कुछ कविताएँ
- गीता प्रजापति
[ 1 ]
मेरी नींद में पकती है जो भाषा
उसमें अवधी की खुशबू है
जीवन राग बनी ये भाषा
मेरी दिनचर्या में मुस्कुराती है
कहीं भी सफ़र करते हुए
मैं अपनी भाषा को टटोलती हूँ
कि कोई मुझे पुकारे
मेरी ही जैसी भाषा में
और अजनबियत की दीवार ढह जाए।
मैं जब भी उतरती हूँ
खेतों और अमराइयों के बीच
फसल के अँखुए, पेड़ों की फुनगियाँ
कभी रसिया,कभी हिंडोला
कभी रोपनी तो कभी चैती में झूमती हैं
रसायनों की दुर्गंध और समय की मार में भी
वे गीत गाना नहीं छोड़तीं।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ
नानी और मां की देह में
अवधी का नमक कितना संतुलित है
जब वे गाती हैं
सावन गरजे,भादौ बरसे, पवन चले पुरवइया
और राम बिनु सूनी अजोधिया
तो मौसम की खनखनाहट
और अयोध्या का सूनापन
उनकी आँखों में साफ़ तैर उठता है
असल में उन्होंने मेरे भीतर
अवधी का स्वाद डाला
जबकि मैं हिंदी का नमक खाती हूँ
और मुझे याद नहीं कि कब मैंने
अपनी भाषा में लोकगीतों को गाया है।
[ 2 ]
पहाड़ तुम चुक रहे हो
तुम्हारे शरीर पर ये अनगिनत घाव
तुम पर क्रूरतम शासन की गवाही है
औषधियाँ जो तुम्हारे घावों के लिए बनी थीं
वे हमारे स्वार्थ के दामन में पड़ी हाँफ रही हैं
दामन इतना निरंकुश
कि उसने तुम्हारी सारी खिलखिलाहटों को मार दिया
अब बंजर मौन पड़े रहते हो
ऊपर से ये नासूर
तुम्हें अंदर तक भेद रहा है
तुम्हारी स्थिरता इतनी मजबूत
कि मैं तुम्हारे रास्ते में भड़भड़ाकर गिर जाती हूँ।
[ 3 ]
तुम्हारे साथ यात्रा करते हुए
खुद को बहुत धनी पाया
मेरा हाथ अपने हाथ में थामते हुए
तुमने ऊबड़खाबड़ घाटियों को
बिना डरे पार कराया
जिस समतल जमीं पर
मैं चलते हुए डगमगा जाती हूँ
वहीं बड़े-बड़े पत्थरों पर
तुम्हारा हाथ पकड़ दौड़ती रही
खेलती रही नदी की धाराओं से
पहुंचती रही फूलों के गंध तक
छूती रही देवदार की ऊंचाइयों को
जाती रही झरनों के उद्गम तक
तुम्हारे हाथों के पंख पहन
हिमाचल के पहाड़ों पर इतराती रही।
गीता प्रजापति
सहायक प्राध्यापिका, कुं.आर.सी.महिला महाविद्यालय,मैनपुरी, उत्तर प्रदेश
geetabhiti@gmail.com, 7704869780
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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