हाँ तो भीलवाड़ा में लगभग चार दशक से भी ज्यादा समय से गोपाल जी ने यह अलख जगा रखी है। इस बार संभव हुआ कि उद्घाटन प्रस्तुति देखने जा सका। मित्र मण्डली भी आ जुटी। संगत में बैठने और बतियाने का सुख हमेशा अनकहा रह जाता है। नाटक उनका 'सिग्नेचर नाटक' था, ‘भोपा भैरुनाथ’। एकदम देसी अंदाज़ में मेवाड़ी भाषा में भीगा हुआ नाटक। कमाल की स्क्रिप्ट और म्यूजिक। क्या तो गीत और क्या लाइट्स। यह भी था कि मैं बहुत प्यास के साथ गया और तृप्ति के साथ लौटा। एकाएक लगा कि देशज भाषाओं और बोलियों में बहुत कमाल का साहित्य उपलब्ध है जिसे हमने अक्सर नज़रंदाज़ किया है। खूब हँसा और गदगद हुआ। देर तक तारीफों के पुल बांधता रहा। जो बात कहने के लिए मैंने भूमिका बांधी वह यह है कि वहाँ मंचन के दौरान किन्हीं नए टाइप के दर्शकों ने दो से तीन बार सीटियाँ बजा दी थी। यह सब सुन पूरी सभा में कोई भीतर तक दुखी हुआ तो वह थे गोपाल जी आचार्य। नाटक की समाप्ति के तुरंत बाद वे स्टेज के मध्य आकर बहुत दुःख में पूरे हाथ जोड़कर बोले ‘मुझे छियालीस साल हो गए मगर आज तक मंचन के दौरान सीटियाँ नहीं बजी। माफ़ करना यह जो भी थे उन्हें थिएटर या नाटक मंचन और रंगमंच की समझ नहीं है’। वे साथी या तो आगे से नाटक देखने नहीं आए या फिर यह तमीज सीख लें। उन्होंने दो मिनट अपनी बात रखी और अपनी लम्बी यात्रा के संघर्ष को साझा किया। बिना किसी सीधे सरकारी सहयोग के काम करने के उनके लम्बे अनुभव पक्ष को सलाम है। समारोह में प्रसिद्ध रंगकर्मी और नाटककार अर्जुन देव चारण भी मौजूद थे। नाटक देखने वालों से भरा हुआ सभागार मुझे खुशी से भर गया। आशा जगी और लगा कि इस तरह के दर्शक तैयार करने में गोपाल जी ने कितना पसीना बहाया होगा।
(2) दूजी बात यही है कि इसी माह अचानक फोन आया कि भाणु (मेवाड़ में बहन के बेटे को भानेज यानी भाणु कहा जाता है) अगले रविवार को मैं हमीरगढ़ जाना चाहता हूँ। ये तुम्हारी माताजी नहीं जा पाएगी इसलिए मैं अकेला जाने में कोई साथ चाहता हूँ।अगर तुम्हें कोई असुविधा न हो और अतिरिक्त व्यस्तता न हो तो साथ चलो। सुबह दस बजे चलेंगे कार से, शाम होने से पहले भीलवाड़ा बड़ी जिज्जी से मिलकर लौट आएँगे। मैंने हाँ भर दी क्योंकि एक तो यह सुनहरा मौक़ा था जिसमें आदरणीय डॉ. सत्यनारायण जी व्यास के साथ दिनभर की संगत मिल रही थी। सुनहरी भेंट भला क्यों छोड़ी जाए। दूजा आकर्षण था हमीरगढ़ जो उनका मूल गाँव और मेरा ननिहाल था। कोहरे के बीच यात्रा शुरू। व्यास जी ने अपनी पूरी ठसक के साथ कार ड्राइव की। पूरे रास्ते देश-दुनिया के किस्से-कहानियां कहते-सुनते हुए चलते रहे। मैंने शुरुआत में हुंकारे भरे फिर कुछ खुला तो अपनी तरफ से भी जोड़ने लगा। उनकी संगत का लंबा अनुभव भी था। कई सामलाती आयोजन में हमने शिरकत की तो खूब सारा परिचय और साझे के किस्से थे। हमारे बीच के परिचय वाले लगभग वे ही लोग थे। सबसे पहले हमने पहाड़ी पर स्थित चामुंडा माता जी के दर्शन किए। मैं व्यास जी को नए दृष्टिकोण से देख-समझ रहा था। पूजा की थाली में उन्होंने सौ का नोट रखा। मंदिर का विकास देखकर अपने बचपन के ठाठ बताने लगे। फिर होली चौक के पास कार खड़ी करके हम बाज़ार में तीन मंदर से होते हुए तीन देवरी और उनके प्राचीन घर-गली को देखने गए। वे