समीक्षा : 'तीसमार ख़ाँ' का नेपथ्य और रचना प्रक्रिया / प्रवीण शेखर

'तीसमार ख़ाँ' का नेपथ्य और रचना प्रक्रिया
-
प्रवीण शेखर


फ्रॉम कांक्रीट टु ऐब्सट्रैक्ट एण्ड...यह आत्मप्रदर्शन, आत्ममुग्धता, आत्मप्रोत्साहन, आत्मश्लाघा के लिए लिखा गयाकोई आत्मवाची गद्य नहीं है। ये सृजन यात्रा के बीच आए स्मृति दस्तावेज़ के कुछ शब्द हैं। यह एक तरह से निर्देशन प्रक्रिया को संयोजित करने वाली (और कभी कभार उससे बहकने वाली) अतिरिक्त नाट्य कल्पना (एक्स्टा ड्रैमेटिक कॉन्सेप्ट) है। 'तीसमार खाँ' की रचना निर्माण प्रक्रिया 'रायज़िंग फ्रॉम एब्सट्रैक्ट टु कांक्रीट' और फिर 'कांक्रीट टु एब्सट्रैक्ट' रही है यानी किसी भी कला रचना निर्माण के लिए यह दोतरफ़ा लेन देन या आवा-जाही होती ही है। इसी लेन देन को मुड़-मुड़ के देखने में जो कुछ दिखा, उसी में कुछ भावानुभूतियों का यह बिखरा और अनगढ़ शब्दानुवाद है।तो फिर कल्चरल पॉलिटिक्स है तो हैहाँ, पॉलिटिक्स ... कल्चरल पॉलिटिक्स ही करना चाहते हैं हम... इस नाटक के ज़रिए। अगर अपने टाइम और स्पेस को जानना या जानने समझने की कोशिश करना, समकालीन और सचेत नज़रिए से अपने वक्त की शिनाख़्त करना राजनीति है तो, हम भी कर रहे हैं। यदि बच्चों और किशोरों के मनोरंजन के लिए बनाया नाटक हथियार या औज़ार बन रहा है तो यह इस माध्यम और कथ्य की ताक़त ही है। हमारा लक्षित दर्शक समूह बच्चे, किशोरवय और युवा दर्शक हैं। साथ ही, निशाने पर उनके अभिभावक, माता पिता भी हैं। यह उन्हें सुग्राही बनाता है या सोचने के लिए उकसाता है तो यह ज़रूरी कलात्मक सांस्कृतिक हस्तक्षेप हुआ ! नई पौध को जितना यथार्थवादी होना ज़रूरी है, उतना ही वैज्ञानिक सोच और तार्किकता से लैस होना भी होगा। 'टेलीविज़न और सोशल (?) मीडिया' से निकल रहे "एडल्ट कंटेंटऔरइंजर्ड माइंडकर रही छवियों का विकल्प तैयार करना है। हम एडल्ट कंटेंटनहीं 'मेच्योर कंटेंट' दे रहे हैं जिसे बच्चों से लेकर बड़े तक अपनी समझ और संवेदना के अनुसार अर्थग्रहण कर सकते हैं। इसमें कोई छलावा नहीं है। आज के बच्चों को अपने समाज के साथ अपने नायकों प्रतिनायकों खलनायकों को जानना ही होगा, उन्हें समय को परखने के साथ युद्ध की व्यर्थता को भी समझना होगा। तभी तो वह 'मॉडर्न! बनेंगे। आज के ज़माने का इंसान बनने के लिए 'तीसमार खाँ' नाटक को एंटरटेनमेंट का ऐसा पैकेज बनाया गया है जिसमें बहुत सारी ज़रूरी बातें अंतर्निहित हैं।...''

उस दिन इंटरनेशनल चिल्ड्रेन थिएटर फेस्टिवल (जश्ने बचपन)' केनिर्देशक से मिलिए' कार्यक्रम में लंबी बहसों के बीच मैंने यह भी कहा था। नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा, नई दिल्ली (एन.एस.डी.) के टाई स्टूडियो में देश के कई प्रमुख रंगकर्मियों, समीक्षकों, थिएटर इन एजुकेशन कंपनी (टाई) के प्रशिक्षकों, अभिनेताओं के साथ नाट्य प्रस्तुति के बाद हो रही रचनात्मक मुठभेड़ और खींचतान' में इस बात पर असहमति में एक भी सिर नहीं हिला और ही एक भी सुर गूँजा। कथ्य की व्याख्या, पुनर्व्यख्या, बच्चों किशोरों के भावनात्मक संबंध, उनका अनुदृश्य, दृश्यानुवाद, रूपांतरण, प्रस्तुति की शैली पर ढेर सारी बातों के बाद एक वरिष्ठ रंगकर्मी ने कहा था 'तो आप एक तरह की राजनीति कर रहे हैं?' इसी बात का मेरी ओर से जवाब था।
        

