नदी के नाम लम्बी चिट्ठी
प्रिय गंडक,
तुम्हारी धाराओं के संग बीता मेरा बचपन आज भी मेरी स्मृतियों में बहता है। मेरे नन्हे नंगे पांवों के उँगलियों में धँसती थी जो तेरी रेत वह अब भी गुदगुदी कर जाती है… और सीपियों की वो आकस्मिक चुभन एक टीस सी गड़ती हैं। तुम्हारे किनारे की भीगी मिट्टी, मछुआरों की टोलियाँ, किनारे बसे गाँवों की चहल-पहल—सब कुछ अब भी मेरी यादों में जीवंत है। जब पहली बार तुम्हारे ठंडे जल में पैर डुबोए थे, वह एहसास अब भी ताजा है। तुम्हारे किनारे उगे घने वृक्षों की छाँव में बिताए वे सुनहरे दिन, जब हम तुम्हारी लहरों से अठखेलियाँ किया करते थे, अब भी मन को सुकून देते हैं।
गंडक, तू बहती थी और मैं तुझे ताकता था। मेरे गाँव के ठीक पीछे, जहाँ तेरे किनारे की रेत धूप में तपती थी, वहीं मैंने नंगे पाँव भागते हुए अपना बचपन जिया था। जब माँ कहती, "अब बस कर, नदी में डूब जाएगा!"—तो मैं मुस्कुराकर कहता, "गंडक मुझे अपना बच्चा समझती है, कभी डुबोएगी नहीं!"
मुझे याद है कार्तिक पूर्णिमा का वह स्नान। मैं शायद ११-१२ वर्ष का रहा होऊँगा। और मेरा अनुज मुझसे २ साल छोटा। माँ-पिताजी और दादी नहाने के बाद चलने के लिए तैयार हुए तो हमने ज़िद की कुछ देर और खेलेंगे। मैं रेत के महल बना रहा था, बालू पर लेट कर। पिताजी मान गए। वे लोग आगे बढ़ गए। हम दोनों भाई खेलने में इतने मसरूफ़ हो गए कि वापस जाना याद ही नहीं रहा। फिर हमने देखा दोपहरी की चिलचिलाती धूप में शिकार के लिए निकले भेड़ियों के एक झुण्ड को। वे हमारी ही तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने हमें घेरना शुरू कर दिया। हम डर गए। आस-पास कोई भी नहीं था जिससे मदद माँगते। अब रुकने का अफ़सोस हो रहा था। भेड़िये और करीब आ गये थे। मैं उनके गुर्राने की आवाज़ तेज़ होता महसूस कर सकता था। दूर-दूर तक लकड़ी का एक टुकड़ा भी नहीं था जिसे हम अपनी आत्म-रक्षा के लिए उठा सकें। फिर एक कौवा उड़ता हुआ आया और हमारे ऊपर मंडराने लगा। एक से दो, फिर अनेक कौवों का झुण्ड हमारे ऊपर था। वे गोल-गोल चक्कर लगा रहे थे और अपनी कर्कश आवाज़ से हल्ला मचा रहे थे। हम बुरी तरह सहम कर थर-थर काँप रहे थे। तभी दूर से पापा आते दिखाई दिए। वे दौड़ते और चिल्लाते हुए आ रहे थे। उनके हाथ में एक लाठी थी। भेड़िये भाग गए और हम वापस लौट आए। बाल-स्मृति में मौत को इतने नजदीक से देखना डरवाना था। फिर बड़े-बुजुर्ग कहते हैं मरने के बाद सब को दरिया ही आना है। मैं नहीं मानता। माँ तो कहती है मरने के बाद लोग भगवान के पास जाते हैं। इसे जानने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा। हम