‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ का फिल्मांतरण और श्याम बेनेगल
- गोकुल क्षीरसागर
‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ धर्मवीर भारती द्वारा लिखित प्रयोगशील हिंदी उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् 1952 में हुआ था। यह एक लघु उपन्यास है, जिसमें उपन्यासकार ने शिल्पगत नये प्रयोग से हिंदी उपन्यासों में विशिष्ट स्थान बना लिया है। इस प्रयोगधर्मी उपन्यास को ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इस शीर्षक से सफल रूप में फिल्मांतरित करने का कार्य फिल्म-निर्देशक श्याम बेनेगल ने किया है। सन् 1993 ई में प्रदर्शित इस फिल्म के फिल्मकार श्याम बेनेगल भारतीय सिनेमा के शीर्षस्थ फिल्म निर्देशक हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को न केवल कला सिनेमा का दर्जा दिया, बल्कि भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाया | आप की ‘सूरज का सातवाँ घोडा’, ‘चरनदास चोर’, ‘भारत एक खोज’, ‘जुनून’ आदि हिंदी फ़िल्में साहित्य का उत्कृष्ट फिल्मांतरण रही हैं| आप को उत्कृष्ट फिल्मकार और आपकी –‘अंकुर’ 1976 (बर्लिन फिल्म फेस्टिवल) , ‘निशांत’1976 (कान फिल्म फेस्टिवल), ‘भूमिका’1978, ‘जुनून’1979, ‘आरोहन’1983, ‘सूरज का सातवाँ घोडा’1993 शिकागो फिल्म फेस्टिवल, ‘कलयुग’1981 मोस्को फिल्म फेस्टिवल आदि - फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया है| साथ ही आप की कतिपय फिल्मों को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तथा फिल्म फेयर पुरस्कारों के द्वारा राष्ट्रीय स्तर भी पर नवाजा गया है| आप ने ‘समानांतर सिनेमा आंदोलन’ के दौर में सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करनेवाली कला फिल्मों के द्वारा न केवल विशुद्ध हिंदी सिनेमा का निर्माण किया, बल्कि अपनी फिल्मों के द्वारा भारतीय सिने-दर्शकों की अभिरुचि का परिष्कार भी किया|
‘सूरज का सातवां घोड़ा' कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से प्रयोगशील उपन्यास रहा है, जिसमें किस्सागोई शैली में वर्णित अलग-अलग सात कहानियाँ हैं। बावजूद इसके प्रस्तुत उपन्यास को फिल्मांतरित करते हुए इस फिल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपनी सिने-भाषा के ज्ञान एवं फिल्मांतरणगत सृजनशीलता का परिचय दिया है। इस फिल्मांतरण के संदर्भ में उन्होने कहा है- "सूरज का सातवाँ घोड़ा' उपन्यास में कहानी तो एक ही है, किंतु उस कहानी के बारे में विभिन्न लोगों के अलग-अलग व्यू-पॉइंट हैं और उपन्यास लिखते समय धर्मवीर भारती इस बारे में बहुत कोन्शीयस थें। अब ऐसे उपन्यास पर फिल्म बनाना, वह भी ऑडियंस को कनफ्यूज किए बिना, आसान काम नहीं था। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा' (उपन्यास) इन अलग-अलग प्रस्पेक्टिवस् के साथ डील करता है।''1 चूँकि साहित्य में लिखे वर्णन को पढ़कर पाठक अपनी कल्पना और जीवनानुभूतियों के आधार पर उस पाठ को समझ लेता है किंतु फिल्म में दर्शकों को वही देखना पड़ता है, जो पर्दे पर दिखाया जा रहा है| बावजूद इसके इन अलग-अलग दृष्टियों को इस फिल्म में एक साथ जोड़कर श्याम बेनेगल ने उपन्यास का सफल फिल्मांतरण किया है। इस उपन्यास को फिल्मांतरित करना चुनौतिपूर्ण कार्य था, किंतु फिल्मकार श्याम बेनेगल इसमें सफल हुए हैं। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा' फिल्म के फिल्मांतरण एवं निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्मकला को निम्न मुद्दों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
