं को पहचान दिलाने की ओर संकेत करता है। ‘स्वदेस’ में भी हाशिये के लोगों की समस्याएं देखने को मिलती है। व्यावसायिक फिल्म माय नेम इस खान में भी है हाशिये पर जा रहे हैं मुस्लिम समुदाय के मर्म को बताया गया है, 2005 में समलैंगिकता पर माय ब्रदर निखिल पसंद की जाती है इसी वर्ष शबनम मौसी पारलैंगिक (किन्नर) विधायक की सच्ची कहानी प्रस्तुत करती है, दोस्ताना समलैंगिकता को बहुत बचकानी ढंग से दिखाती है जबकि 2015 में अलीगढ़ फिल्म में इस विषय को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती है, मराठी फ़िल्म सैराट का रीमके धड़क हाशिये के समाज को फिल्मी अंदाज में घटिया प्रेम कहानी की तरह प्रस्तुत करती है, 2019 में सर एक काम वाली महिला की मार्मिक प्रेम कहानी कहती है, ट्रैफिक सिग्नल फ़िल्म सिग्नल पर गलत काम करने वाले लोगों की जिंदगी का यथार्थ ब्यौरा प्रस्तुत करती है जिनके पास अन्य विकल्प है ही नहीं। ‘पा’ फिल्म एक बीमार बच्चे की कहानी है, मार्गेरीटा विद ए स्ट्रॉ अनोखे अंदाज़ में एक बीमार लड़की की शारीरिक इच्छाओं को बोल्ड अंदाज़ में चित्रित करती है, आर्टिकल 15 में हाशिये के समाज की समस्याओं को सवर्ण की नजर से दिखाती है जबकि बिल्लू जो संयुक्त राज्य अमेरिका में यहां अपने मूल शीर्षक से बिल्लू बार्बर के नाम से प्रदर्शित हुई थी पीपली लाइव का किसान एक आम दलित किसान की कहानी कहता है,जय भीम, जयंती,कर्णन डब्बड दक्षिण भारतीय फ़िल्में हैं झुण्ड । ओटीटी प्लेटफार्म आज समाज के हर तबके और वर्ग को फिल्मों का विषय बना रहा है जिसमें चरित्रों के उपनाम अवश्य होतें हैं अथवा संवाद जो सामाजिक भेदभाव को मुखरता से दिखाते हैं, हाल ही में आई ‘चंपारण मटन’ में एक संवाद है“ज़रूरी है ओ कम बाप किये वो हम भी करें।”

स्त्री अस्मिता -

2000 में बेटी न. वन’ से पहले भी स्त्री अस्मिता पर फ़िल्में बनती रही थी शेरनी, खून भरी माँग, ये आग कब बुझेगी,पर इनकी स्त्रियाँ यथार्थ से कोसों दूर हैं लेकिन 2001 में ‘लज्जा’ फिल्म सीधे तौर पर पितृसत्ता पर प्रहार करती है। भ्रूण हत्या, दहेज़ समस्या प्रेम में धोखा खाई सीता के रोल में माधुरी दीक्षित के संवाद जो राम से प्रश्न कर रही है आज तो उसके प्रदर्शन का सवाल ही नहीं उठता फिल्म में सभी नायिकयों के नाम सीता के ही पर्यायवाची है जो इस पुरुषप्रधान समाज से बचती भाग रही है कही चुनौती देती है कहीं रूढ़ियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाती है। चाँदनी बार, दमन, जुबैदा, सत्ता, ख्वाहिश, मातृभूमि, चमेली, डर्टी पिक्चर्स, स्त्री, गुलाबी गैंग, हाईवे, क्वीन, जलसा, गंगूबाई काठियावाड़ी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, मर्दानी, बदरीनाथ की दुलहनियां, छोरी थलाइवी आदि इस सन्दर्भ में थप्पड़ और पिंक दोनों फ़िल्में स्त्री की देह की स्वतंत्रता को तार्किक ढंग से चित्रित करती है थप्पड़ की नायिका कहती है- ‘नहीं, एक थप्पड़ भी मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी’11 और वह तलाक की मांग करती है उसके माता-पिता तक उसका साथ नहीं देना चाहते कि तलाकशुदा लड़की कलंक वे ढोने को तैयार नहीं इसी तरह पिंक में भी कहा है कि रजामंदी ना हो तो पति भी उसके साथ सो नहीं सकता इन फिल्मों नेलड़कियों को स्वतंत्रता से सोचने समझने का एक स्पेस दिया है जहां पर तथाकथित सभ्वयर्ग के भीतर की कमजोरी को बुराइयों को शारीरिक शोषण हो उसमें दिखाया गया है। ये स्त्रियाँ पूरी सामाजिक व्यवस्था से टकराते हुए एक नया नायकत्व रच रहीं हैं।