दोनों भाइयों के उपनयन संस्कार के कुछ महीने बाद ही दादा जी की मृत्यु हो गयी। मरने के बाद उनका शरीर ठंडा पड़ा बिस्तर पे ही रहा और अगली सुबह मृत्यु-शैया पर लिटाकर उनको तुम्हारे किनारे लाया गया। ठीक उसी जगह जहाँ भेड़ियों ने हमें घेरा था। मृत शरीर के दाह-संस्कार के बाद अस्थियों और राख को तुम्हारी अविरल धारा में प्रवाहित होते देखा तो अनायास ही पूछ बैठा- ऐसे तो हम नदी के जल को दूषित कर रहे हैं। पिताजी मुस्कुराए और मेरे सर पर हाथ फेर दिया। तुम्हरे समीप उनको मृदुल, शोकाकुल, सौम्य देखा जिन्हें हमेशा सख़्त देखा था।
फिर तू भी तो वैसी ही थी - कभी शांत, कभी सख़्त। तेरी धार की सख़्ती, तेरे पानी की मिठास और तेरी लहरों की बेपरवाही—सब कुछ मेरे भीतर बस गई थीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता, जैसे तू सिर्फ़ मेरे लिए बहती थी, मेरे खेलों की साथी थी। तेरा पानी मेरे धूल भरे पैरों को धोता और मैं समझता कि तू मुझे दुलार रही है। वो छोटी सी डोंगी, जो मेरे मछुआरे मित्र के पिता ने बनायी थी, उसे लेकर मैं और मेरे दोस्त तुझमें सवार होते और सोचते कि बस, आज समंदर तक पहुँच जाएँगे! लेकिन तू भी न, बड़ी चालाक निकली। जब कभी तेरी लहरें तेज़ होतीं, तो हम डरकर किनारे की ओर भागते। और फिर हँसते, जैसे तूने हमें कोई मज़ाकिया चपत लगा दी हो।
गंडक! ओ मेरी पुरानी सहेली! तू बहती रही, और तेरे किनारे के किसान खड़े-खड़े बूढ़े हो गए। कभी तेरी बाढ़ उन्हें मिट्टी की सौगात दे जाती, तो कभी एक झटके में उनकी पूरी फसल निगल जाती। ये वही किसान हैं, जो लालमी, तरबूज, और खीरे की बेलों से तेरे किनारों को हरा-भरा रखते थे। किसान सोचता है कि इस बार फसल ठीक होगी। मेहनत करता है, अपने हाथों से बीज बोता है, सपनों को पानी देता है, लेकिन फिर एक दिन आता है जब या तो बेमौसम बारिश उसके खेतों को डुबो देती है या सूरज आग बरसा देता है। तेरे किनारों के खेतों में जब छोटे-छोटे तरबूज उगने लगते हैं तो उसकी आँखों में एक चमक होती है—"इस बार बच्चों की किताबें खरीद लूँगा!" लेकिन जब फसल कटने का वक्त आता है तो बाज़ार के दलाल उसकी मेहनत को गंडक की धारा में बहा देते हैं।
गंडक, तेरा पानी जब धीरे-धीरे उतरता, तो मेरे गाँव के लोग तेरा शुक्रिया अदा करते—"इस साल अच्छी धूसर रंग की मिट्टी छोड़कर गई है, अब फसल बढ़िया होगी!" लेकिन अब? अब तो हाल ऐसा है कि मिट्टी छोड़ने से पहले तू हमारी हड्डियाँ तोड़ने पर तुली रहती है। एक बाढ़ में सब बहा ले जाती है, दूसरी बार पानी देने से इनकार कर देती है। लगता है जैसे तुझमें भी शहरों की बेरुख़ी आ गई हो!