फिल्म में प्रयुक्त गीत, नृत्य एवं संगीत :
इस फिल्म में एक ही गीत का प्रयोग किया है। इसके गीतकार वसंत देव थे तथा संगीत निर्देशक थे वनराज भाटिया। इसमें नृत्य की योजना नहीं की है। इसका कारण यह है कि प्रस्तुत फिल्म मूल उपन्यास की तरह ही किस्सागोई शैली में माणिक मुल्ला द्वारा अपने मित्रों को सुनायी कहानियों से संबंधित है। इसलिए फिल्म में दिखायी कहानियों के अनुरुप गीत एवं संगीत की योजना प्रस्तुत फिल्म में हुई है। फिल्म में एक लोकगीत का भी प्रयोग फिल्मकार ने किया है। इस प्रकार इन दोनों गीतों के द्वारा निर्देशक ने कथा को गेयात्मक तथा कलात्मक रूप में आगे बढाने का कार्य किया है। अत: कहा जा सकता है कि इस फिल्म में गीत एवं पार्श्वसंगीत का कलात्मक प्रयोग किया गया है।
कास्ट चयन एवं अभिनय :
श्याम बेनेगल ने अपनी अन्य फिल्मों की तरह ही इस फिल्म में भी लगभग सभी नए कलाकारों को लिया है। इस फिल्म के द्वारा श्याम बेनेगल ने रजत कपुर जैसे कलाकार को फिल्म-इंडस्ट्री में स्थापित किया है। रजत कपुर की यह पहली फिल्म है, किंतु इसके सीधे-सादे व्यक्तित्व एवं कुशल अभिनय के द्वारा उपन्यास के माणिक-मुल्ला इस पात्र को सफल रूप में फिल्मांतरित किया है। फिल्म के अन्य पात्रों में अमरीश पुरी, ललित तिवारी, रिजु बजाज, राजेश्वरी सचदेव, रवि झंकाल, नीना गुप्ता, पल्लवी जोशी आदि पात्र भी कहानी के अनुरुप ही लगते हैं। फिल्म के अमरीश पुरी जैसे एकाध-दूसरे पात्र के अतिरिक्त बाकी सभी कलाकार नए लिए हैं। इसके पीछे की भूमिका को स्पष्ट करते हुए श्याम बेनेगल ने कहा है- "फिल्म में सामान्यत: सफल कलाकार स्टार बन जाता है और वह जैसे ही स्टार बन जाता है, तो उसे स्टार इमेज प्राप्त हो जाती है। अब किसी स्टार कलाकार की बनी-बनायी स्टार-इमेज को मोल्ड करना कठिन काम होता है। क्योंकि फिल्म के दर्शक उस अभिनेता को विशिष्ट दृष्टि (Particular Way) से देखने आते हैं। जैसे यदि मैं सलमान खान कहता हूँ, आप समझ जायेंगे कि वह किस प्रकार की फिल्म होगी। इस प्रकार मीडिया क्रियट द स्टार्स अॅण्ड अफ्टर दैट स्टार्स डिटरमिन द फिल्म।''2 अत: श्याम बेनेगल के मतानुसार यदि ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ फिल्म में माणिक की भूमिका के लिए किसी स्टार कलाकार को लिया होता, तो फिल्म पर बुरा असर पड़ सकता था। इसलिए ‘स्टार-सिस्टम’ को चुनौती देकर निर्देशक ने इस फिल्म में लगभग सभी नए कलाकारों को फिल्म में लिया है। इसके अतिरिक्त राजेश्वरी सचदेव, रजत कपुर, पल्लवी जोशी नीना गुप्ता आदि कलाकारों ने भी उत्कृष्ठ अभिनय के द्वारा फिल्म को सफल बनाने में सहायता प्रदान की है।
सिनेमैटोग्राफी :