बेहद आत्मिक सुख के साथ एक-एक घर और उसके हाल के विकास को देख-निहार रहे थे। मैंने उनकी आत्मकथा ‘क्या कहूं आज’ और ‘सुदामा का घर’ में इस गाँव का काफी वर्णन बहुत करीब से पढ़ा और जान लिया था। कुछ बुजुर्ग को उन्होंने पहचान लिया तो कुछ ने उन्हें आवाज़ के बूते जाना। परिचित हलवाई की दूकान पर कचोरी और जलेबी खिलाकर अरसे पहले के स्वाद और संघर्ष को याद किया। मैं ननिहाल में खूब रहा मगर किसी लेखक की नज़र से देखने का सुख अब भोग रहा था। सबकुछ बेहद मार्मिक और अनकहा। सदर बाज़ार में घूमते हुए मेरे प्रभु मामाजी की दूकान पर पाव घड़ी बैठकर कई मित्रों का जिक्र किया। अफ़सोस ज्यादातर चल बसे थे। फिर हम उस दौर के तालाब पर गए मगर वह अब सूख चुका था। इसी तरह कुछ और गलियाँ पैदल घूम हम लौट आए। यहाँ अब उनके परिवार से कोई नहीं रहता है। उनके अनुसार यह उनकी इस गाँव के निमित्त लगभग अंतिम यात्रा है। ऐसा लगा कि लौटना हमेशा सुखद नहीं होता है। जीवन में स्मृतियों का अपना बड़ा सहारा होता है। मैंने उन पलों के कुछ चित्र और विडिओ मोबाइल में संचित करके उनके सहित उनके बेटे-बेटी यानी हमारी रेणु दीदी और कपिल भैया को भेजे। वे बेहद खुश हुए।
(3) मैं एक स्कूल में हिंदी पढ़ाता हूँ। स्कूलों के लिए दिसम्बर का महीना अर्द्ध वार्षिक परीक्षाओं के नाम रहता है। नौकरी में पाया कि हम काम से घबरा जाते हैं जब काम के बीच सहकर्मी-साथी में सम्बन्ध स्नेह और आत्मीयता से भरे हों तो काम का बोझ एकाएक हल्का हो जाता है। तनाव से उम्र कम पड़ती है। सहजता में मन प्रसन्न रहता है। काम की जगह घर की-सी खुशबू वाला हो जाता है। कोई तिल्ली के लड्डू बनाकर लाता है तो कोई नीबू वाली चाय। एक के देरी से आने पर दूजा खुश-खुश उसकी ड्यूटी देने को तत्पर हो उठता है। कोई बथुए का रायता तो कोई मैथी के पराठे। लंच के लिए इंतज़ार और परवाह। लम्बी ड्यूटी के बीच भी थकान का नाम नहीं। कुल जमा सम्बन्ध निर्वाह की समझ आ जाए तो सफ़र आसान हो जाता है। जीवन में दो जगह बड़ी अहमियत रखती है एक घर और दूजा नौकरी का कार्यस्थल। दोनों सध जाए तो फिर कुछ नहीं चाहिए। आपसी संवाद में सरलता और अंदाज़ हल्का-फुल्का ही ठीक रहता है। जीवन को बहुत भारीपन से नहीं लादना चाहिए। मैत्री में हर काज आसानी से हमें और हमारे संस्थान को आगे ले जाता है। कोई लंच बॉक्स धूप में रखता है तो कोई अपनी पानी बोतल से तीन दूजों की प्यास बुझा देता है। किसी ने अपनी चम्मच दे दी और किसी ने अपनी कुर्सी ऑफर कर दी। एक दूजे के मन की जान लेने का यह अभ्यास परिवार की तरह लगने लगता। अपनापन ऐसा पनपा कि लगने लगा यही सिलसिला बिना रुके चलता रहे। भूख रोककर रखना और साझे में टिफिन साफ़ करना इसी अभ्यास का नतीजा था। आखिर में धोए गए टिफिन को थैले में समेटकर विधिवत रखना एक दूजे के खयाल के अभ्यास के रूप में देखा जाने लगा।