गंडक! अब तो खेती भी जुए जैसी हो गई है। बाढ़ आई तो फसल बर्बाद, सूखा पड़ा तो भी फसल बर्बाद। और अगर मेहनत से कुछ बचा भी लिया, तो दलालों की आँखें उस पर गिद्धों की तरह गड़ी रहती हैं। ये मंडी में बैठे बिचौलिए, जो ना हल चलाते हैं, ना मिट्टी में पैर रखते हैं, वही हमारे खून-पसीने की कीमत लगाते हैं। सरकारी बाबू जब शहर से दौरा करने आते हैं तो हमें समझाते हैं कि “कृषि योजनाएँ हैं, सब्सिडी है, नया बीज है।” लेकिन जब मदद की ज़रूरत होती है तो या तो उनके दफ्तर के दरवाज़े बंद मिलते हैं या उनकी फाइलों में हमारे नाम गायब रहते हैं।
पर तू जानती है गंडक! किसान हार नहीं मानता। अगले साल फिर से अपनी टूटी नौका लेकर तेरा पानी चलाता है, फिर से लालमी के खेतों में तरबूज और खीरे की बेलें फैलाता है। उसकी हथेलियाँ चाहे फटी हों, पीठ चाहे सूरज से झुलस गई हो, पर उम्मीद अब भी उसके मन में हरी-भरी लताओं की तरह फैली रहती है। वो जानता है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब उसके खेतों की फसल सही दाम पाएगी, जब वो अपने बच्चों को पढ़ा पाएगा, जब उसकी मेहनत का मोल सही मायनों में मिलेगा।
गंडक, तू साक्षी रहना—हमारे खेतों की, हमारे संघर्षों की, हमारी उम्मीदों की। तू साक्षी रहना कि जब ये किसान अपनी आखिरी सांस लेगा, तब भी उसके हाथों में मिट्टी होगी, उसके मन में खेती का सपना होगा। और शायद, उसके बच्चे भी इसी लाल मिट्टी को अपनी हथेलियों में उठाकर यही कहेंगे—"अगली फसल अच्छी होगी!" उन्हें बस एक ही विश्वास होगा- कल आज से बेहतर होगा।
''होगा, होगा, हाथ पूरा पीछे खींच। देखना तू, कल आज से बेहतर होगा।'' मेरे मित्र मेरा हौसलाअफजाई करते नहीं थकते और तुम अपनी धार को बेपरवाह तेज़ करने से नहीं थकती। याद है जब मैंने पहली बार तैराकी सीखने का प्रयास किया था? तुम्हारी गहराई और प्रवाह से संघर्ष करते हुए जब पहली बार मैंने जल में खुद को संतुलित किया, तो वह उपलब्धि किसी विजय से कम न थी। मेरी माँ ने कई बार चेताया था कि तुम्हारी धाराएँ तेज़ होती हैं, लेकिन मेरे बालसुलभ उत्साह के आगे यह चेतावनी फीकी पड़ गई। दोस्तों के साथ घंटों अभ्यास करने के बाद, जब पहली बार मैं तुम्हारी सतह पर आत्मविश्वास के साथ तैर सका तो वह गर्व का क्षण था।
बड़े होने पर शहर की ओर पलायन हुआ और तुमसे दूरी को हमने महसूस भी नहीं किया। शायद वो शहरों वाली बेरुखी ने कहीं मुझमें भी घर कर लिया था। रोजी-रोटी ने घर से ही नहीं, अपनी आत्मीय भावनाओं से भी दूर कर दिया था। गंडक के घाट पर छठ महापर्व के मेले में पटाखे फोड़ रहे उस बच्चे को अपने भीतर महसूस करता हूँ कहीं, पर जॉब सिक्योरिटी के चलते इस बार भी तेरे तट पर नहीं आ पाया , प्रिये गंडक! तू गवाह है उस समय की, जब छठ पूजा तुझसे ही शुरू होती थी, जब तेरा किनारा गीतों से गूंजता था, जब औरतें सिर पर दौरी रखकर तुझ तक आती थीं और तेरा पानी उनके संकल्प का साक्षी बनता था। तेरी लहरों में जब साँझ के सूरज की किरणें पड़ती थीं, तो ऐसा लगता था मानो खुद सूर्यदेव तेरी गोद में उतर आए हों। वो ठंडा पानी, वो गीली मिट्टी, वो गूँजता हुआ "काँचहि बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाए"—ये सब मिलकर छठ को सिर्फ़ एक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति की गोद में अर्पण का एहसास बना देते थे। अब शहर की अट्टालिकाओं में, ऊँची