‘सूरज का सातवाँ घोड़ा' फिल्म के सिनेमैटोग्राफर पियूष शाह थे। इस सिनेमा में उपन्यास की तरह ही किस्सागोई शैली में कहानियों का प्रतिपादित किया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी कहानियाँ स्वतंत्र होकर भी परस्पर अनुस्यूत हैं। इसलिए एक दूसरे में गूँथी हुई इन समग्र कहानियाँ मिलकर सिनेमा की कथा बनती है। अत: ऐसी संश्लिष्ट कथा-संरचना से युक्त उपन्यास को दर्शकों को भ्रम में डाले बिना फिल्मांतरित करना अत्यंत कठिन कार्य था। किंतु फिल्मांतण के इस कठिन कार्य को आसान बनाने में फिल्म की सिनेमैटोग्राफी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उपन्यास की कथाओं में निहित अलग-अलग दृष्टिकोणों को कैमरे के द्वारा स्पष्ट करने में इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफर पियूष शाह सफल हुए हैं। इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि फिल्म में कैमरे का पॉइंट-ऑफ-व्यू हमेशा बदलता रहता है, किंतु सिनेमैटोग्राफर इस बात का एहसास दर्शकों को होने नहीं देते। परिणामत: फिल्म में एक कथा में से दूसरी कथा जन्म लेती है, एक ही दृश्य पर्दे पर दोबारा उभरता है, किंतु (सिनेमैटोग्राफर द्वारा कैमरे का स्थान और कोण बदलने के कारण ) दर्शक आसानी से इन परिवर्तनों को समझ नहीं पाता और कथानक के साथ बहता जाता है। स्पष्ट है कि ये बातें कुशल छायांकन के कारण ही संभव हो पायी हैं। फिल्म के निम्न दृश्य देखिए, जिनमें एक ही दृश्य को अलग-अलग कैमरा एंगल में चित्रित कर दो परस्पर अनुस्यूत किंतु स्वतंत्र कहानियों को एक बिंदु में जोड़ दिया है-
उपुर्यक्त में से पहले तीन फ्रेम्स (चित्र) एक ही शॉट में से निकाली गयी हैं और अगली तीन फ्रेम्स (चित्र) दूसरे शॉट का हिस्सा हैं। अब इन दोनों शॉटस् को यदि गौर से देखेंगे तो यह पता चलता है कि ये दोनों शॉट्स समान ही हैं, उन दोनों शॉट्स में मात्र कैमरा एंगल बदल दिया है। पहले तीन फ्रेम्स से युक्त बना शॉट फिल्म में पहली कहानी अर्थात ‘नमक की अदायगी’ में दिखाया है, जो पूर्णत: जमूना के पॉइट ऑफ व्यू से चित्रित किया गया है। तो उपर्युक्त में से अंतिम तीन चित्रों से बना दूसरा शॉट फिल्म में तीसरी कहानी में (जिसका शीर्षक माणिक मुल्ला नहीं बताते) दिखाया गया है। अत: इन दोनों शॉट्स के लोकेशन्स, पात्रों के संवाद और समय एक ही रखकर मात्र कैमरा एंगल बदलकर बड़ी कुशलता से फिल्म की पहली और तीसरी कहानी को एक धागे (तन्ना और जमुना के प्रेम प्रसंग) में जोड़ दिया है। इसका परिणाम यह होता है कि दर्शकों को फिल्म दिखाते समय फिल्मकार यह आभास उत्पन्न करते हैं कि संबंधित दोनों कहानियाँ स्वतंत्र तो हैं, किंतु दोनों कहानियों परस्पराश्रित एवं परस्पर पूरक हैं।
अत: कहा जा सकता है कि प्रस्तुत फिल्म में सिनेमैटोग्राफी के कुशल प्रयोग के द्वारा फिल्मकार ने फिल्मांतरण में अपनी योग्यता एवं सृजनशीलता का परिचय दिया है।
दृश्य-योजना (mise-en-scene) :
