कविताएँ / दिव्या श्री

कविताएँ 
दिव्या श्री 

कविता-सी स्त्री

वह कविता-सी स्त्री जब 'रस' का पाठ पढ़ातीं
अलंकार उसके चेहरे का नम़कपन लगता
वह सबसे कठिन प्रश्न के सबसे सरल उत्तर रही
उसके पाठ ने प्रश्न करना सिखाया
पढ़ाने की जगह उसने खोजना सिखाने की कोशिश की
वह कविता-सी स्त्री जब शब्दों को सिखाती है बोलना
शब्द खिल उठते फूलों की तरह
जब वह कहती है " ब्ले᠎सड्‌ एंड हम्बल"
मैं सुनती हूँ प्रकृति का मनोहर संगीत
और सीखती हूँ परिभाषा विन्रमता की
उस कविता-सी स्त्री से, कविता की खातिर, खुद की खातिर
उसका होना जीवन में एक सुंदर संग्रह जैसा है
जिसमें हो सकती हैं शामिल कई-कई कविताएँ।

ईश्वर और प्रेम

वह कौन- सा मोड़ था
जब सबसे अधिक प्रिय ने साथ छोड़ा
किसे याद नहीं भला
एकबारगी भूलने को भूला जा सकता है ईश्वर का नाम भी
नहीं भूली जाती प्रेम में बिछड़ने की तिथि

प्रेम-सा दुःख

सुख में फुर्सत से कटता है दिन
रात बाँचने को फिर भी नहीं होती कोई कहानी
दुःख था तो लिखी कविताएँ
प्रेम ने केवल जीवन को ही नहीं, दुःख को भी घिस- घिसकर चमकाया है

दूसरी दुनिया में रहवास है मेरा

वह दिन न जाने किसकी बद्दुआ से भरा था
जब प्रार्थनाओं के शब्द किसी देवता ने नहीं सुने
उसके बहते हुए आँसुओं को किसी एक हथेली ने नहीं पोंछा
अजनबीयत से भरी इस दुनिया में
जब आधी रात को लिख रही हूँ कविता
आत्मा दरक रही है
प्रेम में मरने पर, मैं जो बेहयाई कर रही हूँ
मुझे माफ करें
दूसरा उपाय तीसरी दुनिया है
फिलहाल, दूसरी दुनिया में रहवास है मेरा!

पटना, बिहार में रहने वाली युवा कवयित्री दिव्याश्री की कविताएँ विभिन्न हिंदी पत्रिकाओं और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर प्रकाशित होती रही हैं। दिव्याश्री के पास हैं सुंदर भाव, भाषा और शिल्प। साथ ही उनके पास हैं स्त्रीत्व के नए मायने भी। ‘अपनी माटी’ में उनकी कविताओं के प्रकाशन का पहला अवसर है। उनका पहला काव्य संग्रह "आँखों में मानचित्र" वेरा प्रकाशन से प्रकाशित है। divyasri.sri12@gmail.com8102379981

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी


3 टिप्पणियाँ

  1. दिव्या श्री की कविताओं को पढ़कर कई नई उपमाओं से परिचय हुआ है. कुछ भाव एकदम नए से लगे. लिखने और अनुभव करने का नया ढंग है. बेहद संभावनाशील लेखन. कवितायेँ संख्या में कम हैं ऐसा पढ़ते हुए लगा कुछ और होनी थी. एकाएक सुंदर सपना टूट गया जैसे अंतिम कविता समाप्त हुई. मैंने इन्हीं को तीन बार पढ़ा और अर्थ में गहरे उतर सका. शुक्रिया दिव्या श्री अपनी माटी को अपने लेखन से नवाज़ने के लिए. -माणिक

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  2. कवयित्री दिव्या श्री दुनिया को उधार की आँखों की बजाय अपनी निगाह से देखती हैं। स्त्री दृष्टि से देखने पर वही दुनिया जैसे थोड़ी अलग दिखने लगती है। ज्यादा सदय, ज्यादा कोमल, ज्यादा जीवंत! प्रेम जहाँ दर्द का हमदर्द बनकर साथ खड़ा है। न भूल सकने जोग। ईश्वर से भी ज्यादा स्मरणीय! जो दुख को घिस-घिसकर चमका दे। इन्हीं चमकते दुखों को कविता में जड़ने का बेजोड़ हूनर उन्हें खास मिजाज देता है।

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  3. दिव्या श्री की कविताएं पसंद आईं। इनमें सहजता के साथ अलग टटकापन है। विमर्श के नाम पर लिखी जा रही सतही और बोल्ड कविताओं के लिए इनकी ये कविताएं सबक है। सुंदर कविताएं पढ़वाने के लिए अपनी माटी का आभार।

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