नई शिक्षा नीति में कला का स्थान
- मोहन लाल जाट
चित्र-1, कलाविद श्री सुरेश शर्मा |
शोध सार : कला शिक्षण के अभाव में न केवल हमारी वर्तमान जीवन-यात्रा असुन्दर हो गई है, बल्कि हमारे अतीत की रस-सृष्टि द्वारा निर्मित रचनाओं की सौन्दर्य-निधि से भी हम वंचित हुए जा रहे हैं। हम लोगों की परखने की दृष्टि तैयार नहीं हो सकी। फलस्वरूप, देश में चारों ओर बिखरी चित्रकला, मूर्तिकला एवं स्थापना के सौन्दर्य को समझाने के लिए विदेशियों की आवश्यकता पड़ी। आधुनिक कला-कृतियों का भी जब तक विदेशी बाज़ारों में मूल्यांकन नहीं हो जाता तब तक हमारे यहाँ उनका आदर नहीं होता। यह हमारे लिए लज्जा की बात है। स्कूल और स्कूल प्रशासन एक सतही और लोकप्रिय किस्म की कला को प्रोत्साहन देते हैं और उनका गर्व से प्रदर्शन करते हैं, जो मनोरंजक नाच-गानों-नाटकों से भरपूर हों, पर जिसमें सौंदर्यबोध का अभाव हो। हम कला के महत्व की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं कर सकते और हमें बच्चों में कला संबंधी जागरूकता व रुचि के प्रसार-प्रोत्साहन के लिए सारे संभावित संसाधन और सारी ऊर्जा लगा देनी चाहिए।
बीज शब्द : एकमत- समान विचार, प्रतिबिम्बित-गुणवत्ता का प्रमाण देना वस्तुबोध- किसी बात को स्पष्ट और सुस्पष्ट रूप से समझना, अभिमुखीकरण- नए वातावरण में सकारात्मक और समावेशी अनुभव, बहुआयामी- अधिक रोचक बनाने के लिए, बहु-स्तरीय- जिसके बहुत से स्तर हों, संवेगात्मक- अपने और दूसरों के भावों को समझने, पहचानने, और उनका सही प्रबंधन करने की क्षमता, कला-समन्वित- अन्य विषयों के साथ कला के एकीकरण करने से है।
मूल आलेख : प्रायः सभी शिक्षाविद यह स्वीकार करते हैं कि शिक्षा में कला का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा के जो उद्देश्य माने जाते हैं, उनकी प्राप्ति में कला एक बड़ी सीमा तक सहायक है। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक माना है कि कला को ही शिक्षा, का आधार बनाना चाहिए। अतः इस मत पर विचार करने से पूर्व यह देखना आवश्यक है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है? शिक्षा के उद्देश्य के विषय में सभी शिक्षाविद् एकमत नहीं है। एक मत यह है कि मनुष्य जिन क्षमताओं और विशेषताओं को लेकर जन्म लेता है, उनका पूर्ण विकास करना ही शिक्षा का लक्ष्य है। दूसरा मत यह है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की कमियों तथा दुर्बलताओं को दूर करके उसे सामाजिक आदर्शा के अनुरूप ढालना है, अर्थात् उसमें उन विशेषताओं को उत्पन्न करना है जो उसमें नहीं है। ये दोनों ही मत एकांगी है।
दशकों से शिक्षा व्यवस्था में कला के महत्व पर बार-बार चर्चा हुई है और इसकी अनुशंसा की जाती रही है, लेकिन इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हुई है। अगर अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान को उसकी विविधता और समृद्धता सहित बचाए रखना है, तो औपचारिक शिक्षा में कला शिक्षा को तत्काल समेकित करना होगा। कलाअध्ययन की दिशा में प्रोत्साहित किए जाने की बजाए हमारी शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों और सृजनात्मक दिमागों को कलाओं को अपनाने से हतोत्साहित करती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था कला को उपयोगी शौक या मनोरंजक गतिविधि मात्र मानती है। कला बस स्कूल के स्थापना दिवस, वार्षिक दिवस, गणतंत्र दिवस या स्कूल निरीक्षण के दौरों के अवसर पर प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। इन अवसरों के पहले या बाद स्कूल में विद्यार्थियों को कला से दूर ही रखा जाता है और विद्यार्थियों को उन्हीं विषयों की ओर धकेला जाता है जिन्हें पढ़ना परीक्षा की दृष्टि से अधिक उपयोगी होता है। कला की सामान्य समझ धीरे-धीरे न केवल विद्यार्थियों, उनके अभिभावकों और शिक्षकों में, बल्कि नीति निर्माताओं व शिक्षाविदों में भी कम हो रही है।