        एक दिन पहले एल.टी.जी. के प्रेक्षागृह में प्रस्तुति की कामयाबी, कई दिन पहले हाऊसफुल होकर अंतर्राष्ट्रीय समारोह की चुनिंदा प्रस्तुतियों में 'तीसमार खाँ' का शुमार हो जाना बेहद संतोष देने वाली बात थी। नाटक के निर्देशक से बातचीत में इसकी फिर से एक बार पुष्टि हुई थी। कुछ समीक्षकों और रंगकर्मियों ने इसी समारोह में कुछ साल पहले बैकस्टेज की ओर से ही प्रस्तुत 'कागज के पक्षी' को बेहद आत्मीयता से याद किया कि युद्ध के विरुद्ध 'काग़ज़ के पक्षी अभी तक एक सशक्त सामाजिक-भावनात्मक वक्तव्य की तरह उनके मन में दर्ज है।'


चार सौ साल का दोन किखोते ( डॉन क्विग्ज़ोट )


दोन किखोते (डॉन क्विग्ज़ोट) का मेरे मन में पहला प्रभाव फ़िल्म और चित्र के माध्यम से आया। फ़िल्म इंस्टीट्यूट, पुणे के दिनों में वहाँ पर इसी नाम की फ़िल्म देखी। सन्1933 में जॉर्ज विल्हेम पाब्स्ट निर्देशित यह फ़िल्म एक ही साल एक साथ तीन भाषाओं (फ्रेंच, रशियन और जर्मन) में बनी। फ़िल्म के तीनों रूपांतरों में एक ही स्क्रिप्ट, सेट और कॉस्टयूम्स का इस्तेमाल किया गया। विशेष बात यह थी कि फ़िल्म के तीनों संस्करणों में मशहूर रूसी ऑपेरा गायक और कलाकार फ्योदोर चैलियपिन थे। पेंटिंग की किसी किताब में साल्वाडोर डाली के बनाए इलस्टेशन मन और आँखों में ठहर गए थे।

 

विश्व साहित्य की कालजयी, क्लासिक और सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में मिग्युल डी सर्वान्तिस की रचना 'दोन किखोते' (डॉन क्विग्ज़ोट) का शुमार होता है। विश्व के उच्च साहित्यिक मानदंडों पर खरी उतरने वाली यह अमर रचना मूलतः स्पेनिश भाषा में है ओर इसका रचनाकाल सन्1605 1615 के बीच का है। 'दोन किखोतेकी गणना पश्चिम के सार्वकालिक महान रचनाओं में की जाती है। यह एक तरह का स्पेनिश सृजन कर्म के स्वर्ण काल का प्रतिनिधित्व है।

दुनिया बदल रही थी लेकिन दोन किखोते/अलांसो क्विज़ानो नहीं बदल रहा था। दिवास्वप्नों और फैंटेसी में जीने वाले अलांसो क्विज़ानो के दिमाग में राजा महाराजाओं की गाथाएँ भरी पड़ी थीं। आधारहीन सपनों से भरा घिरा हुआ था वह। दुनिया के बदलने के लिए वह तैयार नहीं था। ट्रेन के इंजन, कल कारखाने, पवन चक्कियाँ उसको दैत्याकार राक्षस लगते थे। वह समझता था कि यह सब दुनिया को नष्ट करने के लिए आए हैं। इन्हीं तमाम फितूरों, ख्वाबों से लबरेज़ होकर वह निकल पड़ा दुनिया को जीतने के लिए। जंग लगा हथियार लिया और मरियल घोड़े पर सवार होकर वह चल पड़ा। अपने साथ उसने अपने साथी सांचो पांजा को भी लिया। सोचा कि किसी द्वीप का राजा बनकर ठाठ से रहेंगे। वह सोचता था कि पुराने पड़ गये हथियारों से जीतने के बाद दुनिया को फिर उसी पुरातन काल यानी राजा महाराजाओं के काल में ले जायेगा। स्पेनिश भाषा से हिंदी में पहला और उत्कृष्ट अनुवाद करने वाली विभा मौर्य कहती हैं कि, 'उपन्यास का पूरा ढाँचा इतना जटिल है कि उसमें कथावाचक लेखक और पात्रों में अक्सर ही संवाद चलता है और विचारों का आदान प्रदान होता है, जिसके बारे में आसानी से कहा जा सकता है कि मेटाफिक्शन जो हमारे समकालीन उपन्यासों में इतना प्रचलित है, वह भी सरवांतेस की देन है। आखिर दोन किखोते खुद ही किताबों के बारे में किताब है। उस समय आधुनिकता से ग्रस्त यूरोप में जब प्रारंभिक पूँजीवाद का दौर शुरू ही हुआ था, हिंसात्मक सामाजिक आंदोलन तमाम किस्म की उथल पुथल चल रही थी, तब हमारा वीर नायक दोन किखोते घुमंतू शूरवीरों के बारे में लिखी किताबों का एक जिद्दी बंधक बना रहा। यह कहानी है एक शूरवीर की, जिसका किताबें पढ़ पढ़कर दिमाग सूख गया था, जिसकी गाथा पुनर्जागरण युग में एक अत्यंत सफल बेस्ट सेलर बन गई थी और उसके बाद से आज तक वह उसी प्रकार लोकप्रिय है। समझा जाता है कि बाइबिल के बाद यह दुनिया की अधिकतम पढ़ी जाने वाली पुस्तक है क्योंकि शायद ही कोई ऐसा देश या भाषा होगी, जिसमें इसका अनुवाद किया गया हो।'