(4) हाँ बीते दिनों श्याम बेनेगल साहेब जैसे ज़रूरी निर्देशक हमारे बीच नहीं रहे। यह कौन नहीं जानता है कि उनके होने से हिंदी सिनेमा में एक आवश्यक आवाज़ मौजूद थी। स्पिक मैके के कन्वेंशन में उन्हें देखा और उनकी वहीं देखी हुई फिल्मों पर उनके विचार जाने। बेहद सहज और दूरदर्शी। कन्वेंशन में जब भी हम हिंदी भाषी साथी जाते और वहाँ अन्य भारतीय भाषाओं की फ़िल्में दिखाई जाती तो हम सभागार में धापकर नींद निकालते। यह हमारी तब की कमज़ोर समझ का नतीजा था। फिर जब धीरे-धीरे पढ़ना-लिखना ठीक से हुआ तो हमने यू.आर. अनंतमूर्ति, सत्यजीत रे और अकिरा कुरोसावो की परम्परा को समझा। उनके महत्त्व को जाना तो अंग्रेजी के सब-टाइटल पर ज़ोर देकर सिनेमा को समझने लगे। मगर श्याम बेनेगल का काम हमें एकदम से भीतर तक छू जाता था। उसका बड़ा कारण फिल्मों की भाषा थी। बाद के दशक में जब संजय जोशी के 'प्रतिरोध का सिनेमा' अभियान से परिचय हुआ और कुछ फिल्म फेस्टिवल देखे तो सिनेमा के असल मायने गहरे में अनुभव हुए। यही क्रम आगे जाकर कक्षा-कक्ष में सिनेमा के माध्यम से विद्यार्थियों में भारतीयता की समझ विकसित करने में मदद करता रहा है। दूजा नमन तबले के पर्याय उस्ताद जाकिर हुसैन साहेब को करते हैं। मन में ख्वाहिश थी कि उन्हें मिलकर सुनते मगर यह सब अफ़सोस के खाते चला गया। बड़े लोगों को सुनने देखने का वादा बड़े शहरों में ही पूरा होता है। कस्बाई इलाकों में रहने वाले अक्सर इन सभी से दूर ही रहते हैं। दुखद है। खूब सारी प्रस्तुतियां में तबला वादन सुना है मगर 'वाह ताज़' वाले विज्ञापन वाले उस्ताद जी का चाव अधूरा ही रहा गया।
(5) दिसम्बर के आखिर में अवकाश का उपयोग करने हेतु जीवन विद्या के एक अभ्यास शिविर में जाना हुआ। सांगानेर(भीलवाड़ा) में यहाँ मार्गदर्शन के लिए कानपुर से डॉ. श्याम भैया जी आए हुए थे।आई आई टी कानपुर के प्रोफेसर गणेश बागड़िया जी के शिष्य थे श्याम भैया। आठ दिन के शिविर में शुरुआती तीन दिन रह सका। वहाँ रहकर जो समझ बनी कि हमें जीवन में सचेत होकर अपने पर केन्द्रित रहना है कि मैं क्या कर रहा हूँ और मेरा भूमिका क्या है। असल में हमारे पास ज्ञान तो आ जाता है मगर वह हमारे व्यवहार में कहीं दिखाई नहीं देता है। शब्दों से किसी को प्रभावित करना लगभग आसान है मगर वह प्रभाव अल्पकालिक ही रहेगा। मैंने पाया कि श्याम भैया का शिविर में व्यवहार बहुत ही संयमित और सहजता के एकदम नज़दीक था। उनके बोले गए शब्द उनकी जीवन शैली को प्रमाणित कर रहे थे। छोटे-छोटे अभ्यास पर उनका ज़ोर था। जैसे दिनभर हम स्नेह का अभ्यास करें और ध्यान रखें कि अपने आसपास के प्रति हम स्नेह से भरे रहते हैं कि नहीं। विश्व-बंधुत्व कहना और अपने व्यवहार में उसका रत्तीभर भी न दिखाई देना यहाँ गड़बड़ है भाई। इसी तरह साझेदारी का अभ्यास, सम्मान का अभ्यास, करुणा का अभ्यास, न्याय का अभ्यास। यह अभ्यास ठीक से चल रहा है या नहीं यह आपके घर वाले और नौकरी-व्यापार के सहयोगी बता देंगे। आपको खुद को कोई बयान जारी नहीं करना है। यह तकनीक बड़ी कमाल की लगी। अब तक हम खुद ही खुद को बड़ा घोषित करते आए हैं।
(6) अरसे बाद कोई अंक संपादित करने में ऊर्जा लगाई है। अंक कुछ बड़ा और भारी लग सकता है। देखकर बताइएगा। इसमें शोधपरक रचनाओं के अलावा सभी नियमित स्तम्भ के लिए सम्पादन मेरे साथी विष्णु कुमार शर्मा ने किया है। मुझे उनके काम पर पूरा विश्वास है। अंक में शामिल छायाचित्रों के लिए जयपुर की कुंतल भारद्वाज दीदी का आभार। स्ट्रीट फोटोग्राफी में वे काफी लम्बे समय से रुचिशील हैं। चित्र आपको देखने में बेहद सामान्य लग सकते हैं लेकिन गहराई से देखने पर पाएंगे कि सामान्य