‘सूरज का सातवाँ घोड़ा' के फिल्मांतरण में फिल्म की दृश्य-योजना पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। ‘mise-en-scene’ यह फ्रेंच शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद दृश्य-योजना हो सकता है| दृश्य-योजना के अंतर्गत लोकेशन, प्रॉपर्टी, सेट, अभिनेताओं की अदाकारी, कोस्ट्युम, मेक-अप, लाइट्स आदि हर बात पर विशेष ध्यान दिया गया है। इस फिल्म का बजट कम होने के कारण उपन्यास में वर्णित इलाहाबाद के आस-पास के परिवेश को छायांकित करने के लिए फिल्मकार ने सेट्स का प्रयोग किया है। वास्तविक लोकेशन्स पर फिल्म का छायांकन न के बराबर हुआ है, फिर भी फिल्म में छायांकित लोकेशन्स तथा सेट्स उपन्यास के वातावरण को उभारने में सहायक सिद्ध हुए हैं। इस फिल्म के कला-निर्देशक नितीश राय ने सेट्स एवं प्रॉपर्टी के प्रयोग द्वारा इस फिल्म की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। फिल्मकार ने फिल्म का आरंभ गुलाम मोहम्मद शेख की पेंटिंग से कर उपन्यास के देश-काल-वातावरण को कलात्मक रूप से फिल्मांतरित किया है। फिल्म का निम्न दृश्य देखिए-
उपर्युक्त में से दृश्य क्र.7 में गुलाम मोहम्मद शेख की चित्र प्रदर्शनी में एक पेंटिंग को गौर से देख रहा श्याम (रघुवीर यादव जिसने फिल्म में उपन्यासकार की भूमिका निभायी है) दिखायी दे रहा है। फिल्म निर्देशक ने इस दृश्य के द्वारा फिल्म का आरंभ कर कहानी के देश-काल-वातावरण को अगले दो दृश्यों में सुपरिम्पोज के माध्यम से दृश्यात्मक रूप में उद्घाटित किया है | फिल्म निर्देशक ने सेट और प्रॉपर्टी के प्रयोग में उपन्यास में निहित वातावरण को ध्यान में रखा है। क्योंकि फिल्म के सेट और प्रॉपर्टी में संयोजित हर चीज अपना विशेष महत्व रखती है। फिल्म के निम्नलिखित दृश्य देखिए-
उपर्युक्त में से दृश्य क्र.10 में बायी ओर से प्रकाश, ओंकार, श्याम और माणिक मुल्ला दिखाई दे रहे हैं। माणिक के मित्र माणिक के घर में कहानियाँ सुनने के लिए आये हैं। इस सेट में निर्देशक ने प्रॉपर्टी एवं कॉस्टूम दोनों बातों का विशेष खयाल रखा है। इस दृश्य में खरबूजा खा रहे मित्र, माणिक के बाये हाथ में बेंट का चाकू, ओमकार के पीछे दीवार पर लटक रही ‘खाओ बदन बनाओं' लिखी फ्रेम, माणिक के पीछे खिड़की पर लटक रही घोड़े की नाल आदि प्रत्येक चीज अपना विशेष महत्व रखती हैं। इन सभी चीजों का आगे की कहानियों में किसी न किसी रूप में (उपन्यास की तरह ही) जिक्र हुआ है। साथ ही बनियान और पाजामें में कुर्सी पर स्वस्थ स्थिति में बैठा माणिक उसके घर के वातावरण को अधिक स्वाभाविक बना रहा है। दृश्य क्र.11 में हाथ में घोडे की नाल लेकर अपने (पति की ओर) घर में प्रवेश कर रही जमुना दिख रही है। जमुना को कैमरा घर के सामने स्थित सफेद शिल्प की ओर से दिखा रहा है। अत: इसके द्वारा जमुना की संतान-प्राप्ति की एषणा और प्रतिपूर्ति की ओर संकेत किया है। साथ ही घर की दीवार पर टँगे चित्र, छत में लटक रहा फानूस, पौधे आदि प्रॉप्स जमुना के (पति के घर के) ऐश्वर्य को प्रकाशित कर रहा है। दृश्य क्र.12 में माणिक और सत्ती दिख रही है। माणिक के हाथ में दिख रहा पेन तथा उसके बगल में रखी किताबें माणिक की छात्रावस्था को स्पष्ट कर रही हैं। साथ ही चूल्हे पर रखी कढ़ाई में उबल रहे साबुन के पानी को जोर-जोर से हिला रही सत्ती भी दिख रही है। कढ़ाई में उबल रहा साबुन का पानी सत्ती के उद्वेलित मन को स्पष्ट कर रहा है। इस प्रकार प्रस्ततु फिल्म में सेट और प्रॉपर्टी का कलात्मक प्रयोग किया गया है।