टर्न ऑफ़ फ्रेज़


कालजयी 'दोन किखोते' से थोड़ी जान पहचान के बाद लगा कि इनको मंच पर अंकित किया जा सकता है। लेकिन कैसे ? यह भी निश्चित था कि 'दोन किखोतेको खालिस हिंदुस्तानी होना होगा। हिंदुस्तानी परिवेश के हर वर्ग समाज में ऐसेहीरो'” मिल ही जाते हैं, फ़ैंटेसी में जीने वाले, ज़मीन से कटे हुए तीसमार खाँ जैसे सूरमाओं की कमी कहाँ है, वह तो आस पास हैं। नाम मिल गया था तीस मार खाँ! दोन किखोते यानी एलॉन्सो क्विग्ज़ानो यानी हमारे बीच का शूरवीर तीसमार खाँ। इसी के साथ सांचो पांजा का भी नामकरण हो गया पच्चीस मार खाँ। हवा हवाई ख़्वाबों से भरे 'तीसमार खाँको भारतीय परंपरा, यथार्थ, खुशबू, देशकाल, वातावरण, मनोभाव, ध्वनि की गहराई आदि से सम्पृक्त होना था। ऐसे चरित्र आस पास होने के बावजूद नाट्यरूप के लिए अभी भी 'पाठकी तलाश थी। गवर्नमेंट सेंट्रल पब्लिक लाइब्रेरी में 'दोन किखोते' की अंग्रेजी में भारी भरकम वॉल्यूम, सन्1964 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित छविनाथ पांडे के हिंदी अनुवाद से गुज़रना हुआ लेकिन इसी नाम से सुपरिचित कवयित्री कथाकार नीलेश रघुवंशी का बच्चों के लिए संक्षिप्त नाटक बैकस्टेज टीम के लिए प्रस्थान बिंदु साबित हुआ। यह भी संभव था कि उसी आलेख पर व्यावसायिक संस्करण कर उन्हें प्रदर्शनक्षम बना लेते लेकिन हमें 'प्ले डॉक्टर' नहीं बनना था। अभिनेताओं को समझने समझाने के लिए 'दोन किखोते' का सरल बनाकर कथांश के रूप में प्रस्तुत श्रीकांत व्यास की किताब भी काम आयी। लेकिन मूल स्पेनिश भाषा से विभा मौर्य का हिंदी अनुवाद समग्रता और प्रामाणिकता लिए है। कलाकारों ने विभा मौर्य के अनुवाद से दोन किखोते को ज्यादा बेहतर जाना समझा।

 