बिल्डिंगों की छतों पर प्लास्टिक के कंटेनरों में खड़े होकर लोग सूर्य को अर्घ्य देते हैं। वह पानी, जो कभी तेरे प्रवाह से पवित्र माना जाता था, अब बोतल से निकाला जाता है। जिन हाथों को तेरी मिट्टी छूनी थी, वो अब टाइल्स लगी छतों पर खड़े होकर मोबाइल में सेल्फी ले रहे हैं। छठ, जो धरती और नदी का त्योहार था, अब सीमेंट और प्लास्टिक के बीच घुट रहा है। आज शहर में छत के ऊपर प्लास्टिक के डब्बे में हाथ जोड़े श्रद्धालुओं को देख कर मन बैठ जाता है। मैं जब भी छठ के समय तुझ तक पहुँचता हूँ, तो अब भी वही पुराना दृश्य देखने की कोशिश करता हूँ—क्या कोई अब भी अपने पैरों से तेरा पानी छूता है? क्या कोई बच्चा अब भी अपनी माँ की साड़ी पकड़े तेरा किनारा देखता है? क्या कोई अब भी वहीं खड़े-खड़े गाता है—"उगीं हे सूरज देव, भइल अरग के बेर" या फिर छठ भी अब सिर्फ़ प्लास्टिक का पर्व बनकर रह गया है? संस्कृति की केंद्र रहीं नदियों से दूर हमने आशियाने बना तो लिए पर खुद से भी दूर होते गए कदाचित्। वक़्त मसरूफ़ करता गया; हम महरूम होते गए। पर स्मृतियाँ दिल के किसी कोने में शेष रहती हैं और मौका मिलते ही कौतुहल करती है।
और कौतुहल तो झूम कर हुआ जब आया कोरोना विषाणु का काल। पूरा देश बंद- लॉक डाउन! नौकरी छोड़ हम भी गाँव की ओर रुख़सत हुए और अगले ही दिन आ धमके फिर से तेरे किनारे। अबकी अकेले नहीं थे। तुम तो सब साक्षी हो, सब जानती हो, सब देखा है तुमने - संस्कृतियों को पनपते और टूटते, प्रेमियों को मिलते और बिछड़ते, दोस्तों को लड़ते और हँसते। तो आज तुम भी गवाह बन जाओ मेरे मन में बादल की तरह उमड़ते प्रेम की। फिर वह चांदनी रात, जब मैं अपनी प्रेयसी के साथ तुम्हारे जल में नौका विहार कर रहा था—तब तुम्हारी शांत लहरें हमारे प्रेम की गवाह बनीं। उस रात आसमान में फैले तारों की छाँव में, तुम्हारी मंथर बहती धारा ने हमारी भावनाओं को और भी गहरा बना दिया था। हमारी छोटी-सी नाव तुम्हारी लहरों पर झूलती रही और मैं सोचता रहा कि तुम्हारी गहराई हमारे प्रेम से कहीं अधिक रहस्यमयी है। वह मधुर क्षण आज भी मेरे हृदय में संजोया हुआ है।
तुम सिर्फ एक नदी नहीं हो, हमारे गाँव और हमारी संस्कृति की आत्मा हो। तुम्हारे तट पर हर वर्ष छठ पूजा का भव्य आयोजन होता है, जहाँ दीपों की जगमगाहट और श्रद्धालुओं के गीत तुम्हारे जल में एक अनोखी आभा बिखेरते हैं। तुम्हारे घाटों पर बैठकर बुजुर्ग कहानियाँ सुनाते थे—तुम्हारे इतिहास की, तुम्हारी महिमा की, तुम्हारे साथ जुड़े अतीत के गौरव की। हमारे पूर्वजों ने तुम्हें पूज्य माना, तुम्हारी धारा में आस्था के दीप प्रवाहित किए।
पर अब बहुत कुछ बदल गया है गंडक, कभी तेरे घाटों पर साधु-संत स्नान करते थे, अब पुलिस की नावें पेट्रोलिंग करती हैं। तेरा किनारा, जहाँ कभी किसान तरबूज और खीरा उगाते थे, अब वहाँ केले के ऊँचे बागों के पीछे कुछ और ही पकता है—शराब, अपराध और खून। बिहार में शराब बंद है, लेकिन रात होते ही तेरे सीने पर चलने वाली नावों में महुआ की महक भर जाती है। कोई बोलता नहीं, कोई देखता नहीं, पर हर कोई जानता है—इन नावों में अब मछलियाँ नहीं, नशा उतरता है। सरकारी फरमान आया कि शराब बंद, पर गंडक! तेरा पानी अब सुरा के कनस्तरों से भारी हो गया है। तेरी लहरें जब किनारे से टकराती हैं तो ऐसा लगता है मानो वे खुद कह रही हों—"अब तो मेरा ही नशा उतर गया!"