‘‘कला शिक्षण का उद्देश्य कलाकार का निर्माण नहीं बल्कि कलाबोध और कलात्मक व्यवहार को विकसित करना है।‘‘ -नंदलाल बसु (1)
नंदलाल बसु के ये विचार आज भी उतने ही मौजूद हैं, जितने वे स्वतंत्रता प्राप्ति समय थे जब भारत में नई शिक्षा की बुनियाद रखी जा रही थी। नंदलाल कला के बंगाल स्कूल के प्रवर्तक अवनीन्द्रनाथ टैगोर के शागिर्द थे और उन्होंने रवीन्द्रनाथ के आग्रह पर शान्तिनिकेतन में कला शिक्षा के लिए कलाभवन की स्थापना की थी। उन्होंने गाँधीजी के आग्रह पर काँग्रेस के अधिवेशनों को कलात्मक बनाने का ज़िम्मा लिया था और नेहरूजी के आग्रह पर नवरचित भारतीय संविधान की हस्तलिखित पाण्डुलिपि को सजाया-सँवारा था। भारतीय संविधान के हर पेज को चित्रों से आचार्य नंदलाल बोस ने सजाया है। भारतीय लोक और शास्त्रीय कलाओं पर आधारित राष्ट्रीय मगर आधुनिक भारतीय कला के सूत्रधारों में नंदलाल बसु अग्रणी थे। उनके अनुसार स्कूलों में कला शिक्षा का उद्देश्य कला के सम्बन्ध में एक पारखी नज़र विकसित करना और जीवन के हर पहलू में कलाबोध का अन्तःकरण करना है, चाहे वह टेबिल पर अपना सामान जमाना हो, या कपड़े सुखाने के लिए टाँगना हो, या उपयोगी सामान बनाना या उसका रंग-रोगन हो।
यदि हमारी शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास हो तो हमारे पाठ्यक्रम में कला का स्थान अन्यान्य पढ़ाई-लिखाई के विषयों के समान होना चाहिए। हमारे देश में विश्वविद्यालयों की ओर से अब तक जो व्यवस्था की गई है, वह नितान्त अपर्याप्त है। इसका एक कारण सम्भवतः यह है कि हमारे यहाँ अनेक लोगों की मान्यता है कि कला-साधना मात्र पेशेवर कलाकारों का काम है, साधारण आदमी को उससे कुछ लेना-देना नहीं है। बहुत-से पढ़े-लिखे लोग तक कला के सम्बन्ध में अपने अज्ञान के कारण संकोच का अनुभव नहीं करते, जन साधारण की तो बात ही छोड़िए। वे तो फोटो और चित्र का अन्तर भी नहीं समझ पाते। वे बच्चों की जापानी गुड़िया को एक श्रेष्ठ कलाकृति मानकर उसे अवाक् देखते रहते हैं। महारद्दी लाल-नीले, बैंगनी रंगवाले रैपरों को देखकर उनके नेत्रों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती। सच पूछिए तो उन्हें अच्छा ही लगता है। अधिक उपयोगिता की दुहाई देते हुए आसानी-से उपलब्ध मिट्टी की कलसी के बदले टिन का कनस्तर इस्तेमाल करते हैं। ऊपर से देखने पर विद्या के क्षेत्र में देशवासियों की जैसी सांस्कृतिक उन्नति परिलक्षित होती है, लेकिन रसानुभूति के क्षेत्र में उनकी दीनता वैसी ही बढ़ती दिखलाई पड़ती है। वस्तुतः यह स्थिति कष्टदायक हो उठी है। इससे मुक्त होने का एक ही उपाय है-आज के शिक्षित समाज के बीच कला की शिक्षा का प्रचलन, क्योंकि यह शिक्षित समाज ही जन साधारण का आदर्श होता है।
कला की शिक्षा का उद्देश्य इन सभी क्षेत्रों में व्यक्तित्व का विकास करना है। इस विवेचन का आरम्भ वस्तुबोध तथा कल्पना के विचार से किया जा सकता है। वस्तु-बोध का एक रूप वैज्ञानिक से तथा दूसरा कलाकार से सम्बन्धित है। वस्तुतः विज्ञान तथा कला एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है क्योंकि विज्ञान जिस यथार्थ की व्याख्या करता है कला उसी को प्रस्तुत करती है। इस प्रस्तुतीकरण में कलाकार की सौन्दर्य दृष्टि का भी सहयोग रहता है। अतः इस प्रक्रिया में वस्तुबोध के साथ कल्पना का समन्वय हो जाता है।