फिल्म में कॉस्टूम की जिम्मेदारी पिया बेनेगल ने निभायी थी। इस फिल्म में निम्न-मध्यवर्गीय पात्रों का चित्रण किया गया है, इसलिए पात्रों की वेशभूषा साधारण रखी है। फिल्म में महेसर दलाल को उसके व्यक्तित्व के अनुरूप मँहगे वस्त्रों का प्रयोग किया गया है और बाकी के लगभग सभी पात्र निम्नमयवर्गीय पात्रों के अनुरुप साधारण-सी वेशभूषा में चित्रित किए हैं। किंतु इसमें भी फिल्मकार ने अपनी कलात्मक सोच का परिचय दिया है। साथ ही फिल्म में पात्रों की अदाकारी के द्वारा भी भावों को अभिव्यक्त करने में फिल्मकार सफल हुए हैं। सिनेमा का चरित्र महेसर दलाल की अदाकारी का चित्रण करनेवाले निम्न दृश्य दृष्टव्य हैं-
उपर्युक्त तीनों दृश्यों में रंगीनमिजाज एवं लम्पट महेसर दलाल की भूमिका में अमरीश पुरी की आत्ममुग्ध मुद्राएँ उसके चरित्र को स्पष्ट कर रही हैं। इस प्रकार सिनेमा के निर्देशक ने अदाकारी के साथ-साथ सेट, प्रॉप्स, प्रकाश-योजना, वेशभूषा, केशभूषा आदि के द्वारा अपनी फिल्म-कला का परिचय दिया है|
प्रकाश एवं ध्वनि :
सूरज का सातवाँ घोडा फिल्म में प्रकाश एवं ध्वनि के कुशल प्रयोग के कारण इस फिल्म को यथार्थवादी रूप प्राप्त हुआ है। फिल्मकार ने लाइट्स का प्रयोग यथावश्यक और कलात्मक पद्धति से किया है। परिणामत: प्रस्तुत फिल्म में निम्न-मध्यवर्गीय जीवन को यथार्थवादी शैली में चित्रित करने में फिल्मकार को सफलता मिली है। उपन्यास में वर्णित चंद्र-ग्रहण के प्रसंग को फिल्मांतरित करने के लिए लाइटस के द्वारा निम्नलिखित रुप में प्रभाव उत्पन्न किया है-
`उपर्युक्त तीनों दृश्यों में चंद्रग्रहण की क्रिया को दृश्यात्मक रूप में दिखाया है। अत: बिना किसी संवाद के और कुछ पल में ही उपर्युक्त दृश्य के चित्रण द्वारा चंद्रग्रहण को दिखाने हेतु फिल्मकार ने प्रकाश का कलात्मक प्रयोग किया है।
फिल्म में कुछ दृश्यों में पात्रों की मन:स्थिति और वातावरण के चित्रण के लिए भी प्रकाश एवं अंधेरे का प्रयोग किया है। फिल्म के निम्न दृश्य देखिए-
उपर्युक्त में से दृश्य क्र.19 में तन्ना की कथा का दु:खान्त दिखाया है। जिसमें अस्पताल में मरा पड़ा तन्ना, तन्ना की मृत्यु पर विलाप कर रही जमुना और जमुना का सांत्वना दे रही तन्ना की पत्नी लिली दिख रही है। फिल्म में इस पहले दृश्य के बाद तुरंत दूसरा दृश्य पर्दे पर उभरता है, जिसमें तन्ना की कथा का दुखद अंत होने पर माणिक के कमरे में बैठे माणिक और उसके मित्रों की नि:स्तब्धता को दिखाया है। दृश्य क्र.20 में तन्ना के अंत का गहरा प्रभाव सभी पात्रों के चेहरे पर दिख रहा है। साथ ही पूरा कमरा बोझिल और घुटन-भरे वातावरण से भरा पडा दिख रहा है, इसका कारण इस दृश्य में प्रयुक्त विशिष्ट प्रकाश-योजना है। दृश्य क्र.21 में एक-एक कर माणिक के मित्र उठकर चले गए हैं और अब अकेला तन्ना अपनी जगह पर पूर्ववत बैठा है। इसमें खिड़की से दिख रहा बिजलियों के चमकने का प्रकाश और बादलों के गड़गड़ाहट की ध्वनि घुटन के माहौल को और भी सघन बना देती है। इस प्रकार फिल्मकार ने फिल्म में प्रकाश का कलात्मक प्रयोग किया है।
प्रकाश के साथ ही फिल्म में ध्वनि-योजना पर भी अधिक परिश्रम लिया है। इस फिल्म में रात में झिंगुर, कुत्ते के भौंकने की आवाज, बारात के दृश्य में बैंड-दल की आवाज, ट्रैन की आवाज, लिली और माणिक के प्रेम-प्रसंग में कोयल, मयुर की आवाजें आदि का वास्तवदर्शी प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त पार्श्वसंगीत का भी सफल प्रयोग इसमें हुआ है। फिल्म में भावना प्रधान दृश्यों में सितार, वायलीन से युक्त पार्श्वसंगीत कलात्मकता के साथ प्रयुक्त किया गया है।