लेकिन असली चुनौती 'दोन किखोते' को हिंदी में, हिंदुस्तान में 'थिएट्रिकली' प्रतिष्ठित करना था-शब्दों और ध्वनियों के साथ। बोलचाल की लय के साथ अनेकार्थी व्यंजना और चमक अर्जित करने की चुनौती थी। नाट्य स्थिति एवं रंगबोध के लिए कार्य व्यापार की अनिवार्यता और विश्वसनीयता को प्रस्तुति का हिस्सा बनाना बड़ी चुनौती थी, लेकिन आधुनिक एवं पारंपरिक नाट्य युक्तियों ने इसे आसान कर दिया। सब कुछ आज के मुहावरों में ढलता गया। पहले 'तीसमार खाँ' के लिए नाट्य भाषा की तलाश गहरी और कठिन लगी। एक बार सूत्र पकड़ में आया तो 'आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक' सब संवेदनशील, बेधक, असरदार माध्यम बन गए पूरे 'नैरेटिवका। संवादों में, वाक्प्रयोगों में ध्वनियों में विशेष प्रकार का 'टर्न ऑफ़ फ्रेज़' दिखने लगा, आने लगा और चरित्र की झलक दिखने लगी।

 

तीसमार ख़ाँ और पच्चीस मार ख़ाँ, इनके मरियल घोड़े और गधे के रूपरंग के लिए मैड्रिड के प्लाज़ा डी स्पेना पर बनी दोन किखोते और सांचा पांजा की कांसे की बनी विशाल मूर्तिशिल्प से प्रेरणा मिली। लेकिन भारतीय बच्चों एवं किशोरों के लिए दिलचस्प थिएट्रिकल डिवाइस बनाने के लिए छोटी साइकिलों पर घोड़े और गधे के मुखौटों को लगाकर साइकिलों को सजाया गया। दर्जन भर अभिनेताओं का कोरस साइकिल रिक्शे पर सवार रहता है, यह दर्शकों के लिए चौंकाने वाला चाक्षुप अनुभव था।

 

तीस 1 , पच्चीस 3 बैकस्टेज की रंग यात्रा में यह बेहद सृजनात्मक सुख का विषय रहा है कि इसकी अधिकांश प्रस्तुतियों में सतीश तिवारी जैसे विश्वसनीय अभिनेता का साथ मिला। सभी प्रदर्शनों में तीसमार खाँ वही बने। वह चरित्र बने नहीं, जिये। सतीश की निजी तैयारी अक्सर सुखद आश्चर्य पैदा करती है। निर्देशक के सूक्ष्म संकेत को उनका अभिनेता मनोयोग से आत्मसात्करता है। इसलिए वह नाटकीय अतिरेक को नियंत्रित कर खूबी के साथ नाटकीय प्रक्षेपण और अर्थ को विस्तार देते हैं। पहले प्रदर्शन में नीरज उपाध्याय ने पच्चीस मार खाँ के चरित्र को एक व्यवस्थित और सुगढ़ आकार प्रदान कर दिया था। उसके बाद आशुतोष चंदन और भास्कर शर्मा जैसे प्रतिभा सम्पन्न अभिनेताओं ने इस आकार को अधिक सघन, विस्तृत और प्रीतिकर बनाया। भास्कर ने वाचिक और आशुतोष ने देह भाषा, ध्वनियों को लेकरअंग मुद्रा और मुँह-वाणीसे बहुत कुछ कहा लेकिन निर्देशक और पाठ के मंतव्य और व्याख्या से परे जाकर नहीं, उसके साथ रहकर, सृजन के सहभागी बनकर। आशुतोष चंदन प्रतिभावंत कलाकार हैं। वह शब्दों के प्रयोग, प्रभाव के साथ साथ शब्दाधिक्य एवं मितव्यता, भावों के साहित्यिक नाटकीय लक्ष्यार्थ को भी जानते हैं। सिद्धार्थ पाल और अमर सिंह जैसे अभिनेताओं की सर्जना, रचनात्मकता, विशिष्ट प्रकार की भावनात्मक एवं ईमानदार उपस्थिति किसी भी समूह के लिए प्रेरणा हो सकती है। तीसमार खाँ की भतीजी के लिए अनुवर्तिका सोमवंशी पर विश्वास था। इसकी रक्षा उन्होंने पूरे मनोयोग से की। अनुज कुमार, संदीप यादव, चंकी बच्चन, आकाश अग्रवाल, निखिलेश, निरंजन, अंजल सिंह, आरोही सिंह, लोकेश, सुनील, अभिषेक जायसवाल, कोमल, प्रिया, साक्षी, गीता, दीपक, निधि, संजय, सत्यम, भानु, अक्षय आदि भी तीस पच्चीस मार खाँ के संगी साथी रहे और हैं। शुरुआत के कुछ प्रदर्शनों में प्रकाश योजना सुजॉय घोषाल की थी। बाद में, नयी डिजाइन के साथ टोनी सिंह करने लगे। संगीत इस नाटक की प्रस्तुतियों के लिए दो दृश्यों के बीच एक सूत्र के रूप में रहा है। कोशिश यह थी कि संगीत ऐसे उतठ्प्रेरक या सहायक की भूमिका में हो कि एक दृश्य दूसरे दृश्य में घुलता चला जाये। उसे सायास लाया या आरोपित नहीं किया गया लेकिन संवादों में, दृश्यों में आंतरिक लय को सुचिंतित तरीके से कायम किया गया। इसे रचा सुनील उमराव, प्रियंका चौहान और अंजल सिंह ने।


हर आँगन सीधा...