इस प्रकार सौन्दर्य-दृष्टि में वस्तुबोध तथा कल्पना दोनों आवश्यकता होती है। इसके पश्चात् अभिव्यक्ति की बारी आती है। व्यक्ति के शारीरिक विकास के अतिरिक्त उसके मानसिक विकास का अनुमान उसकी अभिव्यंजना पद्धति से ही लगाया जाता है। अतः शिक्षा के द्वारा शब्द-रचना, ध्वनि रचना, शारीरिक क्रियाओं, चित्र तथा मूर्ति की रचना आदि की पद्धतियों का संस्कार किया जाता है। इसके पश्चात् ही कोई व्यक्ति अच्छा वक्ता, अच्छा संगीतज्ञ, कवि, मूर्तिकार अथवा चित्रकार बन सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रक्रिया में विचार, तर्क, स्मृति, संवेदन, प्रज्ञा आदि सबका समावेश रहता है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य अच्छे वक्ता, चित्रकार-मूर्तिकार आदि का निर्माण करना है । इस प्रक्रिया में कला स्वयमेव आ जाती है। वस्तुबोध, कल्पना तथा अभिव्यक्ति से पूर्व कला के स्वरूप का भी विचार कर लेना आवश्यक है, जिससे कि शिक्षा में कला के स्थान और महत्व का ठीक-ठीक प्रतिपादन हो सके।
सौन्दर्यबोध के अभाव में मनुष्य केवल रसानुभूति से वंचित रह जाता हो ऐसा नहीं, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उसकी क्षति होती है। सौन्दर्यबोध के अभाव में जो लोग घर के आंगन और कमरों में दुनिया भर का कूड़ा जमा करके रखते हैं, अपने शरीर एवं वस्त्रों की गन्दगी साफ नहीं करते, घर की दीवार पर, रास्ते में, रेल के डिब्बों में पान की पीक थूकते चलते हैं, वे केवल अपने स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाते हैं। जिस प्रकार उनके द्वारा समाज के शरीर में बहुत-से रोगों के कीटाणु संक्रमित होते हैं, उसी प्रकार उनके कुत्सित आचरण का कु-आदर्श भी जन साधारण में फैल जाता है।
भारत में कला, धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता का जीता-जागता उदाहरण है। उसमें देश के हर भाग के लोक और शास्त्रीय गायन, नृत्य, संगीत, पुतले बनाना, मिट्टी का काम आदि शामिल हैं। इनमें से किसी भी कला का अध्ययन हमारे युवा विद्यार्थियों के ज्ञान को न केवल समृद्ध करेगा, बल्कि वह स्कूल के बाहर भी जीवन भर उनके काम आएगा।
दृश्य और प्रदर्शन दोनों ही कलाओं को पाठ्यचर्या में शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाए जाने की ज़रूरत है। बच्चे इन क्षेत्रों में केवल मनोरंजन के लिए ही कौशल हासिल न करें बल्कि और भी दक्षताएँ विकसित करें। कला की पाठ्यचर्या के द्वारा विद्यार्थियों का देश की विविध कलात्मक परंपराओं से परिचय करवाना चाहिए। कला शिक्षा आवश्यक रूप से एक उपकरण और विषय के रूप में शिक्षा का हिस्सा (कक्षा 10 तक) हो और हर स्कूल में इससे संबंधित सुविधाएँ हों। कला के अंतर्गत संगीत, नृत्य, दृश्य- कला और नाटक चारों को शामिल किया जाना चाहिए। कला के महत्व के संबंध में अभिभावकों, स्कूल अधिकारियों और प्रशासकों को अवगत कराए जाने की ज़रूरत है। कला शिक्षण में जोर सीखने पर हो न कि सिखाने पर और इसमें दृष्टि सहभागिता पर आधारित हो ।
स्कूल के सभी सालों के दौरान हर स्तर पर, कला के विविध माध्यम और स्वरूप बच्चों को खेल-खेल में तथा विषयबद्ध रूप में विकसित होने में मदद करते हैं, उन्हें अभिव्यक्ति के कई रास्ते सिखाते हैं। संगीत, नृत्य और नाटक विद्यार्थियों के आत्मबोध उनके ज्ञानात्मक और सामाजिक विकास में सहायक होते हैं। पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक स्तरों पर ये सभी कलाएँ बेहद महत्त्वपूर्ण हैं।
माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तरों पर स्कूलों की कला पाठ्यचर्या में विद्यार्थी को अपनीरुचि की किसी कला में विशेषज्ञता लेने दी जाए। कला की तालीम लेते और उसका अभ्यास करते विद्यार्थी इस उम्र तक कला व सौंदर्यबोध के संबंध में कुछ सैद्धांतिक ज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं, जो ज्ञान के इस क्षेत्र के महत्त्व को गहराई से समझने में मदद करेगा। लोकप्रिय कला चर्चा, विभिन्न प्रकार की कला-परंपराओं व रचनात्मकता की विधाओं से उनको अलग-अलग रुचियों-परंपराओं की जानकारी भी मिल सकेगी। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि पाठ्यचर्या में उच्च या निम्न कला का उल्लेख न हो, उसमें शास्त्रीय और लोक कला का भेद न हो। इससे वे विद्यार्थी भी तैयार हो सकेंगे जो बारहवीं के लिए कला का विशेष अध्ययन करना चाहते हैं या आगे कला को ही अपना व्यवसाय बनाना चाहते हैं।
कला शिक्षा पर शिक्षकों को अधिक संसाधनात्मक सामग्री दी जाए। शिक्षक-प्रशिक्षण और अभिमुखीकरण में ऐसे महत्वपूर्ण अवयव होने चाहिए ताकि शिक्षक दक्षता से और रचनात्मक ढंग से कला का शिक्षण कर सकें। साथ ही, बाल भवनों, जिन्होंने शहरों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, को जिला और सभी खण्ड के स्तरों पर स्थापित किया जाए। इससे कला और शिल्प संबंधी ज्ञान और अनुभव का अतिरिक्त विकास हो सकेगा और बच्चों को अवसर मिलेगा कि वे किसी कला को प्रत्यक्ष रूप से सीख सकें ।
चित्र-2, मोहनलाल जाट |
इनके निराकरण के लिए क्या किया जाए, इस पर विचार किया जाए। कला शिक्षा की पहली मांग है कि प्रकृति को एवं अच्छी कलात्मक वस्तुओं को श्रद्धा सहित देखा जाए, उनके निकट रहा जाए और जिन व्यक्तियों का सौन्दर्यबोध जागृत है, उनसे उस सम्बन्ध में चर्चा करके कलाकृति के सौन्दर्य को समझा जाए। विश्वविद्यालयों का यह कर्तव्य है कि अन्य विषयों के साथ-साथ वे कला विषय को भी पाठ्यक्रम में रखें, परीक्षा की दृष्टि से कला को अनिवार्य विषय मानें और विद्यार्थी प्रकृति के निकट सम्पर्क में आ सकें, इसकी व्यवस्था करें। अंकन-पद्धति की शिक्षा से विद्यार्थियों की अवलोकन शक्ति का विकास होगा और इससे साहित्य, दर्शन, विज्ञान इत्यादि विषयों के क्षेत्र में भी उन्हें सही दृष्टि प्राप्त होगी। विश्वविद्यालयों की परीक्षा पास करने से ही कोई बड़ा कवि नहीं बन जाता। उसी तरह विश्वविद्यालय में कला की शिक्षा प्राप्त करके ही हर लड़का/लड़की अच्छा कलाकार नहीं बन सकेगा। ऐसी आशा करना भूल होगी।
जहाँ तक हमें पता है, हमारे देश में एकमात्र रवीन्द्रनाथ ने शिक्षा के क्षेत्र में कला-साधना को उपयुक्त स्थान दिया था। विश्वविद्यालयों में प्रचलित वर्तमान शिक्षा पद्धति के फलस्वरूप उन्हें भी कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ा था। विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में कला का प्रशिक्षण शामिल न होने के कारण अभिभावकगण इसे सर्वथा अप्रयोजनीय मानते हैं। फलस्वरूप, जिन बच्चों में बचपन में बहुत-सी कलाओं के प्रति अनुराग दिखाई पड़ता है, वे भी प्रवेशिका परीक्षा के साल के दो साल पहले से कला की अप्रयोजनीयता के प्रति सजग हो उठते हैं और उनका कला प्रेम इस समय से कम होते-होते अन्त में एकदम समाप्त हो जाता है। समय आ गया है, इस ओर हमारे सर्वविद्या एवं ज्ञान-चर्चा के केन्द्र विश्वविद्यालय विशेष ध्यान दें। सीधी-सी बात है, कला के सम्बन्ध में शिक्षित समाज एवं विश्वविद्यालय की उदासीनता कम होने से ही कला चर्चा का प्रसार होगा और उसके फलस्वरूप देशवासियों का सौन्दर्यबोध तथा उनकी पर्यवेक्षण शक्ति बढ़ेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं।