संपादन :
प्रस्तुत फिल्म में मूल उपन्यास की तरह ही लोक कथात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसलिए परस्पर पूरक एवं परस्पर अनुस्यूत कहानियों को दर्शकों को भ्रमित किये बिना फिल्म में दिखाना कठिन कार्य था। यह कार्य पियूष शाह के कैमरा मूवमेंट्स और भानुदास दिवेकर के कुशल संपादन की सहायता से फिल्मकार ने सफल रुप में पूरा कर दिखाया है। फिल्म में संपादन की विभिन्न पद्धितियों के प्रयोग द्वारा फिल्मकार ने कुल पाँच प्रेम कहानियों को एक-दूसरे में गूँथते हुए प्रस्तुत किया है। फिल्म के निम्नलिखित दृश्य देखिए-
उपर्युक्त में से पहले दृश्य में किसी को अलविदा कर रहा तन्ना दिख रहा है, दूसरे दृश्य में तेज गति से चली आ रही ट्रेन और तीसरे दृश्य में अपने बच्चे को गोद में लिए चिल्ला रही जमुना दिख रही है। वैसे इन तीनों दृश्यों का पारस्परिक किसी प्रकार का आपसी मेल या संगति नहीं है। किंतु फिल्मकार ने इन तीनों दृश्यों को फिल्म में एक अनुक्रम में जोड़ देने से विशेष प्रभाव उत्पन्न हुआ है। तीनों दृश्यों को एक क्रम में देखकर दर्शक समझते हैं कि पहले दृश्य में तन्ना अंतिम बार जमुना से विदा ले रहा है। दूसरे दृश्य में तेज रफ्तार से चली आई ट्रेन ने शायद तन्ना को कुचल दिया है, क्योंकि तीसरे दृश्य में दिख रही जमुना तन्ना का नाम लेकर चिल्ला रही है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि फिल्म में संपादन पद्धति का भी कलात्मक प्रयोग किया है।
निष्कर्ष : निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि फिल्म-निर्देशक श्याम बेनेगल ने ‘सूरज का सातवाँ घोडा’ के फिल्मांतरण में अपनी सशक्त फिल्मकला का परिचय दिया है। फिल्म में प्रयुक्त लोकगीत, सांस्कृतिक संदर्भ, एवं पात्रों का उच्चारण लहजा आदि के द्वारा उपन्यास के वातावरण को कुशलता के साथ फिल्मांतरित किया है। साथ ही सिनेमैटोग्राफी के द्वारा निर्माण किए गए विभिन्न प्रभाव तथा उन दृश्यों को परम्परागत संपादन पद्धति से अलग रूप में जोड़कर फिल्मकार ने उपन्यास की कथा-शैली को सिनेमैटिक अंदाज में फिल्मांतरित किया है। उपन्यास की हर बारीकियों को सिनेमैटिक उपादानों के द्वारा सरल, वास्तवदर्शी एवं प्रभावी शैली में फिल्मांतरित करते हुए इस फिल्म में श्याम बेनेगल ने साहित्य के फिल्मांतरण के सफल माणदण्ड स्थापित किए हैं। अकिरा कुरोसावा की ‘राशोमन' की याद दिलानेवाली यह फिल्म फिल्मांतरण के भारतीय माणदण्डों को स्पष्ट करती है। इसलिए सही मायने में ‘सूरज का सातवाँ घोडा' फिल्म हिंदी साहित्य के फिल्मांतरण के इतिहास में मिल का पत्थर कही जा सकती है।
संदर्भ :
2. वही
3. दृश्य 1 से 24 फिल्म ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ से उद्धृत
गोकुल क्षीरसागर
सहयोगी आचार्य एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंसकॉलेज,शेवगांव, जिला-अहिल्यानगर, महाराष्ट्र, पिन क्र. 414502.
ggkshirsagar@gmail.com, 9881351338
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