गंडक, तेरे किनारे लगे विशाल केले के बाग, जो कभी हरे-भरे सपनों की तरह लहराते थे, अब डर की छाँव में झूमते हैं। दिन में किसान, रात में गैंगस्टर। पुलिस इन झाड़ियों में कदम रखने से भी हिचकती है। जो बाग़ कभी फलदार थे, अब खौफनाक हैं। वहाँ से अब केले की गंध कम, बारूद की बू ज़्यादा आती है। कोई जानता नहीं कि कब, कौन गायब हो जाए और फिर अगले दिन उसकी लाश तेरे किनारे पड़ी मिले।
पहले तेरा किनारा माताओं की लोरियों से गूंजता था, अब वहाँ शराब की भट्ठियों की आवाज़ें गूंजती हैं। मिट्टी के नीचे छिपे तहखानों में आग सुलगती रहती है और वहाँ से निकलती है वह ज़हरीली शराब जो न जाने कितने घरों को उजाड़ चुकी है। दिन में पुलिस की गाड़ियाँ सरकती हैं, लेकिन रात में उन्हीं के सायरन खामोश हो जाते हैं। तहखानों में पकने वाला ज़हर जब शहर पहुँचता है तो कोई नहीं पूछता कि ये कहाँ बना, किसके खून-पसीने से तैयार हुआ।
आज जब तुम्हें देखता हूँ, मन भारी हो जाता है। तुम्हारा जल अब पहले जैसा निर्मल नहीं रहा। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की मार ने तुम्हारी स्वच्छता को छीन लिया है। प्लास्टिक, रसायन और कचरे के ढेर ने तुम्हारी पवित्रता को दूषित कर दिया है। मछलियाँ जो कभी तुम्हारे प्रवाह में उछल-कूद किया करती थीं, अब कम होती जा रही हैं। तुम्हारी धाराओं में अब वो गति नहीं, वो उमंग नहीं।
और अब, तुम्हारे तट पर बढ़ते अपराधों और जल-दस्युओं का खतरा भी बढ़ गया है। एक बार तो मैं भी ऐसी स्थिति में फँस गया था जब कुछ संदिग्ध लोगों ने हमारी नाव को घेर लिया था। अंधेरे में हमारी साँसें थमीं रहीं और हम किसी चमत्कार की आशा कर रहे थे। सौभाग्य से गाँव के कुछ मछुआरे वहाँ से गुजरे और हमें बचा लिया। वह भयावह रात अब भी मेरी स्मृतियों में बसी हुई है। तुम्हारे किनारों पर जो सुकून कभी हुआ करता था, वह अब धीरे-धीरे भय में बदल रहा है।
हमें क्षमा करना क्योंकि हमने तुम्हारी अवहेलना की। हमने तुम्हें केवल एक जल स्रोत समझा, तुम्हारे साथ उस आत्मीयता को निभा नहीं पाए, जो हमारे पूर्वजों ने सदियों तक निभाई थी। लेकिन मैं आशावान हूँ कि एक दिन हम तुम्हारी खोई हुई गरिमा को पुनः लौटा सकेंगे। हम तुम्हें पुनः स्वच्छ, निर्मल और प्रवाहमान बनाएँगे।
तुम्हारी गोद में बीता मेरा बचपन सदा मेरे मन में रहेगा। तुम्हारे प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं होगी। तुम यूँ ही बहती रहो, जीवन देती रहो और हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखो।
गंडक! तुझमें अब भी वो जादू बाकी है जिसने बचपन में मेरे नंगे पाँवों को अपनी ठंडी रेत पर दौड़ाया था। शहर का कोलाहल, अपराध की साजिशें, लालच और लाशों की कहानियाँ—सबकुछ सही है, फिर भी मैं तुझसे दूर नहीं जा सका। जब भी मौका मिलता है, मैं अब भी तेरी गोद में लौट आता हूँ, जैसे कोई बूढ़ी माँ के आँचल में सिर रखकर अपने सारे बोझ उतार देना चाहता हो।