“नई शिक्षा नीति 2020 में ईसीसीई में मुख्य रूप से लचीली, बहुआयामी, बहु-स्तरीय, खेल-आधारित, गतिविधि-आधारित, और खोज-आधारित शिक्षा को शामिल किया गया है। जैसे अक्षर, भाषा, संख्या, गिनती, रंग, आकार, इंडोर एवं आउटडोर खेल, पहेलियाँ और तार्किक सोच, समस्या सुलझाने की कला, चित्रकला, पेंटिंग, अन्य दृश्य कला, शिल्प, नाटक, कठपुतली, संगीत तथा अन्य गतिविधियों को शामिल करते हुए इसके साथ अन्य कार्य जैसे सामाजिक कार्य, मानवीय संवेदना, अच्छे व्यवहार, शिष्टाचार, नैतिकता, व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वच्छता, समूह में कार्य करना और आपसी सहयोग को विकसित करने पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। ईसीसीई का समग्र उद्देश्य बच्चों का शारीरिक-भौतिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, समाज-संवेगात्मक-नैतिक विकास, सांस्कृतिक विकास, संवाद के लिए प्रारंभिक भाषा, साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान के विकास में अधिकतम परिणामों को प्राप्त करना है।“(2)
कला-समन्वय (आर्ट-इंटीग्रेशन) एक क्रॉस-करिकुलर शैक्षणिक दृष्टिकोण है जिसमें विविध-विषयों की अवधारणाओं के अधिगम आधार के रूप में कला और संस्कृति के विभिन्न अवयवों का उपयोग किया जाता है। अनुभव आधारित अधिगम पर विशेष बल दिए जाने के अंतर्गत कला-समन्वित शिक्षण को कक्षा प्रक्रियाओं में स्थान दिया जायेगा। जिससे न सिर्फ कक्षा ज्यादा आनंदपूर्ण बनेगी बल्कि भारतीय कला और संस्कृति के शिक्षण में समावेश से भारतीयता से भी बच्चों का परिचय हो पायेगा। इस एप्रोच से शिक्षा और संस्कृति के परस्पर संबंधों को भी मजबूती मिलेगी।
विद्यार्थियों को विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय में अध्ययन करने के लिए अधिक लचीलापन और विषयों के चुनाव के विकल्प दिए जाएंगे- इनमें शारीरिक शिक्षा, कला और शिल्प तथा व्यावसायिक विषय भी शामिल होंगे- ताकि विद्यार्थी अध्ययन और जीवन की योजना के अपने रास्ते तैयार करने के लिए स्वतंत्र हो सकें। साल दर साल समग्र विकास और विषयों और पाठ्यक्रमों के विस्तृत चुनाव विकल्पों का होना माध्यमिक विद्यालय शिक्षा की नई विशिष्ट विशेषता होगी। पाठ्यक्रम, अतिरिक्त-पाठ्यक्रम या सह- पाठ्यक्रम, कला, मानविकी और विज्ञान, अथवा व्यावसायिक या अकादमिक धारा जैसी कोई श्रेणियां नहीं होंगी। विज्ञान, मानविकी और गणित के अलावा भौतिक शिक्षा, कला और शिल्प, और व्यावसायिक कौशल जैसे विषयों को, यह विचार करते हुए कि उम्र के प्रत्येक पड़ाव पर विद्यार्थियों के लिए क्या रुचिपूर्ण और सुरक्षित है और क्या नहीं, स्कूल के पूरे पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