के यथार्थ को ही वे स्वर देतीं रही हैं। अक्सर उपेक्षित और बदरंग। सहसा किए हुए उनके क्लिक आपको तसल्ली से समझने पर ही पसंद आएँगे। यहाँ जल्दबाजी हमें अखरेगी। नियमित कॉलम में सत्यनारायण जी व्यास की डायरी कुछ स्वाद का लेखन है इसे दर्शन की दृष्टि से पढ़ने की ज़रूरत होगी। मोहम्मद हुसैन डायर भाई का संस्मरण बेहद मार्मिक है। दोस्त के गुज़र जाने को लिखना मुश्किल काम है, मगर उन्होंने कर दिखाया है। शहरनामा में ममता जी के माध्यम से जैसलमेर को जानना कुछ तो आसान होगा। रेखा कँवर मेरी विद्यार्थी है, इस बात का मुझे गौरव है। 'गाँव-गुवाड़' कॉलम में पहली बार कुछ प्रस्तुत किया है। लिखने के लिए कैलाश जी का शुक्रिया। समीक्षा की दोनों किताबें और दस्तावेजी फिल्म पर बात अंक में निखार ला सकी है, ऐसा हमारा मानना है। विस्तार की नज़र से देखें तो पूरे देश के लेखकों ने इस अंक में हिस्सा लिया है। रचना-वैविध्य इस पत्रिका का एक आधार है। अंत में यही कहना है कि हमने डॉ. भावना के संयोजन में 'परिचर्चा' पहली बार की कोशिश के रूप में रखी है तो आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत रहेगा। 'अध्यापकी के अनुभव' कॉलम फिर से जीवंत हुआ है जिसमें हमार दोस्त दीपक कुमार ने अपनी अमेरिका यात्रा के अनुभव का जिक्र किया है जो आपको पसंद आएगा।
आपश्री लगन और एकाग्र सिंचित मनोभूमि का यह प्रतिफल है कि रचना वैविध्य के इस अनेक फलों के स्वाद से लदा तरुवर सदृश 'अपनी माटी' का यह महनीय और विशिष्ट अंक प्रकाशित हुआ। वैसे पत्रिका का प्रत्येक अंक प्रतीक्षारत और उत्सुक बनाए रखता है। निष्ठा और तटस्थता इस महत्वपूर्ण पत्रिका को शीर्षस्थ धरातल पर उदात्त का उत्कर्ष प्रदान करती रहे -- ऐसी सचेत और सजग आशा है। बहुत-बहुत शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंआपकी लेखन शैली स्नेह से परिपूर्ण 👌
जवाब देंहटाएंसदैव की भाँति यह अंक भी बहुत ही उम्दा है .....
बहुत बहुत बधाई 💐💐💐
अद्भुद
जवाब देंहटाएंसंपादकीय अक्सर अखबारी हुआ करते हैं। ज्यादा हुआ तो आलोचकीय हो जाते हैं। रचनात्मक प्रायः न हो पाते। पर 'अपनी माटी' का यह संपादकीय इस बंधान को तौड़ता है। 'प्यास के साथ गया और तृप्ति के साथ लौटा' जैसे वाक्य टोली से टले मेमने की तरह आपके साथ हो लेते हैं। नाट्य मंचन कला के बहाने कला मात्र के आस्वाद की तमीज़ सीखने की दरकार उजागर हुई हैं। पूरा प्रसंग रचनात्मक आत्मीयता से पगा है। दूसरा प्रसंग गाँव, घर, दहलीज से जुड़ाव के बिखराव एक अलहदा किस्म उदासी के साथ कह जाता है।
जवाब देंहटाएंकार्यस्थल की कार्य संस्कृति काश इतनी ही सहज और आत्मिक सभी को सुलभ होती जैसी आपने कही और चाही है! श्याम बेनेगल जी और तबले पर अंगुलियों की जादूगरी के उस्ताद जाकिर हुसैन साहब का स्मरण लाजमी था। जीवन विद्या खंड पढने से ज्यादा जीने के सूत्र देता है। शानदार संपादकीय के लिए बधाई!💐💐
एक ऊर्जावान संपादक होना, बने रहना और समीचीन संपादकीय लिखना, ये सभी बातें परिवेश में क्या मायने रखती हैं, अच्छी साहित्यिक पत्रकारिता की मांग इन पक्षों के महत्व को समझती है। आप इसी ओर अनवरत है, आपको बधाई। इस अंक विशेष के लिए विष्णु जी को भी बधाई।
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