सुबह जब सूरज की पहली किरण तेरे जल पर पड़ती है तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने सोने का थाल सजा दिया हो। मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ, लंबी साँस लेता हूँ और वहीं तेरे किनारे पर सूर्य नमस्कार करता हूँ। मेरी पीठ पर पड़ती हल्की धूप और तेरी ठंडी हवा मिलकर मुझे वो पुराना समय लौटा देती हैं, जब मैं बालू पर खेलते-खेलते सूरज की रोशनी को पकड़ने की कोशिश करता था। अब समय बदल गया है, मैं बड़ा हो गया हूँ, पर तू नहीं बदली गंडक! तू अब भी वैसी ही बह रही है, बस तेरे किनारों के चेहरे बदल गए हैं।
अब जब मैं अपने बच्चों के साथ तेरे किनारे आता हूँ, तो वे उसी बालू में किले बनाते हैं, जहाँ मैंने कभी अपने छोटे-छोटे हाथों से मिट्टी के किले बनाए थे। उनकी हँसी गूँजती है और मैं उस हँसी में अपना खोया हुआ बचपन ढूँढता हूँ। वे बार-बार रेत से महल बनाते हैं, और फिर उन्हीं हाथों से गिरा देते हैं—उन्हें क्या पता कि यही तो जिंदगी है! कुछ चीज़ें बनाने में वक्त लगता है, लेकिन गिराने में बस एक लहर ही काफी होती है।
मैं उन्हें देखता हूँ, और सोचता हूँ—गंडक, क्या तूने भी मेरे बचपन की हँसी ऐसे ही सहेजकर रखी थी? क्या तूने भी मेरी मासूमियत को लहरों में समेट लिया था, ताकि जब मैं बड़ा होकर दुनिया की सच्चाइयों से थक जाऊँ तो तेरा किनारा मुझे वे दिन लौटा दे?
गंडक! तू सबकुछ देखती है, जानती है। तूने अपराधियों को रात के अंधेरे में ग़ायब होते देखा है, तूने पुलिस की मोटरबोट्स को दौड़ते देखा है, तूने नावों में शराब की पेटियाँ उतरते देखी हैं, तूने केले के बागानों में उठती बंदूकों की आवाज़ सुनी है। फिर भी जब मैं तेरे किनारे आता हूँ तो तू मुझे वही पुरानी शांति लौटा देती है। तेरी लहरों में अब भी वही थपकियाँ हैं जो बचपन में मेरी माँ देती थी—धीरे से, प्यार से, कहने के लिए कि सब ठीक हो जाएगा।
मैं अब भी जब तुझ तक आता हूँ, तो मेरे पैर खुद-ब-खुद नंगे हो जाते हैं, जैसे वो मिट्टी फिर से महसूस करना चाहते हों। मैं रेत पर चलता हूँ, मेरे पैरों के नीचे की ठंडक सीधे मेरे दिल तक पहुँचती है। बच्चे खेलते रहते हैं और मैं दूर तक तुझे देखता रहता हूँ—ये सोचते हुए कि चाहे कुछ भी हो जाए, गंडक! तू मेरी आत्मा का हिस्सा बनी रहेगी।
हमने अपनों को तुम्हारे किनारे खेलते, लड़ते, बढ़ते, मरते और जलते देखा है। तुमको मौसम के साथ सूक्ष्म और विकराल होते देखा है। किसानों का संघर्ष और मजदूरों का दर्द देखा है। युवकों का हास्य-विनोद और युवतियों की अटखेलियाँ देखी हैं। हे गंडक! मैंने तुझमें खुद को और खुद में तुझे देखा है क्योंकि मेरे लिए तू अब भी वही है—मेरी बचपन की साथी और मेरे जीवन की मौन गवाह ।
तुम्हारें प्रेमी यात्री
आशुतोष कुमार शुक्ल
सहायक प्राध्यापक, एमिटी यूनिवर्सिटी पटना
बादशाह आलम,सहायक प्राध्यापक
एमिटी यूनिवर्सिटी पटना
akumar1@ptn.amity.edu balam@ptn.amity.edu
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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