'तीसमार खाँ' की रचना-संरचना ऐसी गढ़ी गई थी कि यह स्पेस, सेट आदि में 'मिनिमल' रहे लेकिन अभिनेताओं की देहभाषा, उनकी मंच पर उपस्थिति, डिज़ाइन के दूसरे पक्षों के साथ बनाया गया 'नैरेटिव' बेहद भरा-पूरा और भव्यता लिए हो। यह तय किया गया कि अधिकतम दर्शकों तक पहुँच की दृष्टि से स्पेस का लचीलापन होगा। प्रदर्शन के लिए कोई 'आँगन टेढ़ा' नहीं होगा, नौ मन तेल नहीं होगा तो भी नाचने (प्रदर्शन) के लिए कलाकारों को जाना ही होगा। इसलिए 'तीसमार खाँ' का प्रदर्शन कोलकाता के रवींद्र सदन, गुवाहाटी के रवीन्द्र भवन, नयी दिल्ली के एल.टी.जी. प्रेक्षागह, जयपुर के रवींद्र मंच के साथ उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, इलाहाबाद के मंच के साथ बास्केटबॉल कोर्ट, पुराने बंगले के आंगन, छोटे सभागार, गांव के स्कूल के खुले मैदान, चबूतरे जैसी जगहों पर भी हुआ। यह नाट्य भाषा की ही शक्ति थी कि अलग-अलग मंचों पर भिन्न-भिन्न संवेदना एवं पृष्ठभूमि के दर्शकों पर भी इसका असर अपनी पूरी गहरायी और तीव्रता के साथ हुआ। कुछ जगहों पर इसकी प्रस्तुतियां दिन की रोशनी में भी हुई। ऐसी जगहों पर दृश्य परिवर्तन के लिए फेड आउट और फेड इन का विकल्प रंगीन पर्दों के साथ तलाश किया गया। 'तीसमार ख़ाँ' में रंगीन पर्दे का उठना फेड आउट और गिरना फेड इन होता है।


कुछ एक्स्ट्रा ड्रैमैटिक


यह गर्व का विषय या फिर गौरव गान नहीं है बल्कि इस नाट्य प्रस्तुति का आस्वाद, तेवर और एक खास तरह का सघन असर रहा है कि हर दर्शक वर्ग को स्पंदित किया और कर रहा है। बिंबों के प्रभावी नाट्य प्रयोगों, शब्दों और उनके अर्थों को नाटय भाषा में प्रभावकारी रूपांतरण ने इसके हिस्से में कई ख्यातियाँ जोड़ी हैं। एन.एस.डी. के अंतर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह-जश्न--बचपन', पश्चिम बंगाल सरकार के राष्ट्रीय नाट्य समारोह, कोलकाता, शिशु नाट्य विद्यालय (असम) के राष्ट्रीय . नाट्य महोत्सव गुवाहाटी, जयपुर में राष्ट्रीय बाल नाट्य समारोह बालरंगम, त्रिधारा नाट्य महोत्सव, इलाहाबाद, बैकस्टेज थिएटर फेस्टिवल, इलाहाबाद के साथ दर्जन भर से अधिक प्रस्तुतियों में भारी जन स्वीकृति 'तीसमार खाँकी समकालीन संवेदना, सार्थक-कलात्मक अपीलऔर अभिव्यक्ति का बयान है।

 

(प्रवीण शेखर: नई पीढ़ी के अग्रणी नाट्य निर्देशकों में शुमार। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय - राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में बतौर निर्देशक भागीदारी।सांस्कृतिक समालोचना पर पुस्तक 'रंग सृजन', दो पूर्णकालिक नाटक 'तीन मोटे', 'पक्षी और दीमक', नुक्कड़ नाटक 'तमाशा' प्रकाशित। राष्ट्रीय सम्मान (भारत सरकार), राज्य सम्मान, .प्र. संगीत नाटक एकेडमी सम्मान सहित कई सम्मानों से अलंकृत।


प्रवीण शेखर
pravinshekhar09@gmail.com, 9415367179


बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

Post a Comment

और नया पुराने