विश्वविद्यालयी स्तर पर भी शिक्षा में कला का बहुत महत्व है। अभी तक हम इसे उचित स्थान नहीं दे पाये हैं। हमारी सामाजिक संस्कृति की पूर्णता कला की शिक्षा के अभाव में कमी नहीं हो सकती। अतः साहित्य, राजनीति एवं विज्ञान के इतिहास की भाँति कला के इतिहास को भी विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में उचित स्थान देना आवश्यक है। एक समय था जब एक ज्ञानवान् सज्जन का निर्माण ही विश्वविद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य था, पर आज की परिस्थितियां बदल गयी हैं। आज के समाज को केवल सज्जनों की ही आवश्यकता नहीं है। जीवन की दैनिक ज्वलन्त समस्याओं से आज के नवयुवकों को जूझना है। राजनीतक प्रतिद्वन्द्विता, दुर्बल राजशक्ति, आर्थिक अनिश्चितता और अनैतिक आचरण का आज चारों ओर प्रभाव दिखायी दे रहा है। अतः आज ज्ञान को केवल ज्ञान के लिये ही प्राप्त करने वाले विद्वानों से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती पर किसी एक व्यवसाय में दीक्षित होकर निकलने वाले युवक का व्यक्तित्व पूर्णतः एकांगी ही रहता है उसकी अन्य वृत्तियों तथा इच्छाएँ कुंठित हो जाती हैं। कला की शिक्षा से इस विसंगति को समाप्त किया जा सकता विश्वविद्यालयी कला - शिक्षा का अर्थ अन्य विषयों की भाँति एक ओर पृथक विषय का आरम्भ नहीं है। इससे सामाजिक संघटन की वास्तविक आवश्यकता पूर्ण नहीं होती। कला की शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिससे कि हम किसी देश की सामाजिक राजनीतिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को पहचान सकें। उसके नैतिक स्वरूप का साक्षात्कार कर सकें। इस प्रकार कला की शिक्षा किसी देशकी संस्कृति की कुंजी है। इसमें एक आध्यात्मिक अनुभव है। संगीत तथा कविता की अपेक्षा चित्रकला इसका अधिक स्पष्ट और मूर्त साधन है। इसमें रूप के अभाव में भाव की कल्पना ही नहीं हो सकती।
निष्कर्ष : चित्रकला में संस्कृति बहुत अधिक सुसंगत रूपों में प्रतिबिम्बित होती है। इस प्रकार की कला-शिक्षा कला इतिहास तथा कला-सिद्धान्तों पर आधारित रहती है। कला के इतिहास के अध्ययन से हम किसी देश की कला के विकास का चरण बद्ध ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसी से उस देशकी संस्कृति के विविध पक्षों की झांकी भी मिलती है। लोगों की जीवनपद्धति, दृष्टिकोण, पारस्परिक आदान-प्रदान, सामग्री के उपयोग आदि के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। यह कला का विश्लेषण मात्र नहीं बल्कि जीवन्त कलास्वादन है, जो हमें पूर्वजों से लेकर वर्तमान तक की हमारी परम्पराओं और उपलब्धियों से जोड़ता है। आज की कला हमारी वर्तमान सामाजिक चेतना से सम्बद्ध है अतः हमें उसे भी पूरी तरह समझना चाहिये। यह केवल विश्लेषण से नहीं बल्कि उसके सहानुभूतिपूर्ण एवं सहज अनुभव से ही सम्भव है। आज की विश्वविद्यालयी कला- शिक्षा की स्वरूप ऐसा ही होना चाहिये जिससे कि उसका आस्वादन करने वाले विद्यार्थी समाज में फैल कर दूसरों को भी उसका उसी प्रकार आस्वादन करा सकें और आज की सामाजिक चेतना के स्वरूप को लोगों के सम्मुख भली-भांति स्पष्ट कर सकें।
सन्दर्भ :
1. देवी प्रसाद, शिक्षा का वाहन कला, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1999, पृष्ठ न.3,5
2. राष्ट्र्रीय शिक्षा नीति-2020, प्रारूप, पृष्ठ न. 18
4. हेराल्ड ई. मित्ज़ल ऐनसाइक्लोपीडिया आफ एजूकेशनल रिसर्च, खण्ड 2, पृष्ठ न.556, 555
5. जेम्स एस. रास ग्राउण्डवर्क आफ एजूकेशनल थ्योरी, पृष्ठ न. 113,200.
6. समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, जून-2001, पेज. न. 13,14
मोहन लाल जाट
सहायक-आचार्य, शिक्षा (ललित कला), विद्या भवन गांधी शिक्षा अध्ययन संस्थान रामगिरि, उदयपुर
dr.mohanvbs@gmail.com, 9460724472
दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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