भाषायी बदलाव -

उदारीकरण के बाद सिनेमा ने NRI दर्शकों को लक्ष्य बनाया तब शीर्षक तक भी अंग्रेजी में रखे जाने लगे फैशन, माय ब्रदर निखिल, 3 इडियट, टैगों चार्ली मेट्रो,आई हेट लव स्टोरी, ट्रेफिक सिग्नल, तनु वेड्स मनु, नो वन किल्ड जेसिका। जबकि ओटीटी पर यथार्थवाद के नाम पर गालियों का प्रचलन बढ़ रहा है। ओटीटी में सेंसर की कोई भूमिका नहीं इसलिए लगभग हर प्रसंग संवाद में गालियां है जामतारा, मिर्जापुर सेक्रेड गेम, शी, ताज महल, दिल्ली क्राइम, मिर्जापुर, कब्ज़ा, लस्ट, स्टोरीज, जामतारा, आश्रम, आदि में संवाद में गालियाँ अधिक है, हिन्दी भाषा भी भ्रष्ट हो रही है हालाँकि अन्य भाषाओँ की फ़िल्मों के सबटाइटल ने सिनेमा को सहज भी बना दिया है अलग-अलग भाषाओँ की फिल्मों के माध्यम से हम वहाँ के रहन सहन संस्कृति से भी परिचित होते हैं जैसे चंपारण मटन बज्जिका की फिल्म है जैक्सन हाल्ट मैथिली की लेकिन वे समझ आती है, क्षेत्रीय भाषाओँ का विस्तार हो रहा है।

निष्कर्ष : कुल मिलाकर पिछले 20-22 वर्षों में बॉलीवुड परम्परागत चोले को धीरे-धीरे उतार नए रंग में ढल रहा है विशेषकर कहानी के स्तर नए-नए प्रयोग कर रहा है ताकि नई प्रतिभाओं के साथ मिलकर चल सके पहले दर्शक के पास विकल्प नहीं थे तो आज बॉलीवुड के पास दर्शक कम हो रहे हैं। आज वह मुख्य धारा का सिनेमा कहने का दंभ नहीं भर सकता, सिनेमा नया कंटेंट आम जीवन से जुड़े चरित्र-नायक और स्त्री के नये रूपों को हमारे सामने रख रहा है। नई प्रतिभाओं पर किसी तरह के फ़ॉर्मूलों के दबाब नहीं, वे अपनी भाषा, संस्कृति और समाज की विविधताओं, कमजोरियों, ताकतों और चुनौतियों को दिलचस्प अंदाज में चित्रित कर रहें है। दर्शकों को भी नित नए आस्वाद मिल रहें है इसे केवल हिन्दी नहीं अपितु भारतीय सिनेमा का नवाचार कहना उचित होगा जिसका आनंद हर भारतीय दर्शक उठा रहा है।

संदर्भ :
1. डॉक्यूमेंट्री ‘एंग्री यंग मेन’(Netflix पर उपलब्ध)
7. गुलाबो सिताबो (Netflix पर उपलब्ध)
8. लीला (Netflix पर उपलब्ध)
9. चंपारण मटन, https://www.bbc.com/hindi/articles/c9xjg00xwd5o (अभी प्रदर्शित नहीं हुई ,प्रीव्यू देखा)
10. यस सर https://shortfilmwire.com/en/embedded/film/200128725/Yes-Sir_( अभी प्रदर्शित नहीं हुई,प्रीव्यू देखा)
11.थप्पड़ फ़िल्म(2020)निर्देशक अनुभव सिन्हा

रक्षा गीता
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, कालिंदी महाविद्यालय

सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

Post a Comment

और नया पुराने